(1) तृष्णा मनुष्य को बुरी स्त्री के समान न करने योग्य कार्यों में लगा देती है, परन्तु इसके विपरीत लज्जा मनुष्य को माता के समान सभी पापों से बचाए रखती है । (2) आलसी, निकम्मे, बहुत खाने वाले, सबसे द्वेष रखने वाले, अधिक छल-कपट करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले, देश-काल का ध्यान न रखने वाले और गन्दे एवं भद्दे वेष धारण करने वालों को घर में नहीं ठहराना चाहिए। (3) हे कामादि तथा दुष्ट शत्रओं के नाश करने वाले भगवन् अथवा राजन् . जो कर्मशील नहीं हैं और उत्तम कर्म नहीं करते और वेदविहित कर्मों को नष्ट करते तथा डकैती डालते हैं, जो असुर प्रकृति के हैं और श्रेष्ठ जनों का अपमान करते हैं, उनका आप नाश कीजिए और उनका दमन कीजिए । (4) वह परमेशवर कामनाओं से रहित, सब दशाओं में एक समान रहने वाला, मृत्यु से रहित, पूर्ण सामर्थ्य वाला, पूर्णतः आनन्दमय है और किसी भी प्रकार से उसमे. कोई कमी नहीं है । उस सर्वत्र व्यापक, सदा एक रस रहने वाले, कभी बूढे न होने वाले और सदा जवान रहने वाले परमेश्वर को ही जानकर ज्ञानी मनुष्य मृत्यु के भय से बच सकता है । (5) असामयिक या अत्यधिक निद्रा और सर्वथा न के समान मुनष्य को सुख और आयु से पृथक् कर देती है। (6) ऐसा देखा जाता है कि प्रायः दीन-हीन लोग ही दीर्घायु होते हैः । इसके विपरीत धनी कुल में उत्पन्न होने वाले लोग कीट-पतंगों के समान शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । (7) पवित्र और सनातन धर्म यही है कि प्राणों पर संकट आनेे पर भी बुरा कार्य नहीं करना चाहिए और करणीय श्रेष्ठकाार्य को कभी भी नहीं छोडना चाहिए । (8) दूसरों के कष्ट न पहुँचा कर और दुष्टों के सम्मुख बिना गिडगिडाये यदि सज्जनों के मार्ग पर हम चल सकें, तो जीवन में इतना किया कार्य भी बहुत लाभप्रद होगा । (9) कर्म करने वाले जन सुखदायिनी वेद वाणी के प्राकृतिक देवों के लिए कर्म करके अपने मुख्य लक्ष्य को प्राप्त करो । (10) जो क्रोध पर विजय पाने वाले, धर्मपरायण, सदा सत्य का ही आश्रय लेने वाले और मन को वश में रखने वाले श्रेष्ठ जन हैं, उनको दिया हुआ दान ही महान् लाभप्रद होता है । (11) एक सदृश आँखों और कानों वालों, देखने और सुनने वालों की मानसिक गति भिन्न-भिन्न होती है । मन की विभिन्न दशाओं के अनुसार ही उनकी स्थिति इस प्रकार होती है, जैसे कुछ लोग पानी में पाँव की गहराई तक और कुछ बगल तक ही डूबते हैं, परन्तु कुछ तो पानी की गहराई में जाकर तैरते हुए स्नान करते हैं । भावार्थं यह है कि मन की स्थिति के अनुसार ही कुछ बहुत थोडा और कुछ उनसे थोडा अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु जिन्होंने मन को पूर्णतः वश में कर लिया है, वे ज्ञान के सरोवर में और आनन्द लेते हैं । (12) जो व्यक्ति एक अक्षर, आधे पद अथवा पूरे पद ( सार्थक शब्द ) का भी ज्ञान करााता है, यदि ज्ञान प्राप्त करने व्यक्ति उसे भूल जाता है, तो वह पापी कहलाता है । ऐसी दशा में जो धर्म के तत्त्व को बताने वाले गुरु हैं, उनको भूलने वाला तो निश्चित रूप से महान् पापी है । (13) ये पासे नोकदार अंकुश वाले, चुभने और पीडा देने वाले, काटने वाले, तपाने वाले और सन्ताप पैदा करने वाले हैं । जीतने वाले जुआरी के लिए धनादि देने वाले और मधु जैसे मीठे लगने वाले भी होकर ये सर्वस्व हरण करके सर्वथा नष्ट कर देते हैं । (14) ''अरे जुआरी. पासों से मत खेलो । खेती-बीडी जैसे परिश्रम के कार्यों को करो और उस परिश्रम से प्राप्त धन को ही बहुत समझते हुए उसी में आनन्द लो । परिश्रम से प्राप्त धन में तुम्हारी पत्नी तुम्हारी संगिनी बनी रहेगी ।'' यह उपदेश सबका प्रेरक और सकल जगत् का स्वामी प्रभु हम लबको दे रहा है । (15) गहरे, निर्मल और शुद्ध सत्यरूपी जल वाले और धैर्य रूपी सरोवर वाले मानसतीर्थ ( अन्तः करणरूपी तीर्थ ) में सदा स्थिर रहने वाले सत्य का सहारा लेकर स्नान करना चाहिए । (16) वेदों का फल है हवन-यज्ञ करना, शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान का फल है सदाचारी बनना, स्त्रियों से कामसुख और पुत्रों की प्राप्ति का फल होता है और धन तभी सपल है, जब उसे दान तथा भोग में प्रयुक्त किया जाए । (17) मनुष्य को प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल अग्निहोत्र करना चाहिए । इसके अतिरिक्त वह कृष्णपक्ष के अन्तिम दिन दर्श नामक यज्ञ करे और मास के अन्त में पूर्णमासी पर पौर्णमास यज्ञ करे । (18) हे सुमार्गदर्शक अग्रनायक परमेश्वर. हम तप करते हैं, और निरन्तर वेद-शास्त्रों का श्रवण करते हुए हम दीर्घायु प्राप्त कर, मेधा बुद्धि से सम्पन्न होकर पुनरपि ( हम ) तप करते हैं, अर्थात् हमारा जीवन तपस्वी बने, ऐसी प्रार्थना है । (19) हे हमारे प्रेरक अग्रनायकप्रभु. आप सदा जाग कर हमारा धन्यान रखते हैं और हम आपके रक्षण में आनन्दपूर्वक जीवन बिताते हैं । प्रभु. हामरे आलस्य और प्रमाद को दूर करके हमें ज्ञानवान् बनाइए और हमारी चेतना-शक्ति को जागृच कीजिए । (20) हे ज्ञान-स्वरूप, हृदय को प्रकाशित करने वाले परमेश्वर, मैं उत्तम कर्म करूँगा, ऐसा संकल्प करता हूँ । मुझे इस व्रत के पालन करने में समर्थ बनाइए और सफलता प्रदान कीजिए । मैं असत्य मार्ग का त्याग कर सत्य को प्राप्त कर रहा हूँ । (21) उत्तम रीति से विधिपूर्वक अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्यकिरणों को प्राप्त हो जाती है । ऐसी सूर्यकिरणों द्वारा फिर उत्तम वृष्टि होती है और फिर वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न द्वारा उत्तम सन्तानें प्राप्त होती हैं । (22) शरीर के अंग गल गये हैं, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, और मुँह में से दाँत भी निकल चुके हैं । इस प्रकार मानव बूढा हो जाने पर डण्डे के सहारे चलने लगता है, तो भी लोभ-लालच तथा जीने की लालसा उसका पीछा नहीं छोडते । (23) नारी दहकते अङ्गारे के समान होती है, जब कि पुरुष घी से भरे पात्र के सदृश होता है । अतः पुरुष को चाहिए कि वह नारियों के सम्पर्क से सदा दूर रहे; अन्यथा वह अपना नाश कर लेगा । (24) जैसे फूल और फल बिना किसी की प्रेरणा से स्वतः समय पर प्रकट हो जाते हैं और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किए कर्म भी यथासमय ही अपने फल भ ( अच्छे या बुरे ) देते हैं । अर्थात् कर्मों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है । (25) इस आत्मा को कोई काट, जला, गला अथवा सुखा भी नहीं सकता । यह नित्य, सभी प्राणियों के शरीरं में रहने वाला, स्थिर, नियमित और अनादि काल से विद्यमान है । (26) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि विद्या और धन का सञ्चय करते समय अपने को अजर तथा अमर समझे परन्तु यह सोचकर कि मृत्यु ने मुझे सिर के बालों से पकड रखा है, सदा धर्म का ही आचरण करे । भावार्थ यह है कि धर्म का मार्ग कभी नहीं छोडना चाहिए; न जाने कब मृत्यु आकर दबोच ले । (27) न पैदा होने वाले और मर जाने वाले पुत्र उस पुत्र से अच्छे हैं, जो अनपढ और जडमति हैं, क्योंकि न पैदा होने वाला या मर जाने वाला पुत्र तो कुछ समय के लिए ही दुःख देता है, परन्तु मूर्ख और जीवन-भर दुःखी करता रहता है । (28) अग्नि की वास्तविकता को न समझता हुआ पतंगा अग्नि में गिरे तो गिरे, वह मछली भी ज्ञान के अभाव में काँटे से चिपटे माँस को खाने का यत्न करे तो करे, परन्तु इस संसार में हम यह जानते हुए भी कि वासनाएँ संकटों के समूह से परिपूर्ण हैं, हम उन्हें छोड नहीं पाते । बडे दुःख की बात है कि मोह की महिमा बडी गहरी है । अर्थात् समझदार मनुष भी मोह के जाल में पडकर कष्टों को सह रहा है । (29) अपच के समय पानी पीना दवाई का कार्य करता है । भोजन पचने के बाद पिया हुआ जल शक्ति देता है और भोजन के मध्य में पानी अमृत का कार्य करता है, परन्तु भोजन के अन्त में जलपान विष के समान हानिकारक होता है । (30) अज्ञानी को सरलता से समझाया जा सकता है और जो बहुत ज्ञानी है समे और भी आसानी से समझाया जा सकता है । परन्तु जो व्यक्ति थोडासा ही ज्ञान प्राप्त करके अभिमानी बन चुका है, उसे ब्रह्ना भी नहीं समझा सकता । (31) आँख में लगाया अंजन धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है और दीमक का घर धीरे-धीरे बढ जाता है ; इन दृष्टान्तों से समझना चाहिए कि थोडा-थोडा भी कार्य निरन्तर करने से मनुष्य को सफलता मिल जाती है । यह सोचकर मनुष्य को निरन्तर दान और स्वाध्याय करके अपना जीवन सफल बनाना चाहिए । (32) श्रेष्ठ व्यक्ति यदि बहुत नाराज भी हो जायें तो उन्हें किसी प्रकार नरम किया जा सकता है । जैसे कठोर सोने को पिघलाने का तो ढंग है, परन्तु तिनकों को किसी भी प्रकार से पिघलाया नहीं जा सकता । (33) जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अपना पाप दे जाता है और उसका पुण्य लेकर चला जाता है । (34) क्योंकि हम अतिथियों को खाद्य और पेय पदार्थ देकर तथा नौकरों को बहुत भोजन खिलाकर शेष बचा हुआ खाते हैं, अतः हमें मृत्यु से डर नहीं लगता । अर्थात् हम पुण्य के कार्य करते हैं, अतः मृत्यु से हम नहीं डरते (35) बहुत दान देने के कारण बलि-राजा विष्णु के फँदे में फँस गया, बहुत अभिमान करने से दुर्योधन नष्ट हो गया और रावण अति चंचलता करने के कारण तबाह हो गाया । इसलिए 'अति' नहीं करनी चाहिए; सीमा में ही रहना चहिए । (36) हे मनुष्य . तू उषा के पुत्र, सर्वत्र दृष्टि रखने वाले गतिमान् काले और श्वते रात्रि और दिन के जोडे का अतिक्रमण कर; अर्थात् तू दिन-रात उन्नति करता चल । और उन उत्तम ज्ञान वाले माता, पिता और विद्वानों के पास जा, जो जगत् के नियन्ता भगवान् की उपासना में मस्त होकर आनन्द लेते हैं । (37) बहुत परिचय या मेलजोल होने से विशेष वस्तु के प्रति अनादरभाव ( उपेक्षा ) पैदा हो जाता है । जैसे प्रयाग के रहने वाले लोग त्रिवेणी में स्नान नहीं करते, प्रत्युत कुएँ पर ही नहाते हैं । (38) हे राजन् ( धृतराष्ट्र ), बहुत अभिमान, बहुत वादविवाद, तथा त्याग न करना, गुस्सा, अपनी बात पर ही अडे रहना तथा मित्रद्रोह- ये छह तेज तलवारें हैं, जो प्राणियोों के शरीरों को काटती हैं । (39) जिसने अनेक समस्याोओं से पूर्ण जवानी को बिना अपयश के बिता दिया है, भला उसने त्रुटियों से भरपूर इस जन्म में कौन-सा फल प्राप्त नहीं किया ? अर्थात् उसी का जीवन सफल है, जिसे जवानी में कोई कलंक नहीं लगा । (40) जैसे तिनकों से रहित भूमि पर पडी आग स्वयं बुझ जाती है, वैसे ही क्षमाशील व्यक्ति पर क्रोध करने वाले का क्रोध स्वयं शान्त हो जाता है । इसके विपरीत जो क्षमाशील नहीं है, वह अनेक त्रुटियों से अपने आप को भरपूर कर लेता है । (41) बहुत अधिक पानी पीने से अन्न नहीं पचता और पानी न पीने से भी वह नहीं पचता । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह पाचन-शक्ति को बढाने के लिए बारम्बार थोडा-थोाडा करके बहुत पानी पिये । (42) मनुष्य द्वारा बहुत जल पीने से, अनमेल भोजन करने से, शौचादि के वेगों को रोकने से और नींद ठीक न आने से ठीक समय पर तथा उचित मात्रा में भी खाया हुआ भोजन नहीं पच पाता। (43) जिसमें पूर्ण वैराग्य जागृत हो गया है, उसी का मन स्थिर हो सकता है और जिसका मन स्थिर है, उसी को स्थायी आत्मज्ञान प्राप्त होता है । जब ऐसा व्यक्ति पूर्ण रूप से तत्त्वज्ञ हो जाता है, तो उसको मोक्ष प्राप्त हो जाता है और मुक्त होने पर उसे नित्य परमानन्द की अनुभूति होती है। (44) जो मनुष्य मन को वश में नहीं रखता, वह बार-बार अनेक कष्टों को प्राप्त होता है और आत्मा के दोष से उत्पन्न हुए बहुत से अन्य भी अनर्थों को अपने लिए तैयार कर लेता है । (45) वह ब्राह्नण श्रेष्ठ नहीं माना जाता, जिसका मन वश में नहीं है । प्रभावहीन क्षत्रिय मरा हुआ माना जाता है । जौ वैश्य निपुण नहीं है, उसकी निन्दा होती है और जो शूद्र स्वामी की आज्ञा पर नहीं चलता, वह भी अच्छा नहीं माना जाता । (46) जो दान समय और स्थान को समझे बिना अपात्रों को तिसस्कार और उपेक्षापूर्वक दिया जाता है, वह दान तामसिक दान कहलाता है । (47) जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य अपनाने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होता है ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है । (48) जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, बुद्घि ज्ञान से शुद्ध होती है, अहिंसा द्वारा आत्मा शुद्ध होता है और सत्य से मन शुद्ध होता है । (49) महादेव जी अभी तक कालकूट विष को नहीं छोड रहे, कछुआ भी अपनी पीठ पर पृथ्वी को उठाए हुए है और सागर भी अपने अन्दर भयंकर वाडवाग्नि को कम्भाले हुए है । इससे सिद्ध होता है कि श्रेष्ठ व्यक्ति अपनाए हुए कार्य को पूर्ण रूप से निभीते हैं । (50) जो श्रेष्ठ कार्य तुम्हें करना है, उसे आज ही कर लो । कहीं तुम्हाारा शुभ अवसर निकल न जाये। कौन जानता है कि आज किसकी मृत्यु का समय है । भावार्थ यह है कि मनुष्य को श्रेष्ठ कर्म शीघ्र ही कर लेना चाहिए । पता नहीं कल यह शरीर रहे या न रहे । (51) मन, वाणी और कर्म से सभी प्राणियों के प्रति प्रीति रखना, कृपा करना और दान देना, विद्वान् लोग इन सभी को शील अथवा सदााचार मानते हैं । (52) इस गृहस्थ रूप यज्ञ में पुरुष की संगिनी स्त्री ही ब्रह्ना नामक ऋत्विक् बन जाती है और वह पुरुष को निर्देश देती है कि नीचे देख, ऊपर नहीं । दोनों पैरों को ठीक प्रकार से उठाकर चल और तेरे निम्रांग नंगे नहीं होने चाहिएँ । भाव यह है कि पुरुष को विनम्र होना चाहिए और वस्त्रों द्वारा शरीर के आवश्यक अंग ढके होने चाहिए । (53) हे पृथापुत्र, जो बुद्धि तमोगुण से घिरी हुई अधर्म को धर्म मानती है तथा सभी विषयों को उल्टे ढंग से ग्रहण करती है, वह तामसी बुद्धि कहलाती है । (54) यदि मनुष्य चोरों से घिर जाये और वह झूठी कसमें खाकर उनसे छूट जाता हे, तो धर्म के सार को समझने वाले ऐसे कार्य को अधर्म नहीं मानते । अर्थात् चोर आदि दुष्टों स बचने के लिए बोला गया असत्य अधर्म नहीं होता । (55) हे प्रिय . वह राजा महान् अधार्मिक है, जो प्रजाओं स आय का छठा भाग कर के रूप में तो ले लेता है, परन्तु पुत्रों के समान उनकी रक्षा नहीं करता । (56) अधार्मिक मनुष्य अधर्म द्वारा पहले बढता है और अपनी अनेक प्रकार की भालई करता है । फिर शत्रुओं को भी जीत लेता है । परन्तु बाद में घर-बार समेत पूर्णतः नष्ट हो जाता है । (57) जो पढाए गए शिष्य वाणी, मन और व्यवहार से अपने गुरु का आदर नहीं करते, वे गुरु की कृपा के पात्र नहीं हो पाते और उसी प्रकार उनका प्राप्त किया हुआ ज्ञान भी सफल नहीं होता । (58) आयु थोडी है और पठनीय साहित्य असीम है तथा विघ्र भी अनेक प्रकार से आ जाते हैं । इसलिए व्यर्थ का साहित्य छोडकर साररूप को ग्रहण करना चाहिए; जिस प्रकार हंस पानी में से दूध का अंश ग्रहण कर लेता है । (59) जानने योग्य वाङमय बहुत अधिक है और समय बहुत अल्प है तथा विघ्र अनेक हैं । इसलिए जो अपने लिए महत्त्वपूर्ण हो, उसी साहित्य का अध्ययन करना चाहिए, जैसे पानी में मिले दूध में से हँस दूध को ग्रहण कर लेता है । (60) वेदों के पठन-पाठन न करने, सदाचार के त्याग देने, आलस्य के कारण और दूषित अन्न खाने से मृत्यु विद्वानों को नष्ट कर देती है । (61) विद्याओं का अभ्यास न करने, बुद्धिमानों की संगति त्यागने और इन्द्रियों को वश में न रखने से मनुष्य संकट में पड जाते हैं । (62) अभ्यास न करने से विद्या नष्ट हो जाती है, बदहजमी के समय खाया-पिया विष बन जाता है, गरीब का सभी में सम्मान नहीं होता और बूढे व्यक्ति के लिए जवान स्त्री विष के समान घातक हो जाीती है । (63) जो व्यक्ति घर छोडकर व्यर्थ ही विदेश नहीं जाता, पापी लोगों से मेल-मिलाप नहीं रखता, दूसरे की स्त्री के प्रति आकृष्ट नहीं होाता तथा पाखण्ड, चोरी, चुगलखोरी और मद्यपान नहीं करता, वह हमेशा ही सुखी रहता है । (64) जो भविष्य के लिए पहले ही प्रबन्ध कर लेता है और जो सूझ-बूझ वाला है, इस प्रकार के दोनों व्यक्ति सुखपूर्वक जीवन बिताते हैं और जो प्रत्येक काम देर से करता है, वह नष्ट हो जाता है । (65) चाहे राजा कितना ही निर्धन क्यों न हो जाये, तो भी जो ग्रहण-योग्य वस्तु नहीं है, उसे ग्रहण न करे । और, जो वस्तु ग्रहण करने योग्य हो, चाहे वह तुच्छ भी हो और राजा सम्पन्न भी हो, तब भी उसका त्याग न करे, अर्थात् उसे अवश्य ग्रहण कर ले । (66) अन्न द्वारा ही प्राणियों का अस्तित्व होता हे , अन्न मेघ द्वारा उत्पन्न होता है, मेघ की उत्पत्ति यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म द्वारा उत्पन्न होता है । (67) सीमा से अधिक खाने से स्वस्थ्य बिगड जाता है और आयु घट जाती है । यह कष्टदायक, पापकर्म तथा संसार से द्वेषकारी है । अतः अधिक भोजन नहीं करना चाहिए । (68) जिस व्यक्ति का चरित्र निम्न होता है, जो निर्बुद्घि होता है, जो दूसरों से डाह करता है और धर्मविरुद्ध चलता है, जो कटु भाषण करता है और चिडचिडे स्वभाव का होता है, ऐसा व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्टों से शीघ्र जाता है । (69) जो बिना बुलाये घुस आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलने लगता है, धोखेबाजों पर विश्वास करता है, ऐसा व्यक्ति महामूर्ख और नीच कहलाात है । (70) हमारे शरीर सदा रहने वाले नहीं हैं, धन भी हमेशा टिका नहीं रहता, मृत्यु साद साथ रहती है, अतः मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म के कार्यों को करता रहे । न जाने जीवन कब समाप्त हो जाए । (71) निरन्तर श्रम या लगन ही लक्ष्मी के लाभ और कल्याण का आधार है । निरन्तर श्रम करने वाला ही महान् बन जाता है और निरन्तर सुख को भोगता है । (72) निरन्तर श्रम, कार्यकुशलता तथा मन में निराशा न आने देना- ये सब बातें कार्यसिद्धि के साधन हैं । इसीलिए मैं तुम्हें इन्हें बता रहा हूँ । (73) हत्या करवाने वाला, मारने वाला, टुकडे-टुकडे करने वाला, खरीदने वाला और बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला ये घातक कहलाते हैं । अर्थात् ये सभी किसी भी पशु-पक्षी के वध के पापी होते हैं । (74) यदि श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग पर पूर्णरूप से न चला जा सके, तो थोडा ही चल लेना चाहिए । इस प्रकार मार्ग के मध्य में भी पहुँचा हुआ व्यक्ति दुःखी नहीं होता । (75) पुत्र को चाहिए कि वह पिता के श्रेष्ठ कर्मों का पालन करे और माता से मन मिलाये रखे, अर्थात् उसके विरुद्ध आचरण न करे । पत्नी को चाहिए कि वह पति से शान्ति देने वाली मधुर वाणी ही बोले । (76) हम बचपन, जवानी तथा बुढापे में अथवा जन्मजन्मान्तर में भी ऋणी ( कर्जदार ) न रहें । चाहे हम मुक्ति के मार्ग पर चलें अथवा गृहस्थ जीवन बितायें, इन सभी दशाओं में हमें ऋणमुक्त ही रहना चाहिए । (77) शरीर चाहे लूला, लँगडा, अन्धा या किसी भी दोष से सम्पन्न हो, तो भी अपना शरीर सभी को प्रिय लगता है । इसी प्रकार यदि कोई प्रिय व्यक्ति बुरे कार्य भी करता है, तो भी वह प्यारा ही लगता है । (78) जिस व्यक्ति ने अनेक संदेहों को नष्ट करने वाले,अज्ञात विषयों को समझाने वाले और प्रत्येक व्यक्ति के लिए विषय को स्पष्ट करने वाले शास्त्र को नहीं जाना, वह तो अंधा ही है । (79) क्या केवल यही युक्ति मांसभक्षण का त्याग करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि केवल तिनके से भी यदि हमारा अंग छिल जाए, तो कितना कष्ट प्रतीत होता है । (80) जो दिव्यशक्तियों का भण्डार परमेश्वर सदा मनुष्य के निकट है और साथ नहीं छोडता, जिसे पास होने पर भी मानव देख नहीं पाता, उसकी सृष्टि रूपी काव्य को देखो, जो स्थायी है । जो न मरता है और नाहीं बूढा होता है । भाव यह है कि परमात्मा की रचना निरन्तर अपनी स्थिति बनाए हुए है । उसे देखकर उस स्रष्टा को जानने का प्रयास करो । (81) हे भरतवंश में उत्पन्न अर्जुन . यह समझ लो कि सदा रहने वाले, नष्ट न होने वाले और न मापे जाने योग्य इस जीवात्मा के शरीर नष्ट हो जाते हैं, वे सदा टिके नहीं रहते । इसलिए तू अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए युद्ध कर । (82) क्रोध आने पर मनुष्य अन्धा हो जाता है, वह अपने-पराये की पहचान नहीं कर पाता । इसी प्रकार वह बहरा होकर किसी की भी हितकारी बात सुनने को तैयार नहीं होता । क्रोध समझदार और धैर्यशाली मनुष्य को नासमझ बना देता है, जिससे वह न कर्त्तव्य को देखता है और नहीं लाभप्रद बात को सुनता है । क्रोध से भरा बुद्धिमान् व्यक्ति भी अपने अध्ययन द्वारा उपर्जित ज्ञान पर ध्यान नहीं देता । (83) शरीर को बनाए रखने के लिए अन्न की आवश्यकता होती है, खानदान की शोभा उत्तम आचरण से होती है, संकट के समय मित्र ही प्राणों के रक्षक बनते हैं और सच्चाई के सामने क्रोध शान्त हो जाता है । (84) किसी दूसरे की किसी वस्तु से चाहे वह तिनका, रत्न, सोना या मोीती भी क्यों न हो, मन को दूर रखने अर्थात् कामना न करने को ही बुद्धिमान् लोग अस्तेय ( चोरी न करना ) कहते हैं । (85) भला व्यक्ति तो दूसरों की निन्दा करते समय दुःखी होता है, परन्तु दुष्ट व्यक्ति दूसरों की निन्दा करते हुए प्रसन्न होता है । (86) जिसके घर में शक्तिशाली पासा ( जुआ ) लोभ के साथ रहता है, उस व्यक्ति की पत्नी का संसर्ग अन्य लोगों से होने लगता है । उसके विषय में पिता, माता और भाई याँ तक कह देते हैं कि ''हम इको नहीं जानते; इसे बाँधकर ले जाओ ।'' (87) बुराई करने वाला भी व्यक्ति बडों से सुख ही प्राप्त करता है । जैसे वाडवाग्नि समुद्र को जलाती है, परन्तु समुद्र उसे तृप्त ही करता है । (88) सन्तान की प्राप्ति का, धर्म के कार्यो का, सेवा और श्रेष्ठ प्रेम का तथा पितरों और अपने सुखों का साधन पत्नी ही है । (89) पराये लोगों के साथ, बन्धुओं के साथ, मित्र के साथ अथवा शत्रु के साथ भी अपने जैसा व्यवहार करना ही वस्तुतः दया कहलाती है । (90) दुःखियों की पीडा को दूर करके जो आनन्द प्राप्त होता है, उसकी तुलना में स्वर्ग या मोक्ष का आनन्द सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं है । (91) प्रभो, मैं आप आनन्दस्वरूप के आनन्दरूपी जल में ही रहता हूँ, क्योंकि आप तो सर्वव्यापक हैं । परन्तु फिर भी मुझ उपासक को प्यास लगी रहती है ; अर्थात् मैं उस आनन्द का उपभोग नहीं कर सकता । हे परम रक्षक . मुझे सुखी करो और अपने आनन्द से तृप्त करो । अथवा कर्मों के मध्य विचरण करता हुआ मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया हूँ, परन्तु अभी मेरी मोहमाया की तृष्णा शान्त नहीं हुई । हे परमरक्षक प्रभो. ऐसी कृपा करो कि मैं वासनाोओं से दूर होकर आपका चिन्तन कर सकूँ । मुझे अपने आनन्द का पान करा कर सुखी कीजिए । (92) मनुष्य को चाहिए कि वह दैनिक नियमों का पालन करता हुआ जंगल में जाकर नदी आदि के तट पर समाधिस्थ होकर गायत्री मन्त्र का भी जाप करे । (93) जहाँ स्त्रियों का मान नहीं होता, वहाँ सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं । जब स्त्रियाँ शोक से पीडित रहती हैं, तब खानदान नष्ट हो जाता है । (94) जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है और पूज्यों का अपमान होता है, वहाँ अकाल, मृत्यु और डर ये तीन बुरी बातें प्रकट हो जाती हैं । (95) हे विद्या देवी. तुम्हारा यह खजाना बडा विचित्र है, जो खर्च करने से तो बढता है और जमा रखने से नष्ट हो जाता है । (96) जैसे रत्नरूपी दीपक बिना तेल, और बत्ती के ही प्रकाश देते रहते हैं, इसी प्रकार श्रेष्ठ व्यक्ति किसी से प्यार की अपेक्षा नहीं करते, किसी विशेष व्यक्ति को नहीं देखते, और नाही किसी भी दशा में किसी से कुछ चाहते हैं ; फिर भी वे निरन्तर लोक-कल्याण में लगे रहते हैं । ( विशेष - यहाँ 'स्नेह - तेल और प्रेम' तथा 'दशा -हालत और बत्ती' ये शब्द इन दो-दो अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं ।) (97) सायंकाल सूर्यास्त के समय पर आए अतिथि को गृहस्थी अपना ले । चाहे अतििथि समय पर और चाहे समय बीत जाने पर भी पहुँचे, सभी दशाओं में अतिथि को बिना भोजन कराये न रहने दे; अर्थात् भोजन करा कर ही घर में ठहराए । (98) हे भरतवंशीय ( धृतराष्ट्र ) , यदि बृहस्पति भी समय को समझ कर बात नहीं करता और बेमौके ही बोलात है, तो वह मूर्ख माना जाता है और अपमानित होता है । अतः समय को देखकर ही बात करनी चाहिए । (99) जो लोग कठोर नहीं बोलते, सदा मधुर भाषण ही करते हैं, अपनी पत्नियों से ही सन्तुष्ट हैं तथा दूररों की निन्दा नहीं करते, ऐसे लोगों से यह भूमि कहीं-कहीं ही शोभित हो रही है । (100) लम्बी आयु जीने वालों को इन बातों से दुःख प्राप्त होता है- प्रथम तो अनचाहे लोगों के साथ रहना, दूसरे प्रिय लोगों का वियोग तथा तीसरे दुष्ट लोगों की संगति । (101) अन्तरिक्ष, द्युलोक और पृथ्वी सभी स्थान हमारे लिए निडरता के साधन हों । हमें न पीछे से, न आगे से, नाहीं ऊपर से और नाहीं नीचे से डर हो । अर्थात् हम सभी ओर से निर्भय होकर जीवनयापन करें । (102) हमारा मित्र हम से धोखा न करे, हम उससे भी निडर रहें, शत्रु से भी हम निडर रहें, जाना-पहचाना भी व्यक्ति हमारे डर का कारण न बने और अनजाना भी भयकारी न हो । हम दिन में भी और रात में भी निडर रहें । हमारा ऐसा व्यवहार हो कि सभी दिशाएँ हमारे लिए मित्रवत् हो जाएँ । (103) जो व्यक्ति ज्ञान, अनुभव तथा आयु में बडे लोगों को प्रणाम करते रहते हैं तथा उनकी संगति करते हैं, उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और शक्ति ये चार वस्तुएँ बढती हैं, अर्थात् उन्हें इससे बहुत लाभ होता है । (104) कर्मों का अच्छी प्रकार अभ्यास करने से मनुष्य को उन कर्मों में कुशलता प्राप्त हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्ना ने भी रचनाओं का निरन्तर अभ्यास करके ही मृग की आँखों के समान आँखों वाली सुन्दर नारी की रचना की थी । (105) बादलों की छााया, दुष्ट व्यक्ति का प्रेम, बढिया भोजन, स्त्रियों, जवानी और धनों का उपभोग मनुष्य केवल थोडे समय तक ही कर सकता है । (106) जो सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक ईश्वर नग्न को ढकता है और सम्पूर्ण रोगियों को शीघ्र स्वस्थ करता है, उसकी कृपा से अन्धा भी देखने लगता है और लंगडा भी चलने लगता है । (107) दुर्भाग्य से मारा हुआ व्यक्ति शत्रु को मित्र बना लेता है और मित्र से शत्रुता करता है तथा उसे मार देता है । वह बुराई को भलाई और पुण्य को पाप समझने लगता है । (108) कमलपत्र पर पडे जल के समान अस्थिर इन प्राणों के लिए अपनी विवेक-बुद्धि का परित्याग करके हमने क्या-क्या नहीं किया ? ममने तो इसके लिए लज्जा को भी एक ओर रखकर धन के मद से उद्धत मन वाले धनी लोगों के आगे अपने गुणों की प्रशंसा करने का पाप भी कर लिया है । (109) सर्दियों में अग्नि प्रिय लगती है, अपने प्रिय व्यक्ति से मिलना भी बहुत अच्छा लगता है, शासन द्वारा मिला सम्मान भी प्रिय लगता है और खीर आदि दूध से बने पदार्थ भी बहुत आनन्द देते हैं । (110) चतुर ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह अपमान को अमृत के तुल्य मानकर प्रसन्न हो और सम्मान को विष के समान समझकर उससे उद्विग्न हो जाये । भाावार्थः- अपमान मनुष्य को गुणी बनाता है और सम्मान अभिमान पैदा करता है, इसीलिए अपमान होने पर प्रसन्न और सम्मान होने पर असन्तुष्ट होना चाहिए । (111) पानी के वेग से बाँध या पुल टूट जाता है, गुप्त सलाह यदि सबमें प्रकट हो जाए तो योजना सफल नहीं होती, चुगलखोरी से प्यार समाप्त हो जाता है और बातें करने से रागी व्यक्ति व्याकुल हो जाता है । (112) यदि विधाता हंस से रुष्ट हो जाए तो वह उसके कमलों के मध्य घूम-फिरकर लेने के कार्य को तो समाप्त कर सकता है, परन्तु नीर-क्षीर विवेक रूपी उसकी प्रसिद्ध कार्यकुशलता की कीर्ति को वह नहीं धीन सकता । (113) यह काम की अग्नि प्रेम-रूपी इन्धन से दीप्त होती है और सम्भोग की ज्वालाओं से वह वृद्धि को प्राप्त होती है । इस कामाग्नि में पुरुषों की जवानियोँ और धन सब आहुति बन जाते हैं । तात्पर्य यह है कि कामाग्नि को तृप्त करने में लगे मानव अपनी जवानी और धन को बरबाद करके नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं । (114) यह अपना है और वह पराया है, यह भेद-बुद्धि छोटे दिल वालों के अन्दर होती है । विशाल हृदय वाले तो सारी पृथ्वी को ही अपनी परिवार समझते हैं । (115) मेरा एक हाथ ऐश्वर्य देने वाला है तो दूसरा उससे भी अधिक ऐश्वर्य का दाता है । यदि एक हाथ सब बीमारियों को दूर करने का साधन है, तो दूसरा हाथ सभी मंगलकारी कार्य करने में कुशल है । तात्पर्य यह है कि हाथों से ही हम सभी सुख के साधन जुटा सकते हैं । (116) हे परमेश्वर. आपने तेज की एक धारा सूर्य को देकर उसे प्रकाशमय बना दिया है । उसी प्रकार हम मनुष्यों को सत्कर्मों में प्रवृत्त करने की प्रेरणा देकर हमें भी ज्ञानरूपी प्रकाश से पवित्र कर दीजिए । (117) हे चन्दन के वृक्ष. तेरी यह महिमा किसकी वाणी ने प्रकट की है कि तू विष उगलने वाले साँपों को भी अपनी सुगन्ध की धाराओं से पुष्ट करता है । (118) जिसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है, विधाता उसकी रक्षा करके उसे बचा लेता है । इसके विपरीत, लोगों द्वारा सुरक्षित भी वस्तु या प्राणी विधाता के विपरीत होने पर नष्ट हो जाता है । वन में छोडा हुआ अनाथ भी भाग्य के कारण जीता रहता है परन्तु घर में बहुत प्रयत्न करने पर भी भाग्य से मारा हुआ नष्ट हो जाता है । (119) जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, जो ब्राह्नण तपस्वी नहीं होता और जो धनी दान नहीं देता, देवता ऐसों को मार देते और नीचे गिरा देते हैं । (120) जो व्यक्ति अरणियों को मथते हुए बीच में रुकने की चेष्टा नहीं करता, वही अग्नि को प्राप्त करता है । यही नियम किसी भी कार्य की सफलता के लिए है । अर्थात् निरन्तर परिश्रम करने से ही सफलता प्राप्त होती है । (121) जैसे अग्नि दो अरणियों के मध्य स्थित होती है और जैसे गर्भ धारण करने वाली स्त्रियों में गर्भ अंदर स्थित होता है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा हम सबके अंदर विद्यमान है । उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को जागकर ( ज्ञानपूर्वक), समर्पण भाव से उसकी प्रतिदिन स्तुति करनी चाहिए। (122) कामदेव के ये पाँच बाण हैं - कमल,अशोक, आम, नवमल्लिका और नील कमल (123) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह निम्न पाँच बातों को दूसरों के सामने प्रकट न करे - धन का नाश, मन की पीडा, घर की बुराइयाँ, ठगा जाना और अपमान । (124) यदि मनुष्य श्रेष्ठ धन की प्राप्ति करना चाहता है, तो उसे आरम्भ से ही धर्म का पालन करना चाहिए । धन धर्म से पृथक् नहीं किया जा सकता; जैसे स्वर्ग लोक से अमृत पृथक् नहीं हो सकता । भावार्थ यह है कि धर्मपूर्वक कमाया हुआ धन ही स्थायी और सुख का साधन होता है। (125) चाहे शब्द सार्थक हो या न हो, परन्तु मधुर होना चाहिए, क्योंकि वही संसार को प्रोय लगता है। इस विषय में वीणा, बांसुरी, मृदङ्ग आदि के उदाहरण दिये जा सकते हैं । (126) हे राजन् ( घृतराष्ट्र ), इस संसार में छह सुख हैं - पहला धन का निरन्तर आना, दूसरा सदा नीरोग रहना, तीसरा प्यारी पत्नी का होना, चौथा मीठा बोलने वाली पत्नी का होना, पाँचवाँ पुत्र का आज्ञाकारी होना और छठा धन देने वाली विद्या का होना । (127) धन के लोभियों के लिए न कोई बडा होता है और न कोई सम्बन्धी । काम से पीडित लोग न डरते हैं और न शरमाते हैं । चिन्ता से ग्रस्त लोगों को न सुख मिलता है और न नीाांद आती है । भूख से व्याकुल लोगों में न बल रहता है और न प्रभाव । (128) धन के कमाते समय दुःख उठाना पडता है, कमाए हुए धन की रक्षा करने में भी कष्ट का सामना करना पडता है । यदि धन नष्ट हो जाये या खर्च हो जाए, तो भी दुःख होता है । इस प्रकार जो कष्ट का ही घर है, ऐसे धन को धिक्कार हो । (129) धन तो पैर की धूलि के समान है और जवानी पहाडीं नदी के वेग-सी है । उम्र पानी की बून्द के समान ढुलकने वाली है और जीवन झाग-सा निस्सार है । जो मलिन बुद्धि वाला व्यक्ति स्वर्ग के दरवाजे को खोलने वाल् धर्म का आचरण नहीं करता, वह बाद में पश्चात्ताप करता हुआ बुढापे से पीडिते होकर शोक की अग्नि में ही जलता रहता है । (130) धन की कामना वाला यह संसार मरघट में भी सेवा करता है । यहाँ तक कि धन की कामना वाला पुत्र अपने जन्मदाता निर्धन पिता को पीछे छोड कर दूर चला जाता है । (131) यह मूढ मनुष्य धन की कामना करता हुआ जिन कष्टों को सहन करता है, यदि मोक्षार्थी उसका शतांश भी कष्ट सहन कर ले, तो उसे मोक्ष मिल सकता है । (132) कञ्जूस के हाथ गए हुए धन का क्या लाभ है ? जो सौन्दर्य श्रेष्ठ गुणों और वीरता से रहित है, उसका भी क्या लाभ ? उस ज्ञान का क्या लाभ जिसे देखकर अनेक लोग डाह करते हों ? और उस मित्र का भी क्या लाभ, जो संकट के समय में छोडकर अलग हो जाता है ? (133) जिसके पास धन नहीं रहता ऐसे मनुष्य का प्रभाव क्षीण होजाता है और सभी श्रेष्ठ नियम और कार्य इस प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे गर्मी की ऋतु में छोटी नदियाँ सूख जाती हैं । (134) जमा किए हुए धन को इधर-उधर लगा देने से सब श्रेष्ठ कार्य इस प्रकार चलने लगते हैं, जैसे पहाडों से नदियोँ बहती हैं । (135) यदि धन की वृद्धि हो जाये, तो उसे अच्छे कामों में लगा देना चाहिए । इससे शुभ कार्य होने लगते हैं, ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार पर्वतों से नदियाँ बहने लगती हैं । (136) यदि जीवन में धन नहीं कमाया, ना ही कोई विद्या सीखी और ना ही तप किया, तो समझो कि सारी आयु यों ही नष्ट हो गई । (137) जो प्राप्त नहीं किया गया, उसे प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए और जो प्राप्त हो चुका है, उसकी ध्यानपूर्वक रक्षा करनी चाहिए । पुनः जो बच गया है, उसे बढाना चाहिए और जिसकी खूब वृद्धि हो चुकी हो, उसका श्रेष्ठ पात्रों में वितरण करना चाहिए । (138) न प्राप्त होने योग्य वस्तु की जो कामना करता है, उस व्यक्ति की ऐसी हालत होती है कि जो वस्तुएँ उसे मिली नहीं, उसके लिए वह दुखी होता है और जो कुछ पास था, वह भी नष्ट हो जाता है । (139) जो चिकित्सक लोभी नहीं हैं और पवित्रात्मा हैं, जो सत्यवादी और संकोचशील हैं और जो लोग अपने कार्यों में हैं, उन्हें दिया हुआ धन बहुत लाभप्रद होता है । (140) जो अपने ज्ञान से थोडा या बहुत भी भला करता है, उसके ज्ञान देने के उपकार को ध्यान में रखकर उसे भी गुरु मानना चाहिए । (141) छोटी-छोटी वस्तुओं का भी संगठन कार्य सिद्ध कर देता है । जैसे जब तिनके मिलकर रस्सा बन जाते हैं तो उन्मत्त हाथी भी उनसे बाँध लिए जाते हैं । (142) जिस व्यक्ति का क्रोध व्यर्थ नहीं जाता ऐसे व्यक्ति की आपदाएँ स्वयं वश में हो जाती हैं । क्रोधरहित व्यक्ति की मित्रता या द्वेष का किसी भी प्राणी पर कोई प्रभाव नहीं पडता; न कोई प्रेम दिखाता है और न कोई डरता है । (143) अभिमानी मूर्खों, भयंकर हिम्मत दिखाने वालों तथा धर्महीनों से बुद्धिमान् मनुष्य को मित्रता नहीं करनी चाहिए । (144) जिनकी इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं हैं, उनके सभी धार्मिक कृत्य हाथी के स्नान के समान व्यर्थ हैं । जैसे हाथी नहा कर फिर अपने ऊपर मिट्टी डाल लेता है, ऐसी ही उनकी दशा होती है । इसी प्रकार व्यवहार में न लाया हुआ ज्ञान विधवा नारी के आभूषणों के समान शोभा नहीं देता, वह तो केवल भार रूप है । (145) अच्छा या बुरा कर्म अवश्य ही भोगना पडता है । अरबों कल्प बीतने पर भी बिना भोगे कर्म की समाप्ति नहीं होती । (146) मन्दोदरी रावण से कह रही है कि ''हे पतिदेव. बुरे कर्म का फल समय बीतनेपर कर्त्ता को अवश्य प्राप्त होता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । (147) चाहे कोई कितने समय तक रह कर विषयों का भोग कर ले, तो भी एक दिन वे अवश्य छूट जायेंगे । मनुष्य स्वयं यदि इन विषयों का परित्याग नहीं करता और ये स्वयं उसे छोड देते हैं, तो इससे मन में बहुत दुःख होता है, परन्तु यदि कोई स्वयं इन विषयों को छोड देता है, तो छोडने वाले को अनन्त शान्ति का सुख प्राप्त हो जाता है । विषयों के स्वतः छूटने और उन्हें छोडने में यही अन्तर है । (148) चाहे कोई रचना सुन्दर न भी हो, तो भी समय पर कही गई वह रचना ही सुभाषित बन जाती है; जैेसे भूख लगने पर घटिया भोजन भी खाने वाले को स्वादु लगता है । (149) परिणाम पर ध्यान दिए बिना जो व्यक्ति अन्धाधुन्ध कर्म में जुट जाता है, वह उसी प्रकार पछताता है, जिस प्रकार केसू के पेड की सेवा करने वाला । भाव यह है कि केसू पर सुन्दर फूल तो लगते हैं पर उससे कोई फल प्राप्त नहीं होता, इसी प्रकार फल पर ध्यान रखे बिना कर्म करना व्यर्थ है । (150) विद्या अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान से अविद्या अर्थात् माया-मोह का नाश होता है । सदभावना से संसार का प्रपञ्च छूटता है । दान देते रहने से दरिद्रता ( गरीबी ) दूर होती है और सदाचार के पालन से दुर्दशा नष्ट हो जाती है । (151) अपनी और दूसरे की शक्ति को जाने बिना जो उत्सुकतापूर्वक दूसरे से टक्कर लेता है, उसका नाश उसी प्रकार होता है, जैसे पतंगे की मृत्यु आग से होती है । (152) छोटे लोगों को आजीविका छिनने का भय रहता है, मध्यम श्रेणी के लोगों को मृत्यु का डर लगा रहता है, उत्तम श्रेणी के लोगों को अपमान का ही भय रहता है, अर्थात् वे ऐसे ही कार्य करते हैं, जिन से वे अपमान से बचे रहें । (153) अव्यापक जीवात्मा और व्यापक परमात्मा के रहस्य को मैं बुद्धि द्वारा प्राप्त कर लेता हूँ । जीवात्मा और परमात्मा इन दोनों के विवेचन के साथ वेद को धारण करके उसके अनुसार हम शुभ कर्मों को करते हैं । (154) जिन्होंने श्रेष्ठ नियमों का पालन नहीं किया और मन्त्रों का ज्ञान भी नहीं पाया परन्तु केवल बापदादा की जाति के नाम से ही अपना निर्वाह चलाते हैं, ऐसे लोग यदि हजारों की संख्या में भी इकट्ठे हो जायें तो भी उनके समुदाय को सभा या परिषद् नहीं कहा जा सकता । भाव वह है कि विचार देने और सुनने का उन्हीं लोगों का अधिकार है, जो नियमपूर्वक शिक्षित हो चुके हों । (155) बलवान् शत्रु के सामने से निर्बल व्यक्तियों को दूर भाग जाना चाहिए अथवा किसी दुर्ग ( अगन्तव्य स्थान ) का आश्रय ले लेना चाहिए । इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं हो सकता । (156) जो दुष्ट, कपटी और कुटिल नहीं है परन्तु समयानुसार त्याग करने वाला, दूसरों के प्रति प्रेम दिसाने वाला और विशेष रूप से ज्ञानी है, यदि ऐसे मनुष्य के पास लक्ष्मी नहीं आती, तो समझना चाहिए कि यह लक्ष्मी का ही दुर्भाग्य है; वही ठगी गई है । (157) मनुष्य को चाहिए कि भोजन के समय खाने में ही ध्यान रखते हुए पहले मीठी वस्तु खाये, मध्य में खट्टी और नमकीन और बाद में कडवी तथा कसैली । (158) घोडा, हथियार, शास्त्र, वीणा, भाषा, पुरुष और स्त्री जैसे-जैसे पुरुष से सम्बन्ध रखते हैं, तदनुसार ही वे अयोग्य ( बुरे ) या योग्य ( अच्छे ) बन जाते हैं । तात्पर्य यह है कि साधनों कै महत्त्व तभी है, जब उसका प्रयोक्ता अच्छा हो । (159) यदि एक हजार अश्वमेधों की तुलना में तराजु पर दूसरी ओर सत्य को रखा जाए, तो हजार अश्वमेधों की तुलना में सत्य का पलडा ही भारी रहेगा अर्थात् सत्य की ही महत्ता अधिक होगी अर्थात् सत्य, हजार अश्वमेध-यज्ञों से भी श्रेष्ठ है । (160) श्रद्धा से रहित होना बहुत बडा पाप है और श्रद्धा पापों को नष्ट करती है । श्रुद्धालु व्यक्ति पापों से इस प्रकार छूट जाता है, जिस प्रकार साँप परानी केंचुली को उतार फेंकता है । भावार्थ यह है कि हम जो भी श्रेष्ठ कार्य करें उसे श्रद्धापूर्वक करें, तभी लाभ हो सकता है । (161) निम्नलिखित आठ गुणों से मनुष्ट की बहुत प्रशंसा होती है - (1) बुद्घि, (2) कुलीनता, (3) मन का संयम, (4) ज्ञान, (5) बहादुरी, (6)कम बोलना, (7) यथाशक्ति दान देना और (8) दसरे के उपकार को याद रखना । (162) दुष्टों की संगति से श्रेष्ठ मनुष्ट भी दुष्ट बन जाते हैं । दुर्योधन के संग से ही भीष्म भी विराट् की गौएँ चुराने के लिए चले गये । (163) हे परमात्मन् . मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से बचाकर मुक्ति की ओर ले चलो । (164) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह लापरवही में भी झूठ न बोले, क्योंकि झूठ बोलने से कल्याण समाप्त हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार तूफान से बडे- बडे पेड गिर जाते हैं । (165) झूठ बोलने से दुश्मनी, खेद और अविश्वास आदि अनेक दोष इस प्रकार से उत्पन्न हो जाते हैं जैसे कुपथ्य से बीमारियाँ उत्पन्न हो जाजी हैं । (166) यद्यपि सोने का मृग नहीं हुआ करता, तो भी राम ने ऐसे मृग की कामना की । प्रायः जब संकट आने लहता है, तब बडे- बडे लोगों की भी बुद्धियाँ विकृत हो जाती हैं । (167) तेजस्वी पुरुष भी यदि अकेला हो तो वह कुछ नहीं कर सकता । जैसे वायुरहति स्थान पर जलती हुई अग्नि भी बुझ जाती है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव को सहाायकों की आवश्यकता होती ही है । (168) हे परमेश्वर . यदि समुद्र रूपी पात्र में पहाड जितनी स्याही डाल दी जाए, कल्पवृक्ष की शाखा को कलम और पृथ्वी को कागज बना लिया जाए और उस पर सरस्वती देवी जीवन-भर तुम्हारे गुण लिखती रहें, तो भी उन्हें पूर्णरूप से नहीं लिखा जा सकता । (169) जो लोग आत्मा को नीचे की ओर ले जाते हैं, वे जीते- जी तो दुःख पाते ही हैं, साथ ही, मरने के बाद भी केवल पशुओं आदि की ऐसी भोग- योनियों मे जाते हैं, जहाँ अज्ञानरूपी अन्धकार छाया रहता है । (170) डाह करना तत्काल मृत्युरूप है, बहुुत बोलने से मनुष्य की शोभा नष्ट होती रहती है और गुरुसेवा न करना, जल्दी मचाना और अपनी प्रशंसा पाने की इच्छा करना ये तीन विद्या के शत्रु हैं । (171) मेरा धन मेरे पास ही हैं, यह विचार कर खेती करे । लाभ होगा या नहीं होगा, यह विचार कर व्यापार करे । कर्ज दिया हुआ वापस नहीं मिलेगा, यह समझ कर ऋण दे और मैं शायद समाप्त ही हो जाऊँ, यही विचार कर साहसिक कार्य में हाथ डाले । (172) 'समाचार क्या है, खबर क्या है' इस प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर कह रहे हैं कि महान् मोह से बने इस कडाहे में सूर्य की आग के द्वारा रात तथा दिन रूपी इन्धन से, महीनों तथा ऋतुओं रूपी कलछी को चला- चला कर काल सभी प्राणियों को पकाये जा रहा है, यही वार्ता है, यही समाचार या खबर है । (173) युधिष्ठिर से जब यह पूछा गया कि संसार में आश्चर्य क्या है तो युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया- ''संसार में प्रतिदिन प्राणी मर रहे हैं, यह देखकर भी शेष सदा जीने की इच्छा करते हैं, इससे बढकर आश्चर्य और क्या हो सकता है . '' (174) ''मैंने संसार के पालक सत्यस्वरूप परमेश्वर की उपासना से मेधा- बुद्घि को प्राप्त कर लिया है। मैं सूर्य के समान हो गया हूँ । अर्थात् जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट करता है, उसी प्रकार मैं भी मेधा- बुद्घि को प्राप्त करके संसार से अज्ञानान्धकार को नष्ट करने में समर्थ हो गया हूँ ।'' यह कथन प्रभु के सच्चे उपासक का है । (175) जो ज्ञानी लोग अहिंसारूपी पवित्र धर्म का सेवन करते हैं, वे ही ऊँची स्थिति पर पहुँचते हैं, अन्यथा दुसरे कुटिल लोग नीचे ही गिरते हैं । (176) किसी को दुःख न देना, सच बोलना, चोरी न करना, पवित्रता और इन्द्रियों को वश में रखना यही धर्म मनु ने ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए समान्य रूप से बताया है । (177) ब्रह्नचारियों और संन्यासियों के सामान्य धर्म में