श्लोकसंख्याः -
41-42 42-43 43-44 45 46 47-48 48-49 49-50
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मूलश्लोकः-41-42
प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचनः। विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह।। 41।। सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा।। 41-42।।
श्लोकान्वयः -
राजीवलोचनः रामः महारण्यं प्रविश्य विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं सुतीक्ष्णम्‌ अगस्त्यं तथा च अगस्त्यभ्रातरं ददर्श ह।।41-42।।
हिन्दी-अनुवाद -
लाल कमल जैसे नेत्रों वाले राम ने महारण्य में प्रवेश कर विराधनामक राक्षस को मारकर शरभङ्ग सुतीक्ष्ण, अगस्त्य एवं अगस्त्य के भ्राता को देखा।।41-42।।
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मूलश्लोकः-42-43
अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम्‌।। 42।। खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ।।43।।
श्लोकान्वयः -
परमप्रीतः (रामः) अगस्त्यवचनात्‌ ऐन्द्रं शरासनं खड्गम्‌ अक्षयसायकौ तूणी च जग्राह।।42-43।।
हिन्दी-अनुवाद -
अत्यन्त प्रसन्न श्रीराम ने अगस्त्य की आज्ञा से इन्द्र के द्वारा प्रदान किए गए धनुष को तथा तलवार एवं नाशरहित बाणों के वाहक दो तूणीरों को लिया।।42-43।।
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मूलश्लोकः-43-44
वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरै ः सह।। 43।। ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम्‌। स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तदा वने।।44।।
श्लोकान्वयः -
वनचरैः सह वने वसतः तस्य रामस्य (समीपं) सर्वे ऋषयः असुररक्षसां वधाय अभ्यागमन्‌। सः तेषां (ऋषीणां) राक्षसानां (वधं) प्रतिशुश्राव।।43-44।।
हिन्दी-अनुवाद -
वनचरों के साथ रह रहे श्रीराम के समीप राक्षसों से पीड़ित ऋषिगण राक्षसों के संहार की प्रार्थना हेतु आए। श्रीराम ने राक्षसों के संहार हेतु ऋषियों की प्रार्थना स्वीकार किया।।43-44।।
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मूलश्लोकः-45
प्रतिज्ञातश्च रामेण वधः संयति रक्षसाम्‌। ऋषीणामग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम्‌।। 45।।
श्लोकान्वयः -
रामेण च अग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम्‌ ऋषीणां (सन्निधौ) संयति रक्षसां वधः प्रतिज्ञातः।।45।।
हिन्दी-अनुवाद -
राम ने दण्डकारण्य निवासी, अग्नितुल्य ऋषियों के सामने राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा की।।45।।
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मूलश्लोकः-46
तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी। विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी।। 46।।
श्लोकान्वयः -
तत्र एव वसता तेन जनस्थाननिवासिनी कामरूपिणी राक्षसी शूपणखा विरूपिता।।46।।
हिन्दी-अनुवाद -
दण्डकारण्य की पञ्चवटी में वास करने वाले राम के द्वारा उसी वन में वास करने वाली शूपणखा नामक राक्षसी नासा-कर्ण-छेदनपूवक विरूप की गई।।46।।
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मूलश्लोकः-47-48
ततः शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्‌ सर्वराक्षसान्‌। खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्‌।। 47।। निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान्‌।। 48।।
श्लोकान्वयः -
ततः शूर्पणखावाक्याद् उद्युक्तान्‌ सर्वराक्षसान्‌ (तत्र विशिष्टं) खरं त्रिशिरसं दूषणं च राक्षसं तेषां पदानुगान्‌ च रणे एव रामः निजघान।। 47-48।।
हिन्दी-अनुवाद -
शूर्पणखा को विरूप करने के पश्चात्‌ राम, शूपणखा वर्णित घटनाओं को सुनकर युद्ध करने के लिये उद्यत सभी (चौदह हजार) राक्षसों को विशेष कर खर, दूषण त्रिशिरा और उनके अनुचरों को मार डाला।।47-48।।
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मूलश्लोकः-48-49
वने तस्मिन्निवसता जनस्थाननिवासिनाम्‌।।48।।रक्षसां निहतान्यासन्‌ सहस्राणि चतुर्दश।।49।।
श्लोकान्वयः -
तस्मिन्‌ वने निवसता (रामेण) जनस्थाननिवासिनां रक्षसां चतुदश-सहस्राणि निहतानि आसन्‌।।48-49।।
हिन्दी-अनुवाद -
दण्डकारण्य में रहते हुए राम ने उस वन के चौदह हजार राक्षसों को मारा था।।48-49।।
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मूलश्लोकः-49-50
ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः।।49।। सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम्‌ ।।50।।
श्लोकान्वयः -
ततः ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः (अभवत्‌)। (सः) मारीचं नाम राक्षसं सहायं वरयामास।।49-50।।
हिन्दी-अनुवाद -
स्वजनों की मृत्यु का वृत्तन्त सुनकर रावण क्रोधाकुल हो गया। उसने राम से बदला लेने के लिए मारीच नामक राक्षस से सहायता की प्रार्थना की।।49-50।।
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