श्लोकसंख्याः - | |||||
32-33 | 33-34 | 35-36 | 36-38 | 38-39 | 39-40 |
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मूलश्लोकः-32-33 |
चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तथा।।32।। राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन् सुतम्।। 33।। |
श्लोकान्वयः - |
रामे चित्रकूटं गते पुत्रशोकातुरः राजा दशरथः सुतं विलपन् स्वर्गं जगाम।।32-33।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
राम के चित्रकूट चले जाने पर पुत्रवियोग से व्याकुल राजा दशरथ पुत्र के लिए विलखते हुए स्वर्ग को प्रयाण कर गए।।32-33।। |
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मूलश्लोकः-33-34 |
गते तु तस्मिन् भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्वजैः।।33।। नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबलः। स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः।।34।। |
श्लोकान्वयः - |
तस्मिन् दशरथे गते तु वसिष्ठप्रमुखैः द्विजैः राज्याय नियुज्यमानः महाबलः भरतः राज्यं न ऐच्छत् (किन्तु) रामपादप्रसादकः सः वीरः वनं जगाम।।33-34।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
राजा दशरथ के स्वर्ग चले जाने पर वसिष्ठ प्रधान ब्राह्मणों के द्वारा राजसिंहासन पर नियुक्त किए जाने पर भी महापराक्रमी भरत ने राज्य को नहीं चाहा, (अपि तु) राम को प्रसन्न करने के लिए वन चले गए।।33-34।। |
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मूलश्लोकः-35-36 |
गत्वा तु स महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्। अयाचद् भ्रातरं राममार्यभावपुरस्कृतः।। 35।। त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचोऽब्रवीत्।। 36।। |
श्लोकान्वयः - |
आर्यभावपुरस्कृतः सः (भरतः) गत्वा महात्मानं सत्यपराक्रमं भ्रातरं रामम् अयाचत्। त्वम् एव राजा धर्मज्ञः इति वचः रामम् अब्रवीत्।।35-36।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
उच्च आदर्श गुणों से युक्त भरत ने चित्रकूट जाकर श्री राम से अयोध्या वापस चलने की प्रार्थना की एवं ‘आप ही राजा हैं, धर्म के ज्ञाता हैं’, ऐसा वचन श्रीराम से कहा।।35-36।। |
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मूलश्लोकः-36-38 |
रामोऽपि परमोदारः सुमुखः सुमहायशाः।।36।। न चैच्छत् पितुरादेशाद्राज्यं रामो महाबलः। पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः ।।37।। निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः।।38।। |
श्लोकान्वयः - |
परमोदारः सुमुखः सुमहायशाः महाबलः रामः अपि पितुः आदेशात् राज्यं न ऐच्छत्। भरताग्रजः (रामः) राज्याय पादुके न्यासं दत्त्वा भरतं पुनः पुनः निवर्तयामास।।36-38।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
परम उदार सुन्दर गुण वाले महाशक्तिसम्पन्न श्रीराम भी पिता के आदेश से राज्य नहीं चाहते थे। उन्होंने राज्य के लिए अपनी चरणपादुका भरत को सौंपकर उन्हें बार-बार अयोध्या लौट जाने के लिए कहा।।36-38।। |
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मूलश्लोकः-38-39 |
स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन्।।38।। नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया।।39।। |
श्लोकान्वयः - |
सः कामम् अनवाप्य रामपादौ उपस्पृशन् रामागमनकाङ्क्षया नन्दिग्रामे राज्यम् अकरोत्।।38-39।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
भरत अपनी इच्छा पूरी न होने पर राम चरणौ को नमन करते हुए राम के अयोध्या वापस आने की कामना से नन्दिग्राम मे राज्य करने लगे।।38-39।। |
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मूलश्लोकः-39-40 |
गते तु भरते श्रीमान् सत्यसन्धो जितेन्द्रियः।। 39।। रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च। तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान् प्रविवेश ह।। 40।। |
श्लोकान्वयः - |
भरते गते श्रीमान् सत्यसन्धः जितेन्द्रियः एकाग्रः रामः नागरस्य जनस्य च तत्र आगमनम् पुनः आलक्ष्य दण्डकान् प्रविवेश ह।।39-40।। |
हिन्दी - अनुवाद - |
भरत के अयोध्या लौट जाने पर श्री राम चित्रकूट में नागरिकों एवं अन्य जनों के पुनः आने की आशङ्का से दण्डक वन में प्रवेश किया।।39-40।। |
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