निम्न बातें आती हैं (1) अहिंसा, (2) मीठी वाणी, (3) सच्चाई, (4) पवित्रता, (5) दया और (6) क्षमा । (178) सभी वर्णों के लिए धर्म के ये अंग सामान्य रूप से हैं - (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) चोरी न करना, (4) कुत्सित कामवासना का परित्याग, (5) क्रोध का परित्याग, (6) लोभ का परित्याग, और (7) सभी प्राणियों के हित की कामना । (179) अरे . दुष्ट व्यक्ति रूपी साँप के काटने का ढंग बडा विचित्र है । वह एक के कान का स्पर्श करता है और दूसरा प्राणों से हाथ धो बैठता है । भावार्थ यह है कि दुष्ट व्यक्ति चुगलखोरी द्वारा कान भर कर दूसरे व्यक्ति को नष्ट करवा देता है । (180) तबले और दुष्ट व्यक्ति की कार्यपद्धति एक जैसी ही है । जब तक मुख में खाद्य पदार्थ दिया जाता है, तभी तक वे मीठा बोलते हैं । भावार्थ यह है कि तबले पर आटा लगाने से उस की ध्वनि मीठी हो जाती है और दुष्ट व्यक्ति को जब तक खिलाते-पिलाते रहो, तभी तक वह मीठा बोलता है, अन्यथा उसकी वाणी में कटुता आ जाती है । (181) मेरे शुभकर्मों के जंगल में 'शिव, शिव, शिव' इस प्रकार भगवान् का नाम रटते हुए कब साँप अथवा हार में, फूल के बिछौने अथवा पत्थर में, मणि में या ढेले में, बलवान् शत्रु में या मित्र में समभाव से देखते हुए मेरे दिन बीतेंगे ? अर्थात् सब में समान दृष्टि रखते हुए कब मैं प्रभु का नाम लेते हुए दिन बिताऊँगा ? (182) शक्लसूरत से, इशारों से, चालढाल से, चेष्टा या हरकत से, बोलने-चालने स और आँख तथा मुक के परिवर्तन से मन के छिपे हुए विचारों का बोध हो जाता है । (183) जन्म मृत्यु से घिरा हुआ है, बुढापे ने बिजली के समान चंचल जवानी को घेर रखा है, संसार में धन की कामना ने सन्तोष को घेरा हुआ है, समझदार नारियों की चेष्टाओं ने वैराग्य की शान्ति को लपेट रखा है, ईर्ष्या करने वाले लोगों से व्यक्ति के गुण घबरा रहे हैं, जंगली जानवरों से वनों में रहने वाले लोग घिरे हुए हें, दुष्टों ने राजाओं को बेचैन कर रखा है और अस्थिरता ने सम्पत्तियों को घेरा हुआ है ; बताओ तो सही किससे कौन घिरा हुआ नहीं है ? अर्थात् सभी किसी न किसी से आक्रान्त हैं । (184) दूसरे के द्वारा बुरा-भला कहने पर भी बुरा-भला नहीं कहना चाहिए । सहन करने वाले का अप्रयुक्त क्रोध ही उस बुरा-भला कहने वाले को जला डालता है, और बुरा-भला कहने वाले के पुण्य को भी हर लेता है । (185) मूर्ख लोग समझदार लोगों को गालियाँ देकर और निन्दा करके उनको हानि पहुँचाने की चेष्टा कते हैं, परन्तु बुरा बोलने वाला ही पापी कहलाता है और जो उन्हें क्षमा कर देता है, वही श्रेष्ठ माना जाताा है । (186) जो नासमझ असफल परिश्रम वाले शिकारी से या संकट में पडे हुए मूर्ख से बात करता है, वह तिरस्कृत होता है । (187) ज्ञान दो प्रकार का है - शास्त्र - जन्य तथा विवेकजन्य । शब्दब्रह्न का ज्ञान शास्त्रजन्य है और परब्रह्न का बोध विवेकजन्य है । (188) घर में आग लगाने वाला, मित्रघातक, शकुन बताने वाला और ग्रामीण पुरोहित ( जो जानता कुछ नहीं ) और जो शराब बेचने वाला है, ये सब रुधिरान्ध नरक में गिरते हैं । अर्थात् ये महान् पापी होते हैं । (189) आचरण द्वारा किसी के कुल ( खानदान ) का पता चल जाता है, किसी के शरीर द्वारा उसके खानपान का ज्ञान हो जाता है, किसी की बातचीत से उसकी विद्वत्ता का बोध हो जाता है और आँखों के द्वारा किसी के प्यार का संकत मिल जाता है । (190) वेद तथा स्मृतियों द्वारा बताया गया आचार ही परमधर्म कहलाता है । इसलिए जो द्विज ( ब्राह्नण आदि ) आत्मा की उन्नति चाहता है, उसे सदा इसका आचरण करना चाहिए । (191) जा ब्राह्नण आचार का त्याग कर देता है वह वेदों का फल प्राप्त नहीं कर सकता । परन्तु जो अपना जीवन वेदानुसार सदाचारी बना लेता है, वही सम्पूर्ण फलों को प्राप्त करता है । (192) सदाचार द्वारा आयु बढती है, आचार द्वारा इच्छानुसार सन्तानें प्राप्त होती हैं, आचार द्वारा ही स्थायी धन प्राप्त होता है और आाचार सभी त्रुटियों को भी नष्ट कर देता है । (193) आचार सम्पत्ति देने वाला है, आचार यश को बढाता है, आचार से आयु बढती है और आचार सभी त्रुटियों को समाप्त कर देता है । (194) राजाओं की आज्ञा के उल्लंघन का अर्थ है नौकरों की आजीविका की समाप्ति और स्त्रियों का अलग बिछौना बिना हथियार के मृत्यु कही जाती है । (195) हे भरतवंश में श्रेष्ठ धृतराष्ट्र, धन से पागल हुए लोगों का भोजन सामिष होता है, मध्य श्रेणी के लोग तो दूध-घी आदि का सेवन करते हैं, परन्तु दीन-हीन लोग तेलों द्वारा ही भोजन बनाते हैं । (196) मित्र चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, बिना त्रुटियों के हो या त्रुटियों वाला, फिर भी वही सहारा है । (197) जो आत्मज्ञानी है, सोच समझकर किली कार्य को शुरू करता है, सहनशील है, सदा धर्माचरण करता है और इन्द्रियों के विषय जिसे खींच नहीं सकते, वही बुद्धिमान् कहलााता है । (198) मनुष्य को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक मन तथा ज्ञानेन्द्रियों को संयम में रखकर स्वयं अपनी उन्नति करे, क्योंकि मानव स्वयं अपना बन्धु है और स्वयं ही अपना शत्रु है । अर्थात् मन और इन्द्रियों को वश में रखकर ही मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, अन्यथा उस का पतन हो जाता है । (199) तोते और मैनाएँ बहुत बोलने के कारण पकडकर पिंजरों में डाल दिए जाते हैं, परन्तु बहुलों को कोई भी बन्द करता, क्योंकि वे शोर नहीं मचाते । इससे सिद्ध होता है कि 'एक चुप, सौ सख । (200) जो व्यक्ति धर्म और अर्थ के विरुद्ध, न पाने योग्य अर्थात् अपनी पहुँच से बाहर की वस्तु को अपनी शक्ति को समझे बिना और बिना परिश्रम के ही पाना चाहता है, उसे मूढबुद्धि कहा जाता है । (201) हे श्रेष्ठ बुद्धि वाले, अपनी वस्तुओं में भी त्याग के भाव से, जो स्वार्थ की वृत्ति को त्यागना है, उसे ही आत्मज्ञानी लोग अस्तेय कहते हैं । (202) जो लोग स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी नींद पूरी करते हैं, ऐसे लोग यदि ऐस-वैसा भी अन्न खाते हैं, तो वह भी अमृत के समान शरीर का पोषक होता है । (203) हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर. संयम रूपी पुण्यतीर्थ वाली, सत्य रूपी जल वाली, शील रूपी तटों वाली और दया की लहरों वाली आत्मारूपी जो नदी है, तुम उसमें स्नान किया करो । तीर्थों वाले पानी से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं हुआ करती । (204) जो राजा अपने को ही शत्रु मानकर आत्मसंयम द्वारा विजय प्राप्त कर लेता है, वही मन्त्रियों और शत्रुओं को जीतने की इच्छा को सफल कर सकता है । (205) आत्मा ही अपना गवाह है, आत्मा का सहारा स्वयं अपने आप है । इसलिए मानव के सबसे श्रेष्ठ साक्षी अपने आप का ( आत्मा का ) तिरस्कार मत करो, अर्थात् अपने को कभी हीन मत समझो । (206) हे मानव. मैं, पुरोहित, तुम्हें राष्ट्र में शास्क के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ । हमारे मध्य में स्थायी रूप से रहकर बिना विचलित हुए शासन-व्यवस्था को ठीक रखो । ऐसा प्रयत्न करना कि सारी प्रजा तुम्हें चाहे और तुम्हारा प्रशासन क्षीण न होने पाये । (207) जिस प्रकार कोई व्यक्ति धन की कामना से किसी धनिक की प्रशंसा करता है, यदि उसी प्रकार संसार की रचना करने वाले परमात्मा की स्तुति करे, तो बन्धन से किसे छुटकारा नहीं मिल सकता ? अर्थात् प्रभु की वैसी स्तुति से अवश्य ही मुक्ति मिल सकती है । (208) आदर देकर वश में किए हुए शत्रु से शत्रु को नष्ट करना चाहिए । जैसे यदि पाँव में काँटा चुभ जाए, तो उसे हाथ में पकडे काँटे से ही निकाला जाता है । (209) सूर्य के उदय होने और अस्त होने के साथ-साथ प्रतिदिन आयु घट रही है । अनेक प्रकार के कार्यों के भार वाले व्यवहार के कारण जाता हुआ समय प्रतीत नहीं होता । जन्म, बुढापा, रोग, संकट और मृत्यु की घटनाएँ देखकर भी मन में डर उत्नन्न नहीं होता । ऐसा प्रतीत होता है कि मोहरूपी मादक शराब का पान करके यह सारा संसार पागल होकर सुध-बुध खो बैठा है । (210) शुरू में, बीच में और अन्त समय में भी सज्जन ही मित्रता निभाते हैं, अन्य नहीं । जैसे सोना काटने,पीटने घिसने और गर्म करने पर भी अपना स्वरूप नहीं बदलता । (211) प्रारम्भ में मोक्ष ज्ञान से होता है, फिर द्वितीय मोक्ष राग के क्षय से होता है, अन्त में तृतीय मोक्ष तीनों प्रकार के दुःखों से छूटने से होता है । यही मोक्ष का लक्षण कहा गया है । (212) या तो प्रेमियों के साथ आरम्भ में ही प्रेम नहीं दिखाना चाहिए, परन्तु यदि प्रेम दिखाया गया है तो उसे बढाते रहना चाहिए । किसी को उठाकर नीचे परकना लज्जा की बात है, क्योंकि भूमि पर जो स्थित है उसे तो गिरने का भय नहीं होता । (213) समझदार मनुष्य को साम की नीति ( शान्ति ) द्वारा ही आरम्भ में कार्य चलाना चाहिए, क्योंकि साम की नीति से जो कार्य सिद्ध किए जाते हैं, वे चिरस्थायी होते हैं, उनमें त्रुटि नहीं आती । (214) हे ज्ञानी लोगो. माला से सजे हुए इस कुमार को शिक्षा प्रदान करने के लिए अपनी शरण में ले लीजिए, ताकि यह उत्तम शिक्षा प्राप्त कर श्रेष्ठ पुरुष बन सके । (215) चिन्ताओं और रोगों से घिरे हुए, आज अथवा कल नष्ट होने वाले इस शरीर के लिए भला कौन श्रेष्ठ पुरुष धर्मविरुद्ध व्यवहार करेगा ? अर्थात् ऐसे शरीर के लिए धर्मविरोधी कार्य नहीं करने चाहिए । (216) आनन्द को प्रकट करने वाले आँसू और रोमांच जिसकी इच्छानुसार पैदा हो जाते हैं, उसे दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं है । ऐसे व्यक्ति के तो सब राजा भी आज्ञाकारी बन सकते हैं । (217) सम्पूर्ण उत्तम गति और क्रियाओं के साथ विद्वानों और सूर्य आदि जड देवताओं के उपकार करने की प्रशंसा हमें प्राप्त हो । अर्थात् हम उपकार में लगे रहें । इस प्रकार हम परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करते हुए सम्पूर्ण बुराइयों और संकटों को पार करने वाले सच्चे मित्र बनें । (218) हमारे चारों ओर नष्ट न होने वाले और त्याग न करने योग्य कल्याणकारी तथा दुःखविदारक शुभ कर्म करने वाले लोग इकट्ठे होते रहें; जिससे ये दिव्यगुणोों एवं सफल जीवन वाले श्रेष्ठजन हमारे सुख को बुढाने के लिए हमारे रक्षक बने रहें । (219) भारती ( सूर्य की दीप्ति ) शीघ्र ही हमारे यज्ञ में प्राप्त हो । मनुष्य की भाँति अन्न की उत्पादिका पृथ्वी हमें सावधान करती हुई इस यज्ञ में प्राप्त हो । वाग्देवी भी हमें प्राप्त हों । इस प्रकार उत्तम कर्मों वाली तीनों देवियाँ ( भारती, इडा, सरस्वती ) इस सुखमय यज्ञ को भूषित करें । तात्पर्य यह है कि सूर्य की दीप्ति, भूमि और वाणी द्वारा हम सम्पन्न हों और दूसरों काा भी भला करें । (220) संकट के समय में जो मित्रता निभाता है, वही वास्तव में मित्र है । उन्नति के समय में तो बुरे व्यक्ति भी मित्र बन जाया करते हैं । (221) संकट के लिए धन बचाए रखना चाहिए और धन व्यय कर के भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए परन्तु धन और स्त्रियों द्वारा आत्मरक्षा करनी आवश्यक है । (222) संकटो के आने पर हितकारी वस्तु भी संकट का करण बन जाती है । ( दूध दुहते समय ) उसकी माता गौ की टाँग ही बछडे के बाँधने का सम्भा बन जाती है । (223) इन्द्रियों को नियंत्रण में न रखने से मनुष्य अनेक संकटों से घिर जाता है । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य का सब प्रकार से कल्याण होता है । यह सम्पदाओं का मार्ग है । अब आप जिस मार्ग से चलना चाहते हैं, उस पर चलें, यह आपकी इच्छा पर निर्भर करता है । (224) जिस किसी ने संकट की स्थिति में अपकार किया हो और जिसने हँसी उडाई हो, इस प्रकार के दोनों व्यक्तियों से बदला लेने वाले मनुष्य को मैं पुनर्जन्म लेने वाला मानता हूँ । (225) हितचिन्तक मनुष्य को चाहिए कि किसी के संकट के समय, गलत रास्ते पर चलते समय और कार्य का समय बीत जाने पर भी बिना पूछे ही कल्याणकारी वचन कहे । (226) बुद्धिमानों को चाहिए कि वे संकटों को दूर करने के लिए स्वच्छ हृदय वाले मित्र बनाएँ, क्योंकि इस संसार में कोई भी व्यक्ति मित्रों के बिना संकटों से छुटकारा नहीं पा सकता । (227) माता के समान आप्त विद्वान् जैसे हमें पवित्र करते हैं, वैसे ही जल भी हमें पवित्र करें । आप्त जन हमारे आन्तरिक तथा जल हमारे शारीरिक दोषों को दूर करें । आप्त लोगों तथा जल से सङ्गत होकर मैं निष्पाप और शारीरिक मलिनता से रहित होकर पवित्र हो रहा हूँ । (228) जो मनुष्य भविष्य में आने वाली समस्याओं का पहले से ही उपाय सोच लेता है और उस उपाय को दृढ निश्चय के साथ करता है तथा बीते हुए समय के शेष कार्यों पर भी दृष्टि रखता है, वह कभी भी धन-सम्पत्ति से क्षीण नहीं होता । (229) उम्र लहरों के समान चञ्चल है, जवानी की शोभा भी कुछ दिनों तक रहने वाली है, धन संकल्पों के साथ ही उड जाने वाले हैं, भोगों का आनन्द वर्षा ऋतु की बिजली के समान अस्थिर है और प्रिय स्त्रियों से आलिंगन का आनन्द भी अस्थायी है । अतः हे मनुष्यो. जन्म-मरण के भय रूपी सागर को पार करने के लिए परमेश्वर की भक्ति में अपना मन लगाओ। (230) मनुष्यों की आयु लगभग सौ वर्ष मानी गई है, जिस में सेे आधी रातों में बीत जाती है, शेष एक चौथाई बचपन और बुढापे में चली जाती है । बाकी एक चौथाई आयु का समय रोग, शोक, दुःख और सेवा के कार्यों में निकल जाता है । ऐसी दशा में जल की लहर के समान चंचल इस जीवन में प्राणियों को सुख कहाँ ? अर्थात् सारा जीवन कष्टमय ही है । (231) विचारशील व्यक्तियों को अपनी आयु, धन, घर की त्रुटि, गुप्त सलाह, दवाइयों का मिश्रण, दान, मान और अपमान की बात किसी को नहीं वतानी चाहिए । (232) आयु का एक क्षण करोडों स्वर्णमुद्राओं से भी प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसा अमूल्य समय जो व्यर्थ नष्ट करता है, ऐसे मनुष्य रूपी पशु को धिक्कार है । (233) ये रसायन आयु बढाने वाले, रोगों को नष्ट करने वाले, शक्ति, जठराग्नि, सौन्दर्य और आवाज को बढाने वाले हैं । ये सभी रसायन बुद्घि भी बढाते हैं और शंखपुष्पी तो विशेष रूप से बुद्धिवर्धक है । (234) मूर्ख लोग छोटा सा ही काम आरम्भ कर के व्याकुुल हो जाते हैं, परन्तु समझदार लोग बडे-बडे काम आरम्भ कर के भी शान्त बने रहते हैं, व्याकुल नहीं होते । (235) जैसे छाया दिन होते ही लम्बी होती है और फिर घटती चली जाती है, इसी प्रकार दुष्टों की मित्रता पहले गहरी होती है और फिर घटती चली जाती है । सज्जनों की मित्रता इससे विपरीत दोपहर की छाया के समान निरन्तर बढने वाली होती है । जैसे दोपहर के समय छाया पहले छोटी होती है और फिर बढती चली जाती है, इसी प्रकार सज्जनों की मित्रता पहले हल्की और फिर घनिष्ठ होती चली जाती है । (236) धन के न होने पर भी ये वस्तुएँ मनुष्यों की बहुत बडी सम्पत्तियाँ हैं - (1) स्वास्थ्य, (2) विद्वत्ता, (3) सज्जनों से मित्रता, (4) ऊँचे कुल में जन्म और (5) स्वाधीनता । (237) हे राजन् धृतराष्ट्र. संसार के छह सुख हैं - (1) शरीर का स्वास्थ्य, (2) ऋणी न होना, (3) विदेश न जाना, (4) श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति, (5) अपने अनुकूल व्यवसाय ( रोजगार) और (6) निडरतापूर्वक निवास । (238) जैसे पहाड के ऊपर चट्टान बडी कठिनता से चढाई जाती है परन्तु क्षणभर में गिरई जा सकती है, उसी प्रकार आत्मा द्वारा गुण तो कठिनाई से ग्रहण किये जाते हैं, परन्तु दोषों में पतन शीघ्र हो जाता है । (239) हे धृतराष्ट्र. समझदार लोग श्रेष्ठ कर्मों में ही लगे रहते हैं और कल्याण के ही सब कार्य करते हैं। किसी का भला देखकर ईर्ष्या भी नहीं करते । (240) जो मनुष्य ऋषियों से कहे धर्मोपदेश अर्थात् धर्मशास्त्र का वेदशास्त्र के अनुकूल तर्क से अनुसन्धान करता है, वही धर्म के तत्त्व को समझ पाता है, अन्य नहीं । (241) मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य उनका बडा शत्रु है । परिश्रम के समान उनका कोई साथी नहीं है, जिसे करके वे कष्टों से बच जाते हैं । (242) सूर्योदय होते ही अपनी प्रेम प्रकट-सा करते हुए बगीचे के पेड, पत्तों द्वारा छाया करते हुए उस छाया को दूर तक ले जाते हैं । परन्तु ज्यों ही सूर्य अस्ताचल की ओर बढता है, त्यों हीये पेड अपनी छाया पीछे के ओर मोड लेते हैं और सूर्य का सम्मान करना छोड देते हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिसका धन नष्ट हो जाता है, उसके नौकर चाकर भी उसका त्याग कर देते हैं । (243) सूर्य के अस्त होते ही चकवी चकवे से पृथक् होकर बुरी तरह काँपती, है, चक्कर लगाती है, रोती है, पागल हो जाती है, पति को ढूँढती है और बहुत दुखी होकर चिल्लाती है । अफसोस. जीते हुए भी प्रिय का वियोग मृत्यु के समान दुःखदायी होता है । (244) मनोरथ रूपी जल वाली, तृष्णा की तरंगों से परिपूर्ण, रागरूपी मगरमच्छों से युक्त, संशय रूपी पक्षियों वाली, धैर्यरूपी पेड को नष्ट करने वाली, मोह रूपी भंवरों के कारण पार करने में कठिन, बहुत गहरी और सीधे खडे ऊँचे किनारों वाली आशारूपी नदी बह रही है । जो स्वच्छ मन वाले योगिराज इस नदी के पार चले जाते हैं, वे ही सच्चे आनन्द को भोगते हैं । (245) पति की कामना करने वाली पिंगला नामक नारी ने जब उसकी कामना त्याग दी तो वह शान्त होकर आनन्द की नींद लेने लगी । इसलिए कामना ही दुःख को पैदा करती है और निष्कामभाव परम सुख को देने वाला है । (246) हे राजा युधिष्ठिर. विचारशील लोग कहते हैं कि जब सब आश्रमों को तराजू पर रखकर तोला गया, तो तीन आश्रम एक पलडे में और दूसरे पलडे में केवल गृहस्थाश्रम बराबर ही सिद्ध हुए । इससे सिद्ध होता है कि गृहस्थाश्रम ही सबसे बडा है । (247) साथ बैठने, साथ सोने, साथ बातचीत करने और साथ ही भोजन करने से एक-दूसरे की बुराइयाँ एक-दूसरे को प्रप्त हो जाती हैं ; जैसे एक घडे से दूसरे घडे में जल उँडेला जााता है । (248) बालक को उत्पन्न करने के समय माता को जो असहनीय पीडा हुई, उसकी बात तो एक तरफ रही, गर्भावस्था में जो शरीर का शोषण हुआ और बच्चे के जन्म के बाद वर्षभर जो मलमू -पूर्ण बिछौने पर माँ को सोना पडा, इस प्रकार के कष्टों से परिपूर्ण जिस माता के एक भी क्लेश का बदला जो पुत्र बडा होकर भी नहीं चुका सकात, उस माँ को नमस्कार हो । (249) भोजन, नींद, डर और सन्तानोत्पत्ति का मनुष्यों का कार्य पशुओं के समान ही है । यदि उनमें (मनुष्यों में) कोई विशेषता है तो वह धर्म है । इसलिए धर्म से रहित मनुष्य पशुओं के समान ही है । (250) भोजन का सार वीर्य है । इसलिए मनुष्य को अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिए । वीर्य का नाश अनेक रोगों को जन्म देता है, अथवा मृत्यु का भी कारण बन जाता है । (251) जो द्विज (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य) माला पहनकर भी प्रतिदिन यथाशक्ति स्वाध्याय करता है, वह नाखूनों के सिरों तक परम तप करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं । अर्थात् स्वाध्याय एक महान् तप है । (252) गन्ने की आगे की पौरी से लेकर उत्तरोत्तर नीचे की पोरियों मे जैसे मिठास अधिक से अधिक होती जाती है, उसी प्रकार सज्जनों की मित्रता उत्तरोत्तर प्रेम से भरपूर होती जाती है परन्तु दुर्जनों की मित्रता क्रमशः कम होती जाती है । (253) सौ वाला हजार चाहता है और हजारों वाला लाख चाहता है । लाखों वाला राज्य चाहता है और राज्य वाला स्वर्ग की कामना करता है । भाव यह है कि तृष्णा का कहीं अन्त नहीं है । (254) हे परमैश्वर्य के दाता प्रभो. परस्पर स्नेह-रस के वर्धक मित्र आपको चाहेत हैं, परमैश्वर्य की साधना करते हैं, कामना योग्य वस्तुओं को धारण करते हैं और मनुष्यों की चारों ओर से होने वाली हिंसा को सहते हैं अर्थात् उसका सामना करते हैं । प्रभो. आपसे बढकर उत्तम बुद्धि वाला कोई अन्य नहीं है, अतः आप हमारा नेतृत्व कीजिए, हमें सत्प्रेरणा दीजिए । (255) दिव्य गुणों वाले श्रेष्ठ मानव कर्मशील मनुष्यों को चाहते हैं, आलस्य या आलसियों को नहीं, क्योंकि जो निरालस और पुरुषार्थी हैं, वे ही परमानन्द को प्राप्त कर सकते हैं, अन्य नहिं । (256) यदि किसी से पक्की और स्थायी मित्रता चाहते हो, तो तीन बातें नहीं करनी चाहिए । एक तो वाद-विवाद, दूसरा धन के कार्यों में साझापन और तीसरा, मित्र की पत्नी से अधिक बातचीत । (257) यज्ञ, धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय, दान, तप, सच्चाई, सहनशीलता अथवा क्षमा, बुरे कार्यों से घृणा तथा लोभ का त्याग- यह धर्म का आठ प्रकार का मार्ग कहा गया हैं । (258) हे परमेश्वर, आपकी कृपा से हमें भूमि प्राप्त हो, सब सखु प्राप्त कराने वाली राजनीति प्राप्त हो, सभी कामना करने योग्य वस्तुएँ प्राप्त हों । हमें उन वस्तुओं को स्थायी बनाए रखने का सामर्थ्य भी प्राप्त हो । (259) हे सर्वदा रक्षणीय गृहपत्नी. तू प्रशंसनीय, रमण करने योग्य, स्वीकार करने योग्य, कामना करने योग्य, आनन्ददायक, श्रेष्ठ शील और विद्या से प्रकाशमान, आत्मा के स्वरूप से अखंडनीय, प्रशंसति विज्ञान वाली, अत्यन्त प्रशंसनीय और वेदादि के सम्यक् ज्ञान से सम्पन्न है । हे ताडना न करने योग्य देवी. इतने गुणार्थक नामों से तू सम्पन्न है । देवों, अर्थात् उत्तम गुणों के लिए मुझे उत्तम निर्देश दिया करें । (260) हे प्रिय, तुम्हें मैं सर्वश्रेष्ठ, पवित्र और सबसे महत्त्वपूर्ण बात बता रहा हूँ कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन के लिए भी किसी कामना से, भय से या लोभ से धर्म का कभी भी परित्याग न करे । (261) हे मानव. तेरे लिए एक यह जगत् है और दूसरा ज्योतिर्मय आत्मा है, तू तीसरी ज्योति परमात्मा के साथ मग्न हो जा । तब समस्त दिव्यशक्तियों के परम उत्पादक तथा शरीरों के आश्रयभूत परमात्मा में तू श्रेष्ठ बनकर विचरण कर उसके आनन्द का उपभोग कर सकता है । (262) हे परमेश्वर . आपकी कृपा से और मेरे सत्याचरण व्यवहार से मुझ में ज्ञानबल और क्षात्रबल दोनों शोभा प्राप्त करें । विद्वान् लोग मुझे उत्तम लक्ष्मी प्राप्त करने की विधि सिखलायें । उसी कल्याणकारिणी लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए हम सभी प्रयत्नशील हों । (263) हे परमेश्वर. हमारे लिए सुखद वर्षाएँ हों, सुन्दर फलों वाली ओषधियाँ हों और विद्वान् लोग उनका ठीक प्रकार से प्रयोग करें । यह वाणी पर्जन्य के समान आनन्द की वृष्टि करने वाले राजा के लिए भी है कि वह हमारे हृदयगत इस वाणी को व्यवहार में लाये, अर्थात् वह मेघ के समान ही सारी प्रजा को सम्पन्न बनाये और सुखी करे । (264) परमेश्वर ने तीन प्रकार का जगत् रजा है - एक पृथ्वीरूप, दसूरा अन्तरिक्ष में रहने वाला परमाणुरूप और तीसरा प्रकाशमय सूर्यादि के रूप वाला । इन तीनों लोकों को वही एक सर्वव्यापक विष्णु धारण कर रहा है । (265) सब ज्योतियों में श्रेष्ठ ज्योति यह उषा अब प्रकट हो रही है । इस समय विचित्र चेतना विस्तृतरूप से चारों ओर फैल रही है । जैसे रात्रि सूर्य के सम्बन्ध से पैदा हुई थी, ऐसे ही ऐश्वर्य के हेतु उषा काल के लिए वह अब स्थान खाली कर रही है । वास्तव में, रात्रि और उषा-दोनों का स्रोत सूर्य ही है । विशेष - इस मन्त्र में जहाँ लौकिक उषा का वर्णन है, वहाँ प्रभु के सम्पर्क में आने से आत्मज्योति की उषा का भी वर्णन हे, जो कि अज्ञान की रात्रि को मिटा रही है । (266) हे मनुष्य. इस हिरण्य-रूप सम्पत्ति को तू उसी प्रकार धारण कर जैसे तेरे पिता ने इसे पहले धारण किया था । जैसे पिता उदारतापूर्वक और कुशलातपूर्वक दान दिया करते थे, तू भी उसी प्रकार दक्षिणा देकर पिता की परम्परा को सुखमय बना । (267) मुझमें जो कुछ भी बुराई या जो भी अच्छाई है, या मैंने किसी से शत्रुता की है अथवा किसी को गाली दी है या कृपा की है, अथवा झूठ या सच बोला है, यह सभी कुछ मेरे प्राण को मेरे साथ ही प्राप्त होते हैं । ( और प्रभु तदनुसार ही फल की व्यवस्था करता है । ) (268) यह मेरा चमकता हुआ, मृत्यु से बचाने वाला खेत से लाया हुआ सुवर्ण रूप अन्न है और यह मेरी कामनाओं को पूर्ण करने वाली गाय है । इस धन को मैं वेद-प्रचार के कार्यों में लगाकर पालन करने वाले विज्ञानियों के बीच खुख पहुँचाने वाले रास्ते को बना रहा हूँ । (269) दृढ प्रतिज्ञा वाले महान् पुरुष आनन्दमय प्रभु को प्राप्त कर लेते हैं । वे क्रान्तप्रज्ञ यज्ञ रूपी वेदी पर ऐसे शब्दायमान होते हैं, जैसे लोभी व्यक्ति किसी इच्छित वस्तु पर आ जपकते हैं । धीर लोग दस प्राणों की गति से और सत्कर्मों के परिपाक से उस आनन्दमय परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं । भावार्थ यह है कि प्राणों के संयम से हम परमात्मा तक पहुँच सकते हैं । (270) उस एक अग्नि रूप प्रभु को ही ज्ञानी लोग विविध नामों से पुकारते हैं । उसे ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम और मातरिश्वा भी कहते हैं । (271) हमारी वाणियाँ ईश्वर के गुणगान में प्रवृत्त हों । हमारे उपार्जित उत्तम-उत्तम रसीले पदार्थ भगवान् के यश को ही बढावें । सब उपासना करने वाली प्रजाएँ परमैश्वर्यशाली इन्द्र में रमण कर आनन्द प्राप्त करें । (272) हम लोग कर्मशील होकर ऐश्वर्य को बढाते हुए, सम्पूर्ण विश्व को आर्य ( श्रेष्ठ ) बनाते हुए तथा सब दुष्ट शत्रुओं को नष्ट करते हुए परमात्मा को प्राप्त हों । ( विशेष - अगले मन्त्र से 'अन्वभ्यर्षन्ति' शेष लिया है ) (273) राजा इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि और पृथ्वी के तेजस्वी स्वभाव के अनुसार ही आचरण तथा व्यवहार करे । (274) शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला, सबका द्रष्टा, परमैश्वर्यशाीली परमात्मा सभी दिशाओं से हमें निर्भय बना दे अर्थात् उसकी कृपा और अपने व्यवहार से हम सभी ओर निर्भय होकर विचर सकें । (275) हे अनेक लोगों से पुकारे जाने वाले परमैश्वर्यशाली परमात्मन्. जैसे पिता पुत्रों के लिए धर्मानुकूल बुद्धि (ज्ञान) देता है, वैसा ही ज्ञान (प्रेरणा) हमें दीजिए । इस वर्तमान काल में हमें ऐसी शिक्षा प्रदान कीजिए कि हम जीव विज्ञान को और आप को प्राप्त कर सेकं । (276) हे राजन्. अन्यायकारी दण्डनीय डाकू को और वंचना करके धर्म की हानि करने वाली अन्यायकारिणी स्त्री को भी नष्ट कर दीजिए । हिंसारूपी क्रिया से क्रीडा करने वालों की गर्दनें कटी हुई दिखाई दें । वे उदय होते हुए सूर्य को भी न देख पायें, अर्थात् उनका शीघ्र ही वध कर देना चाहिए । (277) हे इन्द्र ( राजन् अथवा परमेश्वर ). सोना, चाँदी और लोहे की तीन धातुओं वाले, शीत, ताप और वर्षा-इन तीन ऋतुओं के कष्टों को सहन करने वाले उत्तम आश्रय के योग्य और बहुत सुखों वाले घर धनिकों को और मुझे भी दीजिए और सबके लिए प्रकाश का भी प्रबन्ध कीजिए। (278) गाने वाले और विचारशील विद्वान् अपने उत्तम कर्मों द्वारा इन्द्र (वायु, सूर्य और परमात्मा ) की गुणानुसार स्तुति करें अर्थात् सबके गुणों का वर्णन करें । (279) हे पराक्रमी परमैश्वर्यशाली परमात्मन्. महायुद्धों में तथा असंख्य दुःख देने वाले कर्मों में अत्यन्त दुःखनाशक और सुख देने वाले रक्षा-साधनों से हमारी रक्षा कीजिए अर्थात् हमें ऐसी प्रेरणा दीजिए कि युद्धों में विजय तथा धन के कार्यों में धन को प्राप्त करते हुए हम सुरक्षित रहें । (280) हे परमैश्वर्यशाली परमात्मन्. आप परम पवित्र हैं, हमें भी अपनी निर्दोष समाग्री से पवित्र बनाइए । हम आप की प्रेरणा से पवित्र धन को ही प्राप्त करें । प्रभो. हमारी आत्माएँ सोम-गुण से सम्पन्न, शुद्ध और पवित्र होकर आनन्दमय बन जाएँ । (281) हे परमैश्वर्यशाली प्रभो. आप हमें श्रेष्ठ धन दीजिए, बल के लिए चेतना शक्ति, अत्युत्तम ऐशवर्य, पुष्टि देने वाला धन, शरीर का स्वास्थ्य, वाणी की मधुरता और दिनों को सुखपूर्वक बिताने वाला ज्ञान प्रदान कीजिए, अर्थात् हम लोग इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहें । (282) आत्मा से पृथक् अपने कारणों से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियों के होने को आत्मा से भिन्न और उत्पन्न होने वाली और नश्वर जानकर धीर पुरुष शोक नहीं करता । (283) इन्द्रियों के वश में न होने से मनुष्य में कई त्रुटियाँ आ जाती हैं । परन्तु जब वह उन्हें संयम में रखता है, तो उन्हीं द्वारा उसे प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो जाती है । (284) जब इन्द्रियाँ आकर्षक विषयों की ओर मनुष्य को खींचें तो उनको संयम में इस प्रकार रखने का प्रयत्न करना चाहिए, जैसे रथ-चालक घोडों को वश में रखता है । (285) चञ्चल इन्द्रियों के पीछे जब मन चल पडता है, तो इससे मनुष्य की बुद्धि विचलित हो जाती है, जैसे जल में नौका वायु द्वारा डगमगा जाती है । (286) इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना मृत्यु से भी भयंकर कार्य है, परन्तु उनको स्वतन्त्र छोडने से देवता भी कष्टों में पड जाते हैं । ( अतः धीरे-धीरे इन्हें वश में करने का अभ्यास डालना चाहिए। ) (287) जो संयमी भोजन त्याग देते हैं, वे रसनेन्द्रिय को छोडकर अन्य सब इन्द्रियों पर विजय पा लेते हैं, परन्तु भूखे रहने से रसनेन्द्रिय की रस की इच्छा बढ जाती है । (288) विषयों के सागर में प्रवेश कर उन विषयों में लगी हुई इन्द्रियों को खींचकर अपने वश में करना ही प्रत्याहार कहलाता है । (289) हे सैकडों कार्यों का ज्ञान रखने वाले राजन् . मैं, प्रधानमन्त्री,आप के सहायक इन पाँच महत्त्वपूर्ण अधिकारियों का आपके मंगलमय प्रशासन के लिए चयन करता हूँ - (1) गृह-मन्त्री, (2) वित्त-मन्त्री, (3)विदेश-मन्त्री, (4) रक्षा-मन्त्री और (5) न्याय-मन्त्री । (290) स्वर्ग ( सुख ) और नरक ( दुःख) का कारण ये इन्द्रियाँ ही हैं । यदि ये वश में रहें तो सुखदायी होती हैं और यदि ये स्वतन्त्र हो कर विषयों में भटकें, तो ये ही दुःखों का कारण बन जाती हैं । (291) इन्द्रियों के विषयों मेें रुचिपूर्वक व्यस्त नहीं होना चाहिए । विषयों में इनकी अधिक रुचि मन के संयम द्वारा दूर कर देनी चाहिए । (292) वह इन्द्र, परमैश्वर्यशाली परमात्मा हमें विजयी बनाए । उसकी कृपा से हम कभी पराजित न हों । वह महारजाधिराज परमेश्वर. यश से सम्पन्न लोगों में हमें शोभाशाली बनाए । हे प्रभो. आप ही चर्कुत्य अर्थात् सभी श्रेष्ठ कर्मों को करने में चतुर हैं, अतः आप स्तुत्य, वन्दनीय, उपासनीय और नमस्करणीय हैं, इसलिए हम आपकी शरण में आते हैं । (293) जैसे सब ओर से नियमबद्ध सूर्यलोक अस्थिर किरणों से निन्यानवें प्रकार धारण करने वाले वायु के आधार पर टिके मेघों के अवयवों को तोडताफोडता है, वैसे ही हे सेनापति. तू भी हमारे सभी दुष्ट शत्रुओं को नष्ट कर दे । (294) हे चित्रावसो, आश्चर्यमय धन वाले परमेश्वर. हम लोग दम्भ, अहङ्कार और हिंसा आदि दोषों से रहित होकर दीर्घ आयु और सहनशीलता को प्राप्त कर सौ वर्षों तक आप प्रकाश स्वरूप की उपासना करते हुए तेजस्वी बनकर जियें । न दबने वाले और शत्रुओं को नष्ट करने वाले अस्त्र-शस्त्रों से हम सम्पन्न हों । तेरी कृपा से हम सब प्रकार के कल्याण का उपभोग कर सकें, यही कामना है । (295) सभी पशु इस गोष्ठ (गोशाला) में आकर मिलें । इन पशुओं का स्वामी उन्हें पहचान कर उचित स्थान दे । खाद्य देने वाली गृहपत्नी इन को उचित आहार दे और नियम में बाँधकर रखे । (296) हे मनुष्यो. जीवों के परिश्रम से प्राप्त किए धन को कोई अन्य प्राप्त न कर ले, यह मर्यादा मैं सब प्राणियों के लिए निश्चित करता हूँ । इस प्रकार दूसरे के धन का लोभ न करते हुए तुम मनुष्य सौ वर्षों की दीर्घ आयु को प्राप्त करो और मृत्यु को ब्रह्नचर्य तथा ज्ञानदि द्वारा दूर कर दो । (297) हे जारन्. संग्रामों में और तेजी के कार्यों में काम आने वाले इन एक खुर वाले, हिनहिनाने और वेग वाले घोडे, गधे आदि पशुओं को मत मारो और जंगली गौर पशु की ओर भी मैं, ईश्वर, तुम्हें संकेत करता हूँ कि उसे भी मत मारो और उपयोग में लाकर अपनी वृद्धि करो । (298) हे तेजस्वी राजन्. आप कई प्रकार की दृष्टी रखने वाले हैं, अतः सुख की प्राप्ती के लिए एवम् अपनी वृद्धि हेतु द्विपद प्राणी-मनुष्य तथा पवित्रकारक जंगली गवादि पशुओं को मत मारो । उस पशु की सेवा करके उस से लाभ उठाते हुए शरीर को निरन्तर स्थिर बनाओ । (299) मेरे इस प्रशंसा-वचन को ये नदियाँ सब प्रकार से सिद्ध करती हैं और सुनवाती हैं । इनमें से 'गङ्गा' अर्थात् अति गमशील, 'यमुना' अर्थात् मिलकर तथा पृथक् चलने वाली भी नदी, 'सरस्वती' अधिक जल वाली नदी, 'शुतुद्री' शीघ्र बहने वाली नदी, 'परुष्णी' कुटिल बहने वाली नदी, 'असिक्नी' नीले पानी की नदी, 'मरुदवधा' मानसून में चलने वाली नदी, 'वितस्ता' विस्तार वाली नदी, 'आर्जीकीया' सीधी बहने वाली नदी और 'सुषोमा' सुन्दर औषधियों के किनारों वाली नदियाँ हैं । विशेष - ये सभी नाम गुणवाचक हैं । इन्हीं से बाद में नदियों के व्यक्तिवाचक नाम बनाये गए हैं । ये नाम विभििन्न रक्तवाहिनियों के भी हैं । (300) स्त्रियों की रक्षी करना सब वर्णों का परन धर्म है, ऐसा मानकर दुर्बल पति भी अपनी पत्नियों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं । (301) हे अग्नि के समान ज्ञान और प्रभाव से सम्पन्न राजन्. श्रेष्ठ के केन्द्र तथा द्विपद और चतुष्पद प्राणियों को अपनी ऊन से ढकने वाले, संसार के निर्माता प्रभु की प्रजाओं में प्रथम स्थान रखने वाले तथा सबको जीवन देने वाले भेड आदि ऊन वाले पशुओं की हत्या न करो और न होने दो । (302) हे पापनिवारक वरुणदेव. शिक्षा प्राप्त करने वाले हम लोगों की बुद्धि में सुक्रिया और शक्ति में तीव्रता लाइए, जिससे हम लोग सब पापों और कष्टों को पार कर सकें ओर ठीक प्रकार से पार लगाने वाली श्रेष्ठ क्रिया-रूपी नौका पर सवार होकर आपके पास पहुँच सकें । (303) जैसे मैं बारह महीनों के लिए घृत से तृप्त करने वाली वाणियों द्वारा यज्ञ करता हूँ, वैसे ही राजपुरुषों को भी कर आदि देकर उन्हें पूर्ण करता हूँ । हमारी वाणियों को हे राजन्. सुनिए क्योंकि आप ही हामरे मित्र, नियामक, ऐश्वर्य और बलादि गुणों से प्रसिद्ध, श्रेष्ठ चतुर और दुष्टों के विनाशक हैं । आप अनपे साधनों से हमारी रक्षा कीजिए । (304) सौभाग्यशालिनी उत्तम पत्नियाँ अंजन और घृत आदि सुगन्धित पदार्थों से युक्त होकर अपने घरों में जायें तथा बिना आँसू बहाये, रोगरहित रहकर उत्तम रत्नों से सुसज्जित होकर सन्तानोत्पन्न करने वाली बनें तथा अपने घरों में सुखपूर्वक स्थित रहें ( किसी की मृत्यु के पश्चात् के लिए यह निर्देश है । ) (305) जो न अपरा विद्या में निपुण हैं और जो न परा विद्या को जानते हैं, न वेदविद्या में पारंगत हैं और नाहीं कर्मकाण्ड को जानते हैं, वे अविद्वान् लोग पापमय वाणी से युक्त होकर केवल सांसारिक व्यवहार करते हुए हल चलाकर कृषि आदि का ही कार्य करते हैें, वे आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते । (306) यह विविध सृष्टि जिससे उत्पन्न होती और जिसमें टिकी हुई है अथवा किसी के विचार में नहीं टिकी हुई है, वही इस का अधिष्ठाता एवं आधार है । वह परमोत्कृष्ट प्रकाशरूप में स्थित है । केवल वही इसके रहस्य को जानता है और दूसरा कोई नहीं जानता । (307) इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले उपाय को पूर्णरूप से अनुकूल जानकर भी हृदय उसकी सफलता पर सन्देह ही करता है और अधीर होकर डरता ही रहता है । (308) हे पृथापुत्र युधिष्ठिर. इसी शरीर के द्वारा कार्य किया जा सकता है । मरने के पश्चात् कुछ भी नहीं किया जा सकता । तुमने इसी शरीर द्वारा परलोक सुधारने का और इस लोक में सज्जनों द्वारा पवित्र और प्रशंसनीय माना हुआ कार्य किया है । (309) इसी घर में गौएँ, घोडे और पुरुष अपनी सन्तानों द्वारा वृद्धि को प्राप्त हों और हजारों को दक्षिणा देने वाला पोषक गृहपति भी इसी घर में रहे । भाव यह है कि घर ऐसा होना चाहिए जिसमें पशुओं और मनुष्यों दोनों के रहने की व्यवस्था हो । (310) यदि इसी जीवन में तुम प्रभु को जान जाओ तो बहुत अच्छी बात है । यदि नहीं जानोगे तो समझो तुमने अपना मानव-जीवन नष्ट कर बडी हानि उठाई है । ज्ञानी लोग प्राणियों की जन्म-मृत्यु की दशा को देखकर और तत्त्वज्ञान प्राप्त करके प्राणों को छोडकर इस लोक से जाकर अमर-पद प्राप्त कर लेते हैं । (311) हे उत्तम नियमों के पालन कराने वाली बुद्धि के स्वामी . तुम्हारे घर में पोषण और आनन्द देने वाले सब पदार्थ होने चाहिएँ । बहुतों को तुम सखु देने वाले बनो और पशुओं को भी पालो-पोसो । (312) हे गृहस्थो. तुम्हारे इस गृहस्थाश्रम में प्रीति हो, यहाँ धैर्य हो, सब पदार्थों को धारण करने की क्षमता हो और तुम्हारी वाणी और क्रिया सत्य हो । इस घर में शुभ क्रियाओं द्वारा माता में गर्भ धारण की क्षमता हो और पुत्र माता का दूध पीकर बढे । इसके अतिरिक्त राज्य को चलाने के लिए भी धन को बढाओ । (313) इस संसार में धनिकों के लिए दूसरे भी अपने बन जाया करते हैं, परन्तु निर्धनों के अपने भी सदा उनसे दुष्ट व्यवहार करने लगते हैं । (314) जब शिष्य अच्छे कार्य करता है, तो उसे कोई रोकता नहीं है, परन्तु जब अज्ञानवश ठीक मार्ग छोड देता है, तब गुरु अंकुश के समान तीक्ष्ण हो जाता है । इसलिए विनम्र रहने वाले अच्छे शिष्यों को कभी भी दण्ड का भय नहीं रहता । इसीलिए हम अत्यन्त स्वतन्त्रता नहीं चाहते, नियमों में ही बंधे रहना चाहेत हैं । (315) कोई तो पिछले शुभ कर्मों के कारण इस संसार में सुख पाता है परन्तु परलोक में नहीं, दसरा शुभ कर्मों द्वारा परलोक में सुख पाता है, परन्तु यहाँ नहीं, तीसरे प्रकार का व्यक्ति इस लोक में भी और परलोक में भी सुख पाता है, परन्तु कुछ दुर्भाग्यशाली ऐसे होते हैं कि वे पिछले कुकर्मों के कारण यहाँ भी सुख नहीं पाते और नये कुकर्मों के कारण परलोक में भी दुखी रहते हैं । (316) हे वर और वधू. तुम दोनों इस गृहस्थ आश्रम में स्थिर रहकर और वियुक्त न होकर पूर्ण आयु का भोग करो तथा अपने घर में रहकर पुत्रों और पौत्रों के साथ खेलते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन बिताओ । (317) अभिमान के कारण ही ईषर्या, प्रमाद, बहुत बकवास, अविवेक और गुणों में दोष देखने का स्वभाव बन जाता है । अतः अभिमान नहीं करना चाहिए । यह निंदनीय कार्य है । (318) हे मनुष्य. तेरी डाह की पहली तथा दूसरी अवस्था को और उससे अत्पन्न हृदयस्थ शोकाग्नि को हम सर्वथा नष्ट करते हैं । भाव यह है कि ईर्ष्या करने से हृदय जलने लगता है, अतः इससे दूर रहना चाहिए । (319) छह प्रकार के ये लोग सदा दुखी रहते हैं (1 ) डाह करने वाला, (2) नफरत करने वाल (3) तृप्त न होने वाला, (4) क्रोधी स्वभाव वाला, (5) सदा सन्देह करने वाला, और (6) दूसरों के भाग्य से जीने वाला, अर्थात् दूसरों पर आश्रित रहने वाला । (320) अन्न आदि श्रेष्ठ वस्तुओं के उत्पाक तथा मनुष्यों को जीवन देने वाले जलों द्वारा हम औषध का भी कार्य लें अर्थात् जलों द्वारा चििकित्सा करें । (321) हे मानव. सृष्टि में जो भी जड या चेतन हैं, वे सब उस ऐश्वर्यमय प्रभु से आच्छादित हैं । उस प्रभु दारा प्रदत्त परार्थों से ही तू जीवन में भोग कर । किसी अन्य के धन का लोभ मत कर । ( अथवा धन किसका है, वह तो ईश्वर का है । अतः त्यागपूर्वक भोग कर । ) (322) हे अर्जुन. वह परमेश्वर सभी उत्पन्न पदार्थों में बैठकर सभी को अपनी माया से इस प्रकार घुमा रहा है, जैसे कोई चालक रथ में बैठी सवारियों को ले जाता है । (323) कोई धनवान् व्यक्ति बहुत दान देकर पुण्य का जो फल प्राप्त करता है, निर्धन व्यक्ति उतना ही फल एक कौडी भी दान करके प्राप्त कर लेता है, ऐसा श्रेष्ठ लोग कहते हैं । (324) जो अपनी कही हुई बात को झुठलाना नहीं चाहता, उसे ऐसे व्यक्ति के दोष प्रकट नहीं करने चाहिए, जिसे वह किसी सभा में गुणवान् बता चुका है । (325) बुद्धिमान् व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि उचित या अनुचित कार्य करने से पूर्व उसके परिणाम को अच्छी प्रकार समझ ले, क्योंकि जो कार्य अविवेकपूर्वक अतिशीघ्रता में किए जाते हैं, उनका परिणाम जीवन की समाप्ति तक काँटे के समान हृदय में चुभता रहता है । (326) विद्वानों की गोष्ठी में एक को तो ज्ञान से पूर्ण कहा जाता है, जिसे वाणी के व्यवहार में कोई हरा नहीं सकता । वाणी और उसके अर्थ को न जानने वाला केवल शब्दडम्बर द्वारा ही व्यवहार करता है, क्योंकि उसने बिना फलों और भूलों वाली वाणी को ही सुना है ; उसकी गहराई तक नहीं पहुँचा । (327) एक मनुष्य तो वाणी को देखता हुआ भी (पढता हुआ भी ) अर्थ न समझने के कारण नहीं देख पाता और एक सुनता हुआ भी उसका अर्थ न समझने के कारण नहीं सुन पाता, परन्तु एक प्रकार के मानव के लिए वाणी अपने शरीर को इस प्रकार खोल देती है, जैसे कामना करने वाली पत्नी पति के सामने अपना शरीर निर्वस्त्र कर देती है । अर्थात् जो व्यक्ति वाणी के अर्थों को समझता है, वही उसका पूर्ण लाभ और आनन्द ले सकता है । (328) हे विद्वानो. नीचे गिरे हुए को ऊपर उठाओ । और विद्वानो. अपराध करने वाले को भी फिर अपराध करने से बचाकर उसे नया जीवन प्रदान करो । (329) वह शुद्ध स्वरूप परमात्मा कर्मानुसार सभी को फल देता हुआ विद्वान् को मूर्ख को विद्वान् बना देता है । (330) हे संजय, अच्छे अथवा बुरे व्यक्ति को, बच्चे अथवा बूढे को और दुर्बल अथवा बलवान् को वह परमात्मा ही अपने वश में रखता है । (331) हे धन को उत्पन्न करने की विद्या के विद्वान्, हमारे महान सौभाग्य को जगाने के लिए आप गुरु बनकर हमें ऐसा ज्ञान दीजिए कि हम इस पृथ्वी की गोदी में से अग्निविद्या को अच्छी प्रकार जानकर रत्नादि को प्राप्त कर ऐश्वर्य सम्पन्न बन सकें । (332) शायद कोई खजाना हाथ लग जाए, इस आशा से भूमि खोद डाली, पहाड की धातुओं को भट्टियों में फूँका, समुद्र को पार किया, राजाओं को बडे यत्न से प्रसन्न किया, और मन्त्र की सिद्धि के लिए स्थिर मन से मरघट में रातें भी बिता र्दी, परन्तु एक कौडी भी तो हाथ न लग पाई । इसलिए हे तृष्णा. अब तू मेरा पीछा छोड दे । (333) यदि ऊँची जाति के भी घर में कोई नीच जाति का व्यक्ति पहुँच जाए, तो उसे भी यथायोग्य सम्मान देना चाहिए, क्योंकि अतिथि सब देवों का स्वरूप होता है । (334) आध्यात्मिक बातों का चिन्तन सबसे श्रेष्ठ कार्य है, शास्त्रों पर विचार करना मध्यम श्रेणी का कार्य है, किसी एक ही मन्त्र को लेकर उसे ही रटते रहना निम्न कोटि का कार्य है, परन्तु तीर्थभ्रमण नीच से भी नीच कोटि का कार्य है । (335) अपना कल्याण चाहने वाले को श्रेष्ठ व्यक्तियों की ही सेवा करनी चाहिए. यदि कभी संकट आ पडे तो मध्यम श्रेणी वालों की भी सेवा कर लेनी चाहिए । परन्तु नीचों की सेवा कभी नहीं करनी चाहिए । (336) समुद्र से उत्तर के भाग और हिमालय से दक्षिण के भाग वाला जो देश है, वही भारत है और उसकी सन्तान भारती कहलाती है । (337) बोलने में कुशल लोगों के वाक्य एक के बाद एक बनते जाते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने पर बीज से अन्य बीज उत्पन्न होता चला जाता है । (338) ज्ञानी लोग कहते हैं कि आत्मोन्नि का मार्ग छुरे की धार के समान तीखा है, इसलिए उस पर चलना बहुत कठिन है । हे मनुष्यो. उस पर चलने के लिए उठो, जागो और श्रेष्ठ साधनों को प्राप्त कर और समझ कर उस पथ पर बढने का प्रयास करो । (339) हे प्रेरक विजयी जनो. तुम उठ खडे हो जाओ, कवचों को पहनो । हे शूर सेनापति. जो हमारे मित्र हैं, उनका तुम ध्यान रखना और उनकी रक्षा करना । (340) हे वेद की रक्षा करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के ऐश्वर्य से सम्पन्न विद्वान् . विज्ञान द्वारा सब विद्याओं की कामना करने वाले और विद्यादान के उच्छुक हम मानव आपके पास आए हैं । इसी प्रकार अन्य धार्मिक लोग भी आपके पास आते हैं । कृपया, आप शीघ्र ही हमें उत्तम विद्याएं प्रदान कीजिए । (341) अपने कल्याण की कामना करने वाले का कर्त्तव्य है कि बढते हुए शत्रु की उपक्षा न करे, क्योंकि सभ्य लोग बढते हुए रोग और शत्रु को समान ही मानते हैं । (342) निम्नलिखित वस्तुएँ उन्नति के मूल कारण हैं - सावधान रहना, मन पर नियन्त्रण, कार्यकुशलता, उपेक्षा का अभाव, धैर्य, स्मरण रखना और सोच समझ कर कार्य आरम्भ करना । (343) जन्म देने वाले और ज्ञान देने वाले इन दो प्रकार के पिताओं में से ज्ञानदाता पिता ही श्रेष्ठ होता है, क्योंकि ज्ञान द्वारा जन्म ( ब्राह्नण का ) इस लोक और परलोक में भी चिरस्थायी होता है । (344) पुत्रों को उत्पन्न कर, उन्हें ऋणरहित कर और उनके व्यवसाय का कोई प्रबन्ध करके तथा सभी कन्याओं का विवाह करके ही मनुष्य जंगल में जाकर मुनियों के समान जीवन बिताए (345) किसी प्रसन्नता के अवसर पर, संकट का समय आने पर, अकाल के समय, शत्रु द्वारा आक्रमण होने पर, राजसभा में या श्मशान भूमि में भी जो साथ हो, उसे अपना सम्बन्धी ही समझना चाहिए; अन्य नहीं । (346) उत्साही पुरुष कर्म करते हुए निराश नहीं हुआ करते । हम भी उत्साह के सहारे जी को प्राप्त कर ही लेंगे । (347) जो व्यक्ति उत्साही, देरी से काम न करने वाला काम करने का ढंग जानने वाला, विषयों में न फँसने वाला, बहादुर, कृतज्ञ और मित्रता निभाने वाला होता है, लक्ष्मी उसके पास अपना निवास बनाने के लिए स्वयं जाती है । (348) हे पूजनीय राम जी. उत्साह ही बलशाली होता है । उत्साह सा बढकर कोई दूसरा बल नहीं होता । उत्साहके द्वारा संसार में कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाती । (349) हो सकता है कि सूर्य पश्चिम दिशा से निकलने लगे, मेरु पर्वत अपना स्थान छोड दे, आग ठण्डी लगने लगे और कमल पहाड की चोीटी पर चट्टान में से खिलने लगे, परन्तु फिर भी सज्जनों का वचन झूठा नहीं हो सकता; अर्थात् वे सभी दशाओं में अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हैं । (350) पशु भी इशारे को समझ लेते हैं । घोडे और हाथी संकेत के अनुसार ही भार ढोते हैं । बुद्धिमान् मनुष्य न कही हुई बात को भी कल्पना द्वारा समझ जाता है । दूसरों के इशारों को समझ लेने में ही तो बुद्धि की सफलता है । (351) सर्वव्यापक सर्वज्ञ और सृष्टिकर्ता उस परमात्मा का बोध कराने के लिए संसार में अनेक संकेतक चिह्र हैं । (352) जैसे जल में डूबता हूआ व्यक्ति अपने आप को बचाने का स्वयं प्रयास करता है, उसी प्रकार भोगों की नदी के तेज बहाव के कारण भोगरूप जल में डूबने वाले को सत्यज्ञान रूपी वृक्ष का आश्रय लेकर अपना उद्धार करना चाहिए । (353) सभी कार्य परिश्रम से ही सिद्ध होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं । सोए हुए शेर के मुख में मृग स्वयं आकर प्रवेश नहीं करते । (354) हे मानव. तेरी उन्नति ही हो, पतन न हो । मैं तेरी जीविका और शक्ति का प्रबन्ध करता हूँ । तू इस अमर सुखदायक रमणीय आध्यात्मिकता के रथ पर सवार हो जा । फिर स्तुति-योग्य होकर तू अपना ज्ञान दूसरों को देता रह । (355) परिश्रमी व्यक्ति के पास ही धन-दौलत लगातार आती है । हमारे भाग्य में जो होागा, वह मिल जाएगा, ऐेसी बातें तो कायर लोग ही करते हैं । इसलिए भाग्य की परवाह न करके यथाशक्ति पुरुषार्थ करो । यदि यत्न करने पर भी सफलता न मिले, तब तुम्हारा कोई दोष नहीं (अथवा त्रुटि क्या रह गई है, इस पर विचार करना चाहिए ) । (356) हम लोग अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य रूप उत्तर ज्योति को देखकर, सभी ज्योति-पिण्डों में वर्तमान सबसे श्रेष्ठ ज्योतिःस्वरूप परमात्मा को सब प्रकार से प्राप्त हों । (357) यदि शत्रु उपकारी हो तो उससे सन्धि कर लेनी चाहिए और यदि मित्र हानि करने वाला हो, तो उससे सन्धि करना उचित नहीं । वस्तुतः, उपकार करने वाला ही मित्र है और अपकार ( हानि) करने वाला ही शत्रु होता है, यही इन दोनों की पहचान है । (358) सामान्य लोगों की मित्रता एक-दूसरे का भला करने से होती है । पशुओं और पक्षियों की मित्रता किसी कारण विशेष से होती है । मूर्खों की मित्रता डर या लोभ से होती है और सज्जनों की मित्रता एक-दूसरे को देखने से ही हो जाती है । (359) भला करने वाले की यदि किसी ने भलाई कर दी, तो उसकी भलाई को महत्त्व कैसे दें, वह तो केवल लेन-देन है । भला उदार व्यक्ति तो वह है, जो बुरा करने वाले का भी भला ही करता है । (360) जो लोग न प्रातःकाल और न ही सायंकाल के समय भगवान् की उपासना करते हैं, वे दुष्टात्मा अन्धकारपूर्ण नरक में चले जाते हैं । (361) हे प्रकाश-स्वरूप प्रभु. हम लोग प्रतिदिन प्रातः और सायं अपने मन को आप में स्थिर करके आपको नमस्कार करते हुए आपके पास पहुँचें । (362) जैसे साँपों को दूध पिलाने से उनका विष ही बढता है, ठीक उसी प्रकार मूर्खों को उपदेश देने से उनका क्रोध बढ जाता है; उपदेश से वे शान्त नहीं होते । (363) यज्ञोपवीत देने के पश्चात् गुरु को चाहिए कि वह सर्वप्रथम शिष्य को स्वच्छ रहना सिखाए । उसके बाद यज्ञ-हवन और सन्ध्या-उपासना आदि सिखाए । (364) जो व्यक्ति सभा में बैठ कर स्पष्ट बात नहीं कहता, उसे सभा से निकाल देना चाहिए, अथवा उसे सत्य कहना चाहिए । (365) जब जीवन-मुक्त के मन में कामवासना जागृत होती है, तो उससे बचने का उपाय उसे भी नहीं सूधता । ऐसी दशा में जो लोग कामवासना में लिप्त हैं, उनकी बात का तो कहना ही क्य. (366) पर्वतों की उपत्यकाओं और नदियों के सङ्गम पर ही बुद्धिमान् विद्वान् पैदा हुआ करते हैं । अर्थात् शिक्षा के लिए ऐसे ही प्राकृतिक स्थल उपयुक्त होते हैं । (367) युक्तिपूर्वक शत्रु को जिस प्रकार जीता जा सकता है, वैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं । युक्तियाँ जानने वाला छोटे शरीर वाला भी शूरवीरों से हार नहीं खाता । (368) जमा किए हुए अधिक धन को किसी उपयोगी कार्य में लगा देने से ही उसका बचाव हो सकता है । जैसे तालाब में बढे हुए जल को निकाल देने से ही तालाब बंधा रहता है, अन्यथा बांध टूट जाने से सारा तालाब जलहीन हो सकता है । (369) जब अभिमान से अन्धे हुए पुरुषों की लापरवाही के कारण दुर्बल शत्रु की परवाह नहीं की जाती, तो जो शत्रु पहले सरलता से जीता जा सकता था, वही बाद में इस प्रकार अजेय हो जाता है, जैसे बढा हुआ रोग असाध्य हो जााता है । (370) हे क्षत्रिय. इन दो सचाइयों को समझ लो । समझदार लोग कहते हैं कि मोह के द्वारा मृत्यु होती है, परन्तु मैं तो लापरवाही को ही मृत्यु मानता हूँ और सावधानी को ही जीवन समधता हूँ । (371) हे ऐश्वर्यशाली, दुष्टों को दण्ड देने वाले परमेश्वर अथवा राजन्. बडा समुदाय बनाकर, छोटा समुदाय बनाकर तथा शीघ्रतापूर्वक झपट कर जो आक्रमण करते हैं, अथवा विभक्त होकर जो हमला करते हैं, जो निरपराधों को सताते हैं एवं लोभी होकर जो दूसरों के धन की कामना से झपटते हैं, उन सबको शस्त्रों से ऐसे नष्ट कर दीजिए, जैसे किसी को पत्थरों से कूट-कूट कर मसल दिया जाता है, और हम सबकी रक्षा कीजिए । (372) किसी बडे व्यक्ति के आने पर छोटे व्यक्ति के प्राण ऊपर उठने लगते हैं । इसलिए बडों के आने पर खडे होकर उन्हें प्रणाम करना चाहिए । इससे प्राण स्वस्थ हो जाते हैं । (373) अनेक प्रकार के कर्मों को अनेक प्रकार की बुद्धियों द्वारा करने वाले शासक. हमरी रक्षा के लिए इस युद्ध में सर्वोपरि विराजमान रहिये । हम आप को युद्ध से भिन्न कार्यों में भी स्मरण करते हैं, ताकि आप हमारी सब प्रकार से सहायता करें । (374) हे हमारे उच्चतम शासक. हमें चोरी आदि के पापों से बचाइए और अपने प्रकृष्ट ज्ञान द्वारा सम्पूर्ण नाशकर दुष्ट लोगों को भस्मसात् कर दीजिए । हमें उच्च जीवन बिताने और शुद्ध आचरण के लिए समर्थ बनाइए । धार्मिक विद्वानां की सेवा के लिए भी हमें प्रेरित कीजिए । (375) ऋक्, यजुः और साम यह तीन प्रकार की विद्या त्रयी कहलाती है, जो ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों की आच्छादनरूप है । इस त्रयी को जो अज्ञान से छोड देता है, वह द्विज नंगा और पापी कहलाता है । (376) मुझमें प्राण और अपान दृढ हों, वाणी प्रभावशाली हो, साथ ही मैं शारीरिक बल से भी सम्पन्न बनूँ । इसके लिए ऋग्वेद द्वारा वाक्-शक्ति, यजुर्वेद द्वारा मननशक्ति और सामवेद द्वारा प्राणशक्ति को प्राप्त करूँ । (377) जिस अनश्वर, सबसे उत्कृष्ट, आकाश के समान व्यापक परमेश्वर में सम्पूर्ण सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि देवता स्थित हैं, उस परमेश्वर को यदि मनुष्य न जान पाया, तो वह वेदों को पढकर क्या लाभ न जान पाया, तो वह वेदों को पढकर क्या लाभ उठा सकता है ? अर्थात् उसका वेदपाठ व्यर्थ है । जो उस ब्रह्न को जान लेते हैं, वे ही उसमें स्थिर हो कर परम आनन्द को प्राप्त करते हैं । (378) जो बुद्धिमान् व्यक्ति कर्ज, आग, शत्रु और रोग के बचे हुए अंशों को भी नष्ट कर देता है, वह कभी दुःखी नहीं होता । (379) सब वस्तुओं से श्रेष्ठ और कोषों का भी जो बनाने वाला है, ऐसे ज्ञान को देने वाले पूजनीय गुरु का जो लोग विद्या प्राप्त करने के बाद आदर नहीं करते, वे इधर-उधर भटकते हुए, उन स्थानों को पहुँचते हैं, जहाँ पापी निवास करते हां; अर्थात् उन्हें बहुत कष्ट भोगने पडते हैं । (380) प्राचीन काल से ही शीघ्र ही पापों को रोकने वाली सत्य की शक्तियाँ प्रसिद्ध हैं । सत्य-व्यवहार से पाप नष्ट हो जाते हैं । सच्चाई का उच्चारण बहरों के भी कान खोल देता है और मनुष्य में ज्ञान उत्पन्न कर उसे पवित्र बना देता है । (381) जिस अनादि और न नष्ट होने वाली नित्य वाणी को परमेश्वर ने संसार के लिए दिया था, उस वेदवाणी को ऋषि लोग तप द्वारा दिन-रात पढा करते हैं । (382) ऋषियों, नदियों, खानदानो, महात्माओं और स्त्रियों के दुश्चरित्र की उत्पत्ति के कारणें को पूर्णतः नहीं समझा जा सकता । (383) एक जन्म तो माता देती है और दूसरा जन्म देती है वाणी अर्थात् शिक्षा । शिक्षा से उत्पन्न वयक्ति अधिक महत्त्वपूर्ण होता है ; जैसेे सगे भाई से भी उत्तम सच्चा मित्र होता है, जो सदा साथ निभाता है । (384) किसी को तो विष अथवा साँप मार देता है और कोई हथियार द्वारा मारा जाता है परन्तु योजनाओं के भेद खुल जााना राष्ट्र और प्रजा-सहित राजा को ही मार डालता है । (385) धनुर्धारी द्वारा छोडा गया बाण किसी एक को भी मारे या न मारे, कहा नहीं जा सकता । परन्तु बुद्धिमान् द्वारा प्रयुक्त की गई बुद्धि राष्ट्र-सहित राजा को भी नष्ट कर सकती है । (386) पाप तो एक आदमी करता है, परन्तु उससे लाभ अनेक लोग उठाते हैं । लाभ उठाने वाले लोग पापी नहीं कहलाते, पर केवल पाप करने वाला ही पापी कहलाता है । (387) जो व्यक्ति नौकरों में बिना बाँटे बढिया भोजन करता है और सुन्दर कपडे पहनता है, उससेे अधिक क्रूर भला कौन हो सकता है ? अर्थात् उसका ऐसा व्यवहार अनुचित है । (388) मनुष्य को अकेले स्वादु भोजन नहीं करना चाहिए, किसी विषय पर अकेले ही विचार भी नहीं करना चाहिए, अकेले ही किसी मार्ग पर नहीं चलना चाहिए और जब सब सोए हुए हों, तब अकेले जागना भी नहीं चाहिए । (389) आत्मिक जीवन की सिद्धि के लिए परिव्राजक को नित्य अकेले ही परिश्रम करना चाहिए । यदि उसे सफलता नहीं भी मिलती, तो भी न वह किसी को छोडता है और न वह किसी से छोडा जाता है । (390) धर्म ही अकेला ऐसा मित्र है, जो मरने पर भी मनुष्य के साथ जाता है । शेष सभी वस्तुएँ शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं । (391) एक ही तेजस्वी राजा देश का कल्याण कर सकता है, परन्तु यदि बहुत से राजा बन जायें, तो संकट के कारण बनते हैं; जैसे प्रलयकाल में उदय हुए अनेक सूर्य सृष्टि का विध्वंस कर देते हैं। (392) तीनों लोकों में अकेला ब्रह्नचर्य का व्रत ही प्रशंसनीय माना गया है, जिसके द्वारा पूर्णतः शुद्ध होने वाले लोग, पूजे जाने वालों से भी पूजे जाते हैं । (393) जैसे एक ही वृक्ष पर फलों वाली तथा बिना फलों वाली दोनों प्रकार की शाखाएँ होती है, उसी प्रकार एक ही कुल में कायर और माहबलशाली दोनों प्रकार के लोग पाये जाते हैं । (394) यदि किसी एक पापी व्यक्ति के मारे जाने से बहुत लोगों का कल्याण होता है, तो उसको मारना एक पवित्र कार्य है । (395) किसी एक के बुरे काम को देखकर दूसरा भी उसी प्रकार बुरा काम करने लगता है । सच तो यह है कि यह संसार एक-दूसरे के पीछे-पीछे चलता है; वास्तविकता को समझने वाला यह नहीं है । (396) जो एक अतिथि को भी भोजन खिलाने में असमर्थ है, उसका अनेक कष्टों से पूर्ण घर में रहने का क्या लाभ है ? (397) अकेले रहने वाले, घर छोड देने वाले, हाथ रूपी पात्र पर ही भोजन करने वाले और वस्त्रहीन व्यक्ति को भी तृष्णा खींच कर संसार में घसीट लाती है; इस आश्चर्य को देखो । (398) जैसे एक ही सूर्य अपने तेज द्वारा स्मपूर्ण भूमण्डल को किरणों से पूर्ण कर देता है, उसी प्रकार एक भी वीर व्यक्ति अपने तेज से सारी पृथ्वी को अपने अधीन कर लेता है । (399) कुछ लोग तोतों के समान रटी-रटाई बातें बोल देते हैं । कुछ के हृदयों में विचार होते हैं, परन्तु वे गूंगों के समान उन्हें प्रकट नहीं कर सकते । परन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके हृदयं में विचार भी उठते हैं और वाणी द्वारा वे निरन्तर सुन्दर वाक्य कहते चले जाते हैं । (400) मनुष्य को तुलनात्मक किसी एक वस्तु को ही अपनाना चाहिए; दो तरफ टाँगें अडाने से कुछ भी लाभ नहीं होता । जैसे केशव या शिव में से एक को मानो, राजा या संन्यासी में से एक को ही साथी बना लो, नगर में ही रहो अथवा वन में ही, एक ही नारी का संग करो या तो गृह-पत्नी का या तपसया के लिए गुफा का । (401) केवल धर्म ही कल्याण-साधक है, सहनशीलता ही शान्ति का उत्तम मार्ग है, एक विद्या ही परम तृप्ति का स्रोत है और केवल अहिंसा ही सुखप्राप्ति का साधन है । (402) यदि एक भी मन्त्री बुद्धिमान्, बहादुर, कार्यकुशल और सिद्धहसत होता है, तो वह राजा या राजा के पुत्र को बडी सम्पदा से सम्पन्न कर सकता है । (403) संसार पर नियन्त्रण रखने वाला सब सृष्टि में समाया हुआ एक परमात्मा ही है । वही एक जड़ प्रकृति को अनेक रूपों में बाँटता है या विविध रचना करता है । जो धीर लोग उसके दर्शन अपनी आत्मा में कर लेते हैं, उन्हीं को नित्य आनन्द की प्राप्ति होती है, अन्य को नहीं (404) इस ब्रह्न को सदा आत्मा में ही विद्यमान समझकर जान लेना चाहिए । इससे बढ़कर कोई अन्य बात जानने योग्य नहीं है । भोक्ता, भोग्य और प्रेरक के रूप में इसे ही जानना चाहिए । इस प्रकार ब्रह्न ही तीन प्रकार के स्वरूप वाला है । (405) स्वभावतः क्षणभङ्गुर जीवन का केवल यही सार है कि हम लोग बिना संकोच के प्रियजनों, भोले भाले लोगों और कार्यकुशल लोगों में बैठें । तात्पर्य यह है कि इन सभी प्रकार के लोगों से बिना संकोच के मिलना-जुलना चाहिए । (406) इसी ब्रह्नचर्य के द्वारा देवताओं ने देवत्व को प्राप्त किया और इसी के द्वारा सौभाग्यशाली और संयमी ऋषियों ने मुक्ति को प्राप्त किया । (407) सज्जन पुरुष वे होते हैं, जो स्वार्थ को छोड़कर भी दूसरों का भला करते हां । सामान्य श्रेणी के मनुष्य वे होते हैं, जो स्वार्थ-सिद्धि करने के साथ-साथ दूसरों के लिए भी परिश्रम करते हैं । परन्तु वे लोग मानव-शरीर में राक्षस कहलाते हैं, जो स्वार्थ के लिए दूसरों की हानि कर बैठते हैं। परन्तु इनसे भी एक निचली श्रेणी के लोग हैं, जो व्यर्थ ही दूसरों को हानि पहुँचाते रहते हैं । उनका तो नाम भी हम नहीं जानते । वे तो बहुत ही नीच होते हैं । (408) बुढ़ापा इस प्रकार स्मरणशक्ति, सौन्दर्य और पराक्रम को समान रूप से नष्ट कर देता है, इस बात को स्पष्ट रूप से देखते हुए भी लोग व्याकुल नहीं होते । कितने आश्चर्य की बात है . (409) इस प्रकार ब्रह्नचर्य से पृथक् होकर जो धर्म का परित्याग और अधर्म को स्वीकार करता है, वह मन्दबुद्धि मूर्ख परलोक में श्रद्धा न रखने के कारण इस शरीर को छोड़कर नये जन्म को प्राप्त कर दुृःख का पात्र बनता है । (410) यह परमात्मा सब प्राणियों में छिपा हुआ है, किन्तु दिखाई नहीं देता । परन्तु जिनकी दृष्टि सूक्ष्म है, वे अपनी उत्कृष्ट सूक्ष्म बुद्धि द्वारा इसके दर्शन कर लेते हैं । (411) नीच स्त्रियों का यह स्वभाव होता है कि पहले सुख के दिन काटती हैं और थोड़ा संकट आने पर चरित्रभ्रष्ट हो जाती हैं और अपने पति को छोड़ भी देती हैं । (412) आशारूपी ग्रह से पीड़ित हुए कामाओं से युक्त व्यक्तियों से धनी लोग इस प्रकार कह-कह कर अपना मन बहलाते हैं - इधर आ, उधर जा, नीचे बैठ, खड़ा हो जा, बोल, चुप्पी साध ले- इत्यादि। (413) जो राजा इन्द्र की पदवी और स्थायी यश पाना चाहता है, उसे एक क्षण के लिए भी उपद्रव मचाने वाले व्यक्ति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । (414) महान् आश्रय समझकर सभी लोग तेजी से आकर सम्पन्न व्यक्ति का आश्रय ले लेते हैं । जैसे सभी नदियाँ सागर को रत्नों का जन्म-स्थान मानकर बहुत दूर से चल कर भी उसमें आ मिलती हैं । (415) धनदौलत की शोभा सज्जनता होती है, वाणी पर संयम रखने से ही बहादुरी शोभा पाती है । ज्ञान की शोभा शान्ति है, स्वाध्याय का लाभ नम्रता है । धन की शोभा तभी है, तब सुपात्र को वह दिया जाए । क्रोध पर सयंम करना तपस्या का फल है । समर्थ व्यक्ति की शोभा क्षमा करने में है । छलकपट न करने से ही धर्म शोभित होता है । इन सबका मूल कारण उत्तम स्वभाव है; वह ही सबसे बड़ा भूषण है । (416) हे राक्षस-मन्त्री . ऐश्वर्य से सम्पन्न राजा की तो सेवा लोोग स्वार्थवश करते ही हैं । विपत्ति में भी जो उसका साथ निभाते हैं, वे उसके द्वारा सम्मान के पात्र बनते हैं, परन्तु स्वामी की मृत्यु हो जाने पर भी जो पहले किये हुए शुभ कर्मों से प्रभावित होकर बिना किसी स्वार्थ के स्वामी के कार्यभार को संभाले रखते हैं, ऐसे, तुम जैसे भक्त-सेवक दुर्लभ हैं । (417) यमराज मनुष्य को मानो रस्सी से बांधकर या तो विस्तृत ऐश्वर्य की ओर, या बड़े भारी संकट की ओर खींचकर ले जाता है । (418) मेरे शरीर का तेज और मेरी शोभा, मेरे शरीर और मेरे मन की शक्ति, मेरा स्वरूप और मेरा सामर्थ्य, मेरा शरीर और सम्बन्धी जन, मेरा घर और घर के पदार्थ, मेरा कवच और मेरे शस्त्र, मेरी हड्डियाँ और माँस तथा नसें आदि, मेरे मर्मस्थल और जीवन के साधन, मेरे सम्बन्धियों के शरीर और उनके शरीराङ्ग, मेरी आयु तथा जीवन के साधन, मेरा बुढ़ापा और जवानी के सब पदार्थ सत्कार के योग्य परमेश्वर की कृपा से समर्थ हों । (419) हे मनुष्यो. सर्वोत्तम सोमलता के साथ वर्तमान औषधियों पर तुम विचार-विमर्श करो । हे वैद्यराज. वोदों के और उपवेदों के वेत्ता पुरुष जिस रोगी के लिए इन औषधियों को ग्रहण करते हैं, उस रोगी को इन औषधियों द्वारा स्वस्थ कर देते हैं । (420) हे मनुष्यो. तुम लोग घोड़ों के समान तीव्रता से रोगों को जीतने वाली, रोगों से बचाने वाली, प्रशंसित फलों से युक्त और सुख देने वाली सोमलता आदि औषधियों को प्राप्त कर नित्य अनन्दित रहो । (421) ओषधियों के समान सुखदायक दिव्य गुणों वाली माताओ. मैं, पुत्र. तुम्हारी शिक्षाओं को अच्छी प्रकार ग्रहण कर उनका प्रचार करूँ । ''हे पुरुषार्थी श्रेष्ठ सन्तान. मैं तुम्हारे लिए पशुओं, वस्त्रों और घर आदि की ठीक प्रकार से व्यवस्था करूँगी ।'' (422) पृथ्वी के उपदेष्टाओं के समान और कर्मशील व्यक्तियों के समान आकाश में सर्वव्यापक परमेश्वर का अपने हृदय में आह्वान करता हूँ, अर्थात् उसकी उपासना करता हूँ । (423) मृत्यु के समय कौन किसे बचा सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं । रस्सी के टूटने पर कुएँ में जाते हुए घड़े को कोई नहीं रोक सकता । संसार की वनों जैसी ही दशा है । जैसे वन काटे जाते हैं और उगाए जाते हैं, वैसे ही लोग मरते और पैदा होते रहते हैं । (424) संसार में कौन किसका स्थायी साथी है ? किसके द्वारा किसे क्या प्राप्त करना है ? प्राणी अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है । (425) बार-बार यह सोचना चाहिए कि समय कैसा है, कौन मेरे मित्र हैं, कैसा स्थान है, खर्च और आमदनी का क्या स्वरूप है, मैं कौ हूँ और मेरी शक्ति क्या है ? (426) कौन प्राणी किससे मारा जाता है अथवा कौन किसकी रक्षा करता है ? प्राणी केवल अपने आप ही बुरा या अच्छा कार्य करता हुआ अपने को मारता या बचाता है । (427) पूर्व की वायु को कौन पैदा करता है ? मेघ को कौन प्रेरणा देता है ? सावन का महीना आने पर सारा संसार सागर का रूप कैसे धारण कर लेता है ? काल ही काई कार्य करता है और काल ही नष्ट कर देता है । मूर्ख मनुष्य नासमझी में कह बैठता है कि मैं बना रहा हूँ, मैं नष्ट कर रहा हूँ । (428) श्रेष्ठ लोगों पर आक्षेप करने वाले दुष्ट लोग कड़वे शब्दों को बोलते हुए इस प्रकार उन्हें दुःखी करते हैं, जिस प्रकार पाँव की बेड़ियाँ किसी को कष्ट देती हैं; परन्तु सज्जन लोग अपने प्रत्येक शब्द की मीठी ध्वनि से मन को ऐसे हर लेते हैं, जैसे मणियों से जड़े पायजेब । (429) जो विद्या कण्ठस्थ है, बुद्धिमानों को उसे ही सदा प्रकट करना चाहिए । जो विद्या गुरु के पास या पुस्तक में बन्द है और कण्ठस्थ नहीं है, उससे मनुष्य मूढ-सा होकर धोखा खा जाता है । (430) दुष्ट लोग कुछ दिन तक रहने वाली पागल बना देने वाली यौवनावस्था में ऐसा अपराध कर बैठते हैं, जिससे उनका सम्पूर्ण मानव-जीवन ही बरबाद हो जाता है । (431) वह दिन कब आएगा जब हम अपने पूर्ण सुख के लिए सर्वद्रष्टा और वेदों द्वारा अनेक प्रकार से स्तुति किए गए सम्पूर्ण विश्व पर शासन करने वाले सर्वरक्षक, सबको सन्मार्ग दिखाने वाले श्रेष्ठ नेता, सबके द्वारा वरण करने योग्य प्रभु को अपना बनायेंगे । अर्थात् हमें समय व्यर्थ में न खोकर उस वरुण की उपासना नियमपूर्वक प्रतिदिन करनी चाहिए । (432) जो रत्न सोने के आभूषण में जड़ने के योग्य है, यदि उसे राँगे में जड़ दिया जाए, तो न तो उससे कोई ध्वनि निकलेगी और न ही सजावट होगी, बल्कि जड़ने वाला ही बदनाम होगा । (433) एकान्त स्थान पर सोने को भी पड़ा हुआ देखकर जो अपनी बुद्धि से उसे पराया धन मानकर तिनके के समान समझता है और भगवान् का ही जो निरन्तर चिन्तन करता रहता है, उस श्रेष्ठ पुरुष को ही विष्णु का भक्त समझना चाहिए । (434) सभी इन्द्रियों का प्रयोजन कर्म ही है । अच्छे अथवा बुरे कर्मों का इस संसार में ही अच्छा या बुरा फल देखा जाता है । (435) कर्म द्वारा ही सब कुछ उत्पन्न होता है और कर्म ही आगे बढ़ने का साधन है । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यथाशक्ति अच्छा कर्म ही करे । (436) मनुष्यों को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही बनती है, तो भी बुद्धिमान लोग श्रेष्ठ बुद्धि द्वाारा सोचकर ही सभी कार्य करते हैं । (437) कवि क्या नहीं देखते, अर्थत् उनकी दृष्टि दूर तक जाती है । स्त्रियाँ क्या नहीं करतीं, अर्थात् वे सभी प्रकार के अच्छे-बुरे कार्य कर लेती हैं । शराबी क्या नहीं बकते, अर्थात् सब प्रकार का बकवास कर बैठते हैं । कौए क्या नहीं खाते, अर्थात् अच्छा बुरा सब खा जाते हैं । (438) अप्रसिद्ध कंजूस व्यक्ति, कविता को सुनना ही नहीं चाहता ( कि कहीं कुछ देना न पड़ जाए), जैैसे सामने बैठी सुन्दर नारी से नपुंसक किसी प्रकार का मनोरंजन नहीं केर सकता । (439) भिन्न-भिन्न गूढ अर्थों को बताने वाले बड़े कवियों के सूई के समान उत्तम वाक्यों से जिसेक कान बींधे जा रहे हों, ऐसे दुर्जन को पीड़ा भला क्यों न होगी ? भाव यह है कि नादान व्यक्ति कवियों के गूढ भाव को न समझ सकने के कारण दुखी होता है । यहाँ 'सूचिभिः' शिलष्ट पद है, जिसके 'बताने वाले' तथा 'सुइयों से' ये दो अर्थ हैं । (440) कोई व्यक्ति बहुत गहरी और बड़ी नदी को लकड़ी द्वारा पार कर जााता है । वह व्यक्ति उस लकड़ी को पार लगा देता है और उस लकड़ी द्वारा वह पार लगा दिया जाता है । ( परस्पर सहयोग से दोनों के कार्य हो जााया करते हैं । ) (441) मूर्खता कष्टदायक है, जवानी भी कष्टदायक है, परन्तु सबसे अधिक कष्टदायक बात है दूसरे के घर में रहना । (442) किसके कुल में कमी नहीं है ? रोग से पीड़ित कौन नहीं है ? कष्ट किस पर नहीं आता ? और सुख सदा किसको मिलता है ? ( भाव यह है कि सभी कुलों में कमियाँ होती है, सबको कोई न कोई रोग लगा रहता है, कष्ट सभी पर आते हैं । और कोई भी सदा सुखी नहीं रहता । ) (443) किसे केवल सुख अथवा दुःख प्राप्त हुआ है ? जिस प्रकार पहिये के अरे (स्पोक्य) क्रमशः नीचे और ऊपर जाते हैं, उसी प्रकार जीवन मेें कभी सुख होता है, तो कभी दुःख । (444) कौआ भी काला होता है और कोयल भी काली होती है । इनमें क्या अन्तर है ? प्रिय. वसन्त ऋतु में आवाज से कोयल और कौए की पहचान हो जाती है । ( कोयल मीठी और कौआ कर्कश आवाज करता है ) । (445) कौए को कमल-वन अच्छा नहीं लगता, हंस को कुएँ का जल नहीं भाता, मूर्ख विद्वानों के साथ रहना पसन्द नहीं करता और दास राजसिंहासन नहीं चाहता । बुरी नारी अच्छे व्यक्ति के साथ रहना पसन्द नहीं करती; वह तो नीच की सेवा करना चाहती है । इस प्रकार जिसकी आदत स्वभाव से जैसी बन गई है, उसे कोई भी छोड़ नहीं सकता । (446) कौए यत्र-तत्र काँव-काँव करते फिरते हैं परन्तु क्या वे राजा के हाथों से पले हुए बोलने वाले तोते की तुलना कर सकते हैं ? ( कदापि नहीं ) (447) स्वाभिमानी सज्जन उस दुष्ट का अनुकरण कैसे कर सकता है, जिसका कठोर बोलना और भले लोगों की निन्दा करना ही भूषण है ? (448) काँच सोने के साथ रहने से मरकतमणि की शोभा प्राप्त कर लेता है । उसी प्रकार मूर्ख भी श्रेष्ठ लोगों के संगति से निपुण बन जाया करता है । (449) जिन्हें काँच में मणि का और मणि में काँच का भ्रम हो जाता है, ऐसे लोगों के पास कोई नौकर तनिक भी रहना पसन्द नहीं करता । (450) जिसे स्त्रियों की आँखों की चेष्टाएँ रूपी बाण जलाते नहीं हैं, क्रोध की अग्नि के ताप से जिसका हृदय जलता नहीं है, जिसे अनेक प्रकार के विषय अपने आकर्षण के जालों में घसीट नहीं पाते, वही धीर पुरुष तीनों लोकों को एक साथ जीतने में समर्थ होता है । (451) पत्नी का वियोग, सम्बन्धियों द्वारा किया गया अपमान, कर्ज का बकाया रहना, दुष्ट व्यक्ति की नौकरी, गरीबी और अपने विचारों के प्रतिकूल सभाये सब वस्तुएँ बिना आग के भी शरीर को जलाती रहती हैं ? (452) हे ईव . तू सनुदर है, सदा मीठा है, रस से परिपूर्ण है, और कामदेव का अनोखा धनुष भी है, परन्तु इतने गुण होने पर भी तुझमें एक कमी है कि ज्यों-ज्यों तुझसे रस लिया जाता है, त्यों-त्यों तू रसहीन होता जाता है । (453) संन्यासी को चाहिए कि वह काम, क्रोध, अभिमान, लोभ, मोह, आदि को छोड़कर वीतराग बन जाए । (454) हे मानव . काम और क्रोध रूपी मगरमच्छों से युक्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय- रूपी जल वाली नदी को धैर्य रूपी नौका के द्वारा पार करके बार-बार होने वाले जन्म के कष्टों से दूर हो जा । (455) विद्या कामधेनु के गुणों वाली है, जो कठिनाई के समय लाभ पहुँचाती है । विदेश में यह माताा के समान सहारा देती है । विद्या को छिपा हुआ धन कहा गया है । (456) कामनाओं से व्याकुल लोग, चाहे स्वर्ग मेें हों और चाहे भूलोक में, शान्ति प्राप्त नहीं कर सकते । कामनाओं की प्यास से व्याकुल मनुष्य उसी प्रकार शान्त नहीं हो सकता, जिस प्रकार वायु और ईंधनों से युक्त अग्नि भड़कती ही है; शान्त नहीं होती । (457) काम और अर्थ की सिद्घि चाहने वाले को पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए । मेरे विचार में धर्माचरण के पश्चात् कुछ भी पाना कठिन नहीं रह जाता । (458) सभी प्राणियों के शरीर नश्वर हैं, सम्पत्तियाँ क्षण-भङ्गुर हैं और सम्बन्ध भी नष्ट हो जाने वाले हैं। (459) कोई किसी से प्रेम करता है या द्वेष करता है, तो उसमें कोई कारण अवश्य होता है । यह सम्पूर्ण प्राणिजगत् स्वार्थ से पूर्ण है; वस्तुतः कोई भी किसी का प्यारा नहीं है । (460) सुन्दरियाँ प्रथम मिलन पर अपने प्रियतमों का रूप अच्छी प्रकार से देखना तो चाहती हैं, परन्तु उनकी आँखें प्रियतमों पर पूरी तरह से पड़ ही नहीं पातीं । (461) जो पुरुष मुख्य कार्य के कर लेने पर अनेक अन्य कार्यों को भी कर लेता है और पहले के कार्यों में बाधा नहीं आने देता, वही सभी कार्य को सुचारु रूप में कर सकता है । (462) समय ही सब उत्पन्न हुए पदार्थों को पकाता है, समय ही सभी लोगों का संहार करता है, जब सभी सो रहे होते हैं, तो भी समय जाग रहा होता है; समय का उल्लंघन करना कठिन है ( असम्भव है ) । (463) जैसे पहिए के अरों की श्रेणी क्रमशः घूमती चली जाती है, उसी प्रकार समय के अनुसार संसार की बदलती हुई भाग्यों की कतार भी चलती चली जाती है । (464) अनुकूल या प्रतिकूल समय तथा अपनी शक्ति और दुर्बलता का निश्चय करके और एक-दूसरे की शक्ति को जानकर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए । (465) उचित काल में ही तप होता है, उचित काल में ही बड़प्पन प्राप्त हो सकता है, ज्ञान भी उचित काल में ही पाया जाता है। निश्चय ही काल सब का ईश्वर है; स्वामी है । काल ही प्रजापति का भी उत्पादक है, अर्थात् काल के आने पर ही सृष्टि की रचना परमेश्वर करता है । (466) जो मूढ़ पास आए महारत्न को समय पर नहीं ले लेता, वह बाद में उसे दूसरे के पास गया हुआ देख कर दुखी हो जाता है । (467) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन सात से नियन्त्रित करने योग्य, हजारों धुरों को ( संसार के पदार्थों को ) चलाने वाला, कभी भी बूढ़ा न होने वाला बहुत ही शक्तिशाीली कालरूपी घोड़ा संसार को ढो रहा है अथवा चला रहा है । इस पर क्रान्तप्रज्ञ ही सवारी करते हैं । सम्पूर्ण लोक लोकान्तर उसके रथ के पहियों के समान हैं । (468) हे पाण्डुपुत्र अर्जुन. काल प्राणियों को जन्म देता है और काल ही उनको नष्ट करत है । यह सब कुछ काल के कारण ही हो रहा है, यह समझकर धैर्य धारण करो । (469) अनुचित स्थान पर यदि अपनी विद्वत्ता का प्रयोग किया जाये, तो उसका कोई लाभ नहीं होता, जैसे अन्धकार से परिपूर्ण घड़े में दीप रखने से इधर-उधर प्रकाश नहीं हो सकता । (470) उस कवि के काव्य का और उस धनुर्धारी के बाण का क्या महत्त्व है, जो दूसरे के हृदय पर लगकर सिर को न घुमा दे ? भाव यह है कि सुन्दर कविता का प्रभाव हृदय पर पड़ने से स्वतः ही सिर झूम जाजा है और हृदय पर तीर लगने से घायल व्यक्ति का सिर चक्कर खा जाता है । (471) यदि मानव विद्याहीन है, तो उसके ऊँचे खानदान में जन्म लेेने का कोई लाभ नहीं । विद्वान् व्यक्ति के नीच कुल की भी देवता लोग पूजा किया करते हैं । (472) किसी के खानदान का कोई महत्त्व नहीं होता बल्कि उसका उत्तम स्वभाव ही श्रेष्ठ माना जाता है । क्या हम देखते नहीं हैं कि अच्छे खेतों में काँटेदार झाड़ियाँ भी उग आती हैं । अतः वंश का महत्त्व नहीं है, प्रत्युत उत्तम स्वभाव ही महत्त्वशाली है । (473) मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे का धन न धीये या चोरी करे, तनिक भी कठोर न बोले, प्रिय बोले परन्तु झूठ न बोले और दूसरों की त्रुटियों को मत कहे । (474) कपूर सहित चन्दन और ठण्डी-ठण्डी बरफ भी मित्र के शरीर की शीतलता की तुलना में सोलहवाँ अंश भी नहीं हैं, अर्थात् मित्र का प्रेम सबसे अदभुत और पूर्ण शान्तिदायक होता है । (475) दुःख देने वाले अनेक पुत्रों के जन्म का क्या लाभ है ? अर्थात् कुछ नहीं ।खानदान का आश्रयभूत एक ही ऐसा पुत्र अच्छा है, जिसके सहारे कुल सुख और शान्ति प्राप्त कर सके । (476) उस गाय का कोई लाभ नहीं, जो न तो दूध देती है और न ही बच्चे । ऐसे ही उस पुत्र का कुछ भी लाभ नहीं, जो न तो विद्वान् है और न भक्ति वाला ही है । (477) सोच-समझ वाले मनुष्य को तो समय का परिणाम ( प्रभाव ) समझना चाहिए; क्योंकि धर्म, अर्थ और काम कालक्रम में ही समाये हुए हैं । (478) उस सुवर्ण पर्वत (सुमेरु ) अथवा चाँदी-पर्वत (कैलास) का क्या महत्त्व है जहाँ उगे हए पेड़, वैसे ही पूर्व की भांति रह जाते हैं । हम तो मलयपर्वत को ही महत्त्व देंगे, जहाँ उगने वाले लालचीीनी, नीम तथा पत्थर-फूल भी चन्दनों के साथ रहने से उनके समान ही सुगन्धित हो जाते हैं । (479) उत्तम स्वभाव वाले सब कुछ सह लेते हैं, विद्वानों को किसी की सहायता की चाह नहीं होती, बुरे व्यापारी सब प्रकार के बुरे कार्य कर लेते हैं और उन्नत आत्मा वाले व्यक्ति किसी भी वस्तु का परित्याग कर सकते हैं । (480) यद्यपि शहद, चन्द्रमा, अमृत और सम्पूर्ण पृथ्वी सभी आकर्षक वस्तुएँ हैं, तो भी यदि कोई ऐसा महापुरुष दृष्टिगोचर हो जाता है, जिसका चरित्र हृदयहारी है तो सभी आकर्षक वस्तुएँ उसकी तुलना में तुच्छ प्रतीत होने लहती हैं । (481) उस राजा के यज्ञ और तप करने का क्या लाभ है, जिसकी प्रजाएँ सुरक्षित नहीं हैं । जिस राजा की प्रजाएँ सुरक्षित हैं, उसके लिए घर ही स्वर्ग है । (482) केसू ( ढाक ) के फलने पर भी तोता क्या करे, क्योंकि वहाँ उसके खाने योग्य कुछ भी नहीं है । इसी प्रकार यदि स्वामी धनी भी हो मगर कञ्जूस हो तो नौकर-चाकरों को उससे क्या लाभ? (483) क्या शेषनाग के शरीर में पीड़ा नहीं होती, जो कि वह पृथ्वी को फेंक नहीं देता ? क्या सूर्य थकता नहीं है जो कि वह प्रकाश देना छोड़कर निष्क्रिय होकर बैठ नहीं जाता ? किन्तु महान् व्यक्ति जिस कार्य का उत्तरदायित्व ले लेते हैं, वे उसे छोड़ते हुए लज्जा अनुभव करते हैं । श्रेष्ठ लोगों के कुल का यही उत्तम नियम है कि उन्होंने जो जिम्मेारी ले ली है उसे प्राणपण से ही निभाते हैं । (484) जब बड़े लोगों को मालाएँ पहनाई जाती हैं या उन पर फूल बरसाये जाते हैं तो फूलों के साथ उनमें रहने वाला कीड़ा भी श्रेष्ठ मनुष्यों के सिर पर जा पहूँचता है । महान् लोगों द्वारा अच्छी प्रकार स्थापित किया गया पत्थर भी देवता बन जाता है । सत्संग का यही महत्त्व है । (485) किसी बुरे गाँव में रहना, नीच घराने की नौकरी, कुत्सित भोजन, क्रोधी चेहरे वाली पत्नी, मूर्ख पुत्र और विधवा लड़की - ये सभी बिना आग के भी शरीर को जलाते रहते हैं; अर्थात् ये गम्भीर दुःख के कारण होते हैं । (486) यदि विष्णु भगवान् भी गन्दे वस्त्र पहने हों, दाँतों पर मैल जमी हो, अधिक खाते हों, कठोर बोलते हों, सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोते हों, तो लक्ष्मी उन्हें भी छोड़ देती है, अन्य की तो बात ही क्या ? (487) जो मनुष्य परिवार की चिन्ताओं में डूबा रहता है, उसका ज्ञान, उत्तम स्वभाव और सारे गुण शरीर के साथ ही इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में रखा हुआ पानी घड़े सहित ही नष्ट हो जाता है । (488) कंगाल मनुष्य को, समाचार ले जाने वाले दूत को, पराई स्त्री में अनुरक्त को, और दूसरों के धन लूटने वालों को सुखद नींद नहीं आ सकती । (489) गुणवान् व्यक्ति यदि नाराज भी हो जाए, तो भी उससे लाभ ही होता है । दूध स्वभावतः ही मीठा होता है, परन्तु मथने पर उससे निकला मक्खन और भी मधुर होता है । (490) खराब भोजन करने से दिन-भर कष्ट रहता है, बुरी पत्नी से रात बरबाद हो जाती है, बुरे पुत्र से खानदान नष्ट हो जाता है, और भोग तथा दान में काम न आने वाला धन भी नष्ट हो जाता है । (491) प्रातःकाल होते ही कुमुदों का समूह शोभाहीन हो रहा है, कमलों का झुण्ड सौन्दर्य से भरपूर हो रहा है, उल्लू की खुशी समाप्त हो रही है, चकवा प्रसन्न हो रहा है ( क्योंकि वह चकवी से अब मिल रहा है ), सूर्यदेव उदय हो रहे हैं, परन्तु चन्द्रमा अब डूब रहा है । दुःखसे कहना पड़ता है कि दुर्भाग्य से मारे हुओं का बहुत ही विचित्र और दुःखद परिणाम होता है, जैसे उल्लू और चाँद का हो रहा है । (492) हिरण, हाथी पतंगा, भौंरा और मछली क्रमशः कान के विषय ध्वनि, त्वचा के विषय स्पर्श, आँख के विषय रूप, नाक के विषय गंध और जिह्वा के विषय स्वाद के कारण मारे जाते हैं । ये तो एक-एक विषय के सम्बन्ध से मारे जाते हैं, परन्तु जो लापरवाह मनुष्य पाँचों इन्द्रियों से पाँचों विषयों का सेवन करता है, उसकी दुर्दशा क्या होगी ? वह तो निश्चय ही मारा जाएगा । (493) बुरे राजा के राज्य से प्रजा सुखी नहीं हो सकती, बुरे मित्र के कारण मन में शान्ति नहीं आ सकती, बुरी स्त्री से घर में प्यार नहीं हो सकता और बुरे शिष्य को पढ़ाने वाले को यश प्राप्त नहीं हो सकता । (494) हे मानव. तू इस संसार में शूभ कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर । इस प्रकार कर्मशील रहने पर दूसरों का मार्ग-प्रदर्शन करने वाले तुझमें कर्मों के प्रति आसक्ति उत्पन्न नहीं होगी । (495) निम्नलिखित सात गुणों को विचार कर ही किसी को कन्या देनी चाहिए, शेष पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है - (1) खानदान, (2) स्वभाव, (3) सहायकजन, (4) विद्या, (5) धन, (6) शरीर की रचना, (7)आयु । (496) जो उदार और मुक्त हस्त से दान देने वाला व्यक्ति है, चाहे वह चरित्रवान् हो या दुश्चरित्र, उसका परिवार, चरित्र, ज्ञान या वीरता इत्यादि कुछ भी नहीं दखा जाता; लोग उसकी दानशीलता पर ही आकर्षित हो जाते हैं । (497) दूत निम्नलिखित गुणों वाला होना चाहिए - (1) खानदानी, (2) उत्तम स्वभाव वाला, (3) बोलने में निपुण, (4) कार्य में दक्ष, (5) मधुरभाषी, (6) यथार्थवक्ता और (7) स्मरण रखने वाला । (498) जो कुलीन, बलवान्, यशस्वी, बहुत ज्ञानी, सुख से जीने और मन को वश में रखने वाला तथा जो परस्पर गुँथे हुए धर्म या अधर्म को धारण करता है, वही भाग्यवश अभीष्ट गुण-सम्पति प्राप्त करता है । (499) फूलों के गुच्छे के समान मनस्वी व्यक्ति की दो ही स्थितियाँ हुआ करती है, या तो वह सबके सिर पर रहता है, अर्थात् नेतृत्व करता है, या वन में ही समाप्त हो जाता है, अर्थात् तपस्या में ही अपना जीवन लगा देता है । (500) यदि फूल भी शरीर के साथ लगकर जीवन को नष्ट कर सकते हैं, तो फिर विधाता को प्रहार करने के लिए अन्य साधनों को ग्रहण करने की आवश्यकता ही क्या है ? (501) कुएँ का पानी, बरगद की छाया, नवयौवना स्त्री, और ईंटों से बना घर सर्दियों में गर्म होते हैं और गर्मियों में ठंडे । (502) मेेरे दायें हाथ में यदि मेरा कार्य है, तो विजय मेरे बायें हाथ का स्वतः चुम्बन करेगी । में परिश्रम द्वारा गौओं, घोड़ों, धन-सम्पत्तियों और सोने का भी स्वामी बन सकता हूँ । अर्थात् परिश्रम द्वारा ही मनुष्य सब प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकता है । (503) जो पहले शत्रु रहा हो और फिर मित्र भी बन गया हो, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए । शत्रुता तो इस प्रकार से छिपी रहती है, जैसे लकड़ियों में आग गुप्त रूप से छिपी रहती है । (504) यमराज के जाल में फँसने वालों और दुर्भाग से जिनके मन सोचने में असमर्थ हो गये हैं, ऐसे महान् लोगों की भी बुद्धियाँ निकम्मी हो जाती हैं; वे अच्छे-बुरे का विवेक नहीं कर पातीं । (505) अपना कार्य सिद्ध करा लेने के पश्चात् जो मित्रों के कार्यों में सहायक नहीं बनते, ऐसे कृतघ्नों के मर जाने पर उनके शरीर को मांसाहारी पशु भी नहीं खाते । भाव है कि ऐसे लोग बहुत नीच होते हैं । (506) भला करने वाले का भला करना चाहिए, परन्तु यदि कोई हानि पहुँचाता है, तो उससे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए । दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार करने में कोई बुराई नहीं है । (507) युद्ध के समय करने योग्य या न करने योग्य बातों पर विचार नहीं करना चाहिए । पूर्वकाल में सोए हुए अपने पिता के हत्यारे धृष्टद्युम्न को द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने मार डााला था । (508) जिसके पास धन जमा है, ऐसा व्यक्ति चाहे कंजूस, नीच कुल वाला या सज्जनों से छोड़ा भी क्यों न गया हो, उसके यहाँ नौकरी करने को लोग तैयार रहते हैं । (509) खेती करने से अकाल नष्ट हो जााता है, जप करने से पाप नष्ट हो जाता है, चुप्पी साध लेने पर झगड़ा समाप्त हो जाता है और सावधान रहने पर डर नहीं रहता । (510) वर्षा ठीक समय पर हो जाने पर खेती-बाड़ी ठीक समय पर फसल देती है । इसलिए मनुष्ट को चाहिए कि वह धर्मपूर्वक परिश्रम करे और न आलस्य करे और न ही भाग्य पर आश्रित रहे । (511) भौंरा काँटेदार केवड़े के फूल का कष्ट सहता हूआ भी सेवन करता है । जिसके गुणों ने दिल को जीत लिया है, उसकी त्रुटियों पर ध्यान नहीं दिया जाता । (512) हे जीवात्मा. ज्ञानरहित मरणशील इस देह में ज्ञान और चेतना उत्पन्न करता हुआ और सौन्दर्यहीन पार्थिव स्वरूप में सौन्दर्य पैदा करता हुआ तू जागरणशक्तियों के साथ उत्तम प्रकार से जन्म लेता है, अर्थात् शरीर धारण करता है । (513) भला 'मित्र' यह दो अक्षरों वाला अमृतरूप शब्द किसने रच डाला है, जो संकटों से बचाता है और शोक तथा व्याकुलता की दवाई है । (514) बाजूबन्द, चन्द्रमा जैसे चमकते हार, स्नान, सुगन्धित वस्तुओं का लेप, फूल और सजाए हुए बाल मनुष्य को वह शोभा नहीं देते जो शुद्ध, स्पष्ट, और सुन्दर वाणी उसे देती है । अन्य भूषण तो धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं, परन्तु वाणी का भूषण ही स्थायी रूप से उसे सजाता है । (515) वृद्धावस्था आने पर बाल कास के पुष्पगुच्छ के समान सफेद हो जाते हैं, शरीर हाथी के बच्चे के समान डगमगाने लगता है, आँखें जली हुई कौड़ी के समान हो जाती हैं परन्तु फिर भी वासनाएँ तनिक भी पीछा नहीं छोड़तीं । (516) आम के वृक्ष की चोटी पर आम्र-बौर की धूल से भरी हुई कोयल उसी प्रकार अपनी बोली से पहचान ली जाती है, जैसे उत्तम कुल का व्यक्ति अपनी चेष्टाओं से परचाना जाता है । (517) कोयलों का सौन्दर्य उनकी मीठी आवाज है, कुलीन नारी का सौन्दर्य लज्जा है, विद्या का सौन्दर्य कार्यकुशलता है और मूर्ख की शोभा चुप रहने में ही है । (518) समर्थ व्यक्तियों के लिए भार क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । व्यापार करने वालों के लिए दूर क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । विद्वानों के लिए विदेश कौन-सा है ? अर्थात् कोई भी नहीं । मीठा बोलने वालों के लिए पराया कौन है ? अर्थात् कोई भी नहीं । (519) धर्म क्या है ? प्राणियों पर दया करना । सखु क्या है । शरीर का नीरोग रहान । प्रेम क्या है ? शुभचिन्तन । बुद्धिमत्ता क्या है ? अच्छे-बुरे का विवेक (पहचान) । (520) धन प्राप्त करने के बाद कौन नहीं अभिमानी हुआ ? किसकी मुसीबतें समाप्त हो गई हैं ? किसके मन को स्त्रियों ने संसार में निराश नहीं किया ? राज्य का प्रिय कौन बना ? काल के वश में कौन नहीं हुआ ? किस भिखारी ने मान प्राप्त किया है ? अथवा कौन ऐसा व्यक्ति है, जो दुष्टों के दुर्गुणों में फँसने के कारण शान्ति से अपने मार्ग पर चल सका है ? (521) शुद्ध और स्वाभाविक मिठास वाले दूध के साथ किसकी तुलना की जा सकती है, जो कि तपाने पर, खराब होने पर और मथ जाने पर भी प्रेमरूपी घी उगलता है । इसी प्रकार सज्जन लोग भी सभी अवस्थाओं में प्रेमपूर्ण व्यवहार ही करते हैं । (522) रेशम कीड़े से, सोना पत्थर में से, दूब गाय के रोम से, कमल कीचड़ से, चाँद समुद्र से, नील- कमल गोबर से, आग लकड़ी से, मणि साँप के फण से और रोचना नाम की औषधि गाय के पित्त से उत्पन्न हुई मानी जाती है । इस प्रकार सभी गुणी अपने गुणों के द्वारा ही प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं ; किसी का जन्म किससे हुआ इस बात का कोई महत्त्व नहीं होता । (523) कोमल वस्तुएँ खाने वाला, काँटे आदि तीक्ष्ण वस्तुओं को खाने वाले ऊँट की निन्दा करता है और काँटों से प्यार करने वाला ऊँट उसकी (कोमल वस्तु खाने वाले की ) निन्दा करता है । अपनी-अपनी इच्छित वस्तुओं के खाने वाले उन दोनों की रुचि के सम्बन्ध में सभा में मध्यस्थता करते समय किसी एक का उपहास करना ठीक नहीं है । अर्थात् सभी की रुचि भिन्न-भिन्न होती है, अतः कोई उपहासास्पद नहीं है । (524) गुस्सा आने पर कोई बुरा काम नहीं करना चाहिए; क्योंकि गुस्से से भरा मनुष्य बड़ों को भी मार डालता है और गुस्सैल कठोर वाणी से श्रेष्ठ लोगों का भी अपमान कर बैठता है । (525) जो शत्रु क्रूर, लोभी, आलसी, झूठा, लापरवाह, डरपोक, अस्थिर प्रकृति का, बेवकूफ और युद्ध से घबराता है, उसे सरलता से नष्ट किया जा सकता है । (526) क्रोध ही यमराज है, लोभ वैतरणी नदी है, विद्या ही कामधेनु है और सन्तोष ही स्वर्ग का नन्दनवन है । (527) क्रोध सब संकटों की जड़ है, क्रोध ही जन्ममरण के चक्कर में फँसाने वाला है, क्रोध धर्म का विनाश कर देता है, अतः क्रोध कभी भी नहीं करना चाहिए । (528) क्रोध, प्रसन्नता, लज्जा, उद्दण्डता तथा अपने को पूज्य समझना - ये भाव जिसको अपने लक्ष्य से विचलित नहीं करते, वही बुद्धिमान् व्यक्ति है । (529) इलाज करना अथवा चिकित्सा कभी निष्फल नहीं लोती, क्योंकि कहीं इससे धर्मलाभ होता है, कहीं किसी की मित्रता प्राप्त हो जाती है, कहीं से धन मिल जाता है, कहीं से यश प्राप्त हो जाता है और साथ-साथ चिकित्सा का अभ्यास भी होता जाता है । (530) अपने कार्य की सिद्धि में लगा हुआ संकल्पशील मनुष्य अपने दुःख और सुख की चिन्ता न करते हुए कभी भूमि पर सो जाता है और कभी पलंग पर, कभी साग-पात खाकर ही गुजारा कर लेता है, तो कभी उत्तम जाति के चावलों के भात का आनन्द ले लेता है, और कभी फटे-पुराने कपड़े पहनकर ही काम चला लेता है, तो कभी सुन्दर-सुन्दर वस्त्रों को पहन लेता है । (531) दुष्ट व्यक्ति मन में यह सोचकर कि 'मैं अमुक् काव्य में कहाँ त्रुटि ढूँढँ' श्रेष्ठ व्यक्तियों के काव्यों को सुनने लगता है । (532) श्रेष्ठ व्यक्ति क्षणमात्र में नष्ट हो जाने वाले तथा संकटों से पूर्ण भोगों में लिप्त नहीं होते, जैसे हंस कमलों के पुष्पतन्तुओं को छोड़कर सेवाल खा लेते हैं । (533) अनिश्चित विचारों वाले लोग क्षणभर में रूठ जाते हैं और क्षणभर में मान जाते हैं । क्षण-क्षण में उनका रूठना और मनौती चलती रहती है । यदि ऐसे लोग कोई कृपा भी करते हैं, तो वह भी दुःखदायी हो सकती है । (534) संसार में 'क्षत्र' यह महत्त्वपूर्ण शब्द 'चोट से बचाने वाला' इस अर्थ में प्रसिद्ध है । जो राज्य किसी की रक्षा नहीं कर सकता, उसका क्या लाभ है अथवा उस जीवन का भी क्या लाभ है, जो कर्त्तव्य न निभा सकने के कारण निन्दित हो रहा है । (535) चोट पर बारम्बार चोट लगती है, धन के समाप्त हो जाने पर भूख तेज हो जाती है और संकटों के समय शत्रुताएँ बढंने लगती हैं । इस प्रकार जहाँ कमियाँ होती हैं, वहाँ अनेक संकट आकर उपस्थित हो जाते हैं । (536) राजा कुशनाभ अपनी पुत्रियों को समझा रहे हैं '' हे पुत्रियो । क्षमा ही दान है, क्षमा ही सत्य है और क्षमा ही अनेक प्रकार का यज्ञ है, क्षमा ही यश है और क्षमा ही धर्म है । क्षमा से ही सारा संसार टिका हुआ है ।'' भावार्थ यह है कि क्षमा या सहन-शीलता सर्वोत्तम गुण है । (537) क्षमा ( सहनशीलता ) रूपी हथियार जिसके हाथ में है, दुष्ट व्यक्ति उसका क्य बिगाड़ेगा ? जब जलाने को तिनका तक भी नहीं रहता, तब आग स्वयं ही शान्त हो जाया करती है । (538) हे राजन् । सहनशील, उदार और गुणों की पहचान करने वाला स्वामी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, परन्तु हितचिन्तक, पवित्र मन वााला और कार्यकुशल नौकर भी बड़ी कठिनाई से मिलात है । (539) क्षमा के समान तप नहीं है, सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है, तृष्णा के समान कोई रोग नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । (540) यदि सहनशीलता है, तो कवच की कोई आवश्यकता नहीं, यदि क्रोध है, तो अन्य शत्रुओं की आवश्यकता नहीं ( क्योंकि क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है ),यदि बिरादरी के लोग हैं, तो आग की कोई आवश्यकता नहीं ( वे ही हृदय जलाने के लिए काफी हैं ), यदि मित्र हैं, तो दिव्य औषधियों की आवश्यकता नहीं, यदि दुष्ट लोग हैं, तो सर्पों का कोई महत्व नहीं, यदि प्रशंसनीय विद्या पास है, तो धनों का कोई महत्त्व नहीं, यदि बुरे कार्यों से लज्जा है, तो गहनों की आवश्यकता नहीं, और यदि सुन्दर कविता रची जा सकती है, तो राज्य उसके सम्मुख तुच्छ है । (541) हे मानव, यदि तू भोगों के विस्तार में दिल लगाए बैठा है, तो तू तोते को बिलाव के मुँह में दे रहा है, हरिण को बाघ के दाँतों में भेंट कर रहा है और घोड़े को भैंसे के सींग पर डाल रहा है । अर्थात् तू अपना सर्वथा विनाश कर रहा है । (542) जो शीघ्र ही किसी तथ्य को जान लेता है, पर देर तक सुनता रहता है और अभिप्राय को समझने के बाद स्वेच्छानुसार उसका अर्थ नहीं लगाता है तथा जो बिना पूछे दूसरे की बात में टाँग नहीं अड़ाता, इस प्रकार का आचरम बुद्धिमान विद्वान् की प्रथम निशानी है । (543) यज्ञ, हवन, बलि-वैश्वदेवयज्ञ आदि सभी दान नष्ट हो जाते हैं, परन्तु योग्य व्यक्ति को दिया दान और अभयदान नष्ट नहीं होते । (544) जब पाीनी दूध में मिलाया गया तो दूध ने अपने सारे गुण पानी को दे दिए । जब दूध आग के ताप से जलने लगा, तो पानी ने दूध के स्थान पर स्वयं अपने को आग में जला डाला । पानी- रूप मित्र को आग से जलते देख व्याकुल होकर दूध आग में ही गिरने को तैयार हो गया, परन्तु जब उस उबलते दूध पर फिर पानी डाला गया तो दूध शान्त हो गया ( क्योंकि उसका मित्र पुनः मिल गया ) वस्तुतः सज्जनों की मित्रता ऐसी ही होती है, जो मित्र के कष्टों से व्याकुल हो जाते हैं । (545) भूख से बढ़कर शरीर को पीड़ा देने वाली कोई अन्य वस्तु नहीं । चिन्ता से बढ़कर शरीर को सुखाने वाली कोई दूसरी वस्तु नहीं । विद्या के समान शरीर को सजाने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं । और आजीविका के समान शरीर को पुष्ट करने वाली भी कोई अन्य वस्तु नहीं । (546) शेर पत्थरों के टुकड़ों से युक्त चूहे के बिल को खोदता हुआ या तो अपने नाखून ही तुड़वा लेता है और यदि कुछ लाभ हो भी गया तो केवल छोटा सा चूहा ही हाथ लगता है । ( इसलिए मनुष्य को थोड़े से लाभ के लिए बड़ा संकट नहीं उठाना चाहिए ।) (547) दुष्ट व्यक्ति जब कोई बुरा कार्य करता है, तो उससे सज्जनों को भी हानि होती है । सीता को तो रावण ने चुराया था, परन्तु पुल द्वारा बाँधा गया महासागर । (548) दुष्ट व्यक्ति दूसरों की सरसों के दाने जितनी भी त्रुटियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताता है, परन्तु अपनी बिल्व जैसी बड़ी-बड़ी त्रुटियों को देखता हुआ भी नहीं देखता । (549) दुष्टों और काँटों से दो प्रकार से ही निपटा जा सकता है ; या तो जूते से उनका मुँह तोड़ दो या उनसे दूर ही रहो । (550) हे असफल आशाओं वाली तृष्णा । तेेरे कारण से हम लोगों ने दुष्ट लोगों की सेवा करते हुए उनकी दुष्टताभरी बातचीत सहन कर ली और साथ ही बहते हुए आँसुओं को अंदर ही रोककर दुखी हृदय से उनके साथ कुछ हँस भी लिए । इसके अतिरिक्त, धन के मद में चूर हुए लोगों के सम्मुख हाथ भी जोड़ लिए, अब तू ही बता कि इन सबके अतिरिक्त तू अब मुझे और कौन से नाच नचाएगी । (551) एक गंजे का सिर जब सूर्य की किरणों से खूब तपने लगा, तो वह धूप से रहित स्थान की ओर जाता हुआ भाग्यवश ताड़ के पेड़ के नीचे जा पहुँचा । वहाँ पर भी उस पेड़ से गिरते हुए भारी फल ने गिर कर उसके सिर पर भयंकर चोट दे मारी । भाग्यहीन व्यक्ति प्रायः जहाँ भी जाता है, मुसीबतें भी उसके साथ वहीं जा पहुँचती हैं । (552) कवियों द्वारा ही राजा प्रसिद्ध हुए हैं और राजाओं का आश्रय प्राप्त करके ही कवि भी प्रसिद्ध हुए । कवि का राजा के समान दूसरा सहायक नहीं होता और कवि के समान राजा का भी दूसरा सहायक नहीं । (553) अच्छा कवि तो केवल काव्य की रचना करता है, परन्तु उसे प्रसिद्धि श्रेष्ठ व्यक्ति ही दिलवाता है । जल कमल को केवल बढ़ाता है, परन्तु उसमें सौन्दर्य सूर्य ही पैदा करता है । (554) अपना अपराध स्वीकार कर लेने से, पश्चाताप करने से, तप से और स्वाध्याय से भी पापी पाप से छुटकारा पा जाता है तथा संकट में दान देने से संकट से छूट जाता है । (555) क्या मेरे वे शुभ दिन कभी आयेंगे जब कि मैं गंगा के तट के समीप हिमालय की चट्टान पर पट्नासन लगाकर ईश्वर में ध्यान लगाने की विधि से योगनिद्रा में डूब जाऊँगा और बूढ़े हिरण निर्भय होकर मेरे शरीर पर अपने शरीर की खुजली मिटाएँगे । (556) चलता हुआ चींटा भी सौ योजन का सफर तय कर लेता है, परन्तु न चलता हुआ गरुड़ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता । (557) हाथी के कपोलों से बहते हुए मस्ती के जल में प्रेम करने से मस्त होकर घूमते हुए भौंरों के पाँवों की चोट खाकर भी अत्यन्त बलशाली हाथी भौंरों पर क्रोध नहीं करता, क्योंकि शक्तिशाली व्यक्ति समान शक्ति वाले पर ही क्रोध किया करता है । (558) जिन बूढ़े लोगों के पास धन होता है, वे बुढ़ापे में भी जवान लगते हैं, परन्तु धन से हीन व्यक्ति जवानी में भी बूढ़ा प्रतीत होता है । (559) बड़ी उम्र हो जाने पर भी बुद्धिमानों को ध्यानपूर्वक विद्या प्राप्त करनी चाहिए । यदि वह इस जन्म में लाभ नहीं पहुँचाएगी, तो अगले जन्म में तो उससे लाभ होगा ही । (560) जो हो चुका, सो हो चुका, उस पर अफ़सोस नहीं करना चाहिए; आने वाले समय की भी इतनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए । चतुर लोग वर्तमान काल में ही सुलभ साधनों से अपना काम निकाल लेेते हैं । (561) म्थरा कह रही है कि हे कल्याणेच्छु कैकेयी । जब पानी चला जाता है, तो पुल नहीं बांधा जाता । उचित समय पर ही कार्य करना चाहिए । इसलिए तू उठ कर राजा से अपने दो वर माँग और अपना कल्याण कर । (562) हे जगदरचयिता । क्या तुम्हें पहले सलाह देने वाला कोई न था, जो तुमने सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल, चन्दन के पेड़ में फूल प्रदान नहीं किये और विद्वान् को धनी तथा राजा को दीर्घायु नहीं बनाया ? (भाव यह है कि विधाता की रचना बड़ी विचित्र है ।) (563) शरद् ऋतु में बादल गरजता है, पर बरसता नहीं । वर्षा की ऋतु में बादल बिना शब्द किए ही बरसता है । नीच मनुष्य बोलता है परन्तु करता नहीं, जब कि उत्तम श्रेणी का व्यक्ति बोले बिना ही काम कर दिखाता है । (564) हे बादल । तुम गरज तो रहे हो, पर पानी नहीं बरसा रहे हो । मैं पपीहा पानी के बिना व्याकुल हो रहा हूँ । यदि दुर्भाग्य से दक्षिण की हवा चल पड़ी तो तुम उड़ जाओगे, मैं भी न जाने किधर चला जाऊँगा और तब पानी कहाँ गिरेगा कुछ नहीं कहा जा सकता । इसलिए अभी-अभी बरस लो । (मनुष्य को दानादि शुभ कर्म यथाशीघ्र कर लेने चाहिए, न जाने काल का बुलावा कब आ जाए । ) (565) हे राजहंस । गङ्गा का पानी सफेद और यमुना का श्याम वर्ण का है । दोनों जलों में बारी-बारी से स्नान करके भी न तुम्हारी सफेदी बढ़ी और न कम हुई है । ( विवेकशील पुरुषों पर अच्छे या बुरे लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे तो अपने विवेक से ही सब कार्य करते हैं । ) (566) बुढ़ापा आने पर पुरुष का शरीर सिकुड़ जाता है, चाल बिगड़ जाती है, दाँतों की कतार टूट जाती है, दृष्टि क्षीण हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है, मुँह से लार टपकने लगती है, सम्बन्धी उसके बात की उपेक्षा कर देते हैं, पत्नी सेवा से मुँह मोड़ लेती है ; और तो और, पुत्र भी शत्रु बन जाता है । (567) बुढ़ापे से जर्जर होने वाले मानव के शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और बाल सफेद हो जाते हैं । भला ऐसी करुण दशा में वह वृद्ध पुरुष क्या कुछ करके किसी को प्रभावित कर सकता है ? अर्थात् वह कुछ नहीं कर सकता । (568) देवता लोग प्रायः यह गीत गाया करते हैं कि वे धन्य हैं जो देवत्व से लौट कर स्वर्ग और मुक्ति के योग्य मार्ग वाली भारतभूमि के किसी भी हिस्से में पुनः मानव-जन्म धारण करते हैं । (569) गाय आदि पशु गन्ध द्वारा लेते हैं, ब्राह्नण आदि वेदों द्वारा सच्चाई को पहचान लेते हैं, राजा लोग दूतों द्वारा देख लेते हैं, शेष सभी अपनी आँखों से देखते हैं । (570) प्राणी अपने कर्मफल को देने वाले अच्छे या बुरे कार्य का अच्छा या बुरा फल दूसरे जन्म में निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है । (571) अच्छाइयों तथा बुराइयों के ढेर में से नीच लोग बुराइयाँ ही ग्रहण करते हां; जैसे मरे हुए हाथी के शरीर से कौोए मोतियों को छोड़कर उसका माँस ही ग्रहण करते हैं । ( ऐसा माना जाता है कि कुछ हाथियों के गण्डस्थल से मोती निकलते हैं । ) (572) उस श्रेष्ठ पुरुष रूपी वृक्ष पर मित्ररूपी पक्षी सुखपूर्वक आश्रय प्राप्त कर लेते हैं, जिसके गुण उसकी नई कोंपले हैं, नम्रता जिसकी बड़ी-बड़ी टहनियाँ हैं, विश्वास जिसकी जड़ें हैं, महिमा जिसके फूल हैं और अपने गुणरूपी फलों से जो भरा हुआ है । (573) गुणों का ही सर्वत्र मान होता है, अधिक धन दौलत का भी वैसा मान नहीं होता । पूरे चाँद की वह प्रतिष्ठा नहीं होती, जो कलङ्कहीन प्रथमा के दुबले चाँद की होती है । (574) अधिक गुणी व्यक्ति के गुणों से कम गुण वालों के गुण ढक जाते हैं । जैसे रात के समय तो दीपक की लौ की शोभा होती है, परन्तु सूर्य के निकलने पर वह फीकी पड़ जाती है । (575) यदि पराया व्यक्ति या वस्तु गुणवान् भी हो और अपना व्यक्ति या वस्तु गुणहीन भी हो, तो भी अपना गुणहीन व्यक्ति या वस्तु या वस्तु ही अच्छा है, क्योंकि जो पराया है, वह तो पराया ही है, वह अपना नहीं बन सकता । (576) विधाता भी गुणवान् वस्तु को देर तक नहीं रहने देता । जैसे पूर्णिमा का सुन्दर और पूरा चाँद केवल एक रात ही रह पाता है । (577) गुणों की पहचान करने वालों के पास ही गुणों का मान होता है । जो निर्गुण होते हैं या गुणों की पहचान नहीं कर सकते, उनकी दृष्टि में गुण भी दोष बन जाया करते हां । जैसे नदियों के चलते समय उनका पानी पीने योग्य होता है, परन्तु समुद्र में पहुँचकर वह पानी पीने योग्य नहीं रहता; खारा हो जाता है । (578) गुणों में भेद वही बता सकता है, जो गुणों को पहचानता है । मालिका और मोतिया के फूलों के गन्ध का विवेक नाक ही कर सकती है, आँख नहीं । (579) जहाँ गुणों का मान नहीं है, वहाँ गुणवानों के रहने का कोई लाभ ही नहीं । जहाँ दिगम्बर भिक्षुक रहते हों, वहाँ धोबी का क्या महत्त्व होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं । (580) गुणियों की गिनती आरम्भ करते ही, जिसके नाम पर सहसा उँगली या कलम नहीं उठती, यदि ऐसे पुत्र से माता पुत्रवती कहला सकती है, तो बताओ बाँझ किसे कहेंगे ? तात्पर्य यह है कि गुणहीन पुत्र से तो स्त्री का बाँझपन ही अच्छा है । (581) गुणों के संग्रह में प्रयत्नशील रहना चाहिए, व्यर्थ के दिखावे से कोई लाभ नहीं होता । जैसे दूध न देने वाली गौएँ गले में घंटियााँ बाँधकर सजा देने से ही बिकने योग्य नहीं हो जातीं । (582) मनुष्य गुणों द्वारा ही उन्नति कर सकता है; किसी ऊँचे स्थान पर बैठने से नहीं । क्य महल की चोटी पर बैठा हूआ कौआ गरुड़ की तुलना कर सकता है ? अर्थात् नहीं । (583) गुरु की पत्नी, राजा की पत्नी, बड़े भाई की पत्नी, पत्नी की माता और अपनी माता - ये पाँचों माताएँ कहलाती हैं । (584) ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य का गुरु अग्नि है, चारों वर्णों का गुरु ब्राह्नण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और अतिथि सभी का गुरु माना जाता है । (585) जो आध्यात्मिक गुरु अभिमानी हो, करने योग्य और न करने योग्य बातों को न जानता हो तथा उल्टे मार्ग पर चल रहा हो, उसे छोड़ देना चाहिए । (586) हे निष्पाप युधिष्ठिर, जो व्यक्ति गोपनीय सलाह को ध्यान से सुनता है, जिसके सहायक अच्छे हैं, और जो सोच-समझकर कर कार्य करता है, उसी के पास धन-सम्पत्तियाँ स्थायी रूप से रहती हैं । (587) एकान्त में मैथुन करना, समय-समय पर जमा करना, चौकन्ना रहना और किसी पर विश्वास न करना - ये बातें कौए से सीखनी चाहिए । (588) जो व्यक्ति अपने सभी सम्बन्धियों का परित्याग कर मोक्ष के मार्ग पर चल पड़ता है, उसे अनन्तकाल तक तेज से भरपूर स्थान प्राप्त हो जाते हैं । (589) घर के मोह में फँसे रहने वाला विद्या प्राप्त नहीं कर सकता, मांस खाने वाले में दया नहीं होती, धन का लोभी सच नहीं बोलता और कामी व्यक्ति पवित्र नहीं हो सकता । (590) ब्राह्नण दक्षिणा लेकर यजमान को छोड़ देते हैं, शिष्य विद्या समाप्त करके गुरु को त्याग देते हैं और हरिण आदि प्राणी जले हुए जंगल को छोड़ देते हैं । (591) गाय की हत्या करने वाले, शराब पीने वाले, चौर और अपना व्रत भङ्ग करने वाले के लिए श्रेष्ठ लोगों ने पश्चात्ताप का विधान किया है, परन्तु कृतघ्न के लिए कोई पश्चात्ताप नहीं बताता गया है । ( वह तो नकर में ही जायेगा । ) (592) ग्रहों की चाल, स्वप्न, सगुन, भिवष्य-कथन ये सभी काकतालीय न्याय से ( अचानक ) सफल होते हैं । इसलिए बुद्धिमान् इनसे नहीं डरते । (593) हे मानव । माँगने वाले दीन-हीन व्यक्तियों को ग्रास-भर या उससे भी आधा पदार्थ क्यों नहीं देते हो ? बताओ तो सही कि इच्छानुसार धन कब किस का होगा ? अर्थात् मन की इच्छा पूरी नहीं हो सकती; इसलिए असमर्थ लोगों को यथाशक्ति कुछ-न-कुछ देेेते रहना चाहिए । (594) ग्रीष्म-काल को छोड़ कर अन्य ऋतुओं में दिन के समय सोने से कफ और पित्त कुपित हो जाते हैं । इसलिए इन ऋतुओं में दिन में शयन उचित नहीं है । (595) ग्रीष्मकाल में सूर्य-किरणों द्वारा निरन्तर ग्रहण करने से शरीरों में रूखापन आने से, वायु के बढ़ जाने से तथा रात्रियों के बहुत छोटे होने के कारण दिन में सोना स्वास्थ्य के लिए उचित माना जाता है । (596) नीच व्यक्ति दूसरों का काम बिगाड़ना ही जानता है, सुधारना नहीं । वायु की शक्ति पेड़ को गिराने के लिए है, परन्तु उसे उठाने के लिए नहीं । (597) निम्नलिखित के लिए मार्ग छोड़ देना चाहिए - (1) वाहन, (2) वृदध पुरुष या स्त्री, (3) रोगी व्यक्ति, (4) भार उठाये हुए, (5) नारी, (6) स्नातक, (7) राजा, (8) दूल्हे के लिए । (598) आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ प्राणिमात्र की होती हैं । तृष्णा के नष्ट होने पर ये प्रसन्न हो जाती हैं । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह कष्ट उठाए बिना दुःख से हीन होकर उन्हें नियंत्रण में रखे । (599) जो शत्रु दण्डनीति से ही वश में आ सकता है, उसके साथ सामनीति बरतने से हानि होती है। जो ताजा बुखार पसीना देने के योग्य है, उसे कौन बुद्धिमान् पानी से सींचेगा ? अर्थात् नहलाने से वह बुखार बिगड़ जाता है । (600) संसार में चन्दन को ठण्ढा माना जाता है और चाँद को चन्दन से भी शीतल कहते हैं । परन्तु श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति इन दोनों से बढंकर शीतल होती है, क्योंकि यह हृदय की अशान्ति मिटाकर मानव को शान्त कर देती है । (601) गति करता हुआ ही शहद को पा लेता है, चलता हुआ ही स्वादु उदुम्ब का फल पा लेता है । सूर्य की शोभा को देखो, वह चलता ही रहता है और थकता नहीं । (602) चञ्चलचित्त वाले, वृद्धों सेवा तथा सत्सङ्ग न करने वाले तथा अस्थिर बुद्धि वाले मनुष्यों द्वारा किया गया मित्रों का संग्रह अस्थायी होता है । (603) मन-सहित ये छहों ज्ञानेन्द्रियाँ बड़ी चञ्चल हैं । उनमें से जो भी इन्द्रिय जिस-जिस विषय में आगे बढ़कर भोग करती है, वहाँ-वहाँ से मनुष्य की बुद्धि ऐसे ही क्षीण होती जाती है, जैसे छेद वाले जल के घड़े में से लगातार जल बहता रहता है । (604) धन-सम्पत्ति अस्थायी है, प्राण भी अस्थायी है, और जीवन तथा घर भी अस्थायी है । इस प्रकार यह साारा संसार ही अस्थायी है ; केवलमात्र धर्म ही आत्मा के साथ रहने वाली स्थायी वस्तु है । (605) अभी विधाता की रचनाओं में निम्नलिखित शेष बातें हैं, जो कि संसार में अब तक दिखाई नहीं दे रहीं - (1) सोने में सुगन्ध, (2) मालती की माला का न मुरझाना और (3) सुनने वाले द्वारा वक्ता के कथन में त्रुटियाँ न ढूँढना । (606) चिता और चिन्ता इन दोनों में से चिन्ता ही बड़ी है, क्योंकि चिता तो मुर्दे को जलाती है जबकि चिन्ता तो जीवित को ही जलाती रहती है । (607) मनुष्य को मन को पवित्र बनाना चाहिए । ऐसी दशा में बाहरी पवित्रता का कुछ भी महत्त्व नहीं रह जााता । जिसकी आत्मा पवत्रि भावों से पूर्ण है, वही स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त करता है । (608) आने वाली मुसीबतों को दूर करने का उपाय पहले ही सोच लेना चाहिए । घर में आग लग जाने के बाद कुआँ खोदने का कोई भी लाभ नहीं होता । (609) चिन्ता रूपी बुखार मनुष्यों की भूख, नींद, शक्ति, सौन्दर्य, उत्साह, बुद्धि, लक्ष्मी और जीवन तक को नष्ट कर देता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । (610) सभी प्रकार के रसों से सम्पन्न और प्रसाद गुण से भी पूर्णतः सम्पन्न काव्य श्रेष्ठ बुद्धिमान् पुरुषों के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करके उन्हें आनन्दमग्न कर देता है, परन्तु वही काव्य दुष्ट लोगों के हृदय में ठहर नहीं पाता, जैसे राहु के मुख में गया हुआ अमृत भी बाहर ही निकल गया । (611) चोर असावधान लोगों से, डाक्टर रोगियों से, राजा झगड़ने वालों से और विद्वान् प्रतिदिन मूर्खों से ही जीविका प्राप्त करते हैं अर्थात् इन्हीं द्वारा उक्त लोगों को धन प्राप्त होता है । (612) वही वृक्ष प्रशंसनीय है, जिसकी छाया में मृग सोते हैं, पक्षियों ने जिस पर आश्रय ले कर सभी पत्ते छिन्न-भिन्न कर दिये हैं, जिसके कोटरो में कीड़े रह रहे हैं, जिसकी शाखाओं पर बन्दरों के समूह निवास कर रहे हैं, जिसके फूलों से भौरे निडर होकर रस पीते हैं और जो अपने सम्पूर्ण अंगों से सभी प्राणियों को सुख दे रहा है । उपकार न करने वाले शेष वृक्ष या प्राणी केवल भूमि पर भार बने हुए हैं । (613) जब मानव अधर्म के जाल को तोड़-फोड़ कर धर्म में प्रवृत्त हो जाता है, तब सभी प्राणियों को अभय-दान देकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । (614) जाल को तोड़कर, शिकारियों की पकड़ने की योजना से बचकर, शक्ति से रस्सियों को तोड़कर, जंगल में लगी आग की लपटों से बचकर, जंगल से दूर जाकर और शिकारियों के बाणों की पहुँच से उछल कर अदृश्य होकर भी दौड़ता हुआ मृग कुँए में जा गिरा । अफसोस । जब विधाता ही विपरीत हो जाता है तो मानव का पुरुषार्थ मिट्टी में मिल जाता है । (615) हे राजन् । श्रेष्ठ लोग क्षमा द्वारा क्रोध को नष्ट कर देते हैं तथा विषयों के संकल्प त्याग से काम को, सात्त्विक पदार्थों के सेवन से निद्रा को, सावधानी से भय को और थोड़ा भोजन करने से पाँचवें श्वास पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं । (616) चन्दन का वृक्ष कटने पर भी सुगन्ध का त्याग नहीं करता, बूढ़ा हाथी भी वनोद करना नहीं छोड़ता, कोल्हू में डाला हुआ भी ईख मिठास का त्याग नहीं करता, ऐसे ही ऊँचे कुल का व्यक्ति क्षीण होने पर अथवा बुरी परिस्थितियों में भी उत्तम स्वभाव को नहीं छोड़ता । (617) भले लोग यह सोचकर कि कटा हुआ पेड़ भी फिर उग आता है और क्षीण चन्द्रमा भी फिर पूरा हो जाता है, विपत्तियों में अधिक दुखी नहीं होते । (618) जिन्हें कोई प्राणी काट गया हो, उनका जीवन बचाने के लिए या तो डंक वाले स्थान को काटा जाए या उसे जलाया जाये अथवा वहाँ से रक्त बहाया जाए । (619) निम्नलिखित पाँच व्यक्ति 'पिता' कहे जाते हैं - (1) जन्म देने वाला, (2) उपनयन संस्कार करने वाला, (3) विद्या देने वाला, (4) अन्न देने वाला और (5) भय से बचाने वाला । (620) जन्म-जन्मान्तरों में प्राणी ने दान, अध्ययन और तप का जो अभ्यास किया होता है, उसी अभ्यास के कारण वह फिर अभ्यास करने लगता है । (621) यह संसार जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोगों की पीड़ाओं से परिपूर्ण है, यह सोचकर इस संसार को छोड़ने में हो सुख है । (622) सांसारिक वस्तुओं के भोग की लालसा से मैंने अपना यह जीवन निष्फल कर दिया है । खेद की बात है कि मैंने चिन्तामणि जैसे बहुमल्य जीवन को काँच जैसे तुच्छ पदार्थ के बदले बेच दिया है । (623) शुभ रचनाएँ करने वाले, रस-रचना मेें निपुण उन कविराजों की जय हो, जिनके यश-रूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न होने वाला डर नहीं है । (624) मनुष्य को चाहिए कि पेट की शुद्धि के लिए समय-समय पर कोई क्वाथ या औषध ग्रहण करे । इससे बुढ़ापा दूर भागता है और मनुष्य स्वस्थ रहकर चिरकाल तक जी सकता है । (625) बुढ़ापा सौन्दर्य को, आशा धैर्य को, मृत्यु जीवन को, गुणों में दोष खोजना नैतिकता को, काम लज्जा को, नीच व्यक्ति की सेवा चरित्र को, गुस्सा धनदौलत को और अभिमान तो सर्वस्व नष्ट कर देता है । (626) पानी की एक-एक बून्द टपकने से धीरे-धीरे घड़ा भर जाता है । इसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा सीखते रहने से विद्याएँ, थोड़ा-थोड़ा करते रहने से धर्म और धन का भी संचय हो जाता है । (627) प्रत्येक वस्तु की अपनी शक्ति के कारण पानी में तेल, दुष्ट व्यक्ति में गुप्त कथन, योग्य पात्र को दिया हुआ थोड़ा सा भी दान और समझदार व्यक्ति में शास्त्र स्वयं विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं। (628) ( पुण्यात्मा ) मनुष्य ( स्वर्गलोक में जाकर ) मृत्यु को, बुढ़ापे को तथा भय को त्याग देता है । वहाँ उसे मन के प्रतिकूल भूख और प्यास का भी कष्ट सहन नहीं करना पड़ता । परलोक में इन्द्रियों को सुख पहुँचाने के अतिरिक्त कोई और कार्य शेष नहीं रह जाता । (629) विद्या बुद्धि की जड़ता को दूर कर देती है, वाणी में सच्चाई लाती है, मान बढ़ाने का ढंग बताती है, पाप को दूर भगाती है, चित्त को प्रसन्न रखती है, यश को फैलाती है । भला कल्प-लता के समान विद्या कौन सा कार्य सिद्ध नहीं करती ? अर्थात् विद्या सभी कार्य सिद्ध कर देती है । (630) जो व्यक्ति नये-नये दुश्मन तथा रोग को शान्त नहीं करता, वह बलवान् होते हुए भी उस शत्रु के और रोग के बढ़ जाने से उसी के द्वारा मारा जाता है । (631) जो पैदा हुआ है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी और जो मर चुका है, उसका जन्म भी अवश्य होगा । हे अर्जुन । क्योंकि यह नियम तुम्हारी शक्ति से बाहर है, अतः तुम्हें किसी के मरने-जीने पर शोक नहीं करना चाहिए । (632) कहीं भेजते समय नौकरों की, संकट के समय रिश्तेदारों की, मुसीबत में मित्र की और धन के नाश ह जाने पर पत्नी की पहचान या परीक्षा होती है । (633) मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो और जिह्वा के मूल में उससे भी बढ़कर मिठास हो । हे माधुर्य रूप प्रभु । मेरी बुद्धि में, मेरे कर्म में और स्मृति में भी तुम विराजमान रहो । (634) धर्महीन जीते हुए व्यक्ति को भी मैं मरा हुआसा समझता हूँ और जो धार्मिक व्यक्ति शरीर का त्याग भी कर देता है, उसे मैं निःसन्देह दीर्घ आयु वाला मानता हूँ । (635) मेरे शत्रु सदा जीते रहें, जिनकी कृपा से मैं सदा सावधान रहता हूँ । मैं जब-जब असावधान होने लगता हूँ, तब-तब ही वे मुझे पुनः चौकन्ना कर देते हैं । (636) हे भरतवंशज । ये पाँच व्यक्ति जीते हुए भी मरे हुए के समान ही माने जाते हैं - (1) दरिद्र, (2) रोगी, (3) मूर्ख, (4) विदेश में रहने वाला और (5) जीवन-भर का सेवक । (637) मनुष्य-पशु आदि को जाति कि साथ ही शरीर और जीवन प्राप्त होता है । शरीर और जाति दोनों ही तक साथ प्रकट होते हैं और दोनों साथ ही नष्ट हो जाते हैं । (638) हे मानव । जो सम्बन्धी तुम्हारे प्रति कड़वे और अपमानजनक शब्द बोलना चाहें, तो अपनी शान्त वाणी द्वारा उनके हृदय, वाणी और मनों को शान्त करो । (639) ज्ञान सज्जनों के लिए तो अभिमान और अज्ञान का नाशक होता है, परन्तु वही कुछ ( नीच ) लोगों का अभिमान और अज्ञान बढ़ाता है । जो स्थान तपस्वी लोगों के मोक्ष-सिद्धि के लिए निश्चित होता है, वही स्थान कई लोगों की कामवासना को भड़काने का कारण बन जाता है । ( अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार ही किसी वस्तु का उपयोग करता है । ) (640) ज्ञान और विज्ञान से जिसकी आत्मा तृप्त हो चुकी है, जिसमें विषय-विकार उत्पन्न नहीं होते, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है और जो ढेले और सोने को एक समान समझता है, वही योगी 'युक्त' कहलाता है । (641) ज्ञान में ही आनन्द लेने वाले, सब प्राणियों के हितैषी और पूर्णतः तत्त्वज्ञ व्यक्ति को तो पुनर्जन्म का ही भय नहीं रहता, तो परलोक का भय कैसे हो सकता है ? (642) जिन्होंने अपनी आत्मा के ज्ञान से अज्ञाने को नष्ट कर दिया है, उनका वह आत्मज्ञान सर्वोत्कृष्ट परमात्मा का बोध इसी प्रकार करा देता है, जैसे सूर्य के प्रकाश में सब स्पष्ट दिखने लगता है । (643) जो ज्ञान के बल से मोह-जनित नाना प्रकार के क्लेशों से पार हो गया है, उसके लिए जगत् में कोई भी लोक-व्यवहार का कार्य बोद्धिक प्रकाश के कारण अवरुद्ध नहीं होता । (644) हे पारिवारिक लोग, बड़ी आयु वाले तथा ज्ञान सम्पन्न आप लोग उत्तम प्रयोजनों को सिद्ध करते हुए, परिवार का बोझ मिलकर संभालते हुए एक दूसरे से कभी वियुक्त मत होओ । एक दूसरे के साथ मधुर और सत्य भाषण करते हुए एक दूसरे के पास आओ । मैं परमेश्वर ( तुम सबका प्रेरक ) तुम्हें परस्पर सहायक और सहमति वाला बनाता हूँ । (645) जो देव सनातन, दुर्लभ दर्शन वाला, सबमें छिपा हुआ, सर्वव्यापक, हृदयरूपी गुफा में रहने वाला और सबमें विराजमान है, उस ब्रह्नदेव को आध्यात्मिक योग द्वारा समझकर उपासक हर्ष और शोक आदि से मुक्त हो जाता है । (646) तक्षक आदि साँपों के दाँत में विष होता है, मक्खी के सिर में, बिच्छू की पूँछ में और दुष्ट व्यक्ति के सारे शरीर में विष होता है ; अर्थात् दुष्ट व्यक्ति प्रत्येक अंग से ही दूसरों को हानि पहुँचाने में लगा रहता है । (647) किसी बात का निरन्तर चिन्तन करना, दूसरे को उसे कहना, एक दूसरे को उसके संबंध में जानकारी देना और तदाकार वृत्ति रखना - इसको विद्वान् अभ्यास कहते हैं । (648) श्रेष्ठ कर्म वही है, जो बन्धन में नहीं डालता और विद्या भी वही है, जो मुक्ति की ओर ले जाए । शेष कर्म तो थकाने वाले और अन्य विद्या तो कला की निपुणता मात्र है । (649) जो सभी प्राणियों के तत्त्व को समझता हो, सभी कार्यों को करने की विधि जानता हो, मनुष्यों से सम्बन्धित सभी उपायों को समझता हो, ऐसा मनुष्य ही पण्डित अर्थात् ज्ञानी कहा जाता है । (650) तत्त्वज्ञानी के लिए शास्त्र तुच्छ है, वीर के लिए युद्ध तुच्छ है, विरक्त के लिए नारी तुच्छ है और निःस्पृह के लिए राजा तुच्छ है । (651) जो बहुत अपव्ययी ( फिजूलखर्च ) हैं, और जो दुष्ट दूसरों की निन्दा करने में ही लगे रहते हैं, उनके साथ बुद्धिमान् को मित्रता नहीं करनी चाहिए और अकेले भी कहीं नहीं जाना चाहिए । (652) जो लोग घोड़ों, रथों और हाथियों से युक्त शत्रुओं को जीतते हैं, वे वैसे महान् वीर नहीं माने जाते, जैसे वीर वे मनीषी माने जाते हैं, जिन्होंने अपनी चंचल छः इन्द्रियों ( मन-सहित ) को जीत लिया है । (653) वह परमेश्वर ही अपने विविध गुणों और कार्यों के कारण अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्न, आपः तथा प्रजापति आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है । ( ईश्वरविषयक मन्त्रों में ये नाम ईश्वरवाची तथा वस्तुओं के प्रकरण में ये आग, सूर्य, हवा और चाँद आदि के भी वाचक हैं । ) (654) जहाँ नवास होता है, वह घर है, जिससे जीव जीवित रहता है, वह भोजन है, जिससे मोक्ष मिलता है, वही ज्ञान है और शेष अन्य अज्ञान है । (655) उस सर्वव्यापक विष्णु का जो सर्वोत्कृष्ट प्राप्तव्य पद है, उसे उसकी अनेक प्रकार प्रशंसा करने वाले तथा सत्कर्म करने में जागरूक रहने वाले बुद्धिमान् ज्ञानी पुरुष अच्छि प्रकार प्रकाशित करते हैं और उससे अपने हृदय को प्रकाशमय बना लेते हैं । (656) सर्वव्यापक विष्णु के सर्वोत्कृष्ट ज्ञातव्य स्वरप को धार्मिक और ज्ञानी लोग सदा ऐसे ही देखते हैं, जैसे सूर्य के प्रकाश में फैले हुए सब पदार्थों को नेत्र देखते हैं । (657) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर । आप ही शरीरों की रक्षा करने वाले हैं, अतः मेरे शरीर की रक्षा कीजिए । आप सबको आयु देने वाले हैं, अतः मुझे भी सौ वर्ष की पूर्ण आयु दीजिए । आप सबको विज्ञान देने वाले हैं, मुझे भी विज्ञान-सम्पन्न बनाइए । हे सबके प्रेरक अग्नि-स्वरूप परमात्मन् । मेरे शरीर में जो बुद्धि, बल और शौर्य आदि या स्वास्थ्य की कमी हो, उसे पूर्ण कर दीजिए । (658) हे मानव । कर्म के ताने-बाने को बुनते हुए तुम सूर्य के अनुसार नियम पालन करो । ज्ञान तथा कर्म से किये हुए प्रकाशमय मार्गों की रक्षा करो । उपासकों के कर्मों को निरन्तर बुनते या करते चलो । मनुष्य बनो । लोगों को दिव्य प्रभु का उपासक बनाओ । ( अथवा संसार में दिव्य गुणों वाले व्यक्तियों को पैदा करो । ) (659) अपने धर्म में स्थिर रहना ही तप है, मन का नियन्त्रण ही दम है, गर्मी-सर्दी आदि जोड़ों को सहना ही क्षमा है और बुरे कार्य से बचना ही लज्जा है । (660) तप से बुद्धि प्राप्त होती है, बुद्धि से मनन-शक्ति बढ़ती है, मनन-शक्ति से आत्मा एवं परमात्मा का बोध हो जाता है और आत्मा का बोध हो जाने पर संसार से मुक्ति हो जाती है । (661) प्राणी की मुक्ति तप से ही होती है और तप का मूल इन्द्रिय-संयम तथा मन का नियंत्रण है । उसी तप के द्वारा मानव मन से जो भी कामनाएँ करता है, उन सभी को वह प्राप्त कर लेता है । (662) दिव्य सुख और मानवीय सुख सभी का मूल तप ही है । बुद्धिमानों ने तप को ही सुख को स्थायी रूप से रखने वाला और वेदज्ञ लोगों ने इसे ही मुक्तिधाम तक पहुँचाने का साधन बताया है । (663) वह प्रभु ऐश्वर्यशालियों में सबसे उत्कृष्ट है, देवों मेें सर्वोत्कृष्ट देवता है, पालने वालों में सबसे श्रेष्ठ पालक है । उस संसार के स्वामी, सबके स्तुति करने योग्य, सर्वोत्तम, दिव्य गुणों के स्वामी प्रभु को हमें अवश्य जानना चाहिए । (664) वह परमात्मा परम आनन्दमय है और वह पापियों को तारता हुआ उत्पन्न किए हुए बह्नानन्द के रस सहित उपासकों के हृदयों में विराजमान होता है । और वह परमात्मा निःसन्देह पापियों को तारता हुआ परमानन्द से संसार में व्याप्त हो रहा है । भावार्थ यह है कि पापी भी प्रभु की उपासना द्वारा पवित्र होकर परमानन्द को प्राप्त हो सकते हैं । (665) जो शत्रु बल द्वारा या बहुत तेज शस्त्रों से भी वश में नहीं किये जा सकते, वे साम नीति द्वारा ऐसे वश में किये जा सकते हैं, जैसे हाथी हथिनियों द्वारा किए जाते हैं । (666) तर्क द्वारा निर्णय नहीं हो सकता, श्रुतियों में भी भेद है । ऐसा कोई भी मुनि नहीं है, जिसका गत दूसरे से भिन्न न हो । धर्म का तत्त्व छिपा हुआ है ; उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं हो सकता । अतः श्रेष्ठ व्यक्ति जिस मार्ग पर चले हैं, उसे ही धर्म का मार्ग समझना चाहिए । (667) जो व्यक्ति बहुत ऐश्वर्य अथवा शोभा को चाहता है, उसे श्रेष्ठ कर्म करने का ही यत्न करना चाहिए । और यदि कोई व्यक्ति मुक्ति भी चाहता है, तो उसे सबमें समदृष्टि रखनी चाहिए । (668) इसलिए मनुष्यों में गाय, घोड़े आदि के समान कोई जातिभेद नहीं है, सभी की 'मनुष्य' जाति ही है । उनमें वर्णभेद कार्य, शक्ति आदि के कारण केवलमात्र कृत्रिम है, जन्मजात नहीं । (669) धन न रहने पर भी मनुष्य की वे ही विकारशून्य इन्द्रियाँ रहती हैं, काम भी वैसा ही करता है, सोचने में निपुण बुद्धि भी पहले जैसी ही होती है, बात भी वैसी ही करता है, परन्तु धन की गर्मी से रहित हो जाने कारण वही पुरुष क्षणभर मेें अन्य प्रकार का हो जाता है; यही विचित्र बात है। (670) जो सन्ताप को दूर कर देता है और सुख को उत्पन्न करता है तथा उज्ज्वल कीर्ति प्रदान करता है, अमृत के समान ऐसा यह साधु-समागम कठिनाई से प्राप्त होता है । (671) जब तक कोई कुछ देता रहता है, तभी तक प्रेम बी बना रहता है । बछड़ा गौमाता को दूध से रहित समझकर उसे छोड़ देता है । (672) जब तक मनुष्य अच्छे साफ-सुथरे रास्ते पर चलता है, तब तक फिसला नहीं । परन्तु जब फिसलने वाला मार्ग आता है, तो वह कदम-कदम पर फिसलता ही चला जाता है, अर्थात् उसे निरन्तर संकटोों का सामना करना पड़ता है । (673) रथ से तभी तक जाया जाता है, जहाँ तक रथ का मार्ग होता है । रथ के मार्ग की समाप्ति पर पहुँच कर मानव रथ को छोड़ देता है और पैदल चल पड़ता है । (674) किसी मनुष्य का बड़प्पन, विद्वता, कुलीनता ओर विवेक तभी तक रहते हैं, जब तक दुष्ट कामाग्नि अङ्गों को नहीं जलाने लगती । अर्थात् कामी व्यक्ति के ये सब गुण नष्ट हो जाते हैं । (675) लक्ष्मी तेज स्वभाव वाले से घबरा जाती है, कोमल स्वभाव वाले के पास भी अपना तिरस्ककार होने के डर से नहीं ठहर पाती, मूर्खों को पसन्द नहीं करती, बहुत विद्वानों में भी यह प्रेम को प्राप्त नहीं होती, बहादुरों से डरती है और बहुत कायरों का तो उपहास कर देती है । इस प्रकार अच्छा अवसर पाने वाली वेश्या के समान यह लक्ष्मी बड़ी कठिनाई से वश में आती है । (676) योगिजन जलमय तीर्थों और काष्ठ-पाषाणादि से निर्मित देवमूर्तियों में भटकते नहीं फिरते, क्योंकि वे आत्मतीर्थ में श्रद्धा और विश्वास रखते हैं । (677) शरीर मेें ही शिव ( परमात्मा ) के विद्यमान रहते हुए भी मूढ़ व्यक्ति तीर्थ में, दान में, जप में, यज्ञ में, लकड़ी और पत्थर की मूर्तियों में उसे ढूँढता फिरता है । (678) जो राजा समान सम्पत्ति वाले, समान शक्ति वाले, रहस्यों को जानने वाले, परिश्रमी और आधे राज्य पर अधिकार रखने वाले नौकर की हत्या नहीं करता, वह उसी के द्वारा मारा जाता है । (679) रुई तिनके से भी हल्की होती है और रुई से भी हल्का ( तुच्छ ) भिखारी होता है । तब भला उसे वायु क्यों उड़ाकर नहीं ले जाती ? इसलिए कि कहीं भिखारी उससे भी कुछ माँग न ले । (680) आँधी तूफान तिनकों को नहीं उखाड़ते, क्योंकि वे कोमल होने के कारण सभी ओर से झुक जाते हैं । महान् चित्त वालों का तो यह स्वभाव ही होता है कि वे बड़ों पर ही अपनी पराक्रम दिखाते हैं, छोटों पर नहीं । (681) सज्जनों के घर में कम से कम ये चार वस्तुएँ कभी भी समाप्त नहीं होने पातीं - (1) तिनके या आसन, (2) भूमि, (3) पानी तथा (4) मीठी और सच्ची वाणी । (682) सज्जनों मेें निम्नलिखित गुण होते हैं - (1) वे लोग लालच से दूर रहते हैं, (2) क्षमाशील होते हैं, (3) अभिमान नहीं करते, (4) पाप में उनकी रुचि नहीं होती, (5) वे सच बोलते हैं, (6) श्रेष्ठ लोगों के मार्ग पर चलते हैं, (7) विद्वानों की सेवा करते हैं, (8) माननीय लोगों का मान करते हैं, (9) शत्रुओं को भी अनुकूल बना लेते हैं, (10) अपने गुणों को सब ओर फैलाते हैं, (11) कीर्ति के कार्य करते हैं और (12) दुःखियों पर दया दिखलाते हैं । (683) हे तृष्णा देवी । तुझे नमस्कार है, जो तू धनी लोगों को भी बुरे कामों में लगा देती है और दुर्गम स्थानों पर भी भटकाती रहती है । (684) वे धन्य हैं, वे विवेकशील हैं वे ही इस भूमि पर सभ्य हैं, जिनके घर में मित्र लोग किसी प्रयोजन से आते हैं । (685) पढ़ा उसी ने, सुना उसी ने, उसी ने सब कुछ किया जिसने सब उम्मीदों को पीछे छोड़ कर आकांक्षाओं का त्याग कर दिया । (686) वे ही वन्दनीय हैं, वे ही महात्मा हैैं, उन्हीं का यश इस लोक में स्थायी हैं, जिन्होंने काव्य-रचना की है अतवा जिनका काव्यों में वर्णन किया गया है । (687) जो व्यक्ति शरण में आए हुए को छोड़ देता है, उसे विजय-लक्ष्मी त्याग देती है, मित्र और सम्बन्धी छोड़ देते हैं और वह सदा उपहासास्पद बन जाता है । (688) भूख से तड़पती हुई महिला अपने पुत्र को छोड़ देती है और सर्पिणी भूख से व्याकुल होकर अपने अण्डे को भी खा जाती है । भूखा व्यक्ति ऐसा कौन सा पाप है जो नहीं करता ? क्षीण मनुष्य निर्दय हो जाते हैं । (689) कुल की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को, गाँव की रक्षा के लिए एक परिवार को, राज्य के लिए एक गाँव को और अपने बचाव के लिए उस स्थान को ही छोड़ देना चाहिए । (690) यदि कोई व्यक्ति ऐसे धन से, जिसे न दान किया जाये और न भोग में लाया जाये, धनी कहला सकता है, तो क्या हम भी उसी धन से धनी नहीं कहला सकते ? अर्थात् ऐसा धन व्यर्थ का है जो न दिया जाये और न जिस का उपभोग किया जा सके । (691) विपरीत समय आने पर भी धैर्य कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि धैर्य से हम कभी लक्ष्य को प्राप्त कर ही ले । जैसे समुद्र में जहाज के टूट जाने पर भी उसके यात्री तैरने की ही कामना करते हैं । (692) आत्मा को नष्ट करने वाले के ये तीन द्वार हैं . कााम, क्रोध तथा लोभ । इसलिए इन तीनों को छोड़ देना चाहिए । (693) तीनों तत्त्वों ( ईश्वर, जीव, प्रकृति ) और तीनों कालों के ज्ञाता, उत्तम कीर्ति वाले और सबकी पुष्टि बढ़ाने वाले परमेश्वर की हम उपासना करते हैं, उसका ध्यान करते हैं, जिससे जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी टहनी से स्वयं पृथक् हो जाता है, वैसे ही हम भी पूर्णायु होने पर देहादि के बन्धन से मुक्त हो जाएँ, परन्तु जन्म और मृत्यु से रहित मोक्षअवस्था से हम अलग न हों । (694) हे श्रेष्ठ बादल । तुम्हीं चातक ( हमारे ) प्राणों के आधार हो, यह बात किस से छिपी है ? क्या बरसने के लिए तुम हमारी करुणापूर्ण वाणी की प्रतीक्षा कर रहे हो ? (695) हे सबको बसाने वाले परमेश्वर । आप ही हम सबके पिता हैं तथा हे अनेक प्रकार की बुद्धि तथा कर्म वाले प्रभो । आप ही हमारी माता भी हैं अर्थात् निर्माणकर्ता भी हैं । इसी कारण हम आपसे सुख की कामना करते हैं । (696) जैसे दाँत से रहित साँप और मद से रहित हाथी की कोई भी परवाह नहीं करता, वैसे ही अपने पद से हटे हुए राजा की भी वही दशा होती है । (697) हे महाराज । बुद्धिमान् व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह मांसाहारियों तथा सींगों वाले प्राणियों से बच कर दूर ही रहे । इसी प्रकार ओस से तथा सामने की हवा और धूप से भी बचे । (698) निपुण व्यक्ति धन-सम्पत्ति को, अनुकूल भोजन करने वाला स्थास्थ्य को, स्वस्थ सुख को, लगनशील पूरी विद्या को तथा नम्र व्यक्ति धर्म, धन और यश सभी को प्राप्त कर लेता है । (699) दण्ड सारी प्रजा को वश में रखता है, दण्ड ही उसकी रक्षा करता है । जब लोग सोते हैं तो दण्ड जागता है । विद्वान् लोग दण्ड को धर्म मानते हैं । (700) प्यार की छह निशानियाँ ये हैं - (1) देना, (2) लेना, (3) गुप्त बात बताना, (4) गुप्त बात पूछना, (5) खाना और (6) खिलाना । (701) मन के वशीकरण के समान संसार में हम किसी अन्य कर्त्तव्य के विषय में नहीं सुनते । मन का वशीकरण ही सभी धार्मिक व्यक्तियों के लिए सबसे उत्तम कर्त्तव्य माना गया है । (702) मन पर नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति ही सबसे महान् कर्त्तव्य का पालन करात है । इन्द्रियों का दमशील व्यक्ति सुख की नींद सोता है और सुखपूर्वक ही जागता है । (703) धर्म का मूल दया है । किसी से शुत्रता करने से मनुष्य पापी बनता है । जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक दया नहीं छोड़नी चाहिए । (704) धैर्य होनेे से निर्धनता कष्टदायक नहीं होती, कुरुपता शीलादि गुणों के होने पर ( लोगों की आँखों में ) खटकती नहीं, कुभोजन गरम-गरम होने पर रुचिकर मालूम होता है और खराब वस्त्र भी स्वच्छ और निर्मल होने पर शोभा देते हैं । (705) जहाँ देखने, छूने, सुनने और बोलने से भी मन द्रवित हो जाता है, उसे स्नेह कहते हैं । (706) घर में नारियों से मिल लेना, निर्भय होकर भोजन कर लेना और रहस्यों को कहना और सुनना-मित्रता की ऐसी बातों से बढ़कर और क्या हो सकता है ? अर्थात् ये ही सच्चे प्यार की बातें हैं । (707) जैसे धौंकनी से धौंकी जाती हुई धातुओं की गन्दगी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्राणों के निग्रह ( प्राणायाम ) से इन्द्रियों के विकार दूर हो जाते हैें । (708) अपने लोगों के प्रति शालीनता, नौकर-चाकरों के प्रति दया, दुष्टों के प्रति दण्ड देने का भाव, श्रेष्ठ लोगों से प्रेम, राजाओं में नीति का आचरण, विद्वानों के प्रति सरल व्यवहार, शत्रुओं के सम्मुख वीरता, बड़े लोगों के प्रति सहनशीलता, स्त्रियों के प्रति सत्कार की भावना-इस प्रकार की व्यावहारिक कलाओं में जो लोग निपुण हैं, उन्हीं के कारण यह संसार टिका हुआ है । (709) दक्षता, अत्याचार को न सहना, पराक्रम और शीघ्रता ये जो तेज के गुण हैं, इनको क्रोध से भरा हुआ मनुष्य ठीक-ठीक प्राप्त नहीं कर सकता । (710) दान दे देना चाहिए या उपभोग कर लेना चाहिए परन्तु धन का संचय नहीं करना चाहिए । देखो तो सही कि इस संसार में मधुमक्खियों के द्वारा संचित मधु को दूसरे लोग ले जाते हैं । (711) 'हमें दान करना चाहिए' यह सोचकर जो दान देश, काल और योग्य पात्र को समझकर ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है, जिससे हम बदले की आशा नहीं रखते, वही दान सात्त्विक कहलाता है । (712) उदार हृदय वाला छोटा व्यक्ति भी सेवा करने के योग्य होता है, परन्तु धन-सम्पत्ति का स्वामी कंजूस सेवनीय नहीं होता । मीठे जल वाला कुआँ लोगों को अच्छा लगता है, परन्तु अथाह जल का स्वामी खारा सागर किसी को नहीं भाता । (713) देने का गुण, मधुर बोलने का गुण, धैर्यशीलता और विवेकशीलता ये चार गुण जन्मतः प्राप्त होते हैं, अभ्यास से इन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता । (714) दरिद्र का दान देना, दण्ड देने में समर्थ व्यक्ति का क्षमा-भाव, जवान मनुष्य का तप में लगना, ज्ञानी का मौन धारण करना, सब प्रकार के सुख भोगने में समर्थ मनुष्य में सुखों के भोग की इच्छा का न होना तथा जीवों पर दया का भाव होना ये बातें स्वर्ग देने वाली हैं । (715) दिया हुआ दान, किया हुआ शुभ कर्म, अपनी विद्या, अपना सौन्दर्य, उत्तम स्वभाव, अपने खानदान की बातें, सुख के साधन, आयु और कीर्ति की बातें - ये नौ वस्तुएँ गोपनीय हैं, इनका ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए । (716) मीठे वचनों के साथ दान, अहंकार-रहित ज्ञान, क्षमायुक्त शोर्य, दान से युक्त धन-ये चार वस्तुएँ संसार में दुर्लभ हैं । (717) धन की तीन गतियाँ होती हैं - (1) दान, (2) भोग और (3) नाश । जो न दान करता है, न धन को काम में लगाता है, उसका धन नष्ट हो जाता है । (718) दान के योग्य व्यक्ति को छोड़कर जो दान अयोग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह गवाह्रिक दान गाय को छोड़कर गधे को देने के बराबर है । (719) दान, स्वाध्याय, यज्ञ, तप, बुरे कार्यों से लज्जा, सरलता और मन के वशीकरण द्वारा मनुष्य का तेज बढ़ता है और पापवृति नष्ट हो जाती है । (720) दान, यश, तप, ध्यान, स्वाध्याय, जननोन्द्रिय का निग्रह, संकल्पपूर्ण व्रत, उपवास, मौन रहना और स्नान - ये दस दैनिक नियम हैं । (721) यदि मद से अन्धी हुई बुद्धि के कारण इस बड़े हाथी ने मद की चाह करने वाले भौरों को कानों के थपेड़ों से भगा दिया है, तो इससे उसी के गण्डस्थलों की शोभा की हानि हुई है । भौरे तो फिर भी खिले हुए कमलवन में घूम रहे हैं । (722) दाने के समान दूसरा कोई खजाना नहीं है और लोभ से बढ़कर पृथ्वी पर कोई दूसरा शत्रु नहीं है । उत्तम स्वभाव के समान कोई दूसरा अलंकार नहीं है और सन्तोष की तुलना में कोई दूसरा धन भी नहीं है । (723) हाथ की शोभा दान से होती है, कंगन से नहीं । नहाने से शरीर की शुद्धि होती है, चन्दन के लेप से नहीं, मान प्राप्ति से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं और ज्ञान से ही मोक्ष मिलता है शरीर की सजावट से नहीं । (724) दान से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, दान से ही लक्ष्मी मिलती है, दान से ही मनुष्य शत्रुओं को जीतता है और दान से ही रोग नष्ट होता है । (725) दान से विद्या प्राप्त होती है, पत्नी दान द्वारा ही मिलती है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का सबसे उत्कृष्ट साधन दान ही है । (726) जो जवानी में दरिद्र हो, बचपन में मातृहीन हो और बुढ़ापे में पुत्रहीन, उसका जीवन निष्फल है । (727) गरीबी, बीमारियाँ, अन्य प्रकार के दुःख, कैद और संकट - ये सब प्राणियों के निजी किए गए अपराधरूपी वृक्ष के फल हैं । (728) निर्धनता के कारण पुरुष के सम्बन्धी उसकी बात नहीं मानते, प्यारे मुँह फेर लेते हैं, मुसीबतें बढ़ जाती हैं, बुद्धि काम नहीं करती, शील-रूपी चन्द्रमा की शोभा मुरझा जाती है और किसी दूसरे द्वारा किया गया अपराध भी उसी के माथे मढ़ दिया जाता है । (729) दरिद्रता और मृत्यु इन दोनों में से मृत्यु मुझे पसन्द है, दरिद्रता नहीं । मृत्यु से अल्पकाल तक दुःख होता है, दरिद्रता तो अनन्तकाल तक दुृःख देती है । (730) कुछ बातें स्त्रियों से, कुछ सम्बन्धियों से, कुछ मित्रों से और कुछ पुत्रों से छिपाने योग्य होती हैं । समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह बताना उचित है या अनुचित है, यह सोचकर बहुत आग्रह करने पर ही बात बताए । (731) जिस प्रकार यहाँ दिन, रात और ऋतुओं में कार्य करने की विधियाँ बताई गई हैं, उसी प्रकार अर्थात् उसी के अनुसार आचरण करता हुआ मनुष्य स्वस्थ रह सकता है ; अन्यथा नहीं । (732) उल्लू दिन में नहीं देखता, कौवा रात में नहीं देखता है, परन्तु कामान्ध ऐसा विचित्र जीव है कि वह न दिन में देखता है ; और न रात में । (733) क्योंकि दिन में सोने से कफ बढ़ जाता है, अतः दिन में नहीं सोना चाहिए, परन्तु गर्मियों में दिन में भी सो सकते हैं ; अन्य ऋतुओं में दिन में सोना निषिद्ध है । (734) सुन्दर आम के फल को भी प्राप्त करके कोयल गर्वित नहीं होती, परन्तु मेंढक कीचड़ से युक्त गंदे पानी को भी पीकर टर्राता फिरता है । (735) दीपकों से वर्तमान वस्तु प्रकाश में आती है किन्तु कुछ व्यक्ति कुल-दीपक होते हैं जो चिरकाल पूर्व नष्ट हुए पूर्वजों को भी प्रकाश में ले आते हैं । (736) दीप अन्धकार का भक्षण करता है और कज्जल को उत्पन्न करता है । ठीक ही है कि जैसा अन्न सदैव सेवन किया जाता है, वैसी ही प्रजा ( सन्तान ) होती है । (737) दीर्घ काल तक वैर, असूया, असत्यभाषण, ज्ञानियों को बुरा कहना, व्यभिचार, चुगली और निर्दयता - ये शूद्र के लक्षण हैं । (738) लम्बे समय तक किये गये प्रयास से बनी हुई वस्तु पलक झपकते ही नष्ट हो सकती है । कुम्हार को बर्तन में तो एक वर्ष लगता है, पर दण्ड को उसे तोड़ने में एक क्षण-मात्र लगता है । (739) इस संसार में दुःखी प्राणियों को देखकर जो दुःखी नहीं होता, वह व्यक्ति पूर्ण स्वार्थी है । उससे बढ़ कर क्रूर दूसरा कौन हो सकता है ? (740) दुःख में पड़े होने पर भी, जिस किसी आश्रम मेें रहते हुए भी व्यक्ति को सब प्राणियों को समान समझकर धर्म का आचरण करना चाहिए । धर्माचरण के लिए किसी विशेष चिह्र की आवश्यकता नहीं होती । (741) जो दुःखोों से व्याकुल नहीं होता, सुख-साधनों की कामना नहीं करता और जो राग, भय और क्रोध से प्रभावित नहीं होता, वही स्थिर बुद्धि वाला मुनि कहा जााता है । (742) भले ही पति दुष्ट प्रकृत्ति का, कामवृत्ति का या मनमानी करने वाला अथवा धनहीन हो, तो भी श्रेष्ठ स्वभाव वाली स्त्रियों के लिए पति ही परम देवता है । (743) बुरे चाह-चलन वाला पुरुष संसार में बदनाम हो जाता है तथा लगातार दुःखी रहता है । उसे रोग घेरे रखते हैं और उसकी आयु कम हो जाती है । (744) ठीक न पढ़ी हूई विद्या, अजीर्ण होने पर सेवन किया हुआ भोजन, दरिद्र के लिए गपशप द्वारा समय नष्ट करना और वृद्ध के लिए तरुण पत्नी का होना विषसम ( हानिकर ) होते हैं । (745) दुष्ट व्यक्ति का, भले ही वह विद्या से सुशोभित भी क्यों न हो, परित्याग ही करना चाहिए । क्या मणि से भूषित साँप भयंकर नहीं होता ? अर्थात् निश्चय ही होता है और इसी प्रकार पढ़ा हुआ दुष्ट व्यक्ति भी हानिकर होने के कारण त्याज्य है । (746) यदि दुष्ट व्यक्ति मीठा बोले तो भी वह विश्वास के योग्य नहीं है । उसकी जिह्वा पर तो शहद है, परन्तु उसका हृदय घातक विष से भरा होता है । (747) दुर्जनों से धोखा खाने वाला व्यक्ति सज्जनों पर भी विश्वास नहीं करता । खीर से जला हुआ बालक दही भी फूँक-फूँक कर खाता है । (748) दुर्जन-रूपी अग्नि में तपाया गया काव्य-रूपी सुवर्ण शुद्ध हो जाता है, अतः कवि को ईर्ष्यालु चित्त वालों को अपना काव्य प्रयत्न-पूर्वक सुनाना चाहिए । (749) दुर्जनों और साँपों की यदि तुलना करें तो साँप अच्छा है, न कि दुर्जन, क्योंकि साँप तो किसी एक समय पर ही काटेगा, परन्तु दुष्ट व्यक्ति तो कदम-कदम पर हानि पहुँचाएगा । (750) यदि दुष्ट व्यक्ति हँसते हुए मीठी-मीठी बातें भी करें, तो उनसे इसी प्रकार डर लगता है, जैसे बीना मौसम के खिले फूलों को अपशकुन मानकर डर लगता है । (751) राजा दुष्टों को दण्ड देकर तथा श्रेष्ठ लोगों की रक्षा करके अनन्त सुख को प्राप्त होता है और क्षत्रिया वर्ण के कर्त्तव्य को निभाता है । (752) यदि पत्नी दुष्ट हो, मित्र धोखेबाज हो, नौकर आगे बोलने वाला है और साँप वाले घर में निवास हो, तो समझ लेना चाहिए कि मृत्यु आने ही वाली है ; इसमें कोई सन्देह नहीं । (753) यदि कोई व्यक्ति मन में स्थान बना चुका है, तो वह दूर रहते हुए भी दूर नहीं है, परन्तु जिसने मन में स्थान नहीं बनाया, वह पास रहते हुए भी दूर ही है । (754) भारतवर्ष में जन्म लेना ही कठिन है, उससे भी कठिन है मानव-रूप पाना और उससे भी कठिन है अपने धर्म में प्रवृत्ति । (755) उद्यम से कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं । बार-बार पानी के गिरने से शिला भी पतली हो जाती है । (756) अच्छी तरह विचार-विमर्श करके कार्य करने वालों का मुख सदा उज्ज्वल रहता है, पर उनके कार्य में जो विघ्न डालते हैं , उनका मुख निन्दारूपी कीचड़ से ढक जााता है । (757) श्रेष्ठ पुरुषों की संगति सदा दृढ़ता से करनी चाहीए और धन का या अन्य संकट आने पर उन जैसे विचारशील व्यक्ति को अपना कष्ट बता देना चाहिए । श्रेष्ठ पुरुषों की संगति महान् प्रयोजन सिद्ध कर देती है; अतः विचारशील व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी श्रिष्ठ पुरुष को हानि पहुँचाने की कामना नहीं करे । (758) अपने नियमों में दृढ़ रहने वाले परमेश्वर, हमें भी नियम-पालन मेें दृढ़ बनाओ । मेरा ऐसा सद्- व्यवहार हो कि सब प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, मै सबको मित्र की दृष्टि से देखूँ और हम सभी एक-दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें । (759) हे दुष्टों को दण्ड देने वाले परमात्मन् । मुझे अच्छे कार्यों को करने में दृढ़ बना दो । मैं आप की शुभ दृष्टि में जीना चाहता हूँ, मैं आपकी दृष्टि में गिरना नहीं चाहता । (760) मनुष्य को चाहिए कि वह सामने देखकर ही पाँव रखे, पानी को कपड़े से छानकर पिये, सत्यपूर्ण वाणी बोले और मन से सोच-समझ कर ही कार्य करे । (761) संसार में सामान्य रूप से बहुत से देखे हुए दृश्य पुनः देखने को मिलने हैं, सुने हुए विषय पुनः सुनने को मिलते हैं, किन्दु सदाचारी पुरुषों के वचन ''पुनरुक्त'' नहीं होते- यह सत्य है । जो एक बार कह दिया उसका अनुसरण वे अवश्य करते हैं, वे कहकर बदल नहीं जाते । जैेसे - ''रामो द्विर्नाभिभाषते ।'' (762) सुख और दुःख को मिला हुआ जानकर मेरे लिए राज्य और दासता समान ही हैं । न तो राजा प्रतिदिन हँसता ही रहता है और नाहीं दास सदा दुखी होता रहता है । (763) देवों, गौओं, ब्राह्नणों, योगियों, बूढ़ों तथा आचार्यों की पूजा तथा दोनों समय सन्ध्या एवं हवन करना चाहिए । (764) विद्वानों का सत्परामर्श हमारे जीवन में सरलता लाये । विद्वानों द्वारा हमें विद्या आदि सदगुण प्राप्त हों । हम विद्वानों से मित्रता करें और विद्वान् हमें दीर्घ आयु प्राप्त करने की विधियाँ बताकर हमें दीर्घायु बनायें । (765) विद्वान् ज्ञान देने वाली और पदार्थों को स्पष्ट बताने वाली वाणी को प्रकट करते हैं । अनेक प्रकार के लोग उसी वाणी को बोलते हैं । वह वाणी हमें हर्ष प्रदान करती हुई इष्ट वस्तुएँ - अन्न, दूध, पराक्रम, बल आदि देती हुई, दूध देने वाली गाय के समान प्रशंसित होकर हमें प्राप्त हो । अर्थात् हम वाणी को समझें और उसका प्रयोग करना सीखें, तभी हम भावों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर सकते हैं । (766) देवता, तीर्थ, ब्राह्नण, मन्त्र, ज्योतिषी, औषध और गुरु - इनके संबंध में जिसकी जैसी श्रद्घा होती है, वैसी ही उसको फल-प्राप्ति हुआ करती है । (767) प्रतिभा-सम्पन्न कुछ लोग तो देव-प्रदत्त वाणी को अपनी रचना से कृतार्थ कर देते हैं । किन्तु मूर्ख उसे कुण्ठित ही कर देते हैं । आकाश से गिरी हुई जल की जो बूँदें सीपी में पड़ती हैं, वही मोती बनती हैं, न कि चातक के मुख में पड़ी हुई । (768) हे ईश्वर । आप देवों में परम देव हैं, अदभुत स्नेह से सम्पन्न मित्र हैं, ऐश्वर्यवानों में सबसे श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले हैं और यज्ञादि शुभ कर्मों में सर्वोत्तम वरणीय हैं । हे प्रकाशस्वरूप । आप द्वारा दिए गए विस्तृत सुख में ही सदा वर्तमान रहें और औप की मित्रता में रहते हुए कभी दुःखी न हों । (769) बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि देशकाल के सुअवसर को प्राप्त कर प्रयत्न करे । देश-काल के प्रतिकूल किया गया प्रयत्न विफल हो जाता है । (770) पृथ्वी पर घूमते-फिरते अन्य देशों की विविध भाषाएँ और वेश आदि को जिसने नहीं जाना, उसके जन्म का कोई फल नहीं, अर्थात् उसका जीवन व्यर्थ ही बीत गया । (771) किसी को पीड़ा देकर स्त्री-सम्भोग, चोरी या हिंसा आदि जो भी शरीर की ऐसी प्रवृत्ति हो, उसके वेग को विशेष रूप से रोकना चाहिए । (772) मित्र । तुम मुझे दो, मैं तुम्हे दूँ । तु मेरी वस्तु धारण करो, मैं तुम्हारी धारण करूँ । तुम मेरे लिए खरीदने योग्य वस्तु खरीद कर ले आओ और मैं तुम्हें उसका मूल्य दे दूँ । इस प्रकार हमारा व्यवहार मित्रतापूर्ण और सत्य होना चाहिए । (773) शरीर तो नष्ट होगा ही, इसे बचाया नहीं जा सकता । इसलिए न नष्ट होने वाले यश की रक्षा करनी चाहिए । शरीर के नष्ट हो जाने पर भी मनुष्य यश-रूपी शरीर से सदा जीता रहता है । (774) कोई त्रुटि न हो जाये, यह सोचकर कार्य को शुरू न करना कायरता की निशानी है । भैया, क्या कभी कोई 'अपच न हो जाए ' इस भय से खाना छोड़ देता है ? (775) वाद-विवाद करने में कुशल व्यक्ति दोषों को भी गुण और गुणों को भी दोष सिद्ध करने में समर्थ हो सकता है किन्तु वह सत्य नहीं होता । दोष दोष ही हैं और गुण गुण ही हैं । (776) दरिद्रता प्राणियों के लिए दुःखदायी और अपमान जनक होती है, जिसके कारण अपने सम्बन्धियों द्वारा भी दरिद्र व्यक्ति जीते हुए भी मरे हुओं के समान माने जाते हैं । (777) बुरी सलाह से राजा का नाश हो जाता है । यति सङ्ग करने से, पुत्र लाड़-प्यार से, ब्राह्नण स्वाध्याय न करने से, परिवार दुष्ट पुत्र के कारण, उत्तम स्वभाव दुष्टों के संग से, लज्जा शराब से, खेती लापरवाही से, प्यार विदेश में बस जाने से, मित्रता प्रेम न दिखाने से, ऐश्वर्य दुर्नीति से तथा खर्च करने और लापरवाही से धन नष्ट हो जाता है । (778) धन के नष्ट होने पर, कमाते समय और इसकी रक्षा करते समय तथा सम्बन्धियों व इष्ट मित्रों के विपत्ति-ग्रस्त होने पर मनुष्य को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है । (779) वस्तुओं के हवनों से यज्ञ करते हुए को देखकर प्राणी डरने लगते हैं कि यह क्रूर राक्षस जो यज्ञ के तत्त्व को नहीं समझता, कहीं मुझे भी न मार डाले । (780) सुभाषितों के रस का महत्त्व देखकर अंगूर का मुँह काला पड़ गया, खाँड पत्थर बन गई और अमृत डर कर स्वर्गलोक को चला गया । (781) मैं द्वन्द्व भी हूँ, क्योंकि मैं और मेरी पत्नी दो घर में रहते हैं । मैं द्विगु भी हूँ क्योंकि मेरे घर में दो गौएँ हैं । मेरे घर में अव्ययीभाव भी है, अर्थात् सब कुछ खर्च नहीं हो जाता और किसी वस्तु की कमी भी नहीं । हे पुरुष, वह ( तत्पुरुष ) कर्म कर ( कर्मधारय ) जिससे मैं बहुत अनाज वाला ( बहुव्रीहि ) बन जाऊँ । (782) निम्नलिखित दो को गले में चट्टान बाँधकर पानी में डुबो देना चाहिए - एक तो दान न देने वाले धनी को और दूसरे परिश्रम न करने वाले निर्धन व्यक्ति को । (783) मनुष्य को दो ही बातें तेज काँटों के समान शरीर को कष्ट देती हैं - एक तो निर्धन होने पर बड़ी-बड़ी कामनाएँ करना और दूसरे असमर्थ होने पर भी अधिक क्रोध करना । (784) ये दो व्यक्ति स्वर्ग से भी ऊपर स्थित होते हैं - एक तो क्षमाशील समर्थ व्यक्ति और दूसरा निर्धन होते हुए भी दान देने वाला । (785) योग से युक्त संन्यासी और युद्ध में लड़ते-लड़ते सामने आए हुए प्रहार द्वारा मारे जाने वाला योद्धा ये दोनों पुरुष सूर्य के मण्डल को भी फोड़ देने वाले हैं, अर्थात् ये बहुत सम्मान के योग्य हैं । (786) दो सुन्दर पंखों वाले, साथ-साथ मित्र रूप से रहने वाले पक्षी ( जीव और ब्रह्न ) एक ही वृक्ष ( प्रकृति ) पर टिके हुए हैं । उन दोनों में से एक ( जीव ) स्वादु फल ( कर्मफल ) का उपभोग करता है और दूसरा ( ब्रह्न ) साक्षी रूप में प्रकाशित हो रहा है । (787) द्वेषी शत्रुओं से कोई कभी पीड़ित होता हो या न होता हो परन्तु इन्द्रियों से सभी, सब जगह और सदैव पीड़ित होते हैं । (788) इस संसार में मनुष्य ये दो कर्म करते हुए ही विशेष शोभा पाता है ; एक तो कटु शब्द न बोलना और दूसरे दुष्टों का सम्मान न करना । (789) हे राजन् । दान से धन मिलता है, मौन से आज्ञा पालने वाले मिलते हैं, तप ( परिश्रम ) से विविध उपभोग प्राप्त होते हैं और ब्रह्नचर्य से दीर्घ जीवन का लाभ होताा है । (790) धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या-लाभ में, खाने-पीने में तथा व्यवहार में लज्जा न करने वाला ही सुखी रहता है । (791) जिस धन के लिए न राजा से कोई डर है और न चोर से ही तथा मरने पर भी जो साथ नहीं छोड़ता, तुम उस धन अर्थात् धर्म का अर्जन करो । (792) बुद्धिमान को चाहिए कि वह परोपकार के लिए धन और शरीर का त्याग करे, क्योंकि जब इनका नाश होना ही है, तो अच्छे कार्य के लिए त्याग क्यों न किया जाए ? (793) मृत्यु होते ही धन भूमि में पड़े रह जाते हैं, पशु पशुशाला में, पत्नी घर के दरवाजे तक, लोग श्मशान भूमि तक और शरीर चिता में स्थान पााता है । उस समय जीवात्मा के साथ केवल धर्म ही जाता है । (794) पहाड़ों की गुफाओं में रहने वाले और भगवान् की परम ज्योति को देखने वाले उन योगियों की आँखों से निकलत हुए आँसुओं के कणों को निर्भयता पूर्वक गोद में बैठे हुए पक्षी पीते हैं । परन्तु हम लोग तो अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में लगे हुए महलों और बावड़ियों के किनारों पर या खेल के मैदानों में खेल-कूद तथा आश्चर्यजनक कार्यों से प्रीति कर रहे हैं और इस प्रकार अपनी आयु को व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हैं । (795) धन्यों में दक्षता, धनों में विद्या, लाभों में आरोग्य और सुखों मेें सन्तुष्टि सबसे उत्तम हैं । (796) पतिव्रता नारी धन्य है । वह विशेष रूप में माननीय और पूजनीय है । वह समस्त लोकों को पवित्र करने वाली और समस्त पापों को नाश करने वाली है । (797) धन से अकुलीन भी कुलीन बना दिये जाते हैं, धन से मनुष्य विपदाओं को पार कर जाते हैं । धन से बढ़कर और कोई मित्र नहीं है ; अतः धन कमाओ, धन कमाओ । (798) हे प्रिय । कर्मों में मुख्य धर्म ही है, जिसे करके मनुष्य महाप्रतापी बनकर सूर्य के समान चमकता है । जो दुष्ट बुद्धि वाला धर्म से हीन है, वह इस सम्पूर्ण पृथ्वी को पाकर भी असंतुष्ट और दुृःखी रहता है । (799) बुद्धिमान् व्यक्ति के परिवार में तो धर्म ही पिता है, क्षमा ही माता है, दया ही पत्नी है और गुण ही पुत्र हैं । उसके लौकिक सम्बन्धी तो भ्रान्ति मात्र हैं । (800) धर्मज्ञ, कृतज्ञ, संतषी स्वभाव वाला, अनुरक्त और सुदृढ़ रूप से कार्य प्रारम्भ वाला छोटा सा मित्र भी प्रशंसा के योग्य होता है । (801) स्वर्ग में अक्षय स्थान प्राप्त करने की इच्छा करने वाले धर्मनिष्ठ महर्षियों ने आयुर्वेद का प्रकाशन धर्म करने की दृष्टि से किया है, न कि काम की और धन प्राप्त करने की दृष्टि से । (802) धर्म के कार्य करते हुए भी यदि दुर्भाग्य से विपत्तियाँ आ जाएँ तो बुद्धिमानों को चाहिए कि उन विपत्तियों को दूर करने के लिए विशेष धार्मिक कार्य ही करें । संसार में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो चुकी है कि आग से जले हुए स्थान पर आग का ही सेक लाभ पहुँचाता है । (803) दान-धर्म करने के लिए जिसको धन की इच्छा होती है, उसके लिए धन की इच्छा न करना ही श्रेयस्कर है । कीचड़ को धोने की अपेक्षा यही अच्छा है कि उससे दूर ही रहकर उसे छुआ न जाए । (804) धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में से एक भी जिसने नहीं कमाया है, बकरी के गले स्तन की तरह उसका जन्म निरर्थक है । ( किसी-किसी बकरी के ही गले में स्तन जैसे मांसपिंड होते हैं । ) (805) नैष्ठिक ब्रह्नचर्य धर्मप्रद, यशवर्धक, दीर्घायुप्रद, इहलोक और परलोक में रसायन के समान फलप्रद और शरीर तथा मन की निर्मलता करने वालों में सर्वश्रेष्ठ होता है, इसलिए हम उसका समर्थन करते हैं । (806) उस मनुष्य के जन्म को धिक्कार है जो संसार में पिता के कारण ( नाम से ) जााना जाता है । जन्म तो उस सुजन्मा का है, जिसे पुत्र के कारण ख्याति मिलती है । (807) धीर पुरुष सदा परोपकार ही करता है । उसका कठोर वचन भी भीतर से दया से भीगा रहता है । भरपूर जल बरसाने के बाद बादलों के द्वारा गिराये गये ओले अपने अन्दर ठंडा पानी लिये रहते हैं । (808) धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शुचिता, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ये धर्म की पहचान के दस चिह्र हैं । (809) धन को संभालना, कार्यकुशलता, संयम, विचार शीलता, स्वावलम्बन, धैर्य, वीरता और स्थान तथा समय की लापरवाही न करना - ये आठ धन को थोड़ा या अधिक बढ़ाने के साधन हैं । (810) क्योंकि वह ( पुत्र ) माता-पिता को शोक सागर में नहीं गिराता, इस कारण बुद्धिमान् पुत्र को अपत्य कहते हैं । (811) पुण्य वाले अथवा पाप वाले कर्मों का नाश दूसरे लोक में होता । कर्म करने वाले से पूर्व उसके पुण्य तथा पाप उस लोक में पहुँच जाते हैं और उनके पीछे उन कर्मों को करने वाला जाता है । (812) न कोई किसी का मित्र है, न शत्रु । व्यवहार से ही मित्र और शत्रु बनते हैं । (813) न कोई किसी का मित्र होता है और न कोई किसी का शत्रु, प्रयोजन से ही कोई मित्र बन जाते हैं और कोई शत्रु । (814) कोई नहीं जानता कि कल किसको क्या होने वाला हैं । अतः बुद्धिमान् लोगों को कल करने वाले कार्य को आज ही कर लेना चाहिए । (815) किसी को अपना शत्रु या किसी को अपना मित्र घोषित न करे और नहीं अपने हुए अपमान को तथा अपने स्वामी द्वारा किए गए दुर्व्यवहार को भी बताए । (816) मगरमच्छ अपने स्थान ( जल ) को प्राप्त कर बड़े हाथी को भी खींच कर ले जाता है, परन्तु वही अपने स्थान से हटा हुआ ( स्थल पर आया हुआ ) कुत्ते से भी मार दिया जाता है । (817) पूज्य व्यक्तियों के बीच में तथा पति-पत्नी के मध्य में नहीं जाना चाहिए । शत्रु द्वारा या वेश्या द्वारा दिया गया अन्न भी किसी परिस्थिति में नहीं खाना चाहिए । (818) किसी समूह का नेता बनकर आगे नहीं जााना चाहिए; क्योंकि यदि सफलता मिलेगी तो लाभ सभी को बराबर मिलेगा, परन्तु यदि कोई संकट आ गया तो नेता ही मारा जाएगा । (819) घर तब तक घर नहीं कहा जाता, जब तक घर वाली वहाँ न हो, क्योंकि घर वाली ही घर का स्वरूप होती है । जो घर पत्नी से रहित है, वह तो जंगल सा ही कहा जाता है । (820) गौ, पृथ्वी और अन्न का दान उतने मुख्य नहीं हैं, जितनी मुख्यता बुद्धिमान लोग अभयदान को देते हैं अर्थात् अभयदान ही सबसे मुख्य दान है । (821) बलवान् को दुर्बल शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । थोड़ी सी आग भी जला डालती है और थोड़ा सा जहर भी मार डालता है । (822) जो न किसी का उपहास करता है, न किसी से द्वेष करता है, न औरों का तिरस्कार करता है, न मिथ्याभाषण करता है और न किसी की बात को काटकर अपनी बात कहता है, वही कुलीन है । यही कुलीन का लक्षण है । (823) धर्म की उपासना के लिए जंगल जाना अनिवार्य नहीं है, शहरों में भी मुनिजनों को सिद्धियाँ मिल सकती हैं क्योंकि बुद्धि एवं यत्न ही यहाँ निमित हैं । वन एवं लिङ्ग ( चिह्र ) तो कायरों के पलायन के ही द्योक हैं । (824) विद्या रूपी धन को न चोर सकते हैं, न राजा छीन सकता है और न ही इसे भाई बाँट सकते हैं । इसके उठाने में भार भी नहीं होता । इसे जितना खर्च करे, उतना ही यह बढ़ता जाता है । इसीलिए विद्यारूपी धन सभी धनों में श्रेष्ठ है । (825) जैसे आहुति डालने से अग्नि और भड़कती है, उसी प्रकार वासनाएँ भोग भोगने से शान्त नहीं होर्ती, प्रत्युत वे और अधिक बढ़ती जाती हैं । (826) इस संसार में कोई भी जन्म से ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या म्लेच्छ नहीं है । ये सब भेद गुण और कर्म से होते हैं । (827) बुद्धि से सोचा हुआ योजनाबद्ध कार्य जिस प्रकार सफलता प्राप्त करता है, उस प्रकार की सफलता न शस्त्रों से, न बड़े-बड़े हाथियों से, न घोड़ों से और नाहीं पैदल सेना से प्राप्त हो सकती है । (828) शरद ऋतु में ऐसा कोई जलाशय नहीं, जिसमें सुन्दर कमल न खिले हों और ऐसा कमल भी नहीं, जिस पर भ्रमर न बैठे हों तथा भ्रमर भी ऐसा नहीं, जो मधुर गुञ्जन न कर रहा हो और वह गुञ्जन भी ऐसा नहीं, जिससे मन आकृष्ट न होता हो । (829) उस परमात्मा को न सूर्य, न चाँद-तारे, ना ही बिजलियाँ प्रकाशित कर सकती हैं ; आग की तो सत्ता ही क्या है । वह ( परमात्मा ) जब चमकता है, तो ये सब वस्तुएँ चमकती हैं । उसी के प्रकाश से सूर्यादि सभी तेजस्वी वस्तुएँ चमक प्राप्त करती हैं । (830) जो व्यक्ति डरे हुए और शरण में आए हुए को शत्रु के हवाले कर देता है, उसका बोया हुआ बीज उगने के समय उगता नहीं है और वर्षा के समय उसे वर्षा भी प्राप्त नहीं होती । इसके अतिरिक्त संकट में जब वह रक्षा की माँग करता है, तो उसे रक्षण देने वााला भी कोई नहीं मिलता । (831) लोग कहते हैं कि केवल पुरुषार्थ का अच्छे ढंग से प्रयोग होने पर ही वह उत्तम फल देने वाला होता है । जैसे माता-पिता के प्रयत्न से उत्पन्न हुआ पुत्र विधिपूर्वक भोजन देने से वृद्धि को प्राप्त होता है । परन्तु मैं ( विदुर ) इस बात को मानने को तैयार नहीं हूँ, क्योंकि इस विषय में दैव ही प्रधान है । (832) श्राद्ध में न तो खाने को माँस देना चाहिए और नाहीं धर्म के सार को समझने वाले को स्वयं भी माँस खाना चाहिए । मुनि लोग जो कुछ खाते हैं, उसी को पसन्द करना चाहिए और पशुहिंसा से दूर रहना चाहिए । (833) देवता चरवाहे की तरह लाठी लेकर रक्षा नहीं करते हैं । वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे सुबुद्धि से संयुक्त कर देेते हैं । (834) कोई भी देश मनुष्यों से रहित नहीं है और सभी मनुष्य नीरोग भी नहीं होते । इस कारण वैद्यों की आजीविका स्वयं ही सिद्ध हो जाती है । (835) भाग्य को ही सब कुछ सोचकर मनुष्य अपना उद्यम न छोड़े । उद्यम न करने पर वह तिलों से तेल नहीं पा सकता, अर्थात् परिश्रम से ही कार्य सिद्धि होती है । (836) दुष्ट व्यक्ति धर्म-शास्त्र पढ़ने या वेद के अध्ययन करने से श्रेष्ठ पुरुष बन जाएगा, यह संभव नहीं है । स्वभाव की ही मुख्यता सदा रहती है, जैसे गौओं का दूध स्वभाव से ही मीठा होता है । (837) पृथ्वी आदि पाँच तत्त्वों से बने शरीर का कोई महत्त्व नहीं है । इसे तो अन्तरात्मा गति देता है। वही आत्मा इसमें रहता हुआ गन्धों, रसों, शब्दों, स्पर्श, रूप तथा अन्य जो भी गुण हैं, उनको समझता और जानता है । (838) जन्मांध आँखों के अभाव में वस्तुओं को नहीं देखता, कामान्ध विवेक-भ्रष्ट हो जाने के कारण नहीं देख पाता, शराब या अभिमान से पागल हुआ व्यक्ति विवेक शून्य हो जाता है और कामनाएँ करने वाला देने वाले के दोोषों को नहीं देखता । (839) नारियों के लिए इस लोक में तथा परलोक में भी न पिता, न पुत्र, न वे स्वयं, न माता और न सखियाँ सहारा बनते हैं बल्कि केवल पति ही उनका एकमात्र आश्रय होता है । (840) सत्पुरुषों का क्रोध और नीचों का स्नेह एक समान होता है । प्रथमतः तो सत्पुरुषों को क्रोध होता ही नहीं, यदि होता भी है तो देर तक नहीं ठहरता, यदि देर तक रहता भी है, तो उसका कोई दुष्परिणाम नहीं होता । (841) सोने के मृग के विषय में न पहले कभी सुना गया, न पहले किसी ने देखा ही । पहले ऐसा कभी भी नहीं हुआ, यह जानते हुए भी राम को स्वर्ण मृग को देखकर तृष्णा हुई । सच है कि दुर्भाग्य के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है । (842) बुद्धिमान् मनुष्य यदि अपना भला चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति का विश्वास नहीं करना चाहिए जिसके कार्यों, खानदान तथा पराक्रम का ज्ञान न हो । (843) मनुष्य का आभूषण उसका रूप है, रूप का आभूषण गुण है, गुण का आभूषण ज्ञान है और ज्ञान का आभूषण क्षमा है । (844) जिह्वा-लौल्य या अज्ञान से अन्नद्रव्यों का सेवन न करें, बल्कि ठीक परीक्षण करके ही उनका सेवन करें, क्योंकि देह आहार से बना है । (845) राजा को बहुत नरम नहीं होना चाहिए, क्योंकि नरम का लोग तिरस्कार कर देेते हैं । राजा को कठोर भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि कठोर से जनता विद्रोही हो जाती है । जो राजा समय पर नरम और समय पर कठोर हो जाता है, वही दोनों प्रकार के लोगों को वश में रख सकता है, क्योंकि उसके शासन में सरल तथा दुष्ट प्रकृति दोनों प्रकार के लोग रहते हैं । (846) रात के समय दही नहीं खाना चाहिए और बिना नमक डाले या मूँग की दाल के बिना या शहद के बिना, या घी और शक्कर के बिना भी नहीं खाना चाहिए । (847) नवीन वस्त्र, नवीन छत्र, नवोढा स्त्री, नवीन घर ये सब नये-नये अच्छे होते हैं, परन्तु सेवक और अन्न पुराने ही अच्छे होते हैं, नेय नहीं । (848) जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते, वे कमजोर होते हुए भी बलवानों से मार नहीं खाते परन्तु जो बलवान् भी दूसरों पर विश्वास करते हैं, वे दुर्बलों द्वारा भी मारे जाते हैं । (849) मक्खन के समान कोमल वाणी और करुणा से पूर्ण कोमल मन धर्म रूपी बीज से उपजे लोगों का प्रत्यक्ष लक्षण है । (850) दिव्य शक्तियाँ भूखे को ही नहीं मारतीं, अपितु जो खाता-पीता भी है, मृत्यु उसे भी निगल जाती है । दान देने वाले का धन कभी क्षीण नहीं होता और जो धन से किसी की सहायता नहीं करता, वह सुख प्राप्त नहीं कर सकता । (851) दूसरे की निन्दा कभी भी न तो करनी चाहिए और ना ही सुननी चाहिए । या तो कान बन्द कर लेने चाहिए या कहीं अन्यत्र चल देना चाहिए । (852) बुद्धिमान् व्यक्ति को अपना थोड़ा सा भी धन किसी को नहीं दिखाना चाहिए, क्योंकि उसे देखने से मुनि का भी मन विचलित हो जाता है । (853) जिस प्रकार समुद्र की वाडवाग्नि शान्त नहीं हो पाती, उसी प्रकार क्रोध की अग्नि न धन से, न कठोर साधनों से, न शान्ति के वचनों से और न उपदेशों से शान्त होती है । (854) कुमित्र पर विश्वास नहीं करना चाहिए और मित्र पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए । हो सकता हौ कि मित्र कभी क्रोध में आने पर सारी रहस्य की बातें प्रकट कर दे । (855) जो विश्वास के योग्य न हो, उस पर तो विश्वास करें ही नहीं, परन्तु विश्वास के योग्य पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि विश्वास करने से जो संकट आ सकता है, वह जड़ों को भी नष्ट कर देता है । (856) बुद्धिमान् व्यक्ति को निम्नलिखित वेगों ( हाजतों ) को नहीं रोकना चाहिए - (1) पेशाब के , (2) शौच के, (3) वीर्य के, (4) अपान वायु के, (5) उल्टी के, (6) छींक के, (7) डकार के, (8) जम्भाई के, (9) भूख के, (10) प्यास के, (11) आँसू के, (12) नींद के और (13) थकावट से आते हुए साँस के । (857) जब किसी प्रकार का वेग ( हाजत ) हो तो अन्य कोई कार्य नहीं करना चाहिए और वेगों को बलपूर्वक समाप्त करने की भी चेष्टा नहीं करनी चाहिए । हाँ, काम, शोक, भय और क्रोध की भावनाओं पर नियन्त्रण रखना चाहिए । (858) चढ़ती जवानी में जिसने अपने आपको शान्त कर लिया है, वही वस्तुतः शान्त कहला सकता है । जब शरीर की धातुएँ क्षीण होने लगें, तब भला कौन शान्त नहीं होगा ? अर्थात् तब तो मनुष्य स्वतः ही शान्त हो जााया करता है, प्रयत्न की आवश्यकता ही नहीं होती । (859) अभिनव विषय, ग्राम्य-दोष से शून्य, स्वाभाविक सुन्दर वर्णन-शैली, सरल श्लेष, स्पष्ट रूप से रस प्रतीति, गम्भीर पदावली का प्रयोग - इन सबकाा किसी एक ही काव्य में एकत्र समावेश दुष्कर होता है । (860) नष्ट हुआ धन प्रयत्न से फिर प्राप्त किया जा सकता है ; नष्ट हुई ( विस्मृत ) विद्या अभ्यास से फिर स्मरण हो जाती है ; नष्ट हूआ स्वास्थ उत्तम चिकित्सा-साधनों से फिर से प्राप्त हो सकता है, परन्तु जो समय बीत गया, वह तो सदा के लिए चला गया; उसे लौटाया नहीं जा सकता । (861) बुद्धिमान् अर्थात् विचारशील ज्ञानी लोग नष्ट हुई वस्तु, मरे हुए व्यक्ति और हाथ से निलकी हुई वस्तु पर शोक नहीं किया करते, ( परन्तु मूर्ख इनका शोक करते ही रहते हैं ) यही विचारशील और मूर्ख लोगों में अन्तर बताया गया है । (862) मनुष्य संकटों में पड़े बिना अपने सुख-साधनों को प्राप्त नहीं कर सकता । परन्तु संकटों का सामना करते हुए यदि जीता रह जााता है, तो सब प्रकार का सुख और मंगल प्राप्त कर लेता है । (863) जो मित्र साथ निभाने वाले और सेवा करने में सदा तत्पर रहने वाले मित्र को आवश्यकता पड़ने पर अन्न आदि पोषक वस्तुओं को नहीं देता और ऐसे मित्र को छोड़कर वापस चला जाता है, तो उस दानहीन मित्र का घर वस्तुतः घर नहीं कहा जा सकता । तब लौटा हुआ मित्र किसी अन्य दाता व्यक्ति की ही कामना करता है । अर्थात् दानहीन मित्र का त्याग कर किसी दानी मित्र से सम्बन्ध जोड़ लेता है । (864) ऐसी कोई विद्या, दान, कारीगरी, कला और दृढ़ संकल्प नहीं है, जो कि माँगने वाले लोग धनिकों के मध्य न बताते हों, अर्थात् भिखारी धनिकों की झूठी-मूठी सब प्रकार की प्रशंसा करते हैं । (865) भोजन करने के बाद, रोग से पीड़ित होने पर, मध्यरात्रि में, बहुत वस्त्र पहन कर तथा अज्ञात जलाशय में स्नान नहीं करना चाहिए । (866) बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह थोड़े लाभ कि लिए अधिक व्यय न करे । थोड़ा सा ले-देकर बहुत सी वस्तु की रक्षा कनरे में ही बुद्धिमत्ता है । (867) कार्य की पूर्णता हो जाने के बाद कार्य करने वाले की अपेक्षा नहीं रहती । अतः सभी कार्यों को कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहिए, सर्वथा पूर्ण नहीं कर देेना चाहिए । (868) बिना उपाय के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता । जैसे मछुआरे भी सूत के जाल द्वारा ही मछलियों को पकड़ते हैं । (869) कोई भी ऐसा कार्य नहीं है, जो धन द्वारा सिद्ध न हो सके । अतः बुद्धिमान् को चाहिए कि वह मुख्यरूप से धन को ही कमाए । (870) सत्यवादी लोग अपनी प्रतिज्ञा को मिथ्या नहीं होने देते, क्योंकि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना ही बड़प्पन का लक्षण है । (871) मित्र लोगों के काम को सिद्ध करने के लिए केवल बुद्धि का बल ही काम नहीं आात, अपितु कार्य सफलता का कठिन कार्य स्नेह से भी देखना होता है । (872) इस संसार में गुणवान एवं सज्जन लोगों का प्रेम दूर चले जाने पर भी समाप्त नहीं हो जाता, ठीक उसी प्रकार जैसे घने अन्धेकर से ढके होने पर भी चन्द्र कुमुद-वन से अपना प्रेम भङ्ग नहीं करता है । (873) बोलने वाला, मीठा बोलने वाला, सोचकर बोलने वाला और बहुत बोलने वाला भी व्यक्ति दुर्लभ नहीं है, परन्तु सत्य बोलने वाला, गुणों को बताने वाला तथा हितकर बात कहने वाला पुरुष बहुत कठिनाई से पाया जाता है । (874) अपने सुख के लिए किसी दीन-हीन को दुःख नहीं देना चाहिए । पीड़ित दीन व्यक्ति अपनी मृत्यु से ही राजा की भी मार डालता है । (875) जो सम्मान पाकर प्रसन्न नहीं होता और अपमान होने पर संतप्त नहीं होता और इस प्रकार गङ्गा के सरोवर के समान जो चंचल नहीं होता, वही विद्वान् और ज्ञानी है । (876) छोटे से छोटे काम को करने में भी एक कारण नहीं होता । जो कार्य-सिद्धि के अनेकविध उपायों को जानता है, वही कार्य को सिद्ध करने में समर्थ होता है । (877) शिशु को खींच कर गोद में नहीं लेना चाहिए और नाहीं झटके से बिछौने पर डालना चाहिए । स्नान-मालिश आदि विशेष कार्यों को छोड़ सामान्य रूप से बच्चे को रुलाना भी नहीं चाहिए । (878) कुत्ते की पूँछ न गुप्त अंगों को ढक पाती है और न मक्खी-मच्छर ही उड़ाने के काम आती है । जिस प्रकार यह पूँछ व्यर्थ है, उसी प्रकार धर्म से रहित विद्वत्ता भी सारहीन है । (879) बहुत सीधा-सादा नहीं होना चाहिए । जंगल के स्थान को जा कर देखो । वहाँ सीधे खड़े पेड़ काट लिए जाते हैं और टेढ़े-मेढ़े पेड़ खड़े रह जाते हैं । (880) झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं है, सत्य से बड़ा कोई शुभ कर्म नहीं है और विवेक से बढ़कर कोई मित्र भी नहीं है, ऐसा वेद जानने वाले विद्वानों की राय है । (881) सज्जन पुरुष दुष्टों के द्वारा विक्षुब्ध किये जाने पर भी अपने मन में उनके प्रति कोई विरुद्ध विचार नहीं रखते । राहु के मुख में पड़ी हुई भी चन्द्रमा की किरणें अमृत की ही वर्षा करती हैं । (882) विचारशील बुद्धि वाले लोग न प्राप्त होने योग्य वस्तु की कामना ही नहीं करते, जो नष्ट हो चुका है उस पर शोक भी नहीं करते और संकट आने पर विवेक को खो नहीं देते अर्थात् घबराते नहीं है । (883) प्राण चाहे निकलने वाले भी हों, तो भी बुद्धिमान् व्यक्ति को अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाना चाहिए, क्योंकि थोड़ा-सा भी खाया हुआ ऐसा पदार्थ इस लोक और परलोक दोनों को नष्ट कर देता है अर्थात् मनुष्य दोनों लोकों में कष्ट भोगता है । (884) दूसरे का मर्म-भेदन किये बिना, दुष्कर कर्म किये बिना, मछुआरे की तरह मछली माले बिना व्यक्ति विपुल सम्पत्ति हासिल नहीं करता । (885) वन में सिंह का न तो अभिषेक किया जााता है और न संस्कार ही, फिर भी वह अपने बल से अर्जित सामर्थ्य के आधार पर ही जानवरों का राजा बन जाता है । (886) जहाँ उठकर किसी का स्वागत न हो, मीठे शब्दों में बातचीत न हो और गुण-दोष की भी चर्चा न हो, वह स्थान यदि स्वर्ग भी हो, तो भी वहाँ नहीं जाना चाहिए । (887) यह परमात्मा वाग्जाल से नहीं मिल सकता, न बुद्धि से प्राप्त होत है और ना ही बहुत शास्त्र श्रवण से पाया जा सकता है । जिस भक्त को यह स्वीकार कर लेता है, उसी को यह प्राप्त होता है । उसी भक्त पर यह परमात्मा अपना स्वरूप प्रकाशित करता है । (888) सज्जन लोग नारियल के फल के समान बाहर से तो कठोर परन्तु अन्दर से उतने ही मुलायम होते हैं, ठीक इसके विपरीत कुछ लोग बेरी के फल के समान होते हैं जो बाहर से ही आकर्षक दिखाई देते हैं, परन्तु अन्दर से कठोर होते हैं । (889) थोड़े धन का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए और शत्रुओं के साथियों का भी अपमान नहीं करना चाहिए । बुद्धि द्वारा अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय करना चाहिए और मूढ़ पुरुषों पर विश्वास नहीं करना चाहिए । (890) जिस प्रकार अच्छा कवि शब्द और अर्थ दोनें को महत्त्व देता है, उसी प्रकार विद्वान् राजनीतिज्ञ न तो केवल भाग्य का ही भरोसा करता है और न केवल पुरुषार्थ पर ही आश्रित रहता है । वह तो दोनों का महत्त्व जानकर ही सब कार्य करता है । (891) न तो आलसी, न कायर, न अभिमानी, लोक निन्दा से डरने वाले और ना ही सदा अवसर की प्रतीक्षा करने वाले ही धन को प्राप्त करते हैं । अर्थात् ऐसे लोग धन नहीं कमा सकते । (892) सूर्य सबके लिए प्रकाश करता है, किन्तु सूर्य में कोई प्रकाश करने नहीं जाता, पृथ्वी सबके लिए अन्नादि उत्पन्न करती है किन्तु बदले में उसके लिए कोई कुछ नहीं करता । सत्पुरुष प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं करते । (893) समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह सभा मेें खाँसने, हँसने, डकार लेने, जम्भाई लेने तथा छींक क समय मुँह नंगा न करे, प्रत्युत आगे हाथ रखकर अर्थात् मुँ ह को ढककर ये कार्य करे । (894) काम-वासना जैसा कोई रोग नहीं है, मोह के समान कोई शत्रु नहीं है, क्रोध के समान कोई आग नहीं है और ज्ञान से बढ़कर कोई सुख नहीं है । (895) जन्म से न कोई शत्रु होता है और न मित्र । मनुष्य के अपने सामर्थ्य के अनुसार ही मित्र और शत्रु हुआ करते हैं । (896) बुद्धिमान क कभी भी अनुचित स्थान पर विद्या का बीज नहीं बोना चाहिए । इससे उसके बढ़ने की बात तो दूर, उसका मूल भी संशय में पड़ जाता है । (897) अपकार करने वाले को मारते समय हृदय को तलवार और वाणी को छुरे के समान बना लेना चाहिए । इस विषय में द्विविधा में नहीं पड़ना चाहिए और उस अपकारी को मार ही देना चाहिए। (898) नीतिनिपुण व्यक्ति चाहे निन्दा करें या स्तुति, लक्ष्मी इच्छानुसार चाहे आये अथवा चली जाये, मृत्यु चाहे आज ही हो जाए या एक युग के बाद, धैर्यवान् व्यक्ति न्यायोचित मार्ग से एक कदम भी पीछे नहीं हटते । (899) हे पृथापुत्र युधिष्ठर । धन का लोभ ही इस संसार में बन्धन का कारण बना करता है । जो धन का लोभ करते हैं, उनके धर्म के कार्यों में विघ्न पड़ जाता है । जो व्यक्ति धर्म को विशेष महत्त्व देता है, वही समझदार है । लोभी व्यक्ति तो धन को पाने के लिए धर्म से पतित हो जाता है । (900) यदि कोई किसी प्रयोजन से रूठता है, तो उस प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर उसका रोष समाप्त हो जाता है । परन्तु जो बिना किसी कारण से ही शत्रु बन जाए, तो उसे प्रसन्न करना असम्भव है । (901) नीची ढालू जमीन की ओर जल अपने आप बहता है, हरियाली की ओर गाय स्वयं जाती है, मधुर व्यवहार से बालक, विनय भाव से सत्पुरुष, पैसे से नारी और तप से देवता प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार सभी लोग अपनी-अपनी प्रिय वस्तु से आकृष्ट हुआ करते हैं । (902) हे नीम । तेरी कड़वाहट ताप को नष्ट करने वाली है । यदि मूढ मनुष्य तेरी बुराइयों ( कड़वाहट आदि ) की चर्चा करते हैं, तो करने दे । एक समय आएगा जब वे अग्नि के समान पित्त की गर्मी से तपेंगे । तब, हे मित्र, वे तेरे गुणों के ही गीत गाएँगे । ( भाव यह है कि श्रेष्ठ लोगों के कटुवचन भी अन्त में सुखदायी होते हैं ।) (903) सज्जन लोग प्रायः अपने आश्रित और अनुरागी निर्गुण व्यक्ति का भी त्याग नहीं करते । चन्द्रमा वृद्धि और क्षय के भागी कलङ्क को भी साथ रखता है । (904) साधु जन अच्छे एवं बुरे दोनों के प्रति समान रूप से दया-भाव रखते हैं, जैसे चन्द्रमा अपनी रोशनी से चण्डालों के घर को भी आलोकित करता है । (905) जंगल के बिना बाघ मारा जाता है और बिना बाघ के जंगल काट लिया जाता है । इसीलिए बाघ तो जंगल की रक्षा करे और जंगल बाघ को पाले । (906) दीपक के बुझ जाने पर तेल डालने से क्या लाभ ? चोर के निकल जाने पर सावधान होने का काय उपयोग ? यौवन समाप्त हो जाने पर वनिता विलास से क्या आनंद ? और पानी बह जाने पर पुल-बांधने का क्या फल ? (907) पति के प्रतिबिम्ब समान प्रिय पत्नी उसके खिन्न होने पर खेद का अनुभव करती है, प्रसन्न होने पर खिल उठती है, व्याकुल होने पर व्याकुल हो जाती है, परन्तु केवल उसके क्रुद्ध होने पर डर जाती है । (908) विषरहित साँप को भी अपना विस्तृत फण दिखा देना चाहिए । चाहे विष हो या न हो, फण का दिखावा ही अगले को डराने के लिए पर्थाप्त होता है । भाव यह है कि हो, तो भी शत्रुओं को दूर रखने हेतु अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर ही देना चाहिए । (909) जो व्यक्ति दृढ़ निश्चयपूर्वक कार्य को आरम्भ कर देता है और कार्य के बीच में नहीं रुकता, अपने समय को जो व्यर्थ नहीं गंवाता तथा अपने पर संयम रखता है, वही बुद्धिमान् तथा विद्वान् कहलााता है । (910) जो व्यक्ति शुभ कर्म ही करता है और निन्दनीय काम नहीं करता, वेद और ईश्वर को पूर्ण श्रद्धापूर्वक मानता है, वही पण्डित है, ज्ञानी है । यही उसका लक्षण है । (911) प्रायः निस्सार पदार्थ का आडम्बर बड़ा होता है । सोने की वैसी ध्वनि नहीं होती जैसी कि कांसे की । (912) बलवन् के साथ लड़ने की कामना नहीं करनी चाहिए, भार सिर पर रखकर नहीं ढोना चाहिए, शरीर को हाथों से नहीं बजाते रहना चाहिए और बालों को दूसरों के सामने सँवारना नहीं चाहिए । (913) श्रेष्ठ धर्म को चाहनेे वाले मनुष्यों के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है कि मन, वाणी या शरीर द्वारा प्राणियों को किसी प्रकार भी दुःख न पहुँचाया जाए । (914) इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग नहीं जला सकती, पानी गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती । (915) गुणहीन होना ही अच्छा है । गुणातिशय को धिक्कार है । देखो तो सही कि अन्य पेड़ तो मजे से रहते हैं, जबकि चन्दन के पेड़ अपने गुणों के कारण काट डाले जाते हैं । (916) समुद्र किसी से याचना करने नहीं जााता, फिर भी वह जल से भरा रहता है अतः मनुष्य को स्वयं को योग्य बनााना चाहिए । योग्य पात्र के पास सम्पत्तियाँ स्वयं आती हैं । (917) ग्रहण लगे हुए, उदय होते हुए और अस्त होते सूर्य को बिलकुल भी नहीं देखना चाहिए । साथ ही जल में भी उसकी परछाईं नहीं देखनी चाहिए । (918) जीविका, भय, लज्जा, उदारता और धार्मिकता ये पाँच जहाँ न हों, वहाँ न रहे । (919) पति का कहना न मान कर जो स्त्री मनमानी करती है, वह तब तक घोर नरक में प्रवास करती है, जब तक चन्द्रमा और तारों की सत्ता है । (920) जो पतिव्रता है और पति को ही अपना जीवन मानती है और जो पति की मंगलकामना में ही लगी रहती है, ऐसी जिसकी पत्नी है, वह पुरुष इस भूमि पर धन्य है । (921) सीता कर रही है - ''हे राम जी । आपने ही मुझे यह बताया था कि जो नारी पतिहीन हो जाती है, वह जीने में असमर्थ हो जाती है ।'' (922) यदि करीर के वृक्ष पर पत्ते नहीं आते, तो इसमें वसन्त का क्या दोष है ? यदि उल्लू दिन में नहीं देख पाता तो इसमें सूर्य का क्या दोष है ? यदि पपीहे के मुख में जलकी धारा नहीं पड़ती तो इसमें बादल का क्या दोष है ? विधाता ने जो पहले माथे पर लिख दिया है उसे कौन मिटा सकता है ? (923) यदि परहेज़ किया जाय तो रोगी का रोग स्वयं शान्त हो जाता है, अतः दावई लेने का कोई लाभ नहीं । और यदि परहेज़ नहीं किया जाता तब भी दवाई लेने का कोई लाभ नहीं, क्योंकि परहेज़ के बिना केवल दवाई से रोग ठीक नहीं हो सकता । (924) सूर्य स्वतः ही कमलवन को विकसित करता है, चन्द्रमा ऐसे ही कुमुद-वन को विकसित करता है और बादल भी बिना प्रार्थना किए ही पानी बरसा देता है । इसी प्रकार सज्जन लोग बिना किसी के कहे ही परोपकार में लगे रहते हैं । (925) ब्राह्नण, गाय, राजा, नेत्रहीन, वृद्ध, भार से परेशान, गर्भवती स्त्री तथा दुर्बल व्यक्ति को रास्ता दे देना चाहिए । (926) प्रतिभा-शून्य दुष्टजन स्वयं दो पदों की भी रचना करने में असमर्थ होते हुए भी दुसरे के दुष्कर अर्थात् श्रमपूर्वक रचे हुए काव्य में दोष निकालने के लिए सदा तत्पर रहते हैं । (927) साँपों को दूध पिलाना केवल उनके विष को ही बढ़ाता है । मूर्खों को दिया हुआ उपदेश उन्हें प्रकुपित ही करता है; न कि शान्त । (928) जो व्यक्ति दोषी तो स्वयं होता है, परन्तु दूसरे का दोष बताता है और जो अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का होता है, उसे सबसे मूढ़ ( नासमझ ) कहा जाता है । (929) साधु-समागम को अत्यन्त बुद्धिवर्धक, अज्ञान रूपी वृक्ष को काटने वाला तथा चित्त-व्यथा को नष्ट करने वाला जानना चाहिए । (930) दूसरों के काम में विघ्न डालने वाला, पाखण्डी, अपना स्वार्थ ही साधने में लगा हुआ, छल और द्वेष करने वाला तथा ऊपर से मीठा परन्तु मन से क्रूर ब्राह्नण बिलाव कहा जाता है । (931) सरल स्वभाव का मनुष्य दूसरे के दुःख को सुनकर और अपने को उपकार करने में असमर्थ पाकर हार्दिक क्लेश का अनुभव करता है । (932) समझदार व्यक्ति को भाग्य के विपरीत होने पर भी अपना कार्य करते रहना चाहिए । इससे अपने परिश्रम की कमी नहीं अखरेगी, और हृदय को सान्त्वना मिलेगी कि ''मैंने तो अपनी ओर से कसर नही छोड़ी ।'' (933) दूसरे का भोजन, दूसरे का कपड़ा, दूसरे का बिछौना, पराई स्त्री, दूसरे की निन्दा और दूसरे के धन को दुर से ही छोड़ देना चाहिए । (934) दरिद्र व्यक्ति दरिद्रता की अवस्था में केवल मुट्ठी भर जौ ( या अन्न ) को ही चाहता है, परन्तु जब वही सम्पन्न हो जाता है तो इस संपूर्ण भूमि को भी तुच्छ समझने लगता है । इसलिए गुरुता और लघुता धनिकों की विभिन्न अवस्थाओं के कारण ही होती है; वे किसी एक के लिए निश्चित नहीं हैं । इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की अवस्था के अनुसार ही कोई वस्तु बड़ी या छोटी लगती है । (935) भला कौन ऐसा व्यक्ति है जो मर कर इस परिवर्तनशील संसार में फिर पैदा नहीं होता ? वस्तुतः पैदा हुआ उसे ही समझना चाहिए, जिसके जन्म से खानदान उन्नति को प्राप्त हो जाए । (936) दूसरे की पत्नी को सांपिन की तरह दूर से त्याग देना चाहिए । लालच में पड़ी वह पापिनी पुरुष को नष्ट कर देती है । (937) जिस देस में पहचान करने वाले ( पारखी ) नहीं होते, वहाँ समुद्र से प्राप्त किए हुए बहुमूल्य रत्नों का भी मूल्य नहीं मिलता । अहीरों के प्रदेश में तो ग्वाले लोग चन्द्रकान्त मणि को भी तीन कौड़ियों में ही बेच देते हैं । (938) पीठ पीछे कार्य बिगाड़ने वाले और सामने प्रिय वचन बोलने वाले मित्र को त्याग देना चाहिए । वह मित्र विष से भरे घड़े के समान है, जिसके केवल मुख पर ही थोड़ा सा दूध है । (939) सभी मनुष्य दूसरों को उपदेश देने में ही सहज विद्वत्ता समझते हैं, परन्तु कोई महात्मा ही अपने धार्मिक कृत्यों को नियमपूर्वक कर पाता है । इसीलिए कहा गया है - 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।' (940) दसों दिशाएँ, वन-देवता, चन्द्रमा, चमकती किरणों वाला सूर्य, धर्म, वायु, आकाश, मेरी अन्तरात्मा तथा अच्छे और बुरे कर्मों की गवाह बनी हुई इस पृथ्वी सहित सभी मुझे देख रहे हैं । (941) हे चन्दन, तुम्हारी इस परिपाटी को स्वीकार करने में तुमसे भी अधिक पटु और कौन हो सकता है कि घिसे जाने पर भी तुम घिसने वालों को ( भी ) अपनी सुगन्ध से तृप्त कर देते हो । (942) ''जैसे तेरी इच्छा धन पाने की है, वैसे ही हम श्रृगालों की इचछा हाथ पाने की है । हाथ मिलने से बढ़कर कोई दूसरा लाभ नहीं हो सकता ।'' ये वाक्य श्रृगाल-वेषधारी इन्द्र आत्महत्या के इच्छुक एक ब्राह्नण को कह रहा है । (943) जिनके जितने हाथ होते हैं, उतने ही अधिक वे धनवान् और बलवान् होते हैं । अधिक हाथ वाले ( अधिक साथियों वाले ) मनुष्यों ने ही कम हाथों वाले ( साथियों वाले ) मनुष्यों को गुलाम बना रखा है । (944) कर के आघात से बारम्बार नीचे की ओर फेंका गया गेंद पुनः ऊपर ही उछलता है । सुन्दर आचार से सम्पन्न व्यक्तियों की विपत्तियाँ प्रायः अस्थायी हुआ करती हैं और वे समय पाकर गेंद के समान ही ऊपर पहुँच जाते हैं । (945) ऊँचे चरित्र वाला व्यक्ति दैवी विपत्ति आने पर गेंद के समान नीचे गिर कर फिर उठ खड़ा होता है, परन्तु चरित्रहीन व्यक्ति मिट्टी के ढेले के समान गिर कर फिर नहीं उठ पाता । (946) जब कोई व्यक्ति अपनी कारीगरी किसी विशेष पात्र को सिखाता है, तो उसका स्वरूप कुछ निखर जाता है; जैसे बादल का पानी समुद्र की सीप के मुँह में जाकर मोती बन जाता है । (947) पैरों से आग, गुरु, ब्राह्नण, गाय, कुमारी, वृद्ध स्त्री-पुरुष तथा छोटे बच्चे को नहीं छूना चाहिए । (948) अपमान होने पर भी जो शान्त रहता है, उस प्राणी से वह धूल ही अच्छी है, जो ठोकर खाकर ठोकर मारने वाले के सिर पर उड़कर चढ़ जाती है; अर्थात् अपमान का बदला लेने वाला निकम्मे बैठे रहने वाले व्यक्ति से कहीं अच्छा है । (949) पैर से कुचला हुआ और मजबूत डण्डे से चोट खाया हुआ भी साँप अपना दाँत चुभो कर केवल उसे ही मारता है । परन्तु मावता से हटा हुआ कोई चुगलखोर साँप से भी बढ़कर है, जो स्पर्श तो किसी के कान से करता है, परन्तु जड़ सहित मारता किसी और को ही है । भावार्थ यह है कि चुगलखोर उल्टी-सीधी बातों से किली को दूसरे के विरुद्ध भड़का कर उसे नष्ट करवा देता है । (950) मद्यपान, जुआ, स्त्रियाँ शिकार, गाना-बजाना इनका सन्तुलित रूप में ही उपभोग करना चाहिए, इनकी लत पड़ जाना खराब होता है । (951) अच्छा मित्र पाप-कर्म से हटाता है, अच्छे काम में प्रवृत्त करता है, रहस्य को गुप्त रखता है, गुणों को प्रकट करता है, विपदा में पड़े हुए का साथ नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर सहयोग देता है । सज्जनों ने अच्छे मित्र के ये ही लक्षण बताये हैं । (952) हमारी वाणी पवित्र हो और ज्ञान द्वारा प्रभाव शालिनी बने । यह बुद्धि और कर्म से मिलकर बसाने वाली तथा उपकार के कार्यों को करने वाली हो । (953) नदियाँ पानी स्वयं नहीं पीर्ती, वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते और न बादल अनाज खाते हैं । इस प्रकार सज्जनों का वैभव परोपकार के लिए होता है । (954) प्रत्येक व्यक्ति का सोचने का ढंग अलग-अलग होता है । प्रत्येक जलाशय के जल में भी अन्तर होता है । प्रत्येक जाति का रहन-सहन का ढंग भिन्न-भिन्न होता है और प्रत्येक व्यक्ति के मुख से बात प्रकट करने का ढंग भी अलग-अलग होता है । इस प्रकार सर्वत्र विविधता दीखती है । (955) हे भरत-वंश में श्रेष्ठ राजन् । पिता, माता और गुरु का अनादर करके मनुष्य नरक को जाता है । (956) महात्माओं का विवेक ही पिता, सुबुद्धि माता, अहिंसा, बहिन, दया ही पत्नी, धर्म साथी, करुणा सुपुत्री तथा दीनजनों के प्रति किया गया उपकार ही पुत्र होता है । इस प्रकार महात्माओं के परिवार में सभी श्रेष्ठ गुण सम्मिलित हो जाते हैं । (957) उन चुगलखोरों को नमस्कार है, जिनकी कृपा से मालिक लोग दूर रहने पर भी हजारों कानों और आँखों वाले हो जाते हैं । (958) असमर्थ लोगों का क्रोध अपने ही विनाश के लिए होताा है । पतीला अधिक तपता हुआ अपने ही अंगों को जला डालता है । (959) बुद्धिमानों को चाहिए कि वे अपने पुत्रों को निरन्तर अनेक प्रकार के सदगुणों से सम्पन्न करें, क्योंकि ऐसे ही पुत्र नीतिज्ञ, सदाचारी बन कर खानदान में पूजे जाते हैं । (960) हे वाणी के स्वामी ( परमेश्वर या गुरुदेव ) दिव्य मननशक्ति के साथ पुनः आइए ( अर्थात् मुझे ज्ञान दीजिए ) । हे ज्ञान के स्वामी, मेरे अन्दर समा जाइए ( अर्थात् मैं ज्ञान को लेने के लिए पूर्णतः दत्तचित्त रहूँ ), जिससे आप द्वारा दिया गया ज्ञान मेरे अन्दर स्थायी रूप से रहे । (961) धन, मित्र, पत्नी और भूमि इत्यादि सभी वस्तुएँ फिर मिल सकती है, परन्तु मानव का शरीर इस जीवन में फिर नहीं मिलता । ( अतः इसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना चाहिए । ) (962) क्योकि वह पिता को अपने श्रेष्ठ कार्यों द्वारा पवित्र करता है और उसकी रक्षा भी करता है, अतः मनीषी लोग इसी कारण से पुत्र में पुत्रभाव को बताया करते हैं । (963) आशा जब सफल होती दिखाई पड़ाती है तो व्यक्ति और अधिक अधीर हो उठता है । जब बरसात प्रारम्भ होने वाली होती है तो चातक दूने जोर से पी-पी करने लगता है । (964) सभी पुरानी बातें ही ठीक हों, यह आवश्यक नहीं है और अमुक काव्य नया है इसलिए यह अच्छा नहीं, यह भी बात ठीक नहीं । अच्छे लोग तो परख कर ही किसी बात को स्वीकार करते हैं, जब कि मूढ़ मनुष्य दूसरों के कहे पर ही चलता है । (965) हे रघुनन्दन । इस संसार में उत्पन्न हुए व्यक्ति के तीन ही गुरु होते हैं - आचार्य, पिता और माता । (966) जो धर्म की उपेक्षा करते हैं, वे अनाजों में पुलाक नामक निकृष्ट अन्न के समान, पक्षियों में पंखों वाली दीमक के समान तथा अन्य प्राणियों में मच्छरों के समान होते हैं । (967) फूल, फल और नारी की जवानी इन तीन रत्नों को देखकर ही किसका मन विचलित नहीं हो जाता ? अर्थात् सभी का मन चंचल हो उठता है । (968) जैसे फूल में सुगन्ध, तिलों में तेल, लकड़ी में आग, दूध में घी और ईख में गुड़ छिपा होता है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा विद्यमान रहती है । विवेक द्वारा उसे पहचानो । (969) पुस्तक में रखी विद्या ( जो कण्ठस्थ नहीं ) और दुसरे के हाथ मं गया हुआ धन, आवश्यकता के समय कोई भी लाभ नहीं पहुँचा सकते । ऐसी विद्या और ऐसा धन किस काम के हैं ? (970) समर्थ व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह दीन-हीन व्यक्ति की सहायता कर उसे पुष्ट करे और भूत तथा भविष्यतकाल के लम्बे चौड़े समय पर दृष्टि डाले क्योंकि जैसे रथ के पहिए घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सम्पत्तियाँ आज एक के पास तो कल दूसरे के पास चली जाती हैं । ( अतः चञ्चल धन दौलत द्वारा परोपकार करना ही मानवता है । ) (971) रत्नों से भरपूर पृथ्वी, सोना, पशु और स्त्रियाँ ये सब एक व्यक्ति को भी सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ; यह जानकर मनुष्य को सन्तोष करना चाहिए । (972) पृथ्वी पर जल, अन्न और सुभाषित ये तीन ही रत्न हैं । अज्ञानी लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न का नाााम देते हैं । (973) सूर्य का सेवन पीठ की ओर से करना चाहिए और अग्नि क् पेट की ओर से, स्वामी की सेवा सभी प्रकार से करनी चाहिए और परलोक का सेवन निष्कपट भाव से करना चाहिये । (974) हे अर्जुन । जब मनुष्य मन में रहने वाली सभी कामनाओं को छोड़ देता है और अपने में ही सन्तुष्ट रहता है, तभी वह स्थिर बुद्धि वााला या स्थितप्रज्ञ कहलाता है । (975) जब विधाता प्रतिकूल हो जाता है, तब अनेक प्रकार के साधन भी व्यर्थ हो जाते हैं । विधु ( चन्द्रमा ) के पूर्व दिशा में प्रकट होते ही सूर्य की किरण रूपी हाथ भी उसे ( सूर्य को ) गिरने से नहीं बचा सकते । (976) वर्तमान सुख का परित्याग और भविष्य के सुख की आशा बुद्धिमानों की नीति नहीं है । (977) बिना घोषणा किए चुपके से दान देना, घर में आने वाले का आदर-सत्कार करना, किसी का भला कर के उसे न जताना और चुप रहना, किसी के द्वारा किए गए उपकार को दूसरों को बताना, धन दौलत पाकर भी अभिमान न करना और दूसरों की बात करते हुए अपमानजनक शब्द न कहना - इस प्रकार तलवार की धार पर चलने के समान कठिनता से निभाने के गुण सज्जनों को किसने दिये ? किसी ने नहीं, अर्थात् उनके स्वभाव में ही ये गुण होते हैं । (978) स्त्री, शराब और लक्ष्मी इस प्रकार ( अध्यात्म रूपी ) मद्य के ये तीन रूप हैं । एक दर्शन से, दूसरा पीने से और तीसरा संचय से पागलपन उत्पन्न करता है । (979) जो डरे हुए और शरण में आए हुए व्यक्ति को शत्रु को सौंप देता है, उसकी सन्तान मर जाती है और उसके पितर दर-दर की ठोकरें खाते हैं तथा इन्द्र-सहित सभी देवता उसकी क्षमता को नष्ट कर देते हैं । (980) जो दवाई एक रोग को हटा देती है, परन्तु अन्य कई रोगों को उभार डालती है, वह अच्छी नहीं मानी जाती । अच्छी दवाई तो वह है, जो वर्तमान रोग को तो शान्त करे परन्तु नया रोग पैदा न करे । (981) जब मेघ जल द्वारा भूमि की रक्षा करने लगता है, तो हवाएँ तेज चलती हैं , बिजलियाँ गिरती हैं, औषधियाँ उठ खड़ी होती हैं, सुख का वातावरण बन जाता है और सभी प्राणियों के लिए खाद्य पदार्थ ( अन्न, घास, पत्ते आदि ) उत्पन्न हो जाते हैं । (982) धाराप्रवाह बोलने में समर्थ, अदभुत बातें बताने वाला, सूझ-बूझ वाला, कल्पनाशक्ति-सम्पन्न और ग्रन्थों को शीघ्र स्पष्ट करने वाला व्यक्ति पण्डित ( बुद्धिमान् ) कहा जाता है । (983) किसी के पुण्य प्रताप से ही मुख में प्रसाद गुण सम्पन्न, अपने शब्द और अर्थ से मनोहर तथा अनेक प्रकार के श्लेष अलंकार से सजी हुई वाणियों ( कविताओं ) का सृजन होता है और इसी प्रकार घर में ऐसी स्त्रियों का निवास हो जाता है जो सदा खुश रहती हैं, अपने सौन्दर्य से मन को मुग्ध कर लेती हैं तथा विविध प्रकार के आलिंगनों में निपुण होीती हैं । (984) प्रसन्न रहने वाले मनुष्य के सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं । प्रसन्नचित्त मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है । (985) जो कार्यक्रम चल रहा हो, उसी समय यदि कोई और कार्यक्रम किया जाए, तो वह भद्दा प्रतीत होता है । जब वीणा-वादन हो रहा हो, तो उस समय वेदमन्त्रों के पाठ की कोई शोभा नहीं होती। (986) जैसे दुष्ट व्यक्ति पहले पैरों में पड़ता है और पीठ पीछे हानि पहुँचाता है, ऐसे ही मच्छर पहले पैरों पर और फिर पीठ के मांस पर काटता है । जैसे दुष्ट व्यक्ति आकर कान मं मीठी-मीठी विचित्र बातें सुनाता है, ऐसे ही मच्छर भी कान मं आकर गुनगुनाता है । जैसे कोई त्रुटि देखकर दुष्ट व्यक्ति निडर होकर प्रहार करता है, ऐसे ही मच्छर भी किसी छिद्र से अंदर घुसकर काट खाता है । इस प्रकार मच्छर सभी कार्य दुष्ट व्यक्ति के समान ही करता है । (987) मनुष्य जिसकी हानि अथवा पराजय नहीं चाहता, उसे बिना पूछे ही मीठी या कड़वी, भली या बुरी सभी प्रकार की बात उसके हित में बता देनी चाहिए । (988) सज्जनों अथवा दुर्जनों के साथ सदा मीठे बोल ही बोलने चाहिए । मोर के केकारव की तरह लोकप्रिय व्यक्ति, सदा मीठी वाणी का ही उच्चारण करता है । (989) हे राजा धृतराष्ट्र । प्रिय और अप्रिय, सुख और दुःख तथा निन्दा और प्रशंसा - ये तो मनुष्य को प्राप्त होते ही रहते हैं । किसी के द्वारा अपराध होने पर शत्रु तो उसकी निन्दा करने लगता है, परन्तु श्रेष्ठ चरित्र वाले लोग उसमें भी कुछ अच्छाई देखकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं । (990) जो व्यक्ति मुख पर तो प्रशंसा करता है और पीठ के पीछे निन्दा करता है वह कुत्ते के समान है और उसका यह लोक भी और परलोक भी नष्ट हुआ ही समझो । (991) प्राणियों की हत्या से दूर रहना, दूसरे के धन को न लेने की अभिलाषा, अपने पर संयम रखना, सत्य बोलना, समय पर यथाशक्ति दान देना, दूसरों की स्त्रियों की चर्चा में मौन रहना, तृष्णा के कारणों को दूर करना, गुरुजनों के प्रति नम्रता दिखाना और सभी प्राणियों पर दयाभाव रखना - ये सामान्य बातें सभी शास्त्रों से सम्मत है । वस्तुतः यही कल्याण का मार्ग है । (992) प्रातः काल उठने वाला स्वास्थ्य आदि रमणीय पदार्थों को धारण करता है । उसे सर्वज्ञ परमेश्वर अपनाकर परमानन्द में स्थापित करता है । प्रातः काल उठने से वह सुसंस्कत सन्तानों और दीर्घ आयु का विकास करता हुआ उत्तम वीर पुत्रों वाला होकर ऐश्वर्यों से पुष्ट होता चला जाता है । अर्थात् वह आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक - सभी प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेता है । (993) समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली सम्पत्ति यदि मिल भी जाये तो भी उससे क्या ? शत्रुओं के सिर पर पाँव यदि रख भी लिया जाए तो उससे क्या ? अपने स्नेही जनों को धनधान्य से यदि सम्मानित भी कर लिया तो उससे भी क्या ? यदि शरीरों को युगों तक धारण भी कर लिया जाए तो उससे भी क्य ? अर्थात् जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती तब तक ये सभी कार्य महत्त्वहीन हैं । (994) भला 'मित्र' यह दो अक्षरों वाला रत्नरूप शब्द किस ने रचा है, जो डर के आने पर रक्षा करता है और पूर्ण रूप से विश्वास का पात्र है । (995) अस्थायी अधिकार पदों को प्राप्त कर जिसने शत्रुओं, मित्रों और बन्धुजनों का तनिक भी उपकार नहीं किया, उसने क्या किया ? अर्थात् उस पद को प्राप्त करके भी उसने कोई लाभ नहीं उठाया । (996) प्रायः दुरात्माओं की सम्पत्तियों का अन्त भी बुरा ही होता है परन्तु महात्माओं की विपत्तियों की भी परिणति सुख में होती है । (997) जो शास्त्र का अध्ययन किए बिना प्रायश्चित्त, चिकित्सा, ज्योतिष तथा धर्म का निर्णय बताता है, वह ब्रह्नघातक कहलाता है । (998) नीच पुरुष विघ्नों के डर से किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम श्रेणी के लोग कार्य आरम्भ तो कर देते हैं, परन्तु विघ्नों के आने पर उन्हें बीच में ही छोड़ देते हैं । परन्तु उत्तम श्रेणी के लोग जिस कार्य को शुरू कर देते हैं, बारम्बार विध्नों से टकराने पर भी वे उसे नहीं छोड़ते और पूरा करके ही दम लेते हैं । (999) सभी प्राणी मीठी वाणी सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं, इसलिए मधुर वचन ही बोलने चाहिएँ । मीठा बोलने से कोई घाटा नहीं हो जाता । (1000) ( प्रश्न ) बंधा हुआ कौन है ? ( उत्तर ) जो विषयों में लिप्त है । (प्र.) छुटकारा क्या है ? (उ.) विषयों से अलग हो जाना । (प्र.) घोर नरक कौन सा स्थान है ? (उ.) अपना शरीर ही । (प्र.) मोक्ष प्राप्ति किसे कहते हैं ? (उ.) तृष्णा का नाश हो जाने को । (1001) संसार मेें बन्धन कोई प्रकार के हैं, परन्तु प्रेम की रस्सी का बन्धन सबसे विचित्र होता है । यद्यपि भौंरा लकड़ी तक में छेद कर सकता है, तो भी कमल की कली में वह बन्द तो हो जाता है, परन्तु उसमें छेद नहीं करता । (1002) विषयों से प्रेम बन्धन का कारण होाता है और मुक्ति के लिए मन को विषयों से हटाना होता है, क्योंकि मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का साधन है । (1003) नीच व्यक्ति पहले बन्धु सा प्रतीत होता है, फिर मित्र सा और अन्त में शत्रु बन जाता है । वह नीच व्यक्ति दुष्ट गिरगिट की तरह तीन रंग दिखलाता है । (1004) बलवान् शत्रु को देखकर अपने आप को गुस्से से नहीं भर लेना चाहिए । बलवानों के साथ शरत्काल के चन्द्रमा के प्रकाश के समान व्यवहार करना चाहिए; अर्थात् शीतल चन्द्रमा के समान शीतलता पूर्वक शान्ति से व्यवहार करना चाहिए । (1005) बलवान् के साथ युद्ध करना चाहिए इस विषय में कोई भी दृष्टान्त नहीं है । बादल कभी भी वायु की गति के विपरीत नहीं जाता । (1006) वृद्धावस्था आने पर झुर्रियों से मुख भर जाता है, सफेद बालों से सिर ढक जाता है और सब अंग ढीले पड़ जाते हैं; परन्तु केवल लालसा बढ़ती जाती है । (1007) ब्राह्नणों का बल विद्या है, राजाओं का बल सैन्यशक्ति है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल नम्रता तथा सेवाभाव है । (1008) नीच व्यक्ति बहुत बचा-बचा कर रखे जाने एवं बहुत सीख दिये जाने पर भी सन्मार्ग का आश्रयण नहीं करता, ठीक उसी तरह जिस तरह कुत्ते की पूँछ नलिका में रखे जाने पर भी सीधी नहीं होती । (1009) तुच्छ प्राणियों का भी संगठन कठिनाई से जीता जा सकता है । पतले-पतले तिनकों से बने हुए रस्से से हाथी भी बाँध दिया जाता है । (1010) अपनी इच्छा से बहुत कुछ कहा हुआ भी अव्य वस्थित बिखरा-सा कथन कहा जाता है । परस्पर सम्बन्ध रखने वाले वाक्यों से तैयार की गई रचना बहुत दुर्लभ होती है । (1011) शिशु को गोदी में धीरे से रखना चाहिए और इसे कभी धनकाना नहीं चाहिए । सोया हो तो झटपट जगाना भी नहीं चाहिए और जब तक वह बैठने योग्य न हो जाए, तब तक बिठाने का भी यत्न नहीं करना चाहिए । (1012) उदीयमान शिशु-रूपी सूर्य की किरण रूपी पाँव पहाड़ रूपी राजाओं के ऊपर जा पड़ते हैं । अतः तेजस्वी व्यक्तियों की आयु का विशेष महत्त्व नहीं होता; छोटे तेजस्वी भी बड़े-बड़े कार्य कर दिखलाते हैं । (1013) जो वस्तु बुद्धि का लोप कर देती है, उसे नशीला पदार्थ कहते हैं; जैसे कि शराब और सुरा आदि । (1014) तीव्र बुद्धि बलवान् शत्रु को भी मर देती है । बुद्धि से ही बढ़ते हुए बल ( या सेना ) को सुरक्षित रखा जा सकता है । बढ़ता हुआ शत्रु बुद्धि द्वारा ही नष्ट होता है । बुद्धि से सोच-विचार कर जो भी कार्य किया जाता है, वही प्रशंसनीय होता है । (1015) नीच लोगों की संगति से पुरुषों की बुद्धि का ह्रास होता है । मध्यम कोटि के लोगों की संगति से वह मध्यम तथा उत्तम लोगों की संगति से वह ( बुद्धि ) श्रेष्ठ बन जाती है । (1016) भूखों द्वारा न व्याकरण खाया जाता है, न प्यासों द्वारा काव्यरस पिया जाता है । वैसे ही वेदाध्ययन द्वारा किसी ने कुल का उद्धार नहीं किया । अतः धनार्जन करना ही चाहिए, कलाओं का कोई भी महत्त्व नहीं । (1017) भूख लगने पर जो भोजन नहीं करता, उसका भोजन रूपी इन्धन समाप्त हो जाता है और शरीर का ताप भी कम हो जाता है, जैसे इन्धन न रहने पर यह भौतिक अग्नि ठण्डी पड़ जाती है । (1018) कर्मों की तीन श्रेणियाँ हैं । बौद्धिक कर्म सबसे श्रेष्ठ माने ताहे हैं । बाँहों से किए जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के कहे जाते हैं । टाँगों द्वारा किये जाने वाले तथा भार उठाये जाने वाले कर्म निम्न श्रेणी में आते हैं । (1019) बृहस्पति ( ज्ञान का स्वामी ) घातक शत्रुओं से पीछे, ऊपर और नीचे की ओर से हमारी रक्षा करें और इन्द्र ( शासक-गण ) आगे तथा मध्य के स्थान से हमारी रक्षा करें । मित्र, मित्रों के कल्याण में सहायक हों । ( इस मन्त्र में राजा और मन्त्रियों आदि का कर्त्तव्य बतााय गया है कि वे प्रजा की दुष्ट लोगं से सब प्रकार से रक्षा करें ।) (1020) यदि बुद्धिमान् मनुष्य अपनी उन्नति, दीर्घायु और सुख चाहता है, तो उसे देवताओं के गुरु बृहस्पति का भी विश्वास नहीं करना चाहिए । (1021) समझदार लोग तो ईर्ष्याग्रस्त हैं, राजा अथवा धनी लोग धन के मद में मस्त हैं और शेष लोगों में इतनी समझ नहीं है कि वे रचना की प्रशंसा कर सकें; अतः सुभाषित शरीर में ही जीर्ण-शीर्ण हो जाता है । (1022) ब्रह्नहत्या करने वाले, शराब पीने वाले, गोहत्या करने वाले तथा व्रतभंग करने वाले - इन सभी के लिए विद्वानों ने प्रायश्चित का विधान किया है । परन्तु कृतघ्न के लिए कोई प्रायश्चित नहीं है, उसे तो कृतघ्नता के पाप का दण्ड भुगतना ही पड़ेगा । (1023) विद्वान् लोग ब्रह्नचर्य की शक्ति से मृत्यु को पीछे छकेल देते हैं । जीवात्मा ब्रह्नचर्य द्वारा ही सभी इन्द्रियों को स्वस्थ और सुखी बना सकता है । (1024) मनुष्य को सुबह-सवेरे ब्रह्नमुहर्त्त में जाग जाना चाहिए । फिर धर्म और अर्थ पर तथा शरीर के कष्टों और उनके कारणों और वेद-मंत्रों के रहस्य पर भी विचार करना चाहिए । (1025) हे उपकारी विद्वानो । हम सदा कानों से हितकर बात ही सुनें और आँखों से हितकर दृश्य ही देखें, ऐसी प्रेरणा हमें देते रहिए । हमारे अंग नीरोग रहें और हम प्रसन्नचित्त रहकर अपने शरीर से भगवान् द्वारा प्रदत्त दीर्घायु को आनन्द से बिताएँ । (1026) सब का कल्याण चाहने वाले और सुख प्राप्ति की विद्या के ज्ञाता ऋषियों ने पहले तप और नियम पालन की शिक्षा का अनुष्ठान किया । उसी से राष्ट्र, उसका बल और पराक्रम सिद्ध हुए । विद्वानों को चाहिए कि ऐसे राष्ट्र को अपना पूरा-पूरा सहयोग दें । (1027) भ्रमण करने वाला राजा पूजनीय होता है, घूमने वाला ब्राह्नण भी पूजा के योग्य होता है और घूमता-फिरता योगी भी पूजनीय होता है, परन्तु घूमने-फरने वाली स्त्री नष्ट हो जाती है । अर्थात् वह घृणा की पात्र हो जाती है । (1028) जिस प्रकार फल लगने के बाद वृक्ष अपने आप नीचे झुक जाते हैं, बादल भी पानी बरसाने के समय नीचे आ जाते हैं, उसी प्रकार सज्जन पुरुष समृद्धि पाकर भी विनम्र बने रहते हैं । परोपकारी लोगों का प्रायः यही स्वभाव होता है । (1029) आप वेदान्त में दत्तचित लोगों के गुरु हैं तो हम भी उन कवियों के सेवक हैं जो चातुर्यपूर्ण संवादों की रचना करते हैं । तो भी इस संसार में परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है और कोई भी वस्तु कमल के समान सुन्दर आँखों वाली नारियों से बढ़कर सुन्दर नहीं है । (1030) सीता राम से कह रही है, ''हे श्रेष्ठ पुरुष, केवल पत्नी ही पति के भाग्य को प्राप्त किया करती है । इसीलिए मुझे आपके साथ वन में रहने की अनुमति प्राप्त हो गई है ।'' (1031) यह मेरी पत्नी है, यह समझ कर यदि उससे भरपूर प्यार किया जाये तो वह उद्धत होकर पति का ही तिरस्कार करने लगती है ।वह दीपक मेरा है, यह सोचकर यदि उसका भरपूर चुम्बन किया जाए तो वह तत्काल मुँह के रोमों को जला डालता है । (1032) पत्नी से वियोग, सज्जनों के द्वारा निन्दा, ऋण का शेष, कंजूस की सेवा, दरिद्रता के समय प्रिय जनों का आगमन - ये पाँच चीजें बिना आग के भी शरीर क जलाती हैं । (1033) सब कामों में मनुष्य के मन के भावों की शुद्धि ही प्रधान होती है । प्रियतमा के चुम्बन दूसरे भाव से और पुत्री का चुम्बन दूसरे भाव से किया जाता है । (1034) यदि कोई व्यक्ति प्रेम से परिपूर्ण होकर राजा का भला भी करता है, तो उससे राजा द्वेष करने लगता है और यदि कोई स्पष्ट रूप से राजा का बुरा भी करता है, तो वह उसका प्रेमपात्र बन जाता है । वस्तुतः, राजाओं के हृदयों का कोई एक भाव स्थिर नहीं रहता, इसलिए उनके मन की गति को समझना अति कठिन है । अतएव सेवा का कार्य बड़ा रहस्यपूर्ण है, जिसे योगी भी नहीं समझ सकते । (1035) सूर्य उदय होता है और फिर अस्त हो जाता है । सूर्य प्रतिदिन प्रातःसायं नियम में बंधा हुआ अपना कार्य कर रहा है । यह चाँद भी भूमि के चारों ओर चक्कर लगाता है और इसकी कलाएँ क्रमशः बढ़ती और घटती रहती हैं । नक्षत्रों की पंक्ति भी रात को नियमपूर्वक दिखाई देती है । इस प्रकार सूर्य, चाँद और नक्षत्रों को नियम में भला कौन चला रहा है ? वस्तुतः वह ईश्वर ही है, और कोई नहीं । (1036) भीख माँग कर स्वाद-रहित भोजन-वह भी दिन में एक बार ही खाने को मिल पाता है । भूमि ही बिछौना है और सेवक अपना शरीर ही है । पहनने के जो वस्त्र हैं, वह सौ टुकड़े जोड़कर बनाई गई गुदड़ी-मात्र है । इतना होने पर भी दुःख की बात यह है कि विषय अब भी पिण्ड नहीं छोड़ते । (1037) नाना शास्त्रों का विचार करके महर्षियों ने इहलोक तथा परलोक में सुख-प्राप्ति के लिए निम्न चार दान बतलाये हैं - भयातुर को अभयदान, रोगी को औषधिदान, विद्यार्थी को विद्यादान और क्षुधातुर को अन्नदान । (1038) जिस व्यक्ति ने पूर्व जन्म में बहुत से शुभ कर्म किए हैं, उसके लिए जंगल भी एक महानगर हो जाता है, सभी लोग उसके हितचिन्तक बन जाते हैं और यह सम्पूर्ण पृथ्वी भी उत्तम से उत्तम धनधान्य और रत्न देने वाली हो जाती है । (1039) हे राजहंस । जिस सरोवर में तुमने कमल-नालों का खूब उपभोग किया, जिसके पानी को पिया और कमलों में आनन्द लिया, बताओ तो सही कि उस तालाब के किए हुए उपकारों का बदला तुम कैसे चुकाओगे ? ( विशेष - यह लोकोक्ति प्रेरणा देती है कि जिस देश के अन्न-जल आदि से हमारा पोषण हुआ है, उसके प्रति हमारे भी कुछ कर्त्तव्य हैं ।) (1040) भोजन करने के बाद धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिए । इससे गर्दन, घुटनों और कमर में इकट्ठा हुआ अन्न का भार ढीला हो जाता है । (1041) उत्पन्न हुई वस्तुओं में प्राणी श्रेष्ठ हैं, प्राणियों में भी बुद्धि से कार्य करने वाले, बुद्धिमानों में भी मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में भी ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य ये द्विजाति श्रेष्ठ हैं । (1042) अविवेकपूर्ण कार्य करने वाले दूत के हाथ में पड़कर, जो देश और काल का विचार नहीं करते, उनके बने-बनाये काम भी उसी प्रकार बिगड़ जाते हैं, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है । (1043) लड़ाई सि तीन वस्तुएँ प्राप्त हो सकती हैं - जमीन, मित्र और सोना ( धन-दौलत ) । यदि इनमें से एक भी प्राप्त होने की आशा न हो, तो ऐसी लड़ाई कदापि नहीं लड़नी चाहिए । (1044) हम लोगों ने भोोगों का भोग नहीं किया प्रत्युत हम ही काल द्वारा खा लिए गए । हमने तप नहीं किया बल्कि स्वयं तप्त हो गये । समय नहीं बीता परन्तु मह स्वयं बीत गये । तृष्णाएँ नहीं घटीं परन्तु हम खुद ही बूढ़े हो गये । (1045) विषयों को भोगने में रोगों का भय है, वंश में किसी कारण से वंश से निकाले जाने का भय है, धन की वृद्धि होने पर राजा से भय है, चुप्पी साधने से दीन-हीन होने का भय है, बल वाले को शत्रु का भय है, रूप-सौन्दर्य को वृद्धावस्था से भय है, शास्त्र में शास्त्रार्थ करने वाले को पराजय का भय है, गुण-संग्रह में दुष्टों द्वारा दोष निकलाने का भय है और शरीर को मृत्यु का भय है । इस प्रकार सभी वस्तुएँ किसी न किसी रूप से भयभीत हैं, केवल वैरग्य ही अभय है अर्थात् विरक्त पुरुष को किसी से भी भय नहीं होता । (1046) भोजन के अन्त में मट्ठा, दिन की समाप्ति पर दूध और रात की समाप्ति पर पानी पीने से मनुष्य रोगों से बचा रहता है । (1047) मक्खियाँ घाव को चाहती हैं, राजा लोग धन को चाहते हैं, नीच लड़ाई पसन्द करते हैं और भले लोग शान्ति चाहते हैं । (1048) हे राजन् । न करने योग्य विषयों में डूबते को जो रोक लेता है, वही सच्चा मित्र है ; इसके विपरीत जो है, वह तो शत्रु ही है । (1049) इस संसार में मतवाले हाथियों के गण्डस्थलों को फोड़ने में समर्थ वीर लोग हैं । कुछ वीर ऐसे भी हैं, जो क्रोध में परिपूर्ण सिंह को भी मार सकते हैं । परन्तु मैं बलवानों के समक्ष बलपूर्वक कहना चाहता हूँ कि कामदेव के अभिमान को कुचलने वाले मनुष्य बहुत ही कम हैं । (1050) अभिमान में पागल हुए राजा तथा हाथी द्वारा अनचाहे मार्ग पर जाते समय उनके पास रहने वाले उत्तरदायी व्यक्ति यदि उन्हें रोकते नहीं हैं तो वे ही निन्दा के पात्र हुआ करते हैं । (1051) मेरा किसी के निकट जाना माधुर्यपूर्ण हो और किसी से दूर जाना भी मिठास से भरा हो । मैं वाणी से मधुर ही बोलूँ और पूर्णरूप से शहद के समान माधुर्य से पूर्ण रहूँ । (1052) सत्य व्यवहार को चाहने वाले के लिए हवाएँ तथा निदयाँ आनन्द की वर्षा करती हैं । हमारे लिए औषधियाँ आनन्द देने वाली हों अर्थात् हम औषधिविज्ञान को जानें और उनसे स्वास्थय और सुख प्राप्त करने का प्रयास करें । (1053) मन की प्रसन्नता, लगन, साधनों में दक्षता, सहायकों की प्राप्ति तथा सघन उद्यम ये कार्यों की सिद्धि के लक्षण हैं । (1054) मन की शुद्धि, कर्म की पवित्रता, खानदान का सदाचार, शरीर की शुद्धि और वाणी में सत्यता यह पाँच प्रकार की पवित्रता कही गई है । (1055) जसि कार्य-योजना को मन में सोचा हो, उसे वाणी द्वारा दूसरों को नहीं बताना चाहिए । उसे रहस्य रूप में छिपाकर रखें उस योजना को कार्यान्वित करें । (1056) भला ऐसे श्रेष्ठ लोग कितने हैं, (1) जो मन, वचन और शरीर द्वारा पवित्र अमृत (मिठास) से भरे हुए हैं, अर्थात् जिनका व्यवहार सब प्रकार से मधुर है, (2) जो अपने उपकारों द्वारा सारे विश्व को तृप्त कर रहे हैं और (3) जो दूसरों के तुच्छ गुणों को भी पहाड़ के समान बढ़ा-चढ़ा कर प्रकट करते हुए अपने हृदय में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ? (1057) जो व्यक्ति अपनी बिरादरी वालों के विषय में मन में अनिष्ट सोचता है, वे अनिष्ट इस लोक और परलोक में उसी को प्राप्त होते हैं । (1058) स्वाभिमानी व्यक्ति प्राण दे सकता है, परन्तु दीन वचन नहीं कहता । जैसे आग बुझ जाती है, परन्तु वह ठण्डी नहीं होती । (1059) महात्माोओं के मन, वाणी और कर्म में एकरूपता ही होती है । परन्तु दुष्ट लोगों के मन में कुछ और होता है, वाणी में कुछ और तथा कर्म में कुछ और । (1060) क्षमाशील व्यक्ति यदि एक बार थोड़ा अपराध करने वाले को क्षमा कर दे, तो कोई बात नहीं , परन्तु जो बारम्बार शत्रुता किये ही चला जा रहा है, उसे कौन क्षमा करेगा ? (1061) जो विद्वान ( विचारशील ) होते हैं वे हितैषी नहीं होते तथा जो हितैषी होते हैं विद्वान् ( विचारशील ) नहीं होते हैं । हितैषी मित्र भी हो और विद्वान् (विचारशील) भी हो, ऐसा व्यक्ति मनुष्यों को इसी प्रकार कठिनाई से मिलता है, जैसे स्वादु और हितकारी औषध का मिलना कठिन होता है । (1062) मनुष्य रूपी जो कुत्ता चैन से नहीं रहता है, लोगों की निन्दा करने में ही जुटा रहता है और पागल हाथी की तरह चिंघाड़ता रहता है, ऐसा कुत्ते के समान अतिभयंकर मनुष्य त्यागने योग्य होता है । उसे छोड़ देना चाहिए । (1063) फूटे हुओं को मिलाने में मन्त्रियों की और अनेक प्रकार के रोगों से घिरे होने पर चिकित्सकों की बुद्धि की परख होती है । व्यक्ति के स्वस्थ रहने पर सभी अपनी-अपनी योग्यता दिखाने लगते हैं । (1064) जैसे कोई योद्धा सभी अंगों के ढके होने पर भी, शत्रु मुझे मान न दें, आशंका से देर तक शान्त नहीं रहना चाहता और उतावला होकर प्रहार करने को उद्यत हो जाता है, उसी प्रकार नीति में बनाई हुई किसी भी योजना को शीघ्र ही व्यावहारिक रूप दे देना चाहिए, ताकि शत्रुओं द्वारा उसका भेद न खुल जाए । (1065) बुद्धिमानों के सम्पर्क में आने से मूढ़ भी निपुण बन जाया करता है । फिटकिरी अथवा कतक के बीजों के सम्पर्क से गन्दा पानी भी स्वच्छ हो जाता है । (1066) शरीरधारियों ( आत्माओं ) की मूल अवस्था तो मृत्यु ही है । उसमें जो परिवर्तन होता है, उसे ही जीवन कहा जाता है । यदि प्राणी एक क्षण भी साँस लेता हुआ विद्यमान रहता है, तो समझना चाहिए कि उसने कुछ प्राप्त ही किया है, खोया कुछ भी नहीं । (1067) नीति रूप आभूषण को धारण करने वाले बड़े लोगों का यही महत्त्व है कि भयंकर से भयंकर कष्ट के आने पर भी वे आरम्भ किए हुए कार्य को नहीं छोड़ते । (1068) बड़े लोगों की संगति भला किस को उन्नत नहीं बना देती ? देखिए कि कमल के पत्ते पर टिका हूआ जल भी मोतियोों की सी शोभा धारण कर लेता है । (1069) किसी बड़ी नदी को तैर कर पार करना, श्रेष्ठ पुरुषों से लड़ना तथा बहुत लोगों से विरोध करना इन बातों को सर्वथा त्याग देना चाहिए । (1070) बड़े लोग ही बड़ों का कार्य सिद्ध करने में समर्थ होते हैं । समुद्र को छोड़कर भला कौन ऐसी वस्तु है जो वडवानल को अपने अन्दर धारण कर सकती है ? (1071) जिस मुनि के लिए भूमि ही सुन्दर बिछौना है, बाँह रूपी लता ही विशाल तकिया है, आकाश ही चादर है, अनुकूल वायु ही पंखा है, चन्द्रमा ही चमचमाता दीपक है और विरक्ति ही ऐसी पत्नी है, जिसके साथ वह प्रसन्न रहता है, वह मुनि इस प्रकार की विशाल सम्पत्ति से सम्पन्न होकर राजा के समान सुखपूर्वक शान्त होकर सोता है । (1072) मांसाहारी, शराबी, और निरक्षर मनुष्य नेय रूप में इकट्ठे होने वाले पशु हैं, जो शक्त-सूरत में मनुष्य दिखाई दे रहे हैं । ऐसे नर-पशुओं के कारण ही यह पृथ्वी भार से दब रही है । (1073) शत्रु से तिरस्कृत होने से उत्पन्न दुःख से जलते हुए व्यक्ति के जीने को धिक्कार हो । ऐसा व्यक्ति तो व्यर्थ ही अपने जन्म से माँ को कष्ट देने वाला होता है । यदि ऐसे व्यक्ति का जन्म न होता, तो वही ठीक था । (1074) जिसके घर में माँ नहीं है एवं पत्नी प्रिय बोलने वाली नहीं है, उसे जंगल में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए जैसा जंगल, वैसा ही घर है । (1075) बच्चे को न पढ़ाने वाली माता उसकी शत्रु है और जिस पिता ने बच्चे को नहीं पढ़ाया वह भी दुश्मन है । अनपढ़ व्यक्ति की सभा में वही दशा होती है, जो हंसों के बीच आए हुए बहुले की, अर्थात् सभा में उसका कोई मान नहीं होता । (1076) जिसके मामा श्रीकृष्ण थो और जिसके पिता अर्जुन थे, वह अभिमन्यु भी मारा गया । काल की चाल टेढ़ी है ; मृत्यु का समय निकट आ जाने पर इससे कोई नहीं बच सकता । (1077) धार्मिक बुद्धि वाले लोग पराई स्त्रियों को माता के समान, पराये धन को ढेले के समान और सभी प्राणियों को अपने समान देखते हैं । (1078) विद्य माता के समान रक्षा करती है, पिता के समान हितकारी कार्यों में लगाती है, प्रिय पत्नी के समान दुःख दूर कर मन को प्रसन्न करती है, दिशाओं में विमल कीर्ति फैलाती है और ऐश्वर्य प्रदान करती है । बताओ तो सही कि कल्पलता के समान वह क्या-क्या काम नहीं करती ? अर्थात् विद्या सभी कार्य सिद्ध कर देती है । (1079) माँ, बहिन या बेटी के साथ भी अकेले में न बैठे । इन्द्रियों का जोर इतना होता है कि वे समझदार को भी अपनी ओर खींच लेती हैं । (1080) तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला मान्धााता कहाँ गया ? राजा सत्यव्रत कहाँ हैं ? देवताओं का राजा नहुष कहाँ गया ? श्रेष्ठ शास्त्रों का विद्वान् कृष्ण कहाँ गया ? ऐसा माना जाता है कि इन्द्र के आसन पर बैठने वालों को भी बढ़िया-बढ़िया रथों और हाथियों के साथ ही महात्मा काल ने ही ऊँचा उठाया था और फिर काल ने ही उन्हें संसार से विदा कर दिया । (1081) कुलीन व्यक्ति माननीय होता है, कलाकार कुलीन से भी अधिक माननीय होता है, विद्वान् कलाकार से भी अधिक माननीय होता है, विद्वान् से भी अधिक सूशील व्यक्ति, उससे भी अधिक धनी और उससे भी अधिक दानी पूजनीय होता है । पर जिस व्यक्ति ने कभी याचना नहीं की, उसने दानी की कीर्ति को भी जीत लिया है । (1082) हे इन्द्र, परमैश्वर्यशाली भगवन् । हम आपके उपासक लोग यज्ञ के मार्ग से कभी विचलित न हों अर्थात् सदा दान, आप की उपासना और सत्सङ्गति के मार्ग को न छोड़ें । ऐसी कृपा करो कि हमारे मध्य कोई भी कृपण और जमाखोर व्यक्ति न रहे । (1083) भाई-भाई से द्वेष न करे, बहिन-बहिन के प्रति शत्रु भाव न रखे । हे मनुष्यों । मैं, ईश्वर, तुम्हें समझाता हूँ कि तुम सभी अच्छे कर्म करने वाले बनो और श्रेष्ठ नियमों का समान रूप से पालन करते हुए कल्याणकारी मीठी वाणी ही बोलो । (1084) जो शत्रु सीधे ढंग से न मारे जा सकें, उन्हें छल-कपट स मार डालना चाहिए; जैसे भीम ने स्त्री का वेश धारण कर कीचक को मार डाला था । (1085) वायु और पानी के वेग से जो ओषधियाँ, पेड़ और झाड़ियाँ झुक जाते और खड़े हो जाते हैं, वे तिरस्कार को प्राप्त नहीं होते, अर्थात् नष्ट नहीं होते । (1086) जिस प्रकार आठ महीनों तक सूर्य किरणों से जल खींचता रहता है, उसी प्रकार सूक्ष्म उपाय से राजा को प्रजा से धीरे-धीरे करों द्वारा धन लेना चाहिए । (1087) पिता, भाई और पुत्र सीमित मात्रा में ही सुख तथा धन देते हैं । असीम मात्रा में सुख तथा धन देने वाले पति की कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी ? अर्थात् वह तो पूजा के ही योग्य है । (1088) समय बदलने पर कभी-कभी मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु मित्र, क्योंकि स्वार्थ ही अधिक बलवान् होता है । (1089) मित्र से शत्रुता करने वाला, उपकार भूल जाने वाला और जो विश्वासघातक हैं वे लोग तब तक नरक में रहते हैं, जब तक चाँद और सूर्य हैं । (1090) जिसके अनेक मित्र होते हैं, वह कठिन से कठिन कार्यों को सिद्ध कर लेता है । इस कारण मनुष्य को अपने जैसे ही अनेक मित्र बनाने चाहिए । (1091) हे प्रिय । यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो कामक्रोधादि विषयों को विष के समान समझ कर छोड़ दो और सहनशीलता, सरलता, दया, पवित्रता तथा सत्य को अमृत समझकर इनका पान करो; अर्थात् इन्हें अपनाओ । (1092) यदि समझदार मनुष्य अपनी सफलता अथवा कल्याण चाहता है, तो उसे ऐसे लोगों से बात नहीं करनी चाहिए, एक तो जिसके कार्यों में बारम्बार विघ्न आ पड़ते होों और दूसरे हारे हुए जआरी से । (1093) पवित्र कर्म करते हुए थोड़ी देर तक भी जीना मनुष्य के लिए उत्तम है परन्तु दोनों लोकों को बरबाद करने वाले बुरे कर्म को करते हुए लाखों वर्षों का जीवन भी बुरा है । (1094) जो मूर्ख अपने कटु वचनों रूपी बर्छे से अदृश्य कांटे के समान हृदय को बींध देता है, उसे दूर से ही त्याग देना चाहिए । वह तो मनुष्य की आकृति में दोपाया जानवर ही है । (1095) जहाँ मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहाँ अनाज जमा रहता है और पति-पत्नी में जहाँ झगड़ा नहीं होता, वहाँ लक्ष्मी स्वतः आई हुई समझनी चाहिए । (1096) मूर्ख लोग विद्वानों से द्वेष करते हैं, निर्धन लोग बड़े धनिकों से, पापी लोग पुण्य करने वालों से और भ्रष्ट स्त्रियाँ खानदानी स्त्रियों से द्वेष करती हैं । (1097) हरिण हरिणों के साथ, गौएँ गौओं के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, मूर्ख मूर्खों के साथ और बुद्धिमान् बुद्धिमानों के साथ चलते-फिरते हैं । मित्रता प्रायः समान स्वभाव और आदतों वालों में ही हुआ करती है । (1098) जिस व्यक्ति का शरीर मरने पर जल कर राख हो गया, उसे कीर्ति से क्या लेना ? मरे हुए को कीर्ति का क्या पता ? कीर्ति का भोग तो व्यक्ति जीते हुए ही करता है । (1099) हे यज्ञिय लोगों, हे उत्तम कर्म करने वालों, तुम मृत्यु के कदम को पीछे धकेलते हुए, लम्बी से लम्बी आयु प्राप्त करते हुए तथा सन्तान एवं धन से बढ़ते हुए अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाए रखो । (1100) अरे भोलेभाले मनुष्य । तुम मृत्यु से क्यों डरते हो ? वह डरने वाले को छोड़ नहीं देती । यह समझ लो कि आज या सौ वर्षों के बाद सभी प्राणियों की मृत्यु निश्चित रूप से होनी ही है । (1101) नासमझ, पापी व्यक्ति मीठा बोलने वाले को शक्तिहीन समझने लगता है और अपने स्वार्थ को उसके द्वारा सिद्ध हुआ मान लेता है, जो केवल उसकी मूढ़ता है । (1102) कोमल, गोलमटोल, खूब मधुर, और मनपसन्द भी उस लड्डू से क्या लाभ, जो सेवा करके प्राप्त हुआ हो । ( भाव यह है कि सेवा जैसे कठिन कार्य का बदला एक लड्डू पूरा नहीं कर सकता, उसके बदले तो कोई बड़ी वस्तु ही चाहिए ।) (1103) कोमल स्वभाव के व्यक्ति की लोग अवज्ञा करते हैं और कठोर से उन्हें उद्वेग होता है । तू न कठोर बन और न कोमल । कठोर और कोमल दोनों बन । (1104) कोमल जल से खोदे जाते हुए पहाड़ के भी प्रदेश घिस जाते हैं । ऐसी दशा में क्या चतुर चुगलखोरों की चुगलखोरियों के कारण मनुष्यों के कोमल हृदय प्रभावित नहीं होंगे ? अर्थात् उन पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा । (1105) अतिश्रेष्ठ विद्वान् धर्मयुक्त क्रिया से मुझे शुद्ध बुद्धि तथा धन को दें । विद्या से प्रकाशित प्रजा का रक्षक मुझे मेधा बुद्धि दे । परम ऐश्वर्यवान् मुझे बुद्धि दे । शक्तिशाली पुरुष मुझे बुद्धि दे और संसार को धारण करने वाला परमेश्वर भी मुझे बुद्धि और धन दे । तात्पर्य यह है कि विद्वानों, प्रजा-रक्षकों, ऐश्वर्यशाली और शक्तिशालीं लोोगों के सम्पर्क से तथा प्रभुभक्ति से अपनी बुद्धि और धन को बढ़ाना चाहिए । (1106) मैं ईश्वर, वेद, अन्न, धन आदि को धारण करने वाली सर्वश्रेष्ठ ज्ञानियों द्वारा सेवन की गई, ऋषियों द्वारा प्रशंसित और ब्रह्नचारियों द्वारा अच्छी प्रकार पान की गई धारणावती बुद्धि को दिव्यगुणों अथवा अपनी ज्ञानेन्द्रि की रक्षा के लिए आहवान करता हूँ, स्वीकार करता हूँ या धारण करता हूँ । (1107) सज्जनों से ही मित्रता करनी चाहिए, सज्जनों के प्रति ही सब प्रकार से प्यार दिखाना चाहिए, श्रेष्ठ व्यक्तियों की ही संगति करनी चाहिए और दुष्टों का संग छोड़ देना चाहिए । (1108) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुवर्ग का शत्रु क्रोध है । यह मोक्ष की साधनभूत तपस्या को भी क्षण-भर में दूषित कर देता है । क्रोध अपने और पराये का भी नाश कर देता है । (1109) जो डरे हुए और शरण में आए हुए को शत्रु को सौंप देता है, उस मूढ़ का खाया-पिया अन्न निष्फल हो जाता है । निश्चेष्ट होकर वह स्वर्ग लोक से गिर जाता है और उसकी आहुतियों को भी देवता स्वीकार नहीं करते । (1110) अज्ञानी व दान न देने वाला व्यक्ति व्यर्थ ही अन्न आदि पदार्थों को प्राप्त करता है । मैं परमेश्वर अथवा विद्वान् यह सत्य बात कह रहा हूँ कि उसके धन का संग्रह उसका नाशक ही है । उसका धन न तो सत्यवादी विद्वान् या शासक का ही पोषक होता है और न ही उससे मित्र को कुछ लाभ पहुँचता है । इस प्रकार अकेले खाने वाला व्यक्ति केवल पाप-कर्म ही करता है । (1111) सेवक यदि चुप रहता है, तो उसे गूँगा और यदि बातचीत करने में निपुण हो तो उसे बहुत बोलने या बकवास करने वाला कहा जाता है । यदि पास रहता है तो उसे ढीठ और यदि दूर रहता है तो मूर्ख माना जाता है । यदि सहनशील है तो उसे डरपोक और यदि नहीं सहता तो उसे अकुलीन कहा जाता है । अतः सेवा का कार्य बहुत ही कठिन है; योगी भी इसे न समझ सकते हैं और न निभा सकते हैं । (1112) मनुष्यों के जन्म तथा पालन-पोषण में माता-पिता जिस कष्ट को सहन करते हैं, उसका बदला सौ वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता । (1113) बिना किसी सम्बन्ध के भी जो व्यक्ति मित्रता का व्यवहार करता है, वही सम्बन्धी है और वही मित्र है, वही उन्नति में सहायक है और वही कार्य साधक है । (1114) जो व्यक्ति पहले करने योग्य कार्यों को पीछे करना चाहता है और पीछे वाले कार्यों को पहले करना चाहता है, वह नीति तथा अनीति का ज्ञान नहीं रखता, अर्थात् वह विवेकशील नहीं है । (1115) जो अपने हितकारी गुरुजनों से पूछने योग्य कार्यों को परामर्श करके करता है, उसके किसी भी कार्य मेें विघ्न उपस्थित नहीं होता । (1116) जो अपने पिता को अपने सदाचरण से प्रसन्न कर देता है, वही वस्तुतः पुत्र है । जो पति के ही हित की कामना करती है, वही वस्तुतः पत्नी है । सच्चा मित्र वही है जो संकट और सुख के समय समान रूप से साथ निभाता है । इस प्रकार के तीनों शेष्ठ व्यक्तियों को पुण्यशाली लोग ही प्राप्त कर सकते हैं । (1117) जो व्यक्ति बढ़े हुए क्रोध को घोड़े के समान वश में कर लेता है, वही वस्तुतः सज्जनों द्वारा वशीकर्ता (यन्ता) कहा जाता है; वह नहीं जो लगाम ही पकड़े रखता है । (1118) हे देवयानी । यह बात समझ लो कि जो व्यक्ति किसी के उत्तेजित क्रोध को बिना क्रोध के शान्त कर लेता है, समझो कि उसने सारे संसार को ही जीत लिया है । (1119) जो अपने साथियों को छोड़कर शत्रु के पक्ष मेें चला जाता है, वह अपने साथियों के नष्ट हो जाने के बाद शत्रु-पक्ष के लोगों द्वारा ही मार दिया जाता है । (1120) जो कानों को बिना कष्ट पहुँचाए अमृत के समान सच्ची विद्या देकर कान खोलता है, उसे पिता और माता मानना चाहिए; उससे किसी भी प्रकार से द्वेष नहीं करना चाहिए । (1121) कामनाओं की पूर्ति से जो सांसारिक सुख मिलता है और जो ऐश्वर्य द्वारा अदभुत सुख प्राप्त होता है, ये सुख के दोनों प्रकार तृष्णा की समाप्ति से होने वाले सुख के सोलहवें भाग के तुल्य भी नहीं हैं । (1122) हे परमात्मन् । जो जीवात्म का साधन, दूर-दूर तक जाने वाला, ज्ञानेन्द्रियों को ज्योति देने वाला (प्रेरक) हे और जो जागृत अवस्था में भी दूर भाग जाता है तथा सोते हुए भी वैसे ही दूर चला जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो । (1123) यज्ञ, दान और तप - ये कर्म तो सभी को करने ही चाहिए, इन्हें छोड़ना नहीं चाहिए । यज्ञ, दान और तप विद्वानों को भी पवित्र करने वाले होते हैं । (1124) हे अर्जुन । यज्ञ से बचे हुए अमृत रूप पदार्थ को जो खाते हैं, वे ही शाश्वत ब्रह्न को प्राप्त करते हैं । जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, उसके लिए यह संसार भी सुखदायी नहीं, दूसरे लोक की तो बात ही क्या । (1125) वे पुण्यात्मा जो यज्ञ-शेष खाते हैं, सब पापों से छूट जाते हैं, परन्तु जो पापी केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं, अर्थात् उनका कल्याण नहीं होता । (1126) हे अर्जुन । यज्ञीय कर्म के अतिरिक्त यह संसार कर्मबन्धन है । अतः यजञ-हेतु ही सब कर्म निःसङ्ग होकर करते चलो । (1127) हे परमात्मन्, जहाँ-जहाँ भी आपकी सत्ता है, वहाँ-वहाँ से हमें निर्भय कर दीजिए । हमारी सन्तानों का कल्याण कीजिए और हमारे पशुओं को भी निर्भयता का दान दीजिए । (1128) जहाँ-जहाँ से यह चञ्चल और विक्षिप्त मन निकल कर भागे, वहीं-वहीं से इसे रोक कर अपने वश में करना चाहिए । (1129) जिस देश अथवा स्थान पर अपने बलबूते पर भोगों को भोग कर जीवन बिताया हो, उसि स्थान पर जो व्यक्ति निर्धन बन कर रहता है, वह नीच पुरुष है । (1130) जहाँ युद्ध करने से अधिक लाभ न हो और जहाँ पराजय का मुँह देखना पड़े, वहाँ बुद्घिमान् व्यक्ति को युद्ध छेड़ने का यत्न नहीं करना चाहिए । (1131) जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ दिव्य गुणों वाले आत्मा जन्म लेते हैं और जहाँ इनका सत्कार नहीं होता, वहाँ सभी किए-कराए कर्म निष्फल हो जाते हैं । (1132) भूमि की शोभा को बढ़ाने वाले हंस तो जहाँ कहीं भी चले चाएँगे, परन्तु उन तालाबों को क्षति पहुँचेगी, जिनसे हंसों का वियोग हो जाएगा । भाव यह है कि श्रेष्ठ व्यक्तिओं से आश्रय कदापि नहीं छीनना चाहिए, वे ही तो उस स्थान की शोभा होते हैं । (1133) चूँकि इसी मानव-देह में ही बुद्धिमान् और विचार शील आत्माएँ निवास करती हैं, इसी में ही इन्द्र, विष्णु और सरस्वती आदि देवता भी भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के माध्यम से स्थित रहते हैं और पृथ्वी, जल आदि पाँचों भूत भी इसी में पाए जाते हैं, अतः विद्वान् मनुष्य को अपने शरीर का अपमान या उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । (1134) जहाँ ( जिस घर में ) प्रत्येक शुभ कार्य उत्साह के साथ आरम्भ किया जाता है, जहाँ आलस्य का नामोनिशान नहीं होता, जहाँ नीति और बहादुरी दोनों साथ रहते हैं, वहाँ स्थायी रूप से लक्ष्मी का वास होता है । (1135) जैसे कोई मनुष्य कुदाल से भूमि को खोदकर नीचे से जल प्राप्त कर लेता है, वैसे ही सेवा करने वाला छात्र गुरु में स्थित विद्या को पा लेता है । (1136) जैसे मज़बूत खम्भों वाला घर भी पुरााना होकर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य बुढ़ापे और मृत्यु के वश में जाकर नष्ट हो जाते हैं । (1137) जैसे गाय को समय पर दूहते और पालते हैं, वैसे ही जनता से कर भी लिया जाता है और उसको पाला भी जाता है । फूल और फल देने वाली बेल को सींचकर बढ़ाने में ही बुद्धिमान् है। (1138) जिस प्रकार सोना रगड़ कर, काट कर, तपा कर और कूट कर इन चार विधियाँ से परखा जाता है, वैसी ही पुरुष भी त्याग, शील, गुण और कर्म इन चार वस्तुओं से परखा जाता है । (1139) जैसे छाया और धूप सदा एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, ऐसे ही कर्म तथा कर्ता भी परस्पर सम्बद्ध रहते हैं; वे अलग-अलग नहीं हो सकते । (1140) जैसे हज़ारों गौओं में से भी बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पहले किया कर्म उसके कर्ता के पीछे पहुँच ही जाता है । (1141) जैसे हाथी पहले स्नान करके बाद सूँड से धूल उठाकर अपना शरीर गंदा कर लेता है, ऐसी ही दुष्टों की मित्रता होती है, अर्थात् पहले बहुत प्रेम दिखाते हैं और बाद में झगड़ने लगते हैं । (1142) जैसे पके हुए फलों को नीचे गिरने का ही भय बना रहता है, उसी प्रकार जन्म लेने वाले मनष्य को भी मृत्य का ही डर बना रहता है । (1143) जिस प्रकार बहुत बारीक बीज के अंकुर की सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है और वही समय पाकर फल देने लगता है, उसी प्रकार सुरक्षित की गई ही प्रजा से लाभ उठाया जा सकता है । (1144) जैसे भौंरा प्यासा होने पर कास के फूल को पीता है, परन्तु वहाँ से रस को प्राप्त नहीं करता, उसी प्रकार दुष्टों की मित्रता होती है, जिससे कोई सुख प्राप्त नहीं हो सकता । (1145) जैसे माँस को जल में मछलियाँ, भूमि पर मांसहारी पशु और आकाश में पक्षी खा जाते हैं, उसी प्रकार धनी व्यक्ति का धन लूटने के लिए सभी सर्वत्र तैयार रहते हैं । (1146) ज्यों-ज्यों पुरुष शास्त्र को हृदयंगम करता जाता है, त्यों-त्यों उसका विवेक बढ़ता जाता है और विवेक-पूर्ण ज्ञान में उसकी रुचि बढ़ती जाती है । (1147) जो बात जैसी हो, उसे वैसे ही कहना और जो सबको सुख देने वाली हो, उसे ही सत्य समझना चाहिए । इसके विपरीत जो हो, वह असत्य है । (1148) जैसे वायु को प्राप्त करके सभी प्राणी जीते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ के सहारे से ही सभी आश्रमों की स्थिति होती है । (1149) समझदार लोग अपनी शक्ति के अनुसार ही कोई कार्य करना चाहते हैं और शक्ति के अनुसार ही करते हैं तथा किसी का तिरस्कार भी नहीं करते । (1150) जिस प्रकार सबमें रहने वाला आकाश सूक्ष्म होने के कारण बाहरी वस्तुओं से उपलिप्त नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा शरीर में सर्वत्र रहते हुए भी देह के विकारों से प्रभावित नहीं होता । (1151) जैसे गंदे कपड़ों वाला मनुष्य उन कपड़ों के साथ जहाँ-तहाँ, साफ या गंदे स्थान पर बैठ जाता है, उसी प्रकार नष्ट हुए धन वाला व्यक्ति बचे हुए धन को भी समाप्त कर देता है । (1152) जो स्थिति जलहीन नदियों की अथवा तृणहीन जंगल की अथवा ग्वाले से रहित गौओं की होती है, वही स्थिति शासक से हीन राष्ट्र की हो जाती है । अर्थात् कोई भी मर्यादा का पालन नहीं करता और सब मनमानी करने लगते हैं । (1153) जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजा करती, उसी प्रकार परिश्रम के बिना केवल भाग्य से ही फल की प्राप्ति नहीं होती । (1154) हे अर्जुन । जिस 'ओ३म्' अविनाशी पद को वेद के ज्ञाता बोलते हैं, जिस ( परमेश्वर ) में वीतराग संन्यासी प्रवेश करते हैं, जिसे चाहते हुए लोग ब्रह्नचर्य का पालन करते हैं, उसी 'ओ३म्' पक के विषय में मैं तुम्हें बताऊँगा । (1155) अपनी शक्ति से होने वाला कोई कार्य, जो दूसरों के लिए हितकर न हो, अथवा जिसे करते हुए लज्जा का अनुभव हो उसे कभी नहीं करना चाहिए । (1156) भेड़ा ( मेंढा ) तेज प्रहार के लिए ही पीछे हटता है । शेर भी क्रोध में छलांग लगाने की इच्छा से पहले सिकुड़ता है । जिन्होंने हृदय मं वैर को छिपाया हुआ है और गुप्त योजनाएँ बनाने में कुशल हैं, ऐसे बुद्धिमान लोग किसी भी दशा की चिन्ता न करते हुए सब कुछ सहन कर लेते हैं। (1157) यदि कोई मनुष्य झूठ बोलता है, अथवा जो न सेवा करने योग्य व्यक्ति की सेवा करता है और जो विदेश में जाता है - यह सब कुछ पेट के कारण ही होता है । (1158) जब मैं थोड़ा सा ही जानता था, तब मदमस्त हाथी के समान मैं अन्धा हो गया था । यह समझ कर कि 'मैं सर्वज्ञ हूँ ', मेरा मन अभिमान से भर गया । परन्तु जब बुद्धिमानों के सम्पर्क से थोड़ा-थोड़ा जानने लगा, तो मैं समझ गया कि मैं तो अभी मूर्ख ही हूँ । यह विचार आते ही मेरा अभिमान ऐसे नष्ट हो गया जैसे चढ़ा हुआ बुखार उतर जाता है । (1159) श्री राम सीता को समझा रहे हैं कि हे मंगलमयी सीते । मनुष्य जो अच्छा या बुरा करता है, अपने उसी किए कर्म के वैसे ही फल को वह प्राप्त किया करता है । (1160) जिस समय लोग आकाश को चमड़े के समान लपेटने में समर्थ हो सकेंगे, तभी परमात्मा को जाने बिना ही दुःखों का अन्त हो सकेगा । भाव यह है कि परमात्मा को जाने बिना दुःखों का नाश कदापि नहीीं हो सकता । (1161) जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को अपने अन्दर समेट लेता है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है । (1162) जब व्यक्ति न तो इन्द्रियों के विषयों में लिप्त होता है और न ही कर्मों में फँलता है और सब प्रकार की ममता को छोड़ देता है, तभी वह 'योगारूढ़' कहलाता है । (1163) हो सकता है कि आग ठण्डी हो जाये और चन्द्रमा आग बरसाने लगे, परन्तु फिर भी प्राणियों का स्वभाव बदला नहीं जा सकता । (1164) यदि तुम एक ही कर्म से संसार को वश में करना चाहते हो तो दूसरे की निन्दरूपी चारे को चरती हुई वाणी रूपी गाय को वहाँ से रोक दो । अर्थात् दूसरों की निन्दा मत करो । (1165) विधाता ने किसी के मस्तक पर जो थोड़ा या बहुत जितना भी धन लिख दिया है, उतना वह रेगिस्तान में भी पा लेगा और सोने के पहाड़ मेरु पर भी उससे अधिक प्राप्त नहीं कर सकेगा । इसलिए हे मानव । सन्तोष करो और धनिकों के आगे जाकर दीन-हीन बन कर मत गिड़गिड़ाओ । देखो, घड़े को चाहे कुएँ से भरो और चाहे समुद्र से, उसमें बराबर ही जल आएगा। (1166) संयोगवश यदि सज्जनों की संगति कहीं एक बार हो जाती है, तो वही संगति सदा के लिए पक्की हो जाती है । उसे स्थिर करने के लिए बारम्बार मिलना आवश्यक नहीं होता । (1167) जो भी वस्तु दुर्लभ हो, वह तपस्या द्वारा प्राप्त हो जाती है । ऋषियों ने तप द्वारा ही सब ऐश्वर्य प्राप्त किया था, इसमें कोई सन्देह नहीं है । (1168) श्रेष्ठ व्यक्ति जो-जो कार्य करता है, वही-वही दूसरे लोग भी करते हैं । वह जिसे सत्य मानकर चलता है, लोग भी उसे ही प्रमाण मानकर उसके पीछे हो लेते हैं । (1169) हे राजन् ( युधिष्ठिर ), बुरे कार्य करने वाले लोग यद्यपि कहीं-कहीं धन-दौलत प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु, प्रिय, वे उसका देर तक उपभोग नहीं कर पाते और जड़-सहित नष्ट हो जाते हैं । (1170) संकट में पड़े हुए और शुभ अवसर की प्रतीक्षा करने वाले बुद्धिमान् को मन में निश्चित किए हुए अच्छे अथवा निन्दित कर्म को जैसे-तैसे भी कर लेना चाहिए । क्या गाण्डीव धनुष को दृढता से चलाने के कारण कठोर हाथ वाले अर्जुन ने नर्तकों के समान नृत्य करते हुए मेखला ( करधनी ) को धारण नहीं किया था ? अर्थात् उस वीर ने भी समयानुसार नर्तकों का कार्य अपना लिया था । (1171) जिसको प्रयोजन की सफलता विचलित न कर सके और किसी समय आई हुई विपत्ति भी डगमगा न पाए तथा जो सुख और दुःख तथा दोनों के मध्य की स्थिति में एक समान रहता है, वही मनुष्य नेतृत्व की शक्ति रखता है । (1172) विद्या द्वारा कहा जा रहा है - ''हे वेद-विद्या के ज्ञाता । तुम जिसे पवित्र, प्रमाद-रहित, बुद्धिमान् और ब्रह्नचर्यसे सम्पन्न समझो तथा जो तुमसे किसी दशा में द्वेष न करे और जो तुम्हारे दिये विद्याकोष का रक्षक हो, उसे ही मेरा ज्ञान देना ।'' (1173) समान धन वालों और समान कुल वालों में ही मित्रता और विवाह हूआ करते हैं ; कम या अधिक वालों में नहीं । (1174) जैेसे ऐश्वर्यवान् राजा यश का अभिलाषी होता है, सेनापति भी यश का इच्छुक होता है और शान्त मन वाला मन्त्री भी यश चाहता है, वैसे ही मैं भी सभी प्राणियों में सबसे अधिक यशस्वी बन जाऊँ । (1175) जो लोग गम्भीरतापूर्वक काम में लगे रहते हैं, यश प्राप्त करने के लिए अथवा आराम से रहने की इच्छा से अथवा श्रेष्ठ मनुष्यों की अल्प संख्या को बताने के लिए सफलता बड़ी उत्सुकता के साथ उनकी गोद में आ बैठती है । (1176) थोड़ा सा लोभ भी उसी प्रकार यशस्वियों के शुद्ध यश को और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों को नष्ट कर देता है, जिस प्रकार कोढ़ मनुष्य के मनचाहे रूप को बिगाड़ देता है । (1177) अधर्म का अनुसरण करता हुआ जो राजा उपकारी मित्रों के प्रति झठी प्रतिज्ञा करता है, उससे बढ़कर क्रूर भला कौन हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । (1178) जो मित्र आपत्ति मं फँसे हुए मित्र को छोड़कर कठोरता दिखाता है, वह कृतघ्न उस पाप के कारण निस्सन्देह नरक में ही जा गिरता है । (1179) क्योंकि तीनों ही आश्रमवासी ( ब्रह्नचारी, वान प्रस्थी और संन्यासी ) ज्ञान तथा अन्न द्वारााा प्रतिदिन गृहस्थ द्वारा ही धारण किए जाते हैं ( पाले जाते हैं ), अतः गृहस्थ ही सबसे बड़ा आश्रम है । (1180) क्योंकि राजा लोग दूतों द्वारा दूर-दूर के सब विषयों को देख लेते हैं, अतएव राजा दीर्घचक्षु कहलाते हैं । (1181) जिसके जीने से अनेकों को जीवन प्राप्त होता है, उसी का जीवन सफल है । क्या पक्षी चञ्चु से अपना पेट नहीं भर लेते ? (1182) जिस स्थान और समय में और समान आयु वाले के साथ जो अच्छा अथवा बुरा कर्म किया गया है, वह उसी रूप में उसके द्वारा भोगा जाता है । (1183) जिसके करने योग्य कार्य, गुप्त योजना अथवा किए हुए परामर्श को दुसरे नहीं जानते; केवल जिसके सिद्ध हुए कार्य को ही जानते हैं, वह पण्डित ( बुद्धिमान् ) कहलाता है । (1184) जिसके कार्य में सर्दी, गर्मी, भय, प्रेम, अमीरी या गरीबी विघ्न नहीं डाल सकते, वही पण्डित (बुद्धिमान् ) कहलाता है । (1185) जिस देश का जो भी प्राणी है, वहीं पर उत्पन्न हुई दवाई उसके लिए लाभदायक होती है । यदि वह अपने देश से कहीं अन्यत्र जा बसता है, तो उसी औषध के गुणों के समान औषध ही उसके लिए लाभकारी होता है । (1186) जिस व्यक्ति के दिन बिना धार्मिक कार्यों के आते और जाते हैं, वह लोहार की धौंकनी के समान साँस लेता हुआ भी नहीं जीता । (1187) देवताओं के गुरु बृहस्पति का कथन हे कि जिसकी शक्ति, खानदान और क्रिया-कलाप का ज्ञान न हो, उसकी संगति नहीं करनी चाहिए । (1188) जिसकी अपनी समझ नहीं है, शास्त्र पढ़ने से उसका क्या लाभ ? जिसकी आँखों नहीं हैं, दर्पण उसका क्या उपकार करेगा ? (1189) जिसकी प्रसन्नता या कृपा में लक्ष्मी का वास है, वीरता में वियज है और क्रोध में मृत्यु रहती है, ऐसा व्यक्ति पूर्णतः तेजस्वी है । (1190) वह ही अधिक पुण्यवान् व्यक्ति है, जो मित्र के साथ मीठी वाणी में बोलता है, मित्र के साथ रहता है और मित्र से बातचीत रखता है । उससे बढ़कर भाग्यशाली दूसरा कोई नहीं है । (1191) यदि किसी को वश में करना हो, तो उस के भावों को समझ कर तदनुसार आचरण करना चाहिए । उसके बाद उस के हृदय में अपना स्थान बना कर शीघ्र ही उसे अपने वश में किया जा सकता है । (1192) जिसकी सांसारिक व्यवहार वाली बुद्धि भी धर्म और अर्थ का अनुसरण करती है और जो काम की अपेक्षा अर्थ को अधिक महत्त्व देता है, वही पण्डित ( बुद्धिमान् ) कहलाता है । (1193) धनवान् व्यक्ति के ही मित्र होते हैं, धनवान् के ही रिश्तेदार बनते हैं, संसार में धनवान् ही प्रभाव शाली मनुष्य माना जाता है और धनवान् ही विद्वान् तथा बुद्धिमान् समझा जाता है । (1194) जिस मेधा बुद्धि के लिए विद्वान् लोग तथा पालन करनेवाले माता-पिता आदि ईश्वर की उपासना करते हैं, उसी मेधा ( धारणावती ) बुद्धि से हे सन्मार्ग दर्शक परमेश्वर, मुझे भी शीघ्र ही मेधावी बना दो । (1195) सीता के खोए जाने पर लक्ष्मण राम को ढाढ़स देते हुए कहते हैं - ''हे राम जी, जो यह संसार की माता, सब लोगों से पूजनीय पृथ्वी है, वह भी भूकम्प से डोल जाती है । अतः संकट तो सभी पर आते हैं । (1196) ''ग्रीष्मकाल के सूर्य की सैकड़ी ज्वालाओं द्वारा शीघ्र ही मेेरे सूख जाने पर गर्मी के भयंकरता से व्याकुल हुई पथिकों की पंक्ति किससे जल प्राप्त करेगी ?'' इस प्रकार परोपकार की चिन्ताओं से ही जिसका शरीर प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, उस मार्ग के तालाब का जीवन धन्य है, परन्तु धिक्कार है उन सागरों को, जिनका जल किसी के पीने के काम भी नहीं आता । (1197) भगवान् की प्राप्ति से विमुख होकर सामान्य जनता अज्ञानान्धकार रूपी जिस रात्रि में स्थित होती है, संयमी व्यक्ति भगवत्प्राप्ति रूपी उस दिन में जागता है । अन्य प्राणी जिन विषयों में जगे या लिप्त रहते हैं, मुनि के लिए वे त्याज्य होने के कारण रात्रि के समान हैं । (1198) जब तक मनुष्य धन कमाने में लगा रहता है, तब तक उसका परिवार उससे प्रेम दिखाता है । बाद में शरीर जर्जर होने पर वयर्थ ही इधर-उधर दौड़ता फिरता है और कोई भी घर वाला उसकी बात तक नहीं पूछता । इसलिए हे मूढ बुद्धि वाले मनुष्य, भगवान की उपासना कर, और उसी की शरण में जा । (1199) जब तक यह सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ है, जब तक बुढ़ापा दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई और जब तक यह जीवन समाप्त नहीं होता, तब तक ही विद्वान् मनुष्य को आत्मा की उन्नति के लिए खूब प्रयत्न कर लेना चाहिए । जब मकान में आग लग जाए, तो उस समय पानी कि लिए कुआँ खोदने का कोई लाभ नहीं होता । (1200) जब तक यह शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है, तभी तक मनुष्य को आत्मा का कल्याण कर लेना चाहिए । प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो सकेगा । (1201) जो वेद के विरुद्ध स्मृतियाँ हैं और जो कोई कुत्सित दर्शन हैं, वे मरणोपरान्त भी कुसंस्कार-कारक होने के कारण त्याज्य हैं । ऐसे सभी ग्रन्थ अज्ञानान्धकार युक्त माने गए हैं । (1202) बन्दरों की सभा में शाखाओं को ही कोमल आसन समझकर वहाँ एवं चीं-चीं रूपी सुन्दर वचनों द्वारा तथा दाँतों और नाखूनों से काटना ही अतिथि-सेवा माननी उचित है । भाव यह है कि कोई व्यक्ति जैसा होता है, वह अपने स्वभाव के अनुसार ही सेवा के साधन प्रदर्शित करता है । (1203) जो व्यक्ति उचित आहार और विहार करता है, कार्यों में उचित ढंग से प्रयत्न करता है और उचित रूप से सोता जागता है, उसके लिए योग दुःखनाशक होता है । (1204) हम दोनों का विचार था कि तुम और हम भिन्न-भिन्न नहीं हैं और परस्पर बहुत प्रेम है । परन्तु मित्र। अब क्या हो गया है कि तुम तो तुम ही रह गये और हम भी हम ही रह गये । भाव यह है कि धन-दौलत पास आने पर सभी मित्रता दिखाते हैं, परन्तु निर्धनता की दशा आने पर प्रेम करने वाले मित्र भी साथ नहीं निभाते । (1205) हे भूमि-माता । जो तुझमें बसे गाँव हैं, जो जंगल हैं, जो तुझ पर सभाएँ होती हैं तथा जो कहीं युद्ध होते हैं, उन सब में हम तेरी प्रशंसा ही करें और कभी निन्दा न करें । (1206) यदि कोई मनुष्य गरीब है तो उसे चाहिए कि वह पहले अच्छे अथवा बुरे किसी बी उपाय से अपना उद्धार करे और उसके बाद धर्म का आचरण करे । (1207) जो राजा लोग पराधीन हुए अपने राज्य की रक्षा नहीं कर पाते, वे कभी भी उत्कर्ष से शोभित नहीं होते; जैसे कि समुद्र में स्थित पहाड़ प्रकट नहीं हो पाते । (1208) जिस-जिस ने भी पहले जिस प्रकार से जो-जो भी कर्म किया है, वह-वह अपना किया कर्म करने वाला सदैव अकेला ही भोगता है, दूसरा उसका साथ नहीं देता । (1209) हे विजयशील भाई । ( शूर्पणखा कह रही है ) जिन राजाओं के गुप्तचर और खजाना पराधीन होते हैं, वे राजा सामान्य लोगों के समान ही होते हैं; उन का कोई महत्त्व नहीं रहता । (1210) जिनके पास न विद्या है, और न तप तथा दान करते हैं, न ज्ञानी हैं, न उत्तम स्वभाव वाले हैं, न गुणी हैं और न धर्मशील हैं, ऐसे लोग पृथ्वी पर भार बने हुए हैं और मनुष्यों की आकृति में पशु बने ही घूमते फिरते हैं । (1211) जो जागता है, वही प्रशंसा का पात्र बनता है । जो जागता है, उसीको शान्ति प्राप्त होती है । और जो जागता है, सर्वस्त्रष्टा प्रभु कहता है कि मैं घर के सदृश ही उसका मित्र बन जाता हूँ, अर्थात् जैसे घर सुखद होता है, परमात्मा उसका मित्र बनकर उसे सुखी बना देता है । (1212) जब किसी के द्वारा किसी अन्य ( प्राणी ) का मांस खाया जाता है, उन दोनों के अन्तर को समझो । खाने वाले को तो क्षणभर का ही स्वाद मिलता है, परन्तु दूसरे के तो जीवन ही समाप्त हो जाता है । (1213) जो सब प्राणियों को अभय-दान देकर सर्वकल्याणार्थ संन्यास की दीक्षा लेता है, उस ईश्वर-भक्य और वेद-प्रचारक के लिए सभी स्थान प्रकाशमय बन जाते हैं । (1214) जो व्यक्ति निश्चित रूप से प्राप्य वस्तु को छोड़कर अनिश्चित लाभ के पीछे भागता है, उसकी निश्चित रूप से प्राप्य वस्तुएँ नष्ट हो जाती हैं और अनिश्चित तो नष्ट है ही । (1215) जो व्यक्ति गुणों की पहचान नहीं करता, बुद्धिमान् व्यक्ति को उसकी सेवा नहीं करनी चाहिए । जैसे ऊसर भूमि पर हल चलाने पर भी कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार उस व्यक्ति की सेवा भी निष्फल ही जाती है । (1216) जो नियुक्त नौकर कार्यकुशल और समर्थ होकर भी राजा के दूसरे प्रिय कार्य को नहीं करता ( केवल एक ही कार्य करता है), उसे मध्यम श्रेणी का मनुष्य कहा जाता है । (1217) जो बीते हुए और आने वाले समय तथा सभी को अपने नियन्त्रण में रख रहा हो और केवल जो एकमात्र आनन्द का स्रोत है, उस सबसे बड़े ब्रह्न को नमस्कार है । (1218) जो व्यक्ति अपने से अधिक बलवान् शत्रु को अपना मित्र बना लेता है, निःसन्देह वह स्वयं ही ज़हर खा रहा है । (1219) जो व्यक्ति साहस दिखाने के समय निराशा में उलझा रहता है, वह व्यक्ति निस्तेज है । अतएव उसका पिरश्रम सफल नहीं हुआ करता । (1220) जो व्यक्ति अपने सुख को पाने की इच्छा से अहिंसक प्राणियों को मराता है, वह जीते हुए भी और मर कर भी कहीं सुख प्राप्त नहीं कर सकता । (1221) स्वामी द्वारा अति कठिन कार्य में भी लगाए जाने पर जो नौकर उस कार्य को पूर्ण प्रीतिपूर्वक करता है, उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है । (1222) जो समय की परख करने वाला, मित्रों के साथ लगातार सदव्यवहार करता है, उसका राज्य, यश और प्रताप सभी वृद्धि को प्राप्त होते हैं । (1223) संसार को धारण करने वाले, सब पदार्थों को दिखाने वाले और जिनके आधार पर यह संसार चल रहा है, वे महाबली सूर्य और चाँद भी ग्रहों द्वारा ग्रसे जाते हैं । (1224) जवानी, धन-दौलत, स्वामित्व और अविवेक इनमें से एक-एक भी वस्तु मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है और एक ही स्थान पर स्थित इन चारों का समूह तो निश्चित रूप से मनुष्य को ले डूबता है । (1225) लाल कलमों की ललाई, स्तुपरुषों की परोपकारिता और असत् पुरुषों की निर्दयता- ये तीनों बातें स्वभावसिद्ध होती हैं । (1226) विधाता कंगाल को बादशाह और बादशाह को कंगाल तथा धीन को निर्धन और निर्धन को धनी बना देता है । (1227) महासमुद्र से प्राप्त रत्नों से देवताओं की तुष्टि नहीं हुई, न ही वे भयंकर विष से भयभीत हुए । अमृत की प्राप्ति तक वे तनिक भी नहीं रुके । धीरजन जिस चीज के लिए अपना मन बना लेते हैं, उसे प्राप्त करके ही छोड़ते हैं, बीच में नहीं रुकते । (1228) सूर्य के रथ का एक ही पहिया है, उसके सातों घोड़े साँप रूपी लगामों से नियंत्रित हैं, रास्ता निराधार है और उसके सारथि अरुण के पाँव नहीं हैं, फिर भी सूर्य प्रतिदिन इस विशाल आकाश के पार तक जाता है । इससे सिद्ध होता है कि बड़ों के आत्मबल में ही सफलता छिपी होती है, साधनों का उतना महत्त्व नहीं होता । (1229) जहाँ मनुष्य कष्टों से सन्तप्त हो जाए, उस सुन्दर, कल्याणकारी तथा धनधान्य से भरपूर देश को भी कुदेश ही समझना चाहिए । (1230) सूर्य और चन्द्रमा के भी ग्राहों से पीड़ित होने, हाथियों, साँपों और पक्षियों के बन्धन और बुद्धिमानों की दरिद्रता को देखकर मेरे मन में यही विचार आता है कि विधाता ही बलवान् है । (1231) जो बुढापे और रोगों को नष्ट करे, उसे ही रसायन समझना चाहिए, जैसे हरड़, दन्ती, गूगल और शिलाजीत । (1232) जो रसायनरूप है, शीतल है और परमानन्द देने वाली है, ऐसी श्रेष्ठ लोगों की संगति रूपी चाँदनी भला किसे आनन्दमग्न नहीं कर देती ? अर्थात् सभी को आनन्द में डुबो देती है । (1233) रसायनों की प्रयोग नियमानुसार करना ही अच्छा होता है । शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पूर्व निर्दिष्ट दवाइयाँ भी अच्छी होती हैं । (1234) निम्नलिखित बातें मित्र के अवगुण होते हैं - (1) रहस्य को खोल देना, (2) माँगते रहना, (3) क्रूरता, (4) चञ्चलचित्तता, (5) क्रोध, (6) झूठ बोलना और (7) जुआ खेलना । अच्छे मित्र में ये दोष नहीं होने चाहिए । (1235) राजन् । यदि तुम पृथ्वी रूपी गाय से दूध रूपी धन प्राप्त करना चाहते हो, तो आज से इसके बछड़े रूप मानव-समूह का पालन-पोषण करो । मनुष्यों के अच्छी प्रकार पुष्ट होने से यह भूमि कल्पलता के समान तुम्हें अनेक प्रकार के फल प्रदान करेगी । (1236) राजा की पत्नी ( रानी ), गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी पत्नी की माता ( सास ) तथा अपनी माँ - ये पाँयों माताएँ कहलाती हैं । (1237) निम्नलिखित लोगों से पृथक् हो जाना या उन्हें पृथक् कर देना चाहिए - (1) क्रूर राजा, (2) सब कुछ खाने वाला ब्राह्नण, (3) वश में न रहने वाली नारी, (4) बुरे स्वभाव वाला सहायक, (5) विरोधी पत्रवाहक, (6) लापरवाही करने वाला अधिकारी और (7) कृतघ्न व्यक्ति । (1238) राजा प्रसन्न होने पर नौकरों को सम्मान या इनाम देता है, परन्तु वे सम्मानित होने पर प्राण तक भी देकर उसका भला करते हैं । (1239) जैसे राजा किसी भी संकट के आने पर प्रजा की सब प्रकार से, धन आिद द्वारा रक्षा करता है, उसी प्रकार प्रजा का भी कर्त्तव्य है कि राजा पर संकट आने की स्थिति में उसकी सब प्रकार से रक्षा करे । (1240) यदि राजा धार्मिक है, तो लोग भी धार्मिक होते हैं, यदि राजा पापी है तो लोग भी पापी बन जाते हैं । लोग प्रायः राजा की ही नकल किया करते हैं । इसलिए जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है । (1241) मनु कहते हैं कि जो राजा निपुण तथा जितोन्द्रिय है, उसी का राज्य स्थिर रहता है । संकट आने पर वही बुद्धि द्वारा विजय प्राप्त कर सकता है । (1242) राज्य, भरपूर सम्पत्ति, भोग, अच्छे कुल में जन्म, रूपवान होना, पाण्डित्य, दीर्घायु तथा नीरोगता धर्म के ये फल माने जाते हैं । (1243) हे प्रभो । जैसे घोड़े के लिए खाने-पीने का प्रबन्ध किया जाता है, उसी प्रकार प्रति रात्रि तक न समाप्त होने वाले धनधान्य को गृहस्थाश्रम में हम भरते रहें । अन्न-सहित पुष्टिकारक सब प्रकार के धन से आनन्दित होते हुए हम, तेरे उपासक, दरिद्रता के कारण कभी दुःखी न हों । (1244) कमल की कली में बन्द हुआ भौंरा यह सोच ही रहा था कि '' रात बीत जाएगी, सुन्दर सवेरा होागा, सूर्य निकलेगा, कमल की शोभा खिल उठेगी,'' यह सोचते-सोचते ही, बहुत दुःख की बात है कि एक हाथी ने उस कमल को ही उखाड़ फेंका । भाव यहे हैं कि मनुष्य भिवष्य की योजनाएँ बनाता रहता है, परन्तु कालरूपी हाथी उन्हें पूरा नहीं होने देता । (1245) राम के वनगमन को, बलिराजा के विष्णु द्वारा बन्धन को, पण्डवों के वनवास को, यादवों के सर्वनाश को, राजा नल के राज्य से च्युत होने को, नाटयाचार्य के रूप में अर्जुन के पतन को और लङ्का के राजा रावण के विनाश को सोचकर यही परिणाम निकलता है कि सभी लोग काल के अधीन होकर सभी कष्ट सहते हैं; कोई किसी को काल से बचा नहीं सकता । (1246) सौन्दर्य और जवानी से सम्पन्न तथा ऊँचे कुल में भी जन्म लेने वाले व्यक्ति बिना विद्या के उसी प्रकार शोभा नहीं पाते जिस प्रकार सुगन्ध से रहित ढाक के सुन्दर फूलों की कोई शोभा नहीं होती । (1247) हे मित्र चातक । सावधान मन से तनिक सुनो कि आकाश में बादल तो बहुत हैं, परन्तु सभी बरसने वाले नहीं । कुछ तो वर्षा से भूमि को तर कर देते हैं, परन्तु कुछ यों ही गरजते रहते हैं । इसलिए जिस-जिस को देखो, सभी के सामने दीन होकर मत गिड़गड़ाओ । भाव यह है कि संसार में उदारतापूर्वक दान देने वाले बहुत कम लोग हैं; धन के अधिमानी तो बहुत हैं । अतः आवश्यकता पड़ने पर किसी उदार से ही याचना करनी चाहिए; प्रत्येक से नहीं । (1248) बाणों से हुआ घाव भर जाता है और तलवार से कटा हुआ स्थान भी ठीक हो जाता है, परन्तु वाणी से किया हुआ भयंकर घाव कभी ठीक नहीं हो पाता; अर्थात् वाणी से कहा हुआ कटु वचन सदा ही दुखाता रहता है । (1249) धनवान् लोग प्रायः दूसरों की पीड़ा का अनुभव नहीं करते । देखो, लक्ष्मीपति विष्णु भगवान् अपने भार से व्याकुल हुए शेषनाग पर आराम से शयन करते हैं । ( बेचारे शेषनाग के कष्ट की उन्हें चिन्ता नहीं, क्योंकि वे धनी हैं, लक्ष्मीपति हैं ।) (1250) लंकापति का यश जो नष्ट हुआ और राम कीर्ति के पात्र बने, यह सब आदिकवि का ही प्रभाव है । राजाओं को चाहिए कि किवयों को नाराज न करें । (1251) सच्चाई के व्रत के व्रती तेजस्वी लोग अपने प्राणों को तो छोड़ सकते हैं, परन्तु ऐसी प्रतिज्ञा को कभी नहीं त्यागते, जो लज्जा आदि अनेक गुणों को जन्म देती है, जो अत्यन्त पवित्र अपनी माता के समान है और जो सदा उनके हृदय में घर बनाये रहती है । (1252) हो सकता है कि बहुत दबाने से रेत से भी तेल निकल आए, हो सकता है कि प्यास से व्याकुल व्यक्ति कहीं मरुमरीचिका से भी पानी प्राप्त कर पी ले और यह भी सम्भव है कि कोई घूमता- फिरता व्यक्ति कहीं पर खरगोश के सींग प्राप्त कर ले, तो भी अपनी बात पर अड़े हुए मूर्ख व्यक्ति के चित को समझा पाना असम्भव है । भाव यह है कि अन्य असम्भव बातें यदि सम्भव हो भी जायें, तो भी दुराग्रही व्यक्ति को नहीं समझाया जा सकता । (1253) कुत्ता अपने स्वामी के आगे पूँछ हिलाता है, उसके चरणों में जा गिरता है, जमीन पर लेट कर मुँह और पेट दिखाता है पर गजराज चुपचाप देखता रहता है और अनेक बार के आग्रह के बाद खाता है । तात्पर्य यह है कि ओछे लोग खुशामद करके जो कुछ प्राप्त करते हैं, गम्भीर लोगों को वही वस्तु ग्रहण करने के लिए दूसरे आग्रह करते हैं । (1254) लोभी व्यक्ति को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर और नम्रता दिखाकर, मूर्ख को मनमानी करने की स्वतन्त्रता देकर और सत्य बोलकर समझदार व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाना चाहिए । (1255) लालची लोगों के यश का नाश हो जाता है, पीठ पीछे निन्दा करने वालों की मैत्री नष्ट हो जाती है, अकर्मण्य का परिवार नष्ट हो जाता है, धन के लोभी का धर्म नष्ट हो जाता है, शराब-जुए आदि बुरे व्यसनों सि विद्या की शक्ति नष्ट हो जाती है, कंजूल का सुख नष्ट हो जाता है और ऐसे रााजा का राज्य नष्ट हो जाता है, जिसके मंत्री लापरवाह होते हैं । (1256) लोभी व्यक्ति का भिखारी, मूर्खों का समझाने वाला, व्यभिचारिणी स्त्रियों का पति और चोरों का चाँद शत्रु होता है । (1257) जो राजा प्रजाओं पर कृपा करते हैं, वे ही उन्नती करते हैं और जो प्रजा का विनाश करते हैं, निःसन्देह उनका भी नाश हो जाता है । (1258) तप और दान से बनाया गया परलोक सुखकारी और पवित्र होता है । जो सन्तान श्रेष्ठ कुल में जन्म लेती है, वह इस लोक में भी और परलोक में भी सुख का कारण बनती है । (1259) संसार में दूसरे को हित का उपदेश देना बहुत सरल है परन्तु उसके अनुसार आचरण करना कठिन है । (1260) लोभ ही पाप का आधार है और लोभ ही पाप को जन्म देता है । द्वेष और क्रोध आदि को उत्पन्न करने वाला लोभ ही सब पापों की जड़ है । (1261) यदि लालच है तो अन्य अवगुणों से क्या; चुगलखोरी यदि है तो पापों से क्या ? सच्चाई यदि है तो तप से क्या ? यदि शुद्ध है तो तीर्थ से क्या ? सज्जनता यदि है तो गुणों से क्या ? यदि सुयश है, तो आभूषणों से क्या ? उत्तम विद्या यदि है तो धन से क्या और अपयश यदि है तो मृत्यु से क्या ? (1262) लोभ से क्रोध का जन्म होता है, क्रोध से शत्रुता पैदा होती है और शत्रुता से शास्त्रों का विद्वान् और चतुर पुरुष भी नरक में पहुँच जाता है; अर्थात् बहुत दुःख प्राप्त करता है । (1263) लोभ के कारण बुद्धि चंचल हो उठती है, लोभ तृष्णा को उत्पन्न करता है, तृष्णा से व्याकुल मनुष्य इस लोक तथा परलोक में भी दुःख को प्राप्त करता है । (1264) सांसारिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान जिससे प्राप्त करना हो, ज्ञान-प्राप्ति से पूर्व छात्र को उसे सादर नमस्कार करना चाहिए । (1265) लौकिक साधुओं की वाणी कथनीय अर्थ का अनुसरण करती है, परन्तु पुरातन ऋषियों की वाणी के पीछे कथनीय अर्थ चला करते थे; अर्थात् वे जो कुछ कह देते थे, वही हो जाता था । (1266) हे केवड़े, टेढ़ा होने पर भी, कीचड़ में उत्पन्न होने पर भी, दुष्प्राप्य होने पर भी, सर्पों द्वारा घिरे होने पर भी, फल रहित होने पर भी और काँटेदार होने पर भी, तुम्हारे फूलों से उत्पन्न सुगन्ध के कारण तुम ( सबके ) मित्र हो गये हो । ठीक ही है कि एक भी बड़ा गुण सब अवगुणों का नाश कर देता है । (1267) अपनी बात वहीं कहनी चाहिए, चहाँ उसके कहने से कुछ लाभ हो । तभी उसका प्रभाव देर तक रहता है, जैसे सफेद कपड़े पर रंग स्थायी रूप से चढ़ जाता है । (1268) कठोर लेप, मूर्ख नारियों, केंकड़े, मछलियों, नीले रंग और शराबी की पकड़ अथवा हठ दृढ़ होते हैं अर्थात् ये जिस स्थान या बात पर अड़ जाते हैं, वहीं दृढ़ हो जाते हैं । (1269) वायु जंगल को जलाने वाली भयंकर आग की तो मित्र ( सहायक ) बन जाती है, परन्तु वही बेचारे दुर्बल दीपक को बुझा देती है । सच है कि दुर्बल का कोई साथी नहीं होता । (1270) रागी लोग वन में जाकर भी दोषों से घिर जाते हैं और घर में रहता हुआ भी व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों को वश में करता हुआ तप कर सकता है । जो व्यक्ति श्रेष्ठ कर्मों में लगा रहता है, और राग से रहित है, उसके लिए तो घर ही तपोवन है । (1271) मृगों का मांस खानेवाले वन में रहनेवाले शेर, भूखे होने पर भी घार नहीं खाते । ठीक इसी प्रकार संकटों से घिर जाने पर भी ऊँचे वंश के लोग न्याय-मार्ग का उल्लंघन नहीं करते । (1272) कोई व्यक्ति वन में हो या युद्ध के मैदान में हो, या शत्रु, जल अथवा अग्नि के मध्य में भी हो, महासागर में हो अथवा पहाड़ की चोटी पर हो, सोया हो या पागल हो गया हो अथवा संकटों से भी घिरा हो, तो भी पूर्व जन्म में उसके द्वारा किए गए शुभ कर्म उसको बचा ही लेते हैं । (1273) जिनसे हमारा जन्म हुआ था, वे तो बहुत पूर्व ही संसार से विदा हो चुके हैं । जिनके साथ हम बड़े हुए, वे भी अब स्मरण करने योग्य हो गये हैं; अर्थात् संसार में नहीं है । इस समय हमारी दशा ऐसी है कि हम प्रतिदिन जरा-जीर्ण होते जा रहे हैं । जैसी नदी के रेतीले तट पर उगे पेड़ों की दशा होती है, वही दशा हमारी भी है; पता नहीं किस समय नदी की बाढ़ में वे पेड़ बह जायें और किस समय हम भी संसार से विदा हो जाएँ । (1274) हम महात्मा लोग तो वृक्ष की छाल पहन कर ही प्रसन्न हैं और तुम धनी लोग बढ़िया वस्त्र पहनकर प्रसन्न हो । तुम्हारे वस्त्र हमारे वल्कल से भले ही विशेष दिखाई देते हों, परन्तु हम-तुम में सन्तोष बराबर है । गरीब तो वह होता है, जिसकी कामनाएँ बढ़ी हुई हैं । यदि मन में कामनाएँ नहीं हैं और वह संतुष्ट है, तो धनी और निर्धन में कोई अन्तर नहीं है । (1275) जो व्यक्ति व्यायाम करता है, चाहे वह आयु, सौन्दर्य तथा अन्य गुणों से रहित भी हो, सुन्दर दिखाई देने लगता है और उल्टा-सीधा खाया हुआ भी उसे पच जाता है । (1276) भले ही राज्य न हो, परन्तु बुरा राज्य नहीं होना चाहिए । भले ही कोई मित्र न बने, परन्तु दुष्ट व्यक्ति मित्र नहीं होना चाहिए । भले ही कोई शिष्य मिले या न मिले, परन्तु बुरा शिष्य नहीं होना चाहिए । भले ही कोई पत्नी बने या न बने, परन्तु बुरी पत्नी नहीं होनी चाहिए । (1277) इन्द्र के भवनों में भी मूर्ख जनों की संगति की अपेक्षा पहाड़ों के दुर्गम स्थानों पर जंगली लोगों के साथ घूमना कहीं अच्छा है । (1278) झूठ बोलने की अपेक्षा चुप रह जाना अच्छा है । पराई स्त्रियों से सम्पर्क रखने की अपेक्षा नपुंसक हो जाना कहीं अच्छा है । चुगलखोरों की बातों का मजा लेने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है । और, दूसरे के धन द्वारा सुख प्राप्त करने की कामना करने से भीख माँग कर खा लेना अच्छा है । (1279) बन्धुओं के मध्य निर्धन होकर जीवन बिताने की अपेक्षा बाघों और हाथियों से भरपूर जंगल में निवास, पेड़ों के मध्य पके फलों का भोजन, तिनकों की शय्या और वल्कल का पहनावा कहीं अच्छा है । (1280) एक गुणवान् पुत्र सैकड़ों मूर्ख पुत्रों से कहीं अच्छा है । एक ही चाँद अंधेरे को दूर करना है, परन्तु सैकड़ों तारे नहीं । (1281) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि अपने सदुश कुल की कुलीन कन्या का ही वरण करे, चाहे वह शरीर से भले ही सुन्दर न हो परन्तु स्वभाव से सुन्दर होनी चाहिए । और अपने से नीच कुल में विवाह नहीं करना चाहिए । (1282) मुख झुर्रियों से घिर गया है, सिर सफेद बालों से ढक चुका है, सभी अंग ढीले पड़ रहे हैं, परन्तु लालासा जवान होती जा रही है । (1283) छात्र को शराब, मांस, सुगन्धित द्रव्यं, मालाओं, उत्तेजक रसीले पदार्थों, स्त्रियों, काम, क्रोध, लोभ, नृत्य तथा गाने-बजाने का परित्याग कर देना चाहिए । (1284) जब तक समय प्रतिकूल हो, तब तक शत्रु को कंधे पर रखकर भी ढो लेना चाहिए । अनुकूल समय आने पर उसे ऐसे नष्ट कर देना चाहिए जैसे घड़े को पत्थर पर फेंककर तोड़ दिया जाता है । (1285) जिसके शरीर के प्रत्येक भाग से संसार द्वारा सर्वोत्तम प्यार किए जाने योग्य शील ( उत्तम स्वभाव) प्रकट होता है, उसके लिए आग जल के समान शीतल, सागर क्षणभर में छोटी सी नहर-सा, मेरुपर्वत छोटी सी शिला-सा, सिंह मृग-सा, साँप फूल की माला-सा और विषैला पानी अमृत की वर्षा सा बन जााता है । भाव यह है कि उत्तम स्वभाव होने पर दुसरों के सहयोग से सभी कठिनाइयाँ समाप्त हो जाती हैं । (1286) संसार में बिना किसी कारण वाणी की कठोरता अत्यन्त उद्वेग का कारण होती है । अतः अप्रिय वाणी का उच्चारण नहीं करना चाहिए । प्रिय वाणी के द्वारा ही लोग अपने बन जाया करते हैं । (1287) सत्य और मधुर वाणी, दया, दान, दीन-दुःखियों कि रक्षा और भली प्रकार से सज्जनों की सङ्गति करना - ये ही सत्पुरुषों के व्रत हैं । (1288) प्रभो । मेरे मुख में वाक्शक्ति, नासिका-छिद्रों में प्राणशक्ति, आँखों में देखने की शक्ति और कानों में सुनने की शक्ति बनी रहे । मेरे बाल सफेद न हों, दाँत लाल न हों और मेरी भुजाओं में बहुत शक्ति बनी रहे । (1289) श्रद्धालु और विशेषरूप से पूछने वाले को ही कोई बात बतानी चाहिए । श्रद्धा से रहित को कही हुई बात तो ऐसी ही होती है, जैसे जंगल में रोना व्यर्थ होता है । (1290) क्रोधाविष्ट व्यक्ति के लिए कहीं भी कथनीय या अकथनीय कुछ भी नहीं होता । क्रोध से पूर्ण व्यक्ति के लिए कुछ भी ऐसा नहीं कहा जा सकता, जिसे वह नहीं भी न कर बैठे और जिसे वह मुख से बोलने न पाए । अर्थात् क्रोधाविष्ट सब का बुरा-भला कर जाता या बोल जाता है । (1291) वह गतिशील जीवात्मा अभौतिक है, अतएव कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, परन्तु यह भौतिक शरीर अन्त में जलकर राख हो जाता है । हे कर्मशील जीवात्मन् । तू सर्वरक्षक ईश्वर ( औ३म् ) का स्मरण कर, सामर्थ्य प्राप्ति के लिए उसी का स्मरण किया कर और अपने कर्मों का निरीक्षण किया कर, ताकि तू सदा शुभ कार्य ही करे । (1292) कौतुकपूर्ण वृत्तान्त, निर्मल विद्या, कस्तुरी की अलौकिक सुगन्ध - ये तीनों वस्तुएँ जैसे जल में तेल फैल जाता है, वैसे ही स्वयमेव फैल जाती हैं ; इन्हें रोकना कठिन है । (1293) भोग्य पदार्थ के प्रति वासना का उद्दीप्त न होना ही सब से उत्कृष्ट वैराग्य है । अहंकार की समाप्ति हो जाना ही ज्ञान की परम सीमा है । (1294) जैसे फटे-पुराने कपड़ों का त्याग करके मनुष्य अन्य नये कपड़े पहन लेता है, उसी प्रकार जर्जर हुए शरीरों को छोड़कर यह जीवात्मा नये शरीर को धारण करता है । (1295) मनुष्य को 'विघस' अथवा 'अमृत' नामक भोजन करना चाहिए । 'विघस' का अर्थ है - सबके खाने के बाद बचा हुआ भोजन और 'अमृत' का अर्थ है - यज्ञ में आहुति देने के बाद बचा हुआ भोजन । (1296) धन, सम्बन्धी, आयु, कर्म और पाँचवीं विद्या ये सभी सम्मान योग्य वस्तुएँ हैं, परन्तु पहली से आगे की वस्तुएँ क्रमशः अधिक मान योग्य हैं, जैसे धन की अपेक्षा सम्बन्धी और विद्या सबसे अधिक माननीय होती है । (1297) हृदय में रहने वाली सरसवती देवी की सवारी बने हुए राजहंसों से ही मानो शिक्षा प्राप्त करके जो कवि दूध और पानी को पृथक् करने में चतुर और विवेकी हो चुके हैं, वे ही सर्वत्र विजय प्राप्त करते हैं । (1298) धन से धर्म की और प्रयोग करने से विद्या की रक्षा होती है । कोमल व्यवहार से राजा को वश में किया जा सकता है और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है । (1299) जो लोग विदेश में भी सुखपूर्वक रह सकते हैं, ऐसे विद्वान् देश की उथल-पुथल और कुल के नाश की उपेक्षा कर देते हैं । (1300) मनुष्य तब तक अच्छी तरह विद्या, धन और शिल्प नहीं प्राप्त कर सकता है, जब तक कि वह प्रसन्न मन से एक देश से दूसरे देश को नहीं जाता । (1301) जो ज्ञान तथा कर्म, दोनों का महत्त्व साथ-साथ समझ लेता है, वह कर्म द्वारा मृत्यु को पार करके ज्ञान द्वारा मुक्ति को पा लेता है । अतः कर्म और ज्ञान दोनों का समान महत्त्व है । (1302) विद्या, तप अथवा बहुत धन- यह सभी कुछ परिश्रम से प्राप्त किया जा सकता है । शरीरधारियों में यह परिश्रम विचारपूर्वक ही रहता है । अतः परिश्रम को ही कार्य की सपलता में मुख्य समझना चाहिए । (1303) निर्मल बुद्धि वाले विद्या-तीर्थ में, साधुजन सत्यतीर्थ में, मलिन मन वाले गंगा-तीर्थ में, धनाढय दान तीर्थ में, कुलांनाएँ लज्जा-तीर्थ में, योगी ज्ञान-तीर्थ में और राजा युद्ध में अपने आप का प्रक्षालन करते हैं । (1304) विद्या नम्रता पैदा करती है, नम्रता से मनुष्य अधिकारी बनता है, अधिकारी बन जाने पर स्थायी धन मिल जाता है, धन से फिर धर्म के कार्य होते हैं और उनसे फिर सुख मिल जााता है । (1305) विद्या तो मनुष्य का विशेष सौन्दर्य तथा अत्यन्त छिपा हुआ धन है । विद्या सब भोग्य पदार्थ, यश और सुख देने वाली है । यह तो गुरुओं की भी गुरु है । विदेश जाने पर विद्या ही अपना सम्बन्धी है विद्या ही सबसे श्रेष्ठ देवता है । विद्या का मान राजा भी करते हैं; वे धन का मान नहीं करते । जो विद्या से रहित है, वह तो निरा पशु है । (1306) विद्या का मद, धन का मद और तीसरा कुल का मद - ये तो घमण्डियों के लिए मद होते हैं परन्तु यही सज्जनों के लिए दम हैं, अर्थात् सज्जन इन्हीं को प्राप्त करके नम्र हो जाते हैं । (1307) विदेशों में विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोगी का मित्र दवाई होती है और मरने वाले का मित्र उसका धर्म ( किया हुआ शुभ कार्य ) होता है । (1308) भला विद्या और विनय से युक्त मनुष्य किसका चित्त नहीं हर लेता ? अर्थात् उसकी ओर सभी खिंचे चले आते हैं । सोने और मणि का संयोग भला किसकी आँखों को आनन्द नहीं देता ? अर्थात् सभी को आनन्द देता है । (1309) जिनका मन ज्ञान की प्राप्ति में ही आनन्द लेता है, जिन्होंने उत्तम स्वभाव की शिक्षा को जीवन में धारण किया हुआ है, जो सत्यव्रती हैं,जिनमें अभिमान आदि दुर्गुणों की मलिनताएँ नहीं हैं, जो संसार के कष्टों को दूर करने से ही शोभा पा रहे हैं और जो वदे-विहित कर्मों के अनुसार ही परोपकार में लगे हुए हैं, ऐसे लोगों का ही जीवन प्रशंसनीय है । (1310) जिनके लिए विद्या विवाद का, धन मद का, बुद्धि-वैभव दूसरों को धोखा देने का और अत्युन्नति लोक-तिरस्कार का साधन है, उनके लिए प्रकाश भी अन्धकार है । (1311) दुष्ट लोगों की विद्या झगड़ने के लिए, धन अभिमान करने के लिए और बल दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होता है । परन्तु सज्जनों के ये गुण इससे विपरीत होते हैं । उनकी विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति अपनी तथा दूसरों की रक्षा के लिए होती है । (1312) विद्या विद्वान् के पास आकर कहती है - ''तू मेरी रक्षा करना, क्योंकि मैं तेरा खजाना हूँ । मेरा ज्ञान डाह करने वाले, कुटिलता वाले और परिश्रमहीन को मत देना, जिससे मैं शक्तिशाली बनी रहूँ ।'' (1313) विद्वत्ता और राजधर्म की तुलना कभी नहीं हो सकती । रााजा का मान तो अपने देश तक ही सीमित होता है, जबकि विद्वान् सर्वत्र पूजा जाता है । (1314) विद्वानों के साथ बैठकर विचार-विमर्श, महाभारत का अध्ययन, अच्छे-अच्छे काव्य-ग्रन्थों का अध्ययन और चिन्तन, सितार का बाजा, सुन्दर गाया गया गान, प्रिय भार्या और वैसे ही प्रिय और अनुकूल लगने वाला मित्र - ये सात वस्तुएँ इस संसार में शोक को तत्काल दूर कर देती हैं। (1315) जो लोग क्रोध से परिपूर्ण शत्रु से शत्रुता करके लापरवाह हो जाते हैं, वे तो घास में जलती ज्वाला को फेंक कर आती हूई वायु की ओर मुँह कर के सो जाते हैं । अर्थात् ऐसे लोग शत्रु की क्रोधाग्नि में जल जाते हैं । (1316) रूखी-सूखी भूमि को भी यदि विचार-विमर्श पूर्वक ढंग से खोदा जाए, तो वह फल अवश्य देगी; जैसे दो अरणियाँ मथने पर आग उत्पन्न कर देती हैं । (1317) इस श्लोक में 'गो' शब्द गाय, भूमि, इन्द्रियाँ और वाणी इन अर्थों में प्रयुक्त है । गो-रस ( दूध, दही, मक्खन आदि ) के बिना मनुष्यों को भोजन में क्या रुचि है ? भूमि की फसल के बिना राजाओं को राज्य में क्या दिलचस्पी है ? नेत्र आदि इन्द्रियों की शोभा के बिना स्त्रियों में पुरुषों को क्या आकर्षण है ? वाणी के पदलालित्यादि के बिना पण्डितों को भाषा में क्या आनन्द मिलने वााला है ? (1318) दवाइयों के बिना भी रोग परहेज से नष्ट किया जा सकता है । परन्तु यदि कोई परहेज नहीं करता, तो सौ दवाइयों से भी उसका रोग शान्त नहीं हो सकता । (1319) जब तक शत्रु-पक्ष का सर्वनाश नहीं किया जाता, तब तक चैन से नहीं रहा जा सकता । जैसे जब तक जल धूलि पर गिरकर उसे कीचड़ नहीं बना देता, तब तक वह आगे नहीं बढ़ता । (1320) महात्माओं के स्वभाव में निम्न बातें स्वतः पाई जाती हैं - (1) संकट में धैर्य, (2) सम्पत्ति-काल में क्षमाशीलता, (3) सभा में वाक्चातुर्य, (4) युद्ध स्थल में वीरता, (5) कीर्ति के प्रति लगाव और (6) वेदाध्ययन का स्वभाव । (1321) ब्राह्नणरूपी वृक्ष की जड़ सन्ध्या ( भगवदभजन ) है । वेद उसकी शाखााएँ हैं और धर्म-कार्य उसके पत्ते हैं । अतः ब्राह्नण को मूल की रक्षा प्रयत्न से चाहिए ) । यदि जड़ ही कट गई शाखाएँ और पत्र हो ही नहीं सकते । (1322) सज्जन व्यक्ति प्राकृतिक रूप से ही इस प्रकार सुन्दर होता है, जैसे विमल सूर्य चमकता है, चन्द्रमा प्रिय लगता है, दर्पण स्वभाव से ही सुन्दर दिखाई देता है, तथा शिव की हँसी का सगा भाई कैलाश पर्वत चमचमाता है । (1323) कार्यकुशल लोगों की उत्कृष्ट वचनों वाली वाणियाँ विरुद्ध बोलने वाले और बात करने में कुशल लोगों को गूँगा बना देती हैं, अर्थात् वे उनके सामन बोल नहीं पाते । साथ ही, ऐसी वाणियाँ मूर्ख लोगों को अपने अनुकूल कर लिया करती हैं । (1324) जिन्होंने पुण्य न किया हो, उनकी वाणी इस तरह नहीं निकलती जो विविध प्रकार के वर्णों से अलंकृत हो, श्रुति-सुखद हो, शत्रुओं के हृदय को भी आहलादित करने वाली हो और जिसमें शब्द आसानी से समझ आने वाले तथा भावगाम्भीर्य से युक्त होों । (1325) विवेकशील व्यक्ति के सम्पर्क में आया हुआ गुण सौन्दर्य को प्राप्त हो जाता है, जैसे सोने में जड़ा हुआ रत्न स्वयमेव शोभा देने लगता है । (1326) प्राणिमात्र का पालन-पोषण करने वाली, धन की आधार-भूत, सबको निवास देने वाली, अपने अन्दर सुवर्णादिक चमकीले पदार्थ रखने वाली, संसार को सुख देने वाली, प्राणिमात्र की हितकर अग्नि को अपने अन्दर धारण करने वाली और इन्द्र ( ईश्वर, सूर्य या राजा ) से सुपुष्ट की जाने वाली यह भूमि हमें धन-धान्य से सम्पन्न करे । (1327) हे उपकार में लगे हुए ज्ञान-दान करने वाले विद्वानो । आप सभी से निवेदन है कि आप हमें सदुपदेश दीजिए, ताकि हम पापों से बच सकें । कुटिलता से प्राप्त होने वाली दुष्ट सम्पदा से हमें बचाइये । हम हृदय से अच्छी वाणी द्वारा आपको पुकराते हैं । हे विद्वानो । हमारी प्रार्थना सुनकर हमें वह मार्ग बताइए, जिससे हमारा कल्याण हो । (1328) विष विष से ही नष्ट होता है, वज्र वज्र से तोड़ा जाता है, गजेन्द्र शक्तिशाली गजेन्द्र के द्वारा ही पकड़ में आता है, मछली ही मछली को निगलती है और बन्धु ही बन्धु का नाश करता है । रावण का नाश करने के लिए राम ने विभीषण को ही आदर दिया था । (1329) विष और विषयों में बहुत फर्क है । विष तो खाये जाने पर ही मारता है, जबकि विषय चिन्तन- मात्र से ही नष्ट कर देते हैं । (1330) यदि विष में भी अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । गन्दी जगह से भी सोना उठा लेना चाहिए । नीच व्यक्ति से भी श्रेष्ठ विद्या ले लेनी चाहिए और नीच कुल में भी यदि उत्तम स्त्री हो, तो भी उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । (1331) भूख और प्यास से पीड़ित व्यक्तियों के लिए न तो वीाणा या बांसुरी के स्वरों में कोई आकर्षण होता है, न चन्दन और चन्द्रमा की चाँदनी में । उनके लिए बिछौना, सवारी गाड़ी और जवान नारियाँ भी आकर्षण का विषय नहीं होतीं । उनके लिए तो मुट्ठी में आए हुए भात या अन्य खाद्य पदार्थ ही सबसे प्रिय वस्तु होते हैं । (1332) पेड़ों को काटकर, पशुओं को मारकर और खून का कीचड़ बनाकर यदि स्वर्ग कोजाया जा सकता है, तो बताओ नरक में पहुँचने का क्या ढंग है ? भाव यह है कि ये कर्म स्वर्ग के साधन नहीं हैं, ये तो नरक के ही साधन हैं; दुःख के कारण हैं । (1333) मनुष्य को चाहिए कि वह अपने चरित्र की यत्न-पूर्वक रक्षा करे । धन तो आता और जाता रहता है । धन के नष्ट होने से मनुष्य नष्ट नहीं होता, परन्तु चरित्र के नष्ट होने से वह नष्ट हो जाता है अर्थात् समाज में उसका मान नहीं रहता, जो मृत्यु के समान ही है । (1334) जिन कुलों में चरित्र बना रहता है, चाहे उनके पास थोड़ा भी धन हो तो भी वे श्रेष्ठ कुल कहलाते हैं और महान् यश को प्राप्त करते हैं । (1335) समुद्रों में वर्षा का कोई लाभ नहीं होता, भरे पेट वालों के लिए भोजन का कोई महत्त्व नहीं रहता, धनियों को दान देने का कोई लाभ नहीं होता और दिन में दीपक जलाना भी व्यर्थ ही है । (1336) बुढ़ापे में पत्नी का मरना, धन का रिश्तेदारों के हाथों में चले जाना और भोजन के लिए पराश्रित होना - ये तीन बातें मनुष्यों के लिए अतीव दुःख दायी हैं । (1337) जो व्यक्ति उन्नतिशील है, जिसमें प्रभाव और तेज है, जो कार्य करने में सदा तत्पर रहता है, तथा जो उद्यमशील है, उसे रोजी ( वृत्ति ) का भय कैसे होगा ? अर्थात् रोजी-रोटी का उसके लिए अभाव नहीं है । (1338) घोड़ा बहुत तेज दौड़ने की इच्छा रखता है, परन्तु साँस के फुल जाने के कारण उसके पाँव उसकी इच्छा के अनुसार नहीं दौड़ पाते । इसी प्रकार मनुष्य में चञ्चलता स्वभावतः सब जगह पाई जाती है, परन्तु शरीर की असमर्थता के कारण उसकी मन की कामनाएँ मन में ही रह जाती हैं । (1339) वेदों और स्मृतियों द्वारा निर्दिष्ट बातें, श्रेष्ठ लोगों का चाल-चलन और अपनी आत्मा के अनुकूल सबसे व्यवहार करना - ये चार व्यावहारिक धर्म के लक्षण बताए गये हैं । (1340) वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वेद ही मेरे परम बल हैं, वेद ही मेरे परम आश्रय हैं और वेद ही मेरे परम ज्ञान हैं । (1341) वेद सम्पूर्ण धर्मों ( कर्त्तव्यों ) के मूल हैं और वेदज्ञों द्वारा रची गई स्मृतियाँ और उनके स्वभाव, सत्पुरुषों के आचरण और अन्तरात्मा की तुष्टि भी धर्म के मूल हैं । (1342) जिसमें यह सम्पूर्ण संसार एक आश्रय वाला होता है, उस बुद्धि में स्थित सत्स्वरूप ब्रह्न को विद्वान् मनुष्य ज्ञान की दृष्टि से देखता है । उसी ब्रह्न में यह सारा विश्व प्रलय के समय सिमटकर रह जाता है और सृष्टि की उत्पत्ति के समय पुनः उसी से प्रकट होता है । वह सर्वव्यापक परमात्मा सभी उत्पन्न हुए पदार्थों में ओतप्रोत है । (1343) वैराग्य का फल बोध है, बोध का फल तृष्णा का क्षय है, तृष्णा के क्षय का फल आनन्द की अनुभूति करना और उससे सच्ची शान्ति प्राप्त करना है । (1344) बहुत पक्की शर्तों पर भी श्त्रु से सन्धि नहीं करनी चाहिए । खूब तपा हुआ पानी भी अग्नि को बुझा ही देता है । (1345) जो व्यक्ति संकट आने पर अज्ञानवश विलाप करता है, उसके विलाप से रोना-धोना ही बढ़ता है परन्तु संकट का अन्त नहीं होता । (1346) जो धैर्यशाली व्यक्ति संकट के आने पर या धन के संकटकाल में अथवा प्राणहारी भय के आने के समय अपनी बुद्धि से विचार कर बचने का कोई रास्ता ढूँढ लेता है, वह दुखी होकर पछताता नहीं है । (1347) सभी संकटों के आने पर जिसकी बुद्धि डगमगाती नहीं है, वही अपनी बुद्धि के प्रभाव से उन संकटों से पार हो जाता है । (1348) वृद्धावस्था बाघिन की तरह धमकाती हुई सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं के समान शरीर पर प्रहार कर रहे हैं । आयु फूटे घड़े में से जल के बहने के समान निकलती जा रही है तो भी आश्चर्य की बात है कि लोग अहित करने में लगे रहते हैं । (1349) क्योंकि बाघ बहुत आलसी होता है, साँप भयभीय हो जाता है और चुगलखोर गरीब होता है, इसी कारण लोग जी रहे हैं । ( अन्यथा ये तीनों दुष्ट प्राणी, लोगों को शीघ्र ही नष्ट कर दें । ) (1350) वैद्य की विद्वत्ता केवल इन्हीं बातों में है कि (1) रोग को समझ ले और (2) पीड़ा को हटा दे । वैद्य किसी की आयु बढ़ाने में समर्थ नहीं हो सकता । (1351) व्यायाम से सधे हुए शरीर वाले और पैरों पर मालिश करने वाले मनुष्य के पास रोग इसी प्रकार नहीं फटकते, जैसे छोटे प्राणी शेर के पास नहीं आते । (1352) जो व्यक्ति दुष्ट लोगों को अमृत बरसाने वाले सुन्दर वचनों से सज्जनों के मार्ग पर चलाना चहाता है, वह जंगली हाथी को कोमल कमल के तन्तुओं से रोकने का प्रयत्न करता है, वह हीरे को फूल की नोक से काटने का प्रयत्न करता है और वह खारे सागर में शहद की एक बूँद डालकर मीठा बना देना चाहता है । भाव यह है कि जैसे बताए हुए उपर्युक्त साधनों से कार्यों में सफलता नहीं मिल सकती, उसी प्रकार मीठे वचनों से दुष्टों को सज्जन नहीं बनाया जा सकता । (1353) आकाश में एक ही तरफ उड़ने वाले पक्षी भी संकट से घिर जाते हैं । अथाह सागर में से भी मछलियों को निपुण लोग पकड़ लेते हैं । बुरा क्या है और अच्छा क्या है, किस स्थान पर जाने से लाभ हो सकता है इत्यादि कहना कठिन है, क्योंकि काल ने तो सभी जन्तुओं की ओर अपने हाथ फैला रखे हैं, जिनके द्वारा वह दूर से ही प्राणियों को पकड़ लेता है । भाव यह है कि कुछ भी कर लो, परन्तु मृत्यु से बचना असम्भव है । (1354) जो लोग धूर्त लोगों के साथ धूर्तता का व्यवहार नहीं करते, वे बुद्धिहीन लोग पराजित हो जाते हैं । दुष्ट लोग अन्दर प्रवेश करके ऐसे मूढ़ लोगों को इस प्रकार मार देते हैं, जैसे तेज बाण नंगे अंगों को काट डालते हैं । (1355) मनुष्य उत्तम कर्म करने से शुभ कर्म करने की कला को समझता है, फिर दीक्षा से कार्य-दक्षता प्राप्त करता है, कार्यदक्षता से श्रद्धा को प्राप्त करता है और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है । (1356) वायु हमारे लिए कल्याणकारी हो, सूर्य का ताप हमारे लिए मंगलमय हो और गरजता हुआ मंगलमय बादल हमारे चारों ओर कल्याण की ही वर्षा करे । (1357) शक्ति की कमी के कारण जो नम्र हो चुका है, किसी के लिए लाभप्रद न होने के कारण जो हीन बन चुका है, तथा जिसका समाज में मान नहीं रहा, वह उस तिनके के समान है, जो पैरों से ही रौंदा जाता है । (1358) शुभ अवसर की प्रतीक्षा करने वाले शक्तिशाली विद्वान् राजा को भी चाहिए कि वह कठोर वचन कहने वाले नीच पापी जनों के मध्य में कठिन समय बिता दे । क्या अति बलवान् भीम ने विराट राजा के यहाँ हाथ से कलछी चला कर, धूएँ से मलिन होकर और कठोर परिश्रम करते हुए रसोइए के समान अपना समय नहीं बिताया ? अर्थात् भीम को भी अवसर के अनुसार तुच्छ कार्य करना ही पड़ा । (1359) आग को पानी से बुझाया जा सकता है, सूर्य की धूप का बचाव छाते से हो सकता है, मदमस्त हाथी को तेज अंकुश से वश में किया जा सकता है, बैल और गधे को डण्डे से भगाया जा सकता है, विविध दवाइयों द्वारा रोग नष्ट किया जा सकता है और विषहारक साधनों से विष का प्रभाव मिटाया जा सकता है । इस प्रकार सभी समस्याओं का निदान शास्त्रों में बताया गया है, परन्तु अल्पज्ञानी मूर्ख को वश में करने की कोई दवाई नहीं है । (1360) हो जाता है और उसे सभी सन्देह की दृष्टि से देखते हैं । यदि निर्धन व्यक्ति किसी का उपकार भी करना चाहता हो, तो उसे निर्धन समझकर लोग उसे छोड़कर पृथक् हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें उसकी परोपकरिता पर विश्वास नहीं होता । (1361) मनुष्य को चाहिए कि वह भोजन के समय सौ काम छोड़कर भोजन कर ले । यदि स्नान करना शेष हो, तो हजार काम छोड़कर स्नान कर लेना चाहिए । यदि दान देना हो, तो लाखों कार्य छोड़कर दान देना चाहिए और प्रभु-भक्ति का समय हो तो करोड़ों कार्य भी छोड़कर प्रभु-भजन कर लेना चाहिए । (1362) सैंकड़ों में एकाध शूरवीर होता है । हजारों में एकाध पण्डित होता है । दस हजार में एकाध वक्ता जन्म लेना है । दााता जन्म लेता है अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता । (1363) अपने कार्य की सिद्धि के लिए बलवान् शत्रु के साथ उससे अधिक बलशाली शत्रु को भिड़ा देना चाहिए, जिससे अपने कार्य की सफलता के लिए कोई भी कष्ट न उठाना पड़े । (1364) बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि अपने उग्र कष्टदायी शत्रु को उसके उग्र शत्रु द्वारा अपने सुख के लिए इस प्रकार नष्ट कर दे, जैसे काँटे से काँटा निकाला जाता है । (1365) शत्रु के भी गुणों का उल्लेख करना चाहिए और गुरु के भी दोषों का । हर समय पूरा प्रयत्न कर पुत्र और शिष्य से उनके हित की बात ही कहनी चाहिए । (1366) बुद्धिमानों को चाहिए कि अपने द्वारा कमाये हुए धन का उपभोग रसायन के समान धीरे-धीरे करें और कभी विलास के रूप में उसका उपभोग न करें । (1367) जो बुद्धिमान् व्यक्ति अपने राज्य का उपभोग अपनी शक्ति के अनुसार रसायन की तरह धीरे-धीरे करता है, वह परम पुष्ट हो जाता है । (1368) धीरे-धीरे धनोपभोग करना चाहिए, धीरे-धीरे मार्ग तय करना चाहिए, धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़ना चाहिए, धीरे-धीरे विद्या और धर्म की साधना करनी चाहिए और धीरे-धीरे व्यायाम करना चाहिए। (1369) पित्ता को नष्ट करने के लिए सोना चाहिए, वायु के प्रकोप को दूर करने के लिए मालिश करनी चाहिए, कफ निकालने के लिए उल्टी करनी चाहिए तथा बुखार हटाने के लिए उपवास रखना चाहिए । (1370) अपने से बड़े द्वारा प्रयोग किए जाने वाले बिस्तर और आसन पर छोटे को न लेटना और न बैठना चाहिए । अपने बिस्तर या आसन पर स्थित होते समय यदि कोई बड़ा आ जाए तो उठकर उसका अभिवादन करना चाहिए । (1371) स्वस्थ शरीर वाले, कार्यकुशल, परिश्रमी तथा बुद्धि से सोचकर कार्य आरम्भ करने वाले के लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं रहता । (1372) सुख का भी अधिष्ठान् केवल शरीर है और दुःख का भी अधिष्ठान शरीर ही है । जीव शरीर द्वारा जो-जो कर्म करता है, उसी से अर्थात् शरीर से ही वह उस सख या दुःख को भोगता है । (1373) शरीर तथा गुणों में बहुत अधिक अन्तर है, शरीर तो क्षणभङ्गुर है परन्तु गुण तो दूसरे कल्प तक भी साथ रहते हैं । (1374) शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाले कार्य को ही व्यायाम कहा जााता है । मनुष्य को चाहिए कि व्यायाम करने के पश्चात् शरीर को सभी ओर से मसले । (1375) मेरे मन को चुभने वाली ( पीड़ा देने वाली ) निम्न सात वस्तुएँ हैं - (1) दिन के समय मटमैला चाँद, (2) नष्ट हुए यौवन वाली सुन्दरी, (3) कमलों से शून्य तालाब, (4) सुन्दर आकृति वाले का निरक्षर होना, (5) धन का लोभी स्वामी, (6) दुर्गतिग्रस्त श्रेष्ठ मनुष्य और (7) राजा तक की पहुँच वाला दुष्ट व्यक्ति । (1376) शस्त्र और शास्त्र की - ये दो विद्याएँ मुख्य रूप से मानी जाती हैं । इन में से शस्त्रविद्या बुढ़ापे में उपहासास्पद बन जाती है परन्तु शास्त्रीय विद्या का सदैव मान रहता है । (1377) शस्त्रों से मारे हुए शत्रु न मारे हुए ही समझने चाहिएँ । जो शत्रु बुद्धि द्वारा मारे जाते हैं, वे ही वस्तुतः पूर्णतः मरे हुए कहलाते हैं । शस्त्र तो केवल एक ही शरीर को नष्ट करता है परन्तु बुद्धि परिवार, धन और कीर्ति सभी कुछ नष्ट कर देती है । (1378) फैली हुई सैकड़ों शाखाओं वाले वृक्ष तो जंगल में अनेक हैं परन्तु ऐसे पेड़ बहुत कम हैं, जिनकी सुगन्ध से खिंचे हुए भौरे आकर उनके पत्तों को अपने पाँवों से दबाते हों । (1379) वे मनुष्य निश्चय ही मूर्ख होते हैं जो दुष्टता से मित्रता, कपट से धर्म, दूसरों को सता कर अपनी बढ़ती, सुख-भोग के साथ विद्या और कठोरतापूर्ण व्यवहार से नारी को पाना चाहते हैं । (1380) हे प्रभो । हमारे लिए सूर्य अथवा द्युलोक, पृथ्वी, यह विस्तृत अन्तरिक्षलोक, चलती हुई नदियों का जल तथा ओषधियाँ शाान्तिकारक हों । इनसे हम पूरा-पूरा लाभ उठा कर अपने जीवन को सुखी बनाएँ । (1381) शान्ति के समान दूसरा तप नहीं है, सन्तोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से भयंकर कोई अन्य रोग नहीं है और दया से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है । (1382) विधिपूर्वक दिया गया दान, सत्य-भाषण, गुणवती विद्या तथा मनोनुकूल मित्र - ये सभी चिरस्थायी होते हैं । (1383) निम्नलिखित गुण कार्यों में इच्छाओं को पूर्ण करने वाले होते हैं - (1) शास्त्रों का गहरा ज्ञान, (2) स्वाभाविक समझ, (3) उत्साह, (4) माधुर्यादि गुणों के अभ्यास वाली वाणी, (5) समय को समझ कर कार्य करना और (6) सूझबूझ । (1384) जिस राजा के राज्य में शास्त्रों द्वारा सजे शब्दों से विभूषित वाणियों वाले तथा जिनकी विद्या शिष्यों द्वारा प्राप्त करने के योग्य है, ऐसे प्रसिद्ध कवि निर्धन होकर रहते हैं, वह जड़ता उस राजा की ही है, जो उनके गुणों का मान नहीं करता । बुद्धिमान् लोग तो बिना धन के भी ज्ञान द्वारा ऐश्वर्य के स्वामी हैं । निन्दनीय तो वे गन्दे परीक्षक हैं, जिन्होंने रत्नों का मूल्य ही गिरा दिया है । (1385) यह गंगा स्वर्ग से शिवजी के सिर पर, शिवजी के सिर से पर्वत पर, ऊँचे पर्वत से पृथ्वी पर और पृथ्वी से नीचे-नीचे जाती हुई सागर में जा मिली । इस प्रकार उसका निरन्तर पतन ही होता चला गया । वस्तुतः, जिनका विवेक नष्ट हो जाता है, वे गंगा के समान ही सैंकड़ों रूप से गिरते चले जाते हैं । (1386) शीघ्र करने योग्य कार्यों में जो देरी करता है, उसके देवता उस पर क्रुद्ध होकर उस कार्य में विघ्र डाल देते हैं । (1387) ठण्डे जल से किया हुआ स्नान सक्तपित्त को शान्त करता है । और यदि गरम पानी से स्नान किया जाए, तो वह बलवर्धक तथा वायु और कफ के विकारों को नष्ट करता है । (1388) मनुष्य को तोते के समान स्पष्ट बोलना चाहिए, बगुले की तरह ध्यान स्थिरता-पूर्वक लगाना चाहिए, बकरे की तरह खूब चबाकर खाना चाहिए और हाथी के समान पानी में खूब नहाना चाहिए । (1389) पवित्रता, त्याग, वीरता, सुख-दुःख में समभाव, उदारता, प्रीति और सच्चाई-ये मित्र के श्रेष्ठ गुण हैं। (1390) हे लंकेश । अच्छे कर्म करने वाला अच्छा ही फल प्राप्त करता है और पापी दुःख को भोगता है । विभीषण ने शुभ कर्म से सुख प्राप्त किया और तुमने पाप करके दुःख ही भोगा है । (1391) सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, बुद्धि में बैठा लेना, तर्क-वितर्क करना, अर्थ का विशेष ज्ञान करना और तत्त्व को समझना - ये बुद्धि के गुण होते हैं । (1392) सूखे हुए, कीड़ों से खाए हुए, आग से पूर्णतः जले हुए और ऊसर में स्थत भी पेड़ का जन्म अच्छा है, परन्तु माँगने वाले का जीवन अच्छा नहीं है । (1393) जिस प्रकार एक सूखा पेड़ फूलों से लदे पेड़ों वाले जंगल को जला देता है, उसी प्रकार चरित्रहीन पुरुष कुल को नष्ट कर देता है । (1394) शूरवीर कौन है ? जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है । प्रियतमा कौन है ? जो सदाचारिणी स्त्री है । धन क्या है ? विद्या है । सुख क्या है ? परदेश में न बसना । राज्य क्या है ? आज्ञा- पालन होना । लाभ क्या है ? गुणी जनों की संगति । अशुभ क्या है ? अज्ञानियों की शरण । हानि क्या है ? विनय का अभाव । निपुणता क्या है ? धर्म के वास्तविक स्वरूप में आसक्ति । (1395) चाहे मनुष्ट बहादुर हो, सुन्दर हो, वाक्पटु हो और शस्त्रविद्या तथा शास्त्रविद्या - दोनों में निपुण भी हो, तो भी इस मानव-जगत् में वह धन के बिना न यश प्राप्त कर सकता है और न मान ही । (1396) विद्वानों के समागम से एकान्त स्थल भी मनुष्यों से भरा-पूरा हो जाता है और आई हुई मृत्यु भी उत्सव के समान लगती है तथा आपत्ति भी सम्पत्ति के समान प्रतीत होती है । (1397) शूरवीर पुरुष, विद्वान् लोग और रूपवती स्त्रियाँ ये जहाँ-जहाँ भी जायेंगे, वहीं-वहीं उनके लिए ठिकाना बनता जाएगा । (1398) मनुष्य का पहले से किया हुआ कर्म प्रत्येक व्यक्ति के साथ सोते समय सो जाता है, चलते समय पीछे चलता है और सदा आत्मा के साथ ही रहता है । (1399) प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं होते, प्रत्येक हाथी में मोती नहीं पाये जाते, श्रेष्ठ व्यक्ति सब जगह नहीं होते हैं और चन्दन प्रत्येक वन में नहीं होता । भाव यह है कि श्रेश्ठ वस्तुएँ प्रायः दुर्लभ होती हैं । (1400) शोक और शत्रुओं से बचाने वाला, प्रेम और विश्वास का पात्र, दो अश्ररों वाला रत्न रूप यह 'मित्र' शब्द किसने रचा है ? (1401) शोक से रोग बढ़ते हैं, दूध से शरीर बढ़ता है, घी से वीर्य बढ़ता है और मांस खाने से मांस बढ़ता है । (1402) शोक धैर्य को, ज्ञाने को और सभी कुछ को नष्ट कर देता है । अतः शोक के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है । (1403) जिस परिवार में नारियाँ शोक करती रहती हैं, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ ये शोक नहीं करतीं वह कुल सदैव उन्नति करता है । (1404) शुद्धि दो प्रकार की कही गई है, एक तो बाहरी तथा दूसरी आन्तरिक । मिट्टी और पानी से जो शुद्धि की जाती है, वह बाह्य शुद्धि होती है परन्तु मानसिक भावों की शद्धि आन्तरिक शुद्धि कहलाती है । (1405) 'श्रत्' का अर्थ है 'सत्य' और 'धा' का अर्थ है 'धारण करना' । जिस वृत्ति द्वारा सत्य धारण किया जाता है, उसे 'श्रद्धा' कहते हैं । (1406) मनुष्य को चाहिए कि अपने से छोटे व्यक्ति से भी शुभ विद्या श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर ले और सोना यदि गन्दी जगह पर भी पड़ा हो, तो बिना सोचे ही उसे भी उठा ले । (1407) श्रद्धा से ही अग्नि प्रदीप्त की जाती है और श्रद्धा से ही आहुति दी जाती है । ज्ञान, कीर्ति, लक्ष्मी आदि ऐश्वर्यों में मुख्य मानी जाने वाली श्रद्धा को हम अपने वचन द्वारा स्वीकार करते हैं । (1408) धर्म के सभी कृत्य श्रद्धा से ही सिद्ध होते हैं; बहुत अधिक धन से नहीं । हम देखते हैं कि धनहीन भी मुनि लोग श्रद्धा द्वारा ही स्वर्ग में पहुँचे थे । (1409) श्रद्धावान् और जितेन्द्रिय व्यक्ति ही आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । इस ज्ञान को प्राप्त कर के ही वह अतिशीघ्र परम शान्ति पा लेता है । (1410) थकान, प्यास, गर्मी और सर्दी आदि को सहने की क्षमता तथा पूर्ण स्वास्थ्य भी व्यायाम द्वारा प्राप्त हो जाते हैं । (1411) शोभा से परिपूर्ण, अमृत का भण्डार, औषधियों का नायक, अमृत से पूर्ण शरीर वाला और चमक-दमक से पूर्ण भी चन्द्रमा जब सूर्य के घेरे के पास पहुँचता है, तो उसकी किरणें समाप्त हो जाती हैं । भला ऐसा कौन व्यक्ति है, जो दूसरे के घर में जाकर लघुता को प्राप्त नहीं करता ? अर्थात् दूसरे के यहाँ जाने से सभी का मान घट जाता है । (1412) जिसका शास्त्रज्ञान बुद्धि के अनुकूल होता है , और बुद्धि सुने हुए शास्त्र के अनुकूल होती है तथा जो श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही 'पण्डित' कहलाने योग्य है । (1413) वेदों और धर्मशास्त्रों द्वारा बताए गये कर्तव्यों का पालन करता हुआ ही मनुष्य इस संसार में यश को और परलोक में अनुुपम सुख को प्राप्त करता है । (1414) मनुष्य सुनकर ही धर्म के तत्त्व को समझता है, सुनकर ही दुष्ट भावों का त्याग करता है, सुनकर ही ज्ञान को प्राप्त करता है । अतः सदुपदेशों को सुनकर ही मोक्ष को प्राप्त करें । (1415) जो व्यक्ति सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर और सूँघकर न प्रमन्न होता है और न दुःखी, उसे ही जितेन्द्रिय समझना चाहिए । (1416) धर्म के सार को सुनो और निश्चय करो कि जो व्यवहार स्वयं को पसन्द नहीं है, वह दूसरों से न किया जाए । (1417) अच्छे कामों के करने में महान् व्यक्तियों को भी बहुत विघ्नों का सामना करना पड़ता है । जब कोई संकट आ जाता है, तो पथ-प्रदर्शक भी दृष्टि गोचर नहीं होते । (1418) अच्छी तरह आचरण मेें लाये गये दूसरे के कार्य से गुणरहित भी अपना कार्य अत्युत्तम है । अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाए तो अच्छा है, क्योंकि दूसरे का कर्त्तव्य भयावह होता है, ( क्योंकि उसे उसका अभ्यास नहीं होता ) । (1419) श्रेष्ठ और दयालु व्यक्ति के कान ज्ञान की बातों से शोभित होते हैं, कुण्डलों से नहीं । उनके हाथ की शोभा दान देने से होती है, कङ्गन धारण करने से नहीं । उनका शरीर परोपकार से शोभा पाता है, चन्दन के लेप से नहीं । (1420) वह उत्तम पुरुष श्रेष्ठ और धन्य है और संसार में मनुष्यों में वही एकमात्र प्रशंसनीय है, जिसके पास से माँगने वाले अथवा शरण में आए हुए लोग निराश होकर उल्टे पाँव नहीं चले जाते । (1421) किसी की ज्ञानपूर्ण क्रिया अपने तक ही सीमित रहती है और किसी दूसरे की क्रिया अपने ज्ञान को दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ होती है । जो कला का पर्यास ज्ञान भी रखता है और उसे दूसरों तक पहुँचा भी सकता है, वही शिक्षकों के ऊँचे पद पर स्थापित करने के योग्य होता है । (1422) मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन एक नये श्लोक, अथवा आधे अथवा चौथाई अथवा कम से कम एक अक्षर का स्वाध्याय करे तथा दान और अध्ययन आदि के कार्यों से दिन को सफल बनाए । तात्पर्य यह है मनुष्य को प्रतिदिन कुछ-न-कुछ स्वाध्याय और दान अवश्य करना चाहिए । (1423) मनुष्य को चाहिए कि वह कल का कार्य आज और दोपहर के बाद का कार्य दिन के पहले पहर में ही कर ले । मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि अनुक् व्यक्ति ने अपना कार्य पूरा किया है या नहीं । (1424) छः कानों में अर्थात् तीन व्यक्तियों में पहुँची हुई रहस्य की बात सबमें फैल जाती है और चार कानों अर्थात् दो व्यक्तियों में कही हुई वही बात गुप्त रहती है । अतः बुद्धिमान् को चाहिए कि वह छः कानों में बात न पहुँचाए । (1425) निम्नलिखित छह वस्तुओं की कुछ देर भी उपेक्षा करने से ये नष्ट हो जाती हैं - (1) गौएँ, (2) सेवा, (3) खेती, (4) पत्नी, (5) विद्या और (6) नीच व्यक्ति का साथ । (1426) जैसे टूटी नौका को समुद्र में ही छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार जो आचार्य अच्छा प्रवक्ता न हो, जो पुरोहित स्वाध्याय न करता हो, जो राजा रक्षा न करता हो, कठोर बोलने पत्नी, गाँव में ही रहने की इच्छा करने वाले ग्वाले और वन में घूमने के इच्छुक नाई को छोड़ देना चाहिए । (1427) मनुष्य को ये छः गुण कभी नहीं छोड़ने चाहिए - (1) सत्यवादिता, (2) दान, (3) पुरुषार्थ, (4) दूसरे की वृद्धि में प्रसन्न रहना, (5) सहन शीलता और (6) धैर्य । (1428) हे पुष्टिकारक ईश्वर या विद्वान् । जो वस्तु जैसी हो उसे उसी रूप में जो उपदेश करे, जो सत्य के अनुकूल ही शिक्षा दे अर्थात् यथार्थ रूप से बताए, उससे हमारा साक्षात्-रूप से सम्पर्क करा कर हमारी उन्नति कीजिए । (1429) हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ घृतराष्ट्र । जो व्यक्ति कार्यों को बिखेर डालता है, प्रत्येक कार्य को संदेह की दृष्टि से देखता हौ और शीघ्र करने योग्य कार्यों को करने में देर लगा देता है, वह मूढ़ ( मन्दमति ) कहलाता है । (1430) संसार रूपी विषवृक्ष के केवल दो ही सरस फल हैं - (1) काव्य के अमृत रूपी रस का आस्वादन और (2) सत्सङगति करना । (1431) राजा एक ही बार बोलते हैं, पण्डित भी एक ही बार बोलते हैं और कन्याएँ भी एक ही बार दी जाती हैं । ये तीन चीजें केवल एक-एक बार ही होती हैं । (1432) सज्जनों की मित्रता की कामना एक बार ही करनी पड़ती है । उसके बाद तो उत्तम लाभ ही प्राप्त होता रहता है । श्रेष्ठ लोगों की मित्रता कभी टूटा नहीं करती । अतएव सज्जनों की ही मित्रता की कामना करनी चाहिए । (1433) बुद्धिमान् पुरुष किसी व्यक्ति को एक बार ही देख कर उसके सारासार की विवेचना या परख कर लेते हैं । चतुर मनुष्य हाथ के अन्दाजे से ही किसी वस्तु की मात्रा को समझ लेते हैं । (1434) एक बार बिगड़े हुए मित्र से जो फिर मित्रता करना चाहता है, उसकी मृत्यु उसी प्रकार हो जाती है, जैसे खच्चर गर्भ को धारण करके मर जाती है । ( खच्चर संकर से पैदा होती है और गर्भ योग्य नहीं रहती ) । (1435) उपकार तथा अपकार से बने हुए नकली मित्र और शत्रु, उन मित्रों और शत्रुओं से अच्छे होते हैं जो सम्बन्धजन्य या प्राकृतिक होते हैं । भाव यह है कि कृत्रिम मित्र तो मित्र ही है, परन्तु सम्बन्धजन्य मित्र शत्रु बन सकता है, ऐसे ही कृत्रिम शत्रु शत्रु ही रहता है, परन्तु सम्बन्धजन्य शत्रु मित्र भी बन सकता है । (1436) हे लोगो । ध्यान से सुनो, संक्षेप में धर्म का लक्षण समझो, विस्तार से तुम्हें क्या मतलब है ? दूसरों का भल करना ही धर्म है और दूसरों को दुःख देना ही पाप है । (1437) संग का सर्वथा परित्याग करना चाहिए पर यदि वह छोड़ा नहीं जा सकता तो वह सज्जनों के साथ ही करना चाहिए, क्योंकि सज्जनों का संग ही दुःखों की औषध है । (1438) परस्पर मेल बढ़ाने में ही कल्याण है, विशेषतः अपने जैसे व्यक्तियों से । यदि धान के छिलके अलग कर दिये जाएँ तो चावल पैदा नहीं हो सकते । इसलिए तुच्छ साथियों का भी महत्त्व होता है । (1439) जब गम्भीर विद्वान् मन से विचार करते हुए चलनी से छाने हुए सत्तुओं के समान वाणी के प्रत्येक शब्द को बोलते हैं, तब इस विषय में विद्या से प्रेम रखने वाले विद्वान् शब्द और अर्थ के स्थायी स्बन्ध को जान लेते हैं । इस प्रकार एक-एक शब्द को स्पष्ट करने वाले विद्वानों की वाणी में कल्याणमयी लक्ष्मी-रूपी विद्या स्थित होती है । (1440) सज्जन लोग ही श्रेष्ठ व्यक्तियों के गुण-समूह को विख्यात करते हैं । पुष्पों की सुगन्ध का चारों ओर प्रसार प्रायः हवाएँ ही किया करती हैं । (1441) जीवन सफल उसी का है, जो गुणवान् और धार्मिक है । जो गुणहीन और धर्म-विहीन है, उसका जीवन तो व्यर्थ है । (1442) वाणी की शोभा श्रेष्ठ कविताओं से होती है, रात की शोभा चाँद से होती है, नारी की शोभी सुशीलता से होती है और धन-दौलत की शोभा नम्रता से होती है । (1443) मैं सच कहता हूँ कि मुझे धन के नाश की कोई चिन्ता नहीं है । भाग्य के फेर से धन फिर मिल जााय करता है । मुझे विशेष दुःख इस बात का है कि मेरी धन-सम्पत्ति चले जाने पर सज्जन लोगों के प्रति मेरी मित्रता शिथिल होती जा रही है । (1444) बढ़ा हुआ सत्य-ज्ञान और उग्र सत्य-व्यवहार, आत्म-निग्रह, ज्ञान, व्रत-पालन, देव-पूजा, संगठन और उदारता - ये गुण ही पृथ्वी अर्थात् राष्ट्र को धारण करते हैं । यह पृथ्वी ही बीते हुए और होने वाले कार्यों को पालने वाली है । यह पृथ्वी स्वतन्त्रता पूर्वक हमारे विचरण के योग्य बने । (1445) हमारी कामनाएँ बहुत सुन्दर हैं, धन-सम्पत्ति भी बहुत मनोरम हैं, यह तो सत्य है, किन्तु जीवन तो मदमाती युवतियों के कटाक्ष के समान चञ्चल है । (1446) सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है, धर्म भाई है, दया मित्र है, शान्ति पत्नी है और क्षमा पुत्र है - ये छः मेरे सम्बन्धी हैं । (1447) जैसे सागर पार करने के लिए जलयान या नौका आवश्यक होती है, उसी प्रकार सत्य स्वर्ग तक पहुँचने की सीढ़ी है । मैंने सत्य से अधिक पवित्र कोई भी वस्तु कहीं भी नहीं देखी । (1448) सत्याचरण, चोरी न करना, क्रोध न करना, पवित्रता, सोचकर कार्य करना, संकट मेें धैर्य रखना, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, ज्ञान प्राप्ति - ये सभी मिलकर धर्म माने जाते हैं । (1449) सत्य की ही विजय होती है, सत्य द्वारा ही मुक्ति तक फैला हुआ मार्ग सुलभ होता है और पूर्ण कामनाओं वाले ऋषि लोग सत्य द्वारा ही जिस तक पहुँचते हैं, वह परमेश्वर ही सत्य का सबसे उत्कृष्ट आश्रय है । (1450) राजनीति वेश्या के समान विविध रूपों को धारण करती है । सच बोलना और झूठ भी बोलना, कठोर बोलना और मीठा भी बोलना, हिंसक बनना और दयालु भी हो जाना, छेनच्छु होना और उदार भी बन जाना, प्रतिदिन खर्च करते रहना और प्रतिदिन खूब धन भी प्राप्त करना - इस प्रकार इसके ये अनेक रूप हैं । (1451) धर्म की रक्षा सत्य से, विद्या की रक्षा अभ्यास से, रूप की रक्षा शुद्धि से और कुल की रक्षा चरित्र से होती है । (1452) सत्संगति से दुष्टों में श्रेष्ठ भाव आ जाते हैं, परन्तु कुलङ्गति का सज्जनों पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ा करता । फूलों मेें उत्पन्न सुगन्ध को मिट्टी तो धारण कर लेती है, परन्तु फूल मिट्टी के गन्ध को धारण नहीं किया करते । (1453) परमात्मा ही सकल संसार, हमारी सभाओं और हमारे शरीरों का स्वामी है । वह अनुपम है और आत्मा द्वारा कामना करने योग्य है । वह सभी को कर्मानुसार फल दे रहा है । मैं अपनी धारणावती बुद्धि और शुभ कर्मों के द्वारा उसकी ओर बढ़ रहा हूँ । (1454) सदभाव से मित्र को, आदर से बन्धुजनों को, प्रेम से स्त्री को, नौकर-चाकरों को कुछ ले-देकर और शालीनता से अन्य लोगों को वश में करना चाहिए । (1455) गायन तत्काल, पुराण एकमास में और वेद दीर्घकाल में फलप्रद होते हैं, परन्तु ज्योतिष और वैद्य सभी समयों में लाभकर होते हैं । (1456) बाँझ की सन्तान नहीं होती, कंजूस को यश नहीं मिलता, कायर को विजय प्राप्त नहीं होती और शराबी की सदगति नहीं होती । (1457) यदि पानी की बूँद तपे हुए लोहे पर पड़े तो उसका नामोनिशन भी मिट जाता है । वही बूँद यदि कमल के पत्ते पर हो तो मोीती जैसी दिखाई देती है । स्वाति नक्षत्र के अवसर पर यदि मेघ की एक भी बूँद सीप के पेट में चली जाए, तो वह मोती ही बन जाती है । इस प्रकार प्रायः देखा जाता है कि नीच, मध्यम या उत्तम संगति के अनुसार ही बुरे, मध्यम तथा उत्तम गुणों का जन्म होता है । (1458) सम्बन्धीजन के विनाश से उत्पन्न निरन्तर बहते हुए भी मनुष्यों के दुःख किसी प्रिय व्यक्ति के सामने आ जने पर दुःसह होकर मानो हजारों धाराओं में फूट कर बहने लगते हैं । (1459) गरीबों के न चाहते हुए भी अनेक पुत्र हो जाते हैं, परन्तु अमीरों के पुत्र होते ही नहीं । दैव की लीला विचित्र है । (1460) कुछ पुरुष बहादुर होते हैं और कुछ कायर । ये दोनों रूप सभी स्थानों पर पुरुषों में देखे जाते हैं । (1461) सन्तोष-रूपी अमृत से सन्तुष्ट रहने वाले शान्तचित्त वालों को जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख धन के लोभी इधर-उधर दौड़ने वाले लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् वह सुख उन्हें नहीीं मिल सकता । (1462) प्रभु मानवमात्र को उपदेश दे रहे हैं - ''हे मनुष्यो । तुम्हारा जलपान आदि का स्थान और भोजन आदि का स्वरूप भी समान होना चाहिए । मैं तुम्हें सवारी के एक जैसे साधन प्राप्त करने की प्रेरणा देता हूँ । तुम लोग संगठित होकर यज्ञ-हवन आदि द्वारा अग्नि का वैसे ही सेवन करो जैसे रथ-चक्र की नाभि के चारों ओर सभी आरे संगठित होकर स्थित होते हैं ।'' (1463) हे मनुष्यो । तुम्हारे सङ्कल्प एक-समान हों, तुम्हारे हृदय एक जैसे हों और मन द्वारा तुम्हारा मनन ऐसा हो कि तुम्हारा संगठन सदा सुस्थिर रहे । (1464) प्रेम समान व्यक्तियों में ही अच्छा लगता है, राजा की सेवा अच्छी होती है, लेन-देन में व्यापार अच्छा होता है और सुन्दर स्त्री घर की शोभा होती है । (1465) हे मनुष्ये । तुम्हारा मनन-चिन्तन एक जैसा हो, तुम्हारी समिति समान । हो और तुम्हारा मन और चित्त भी एक जैसा हो । मैं तुम्हें समान मन्त्र-ज्ञान से मन्त्र-युक्त बनाता हूँ और एक समान देय पदार्थों से सम्पन्न करता हूँ । (1466) स्वाभिमानी लोग जब तक शत्रुओं का पूर्णतः उन्मूलन नहीं कर देते, वे विश्राम नहीं करते । अन्धकार को पूर्णतः नष्ट कर देने वाला सूर्य ही इसका प्रबल दृष्टान्त है । (1467) महान् पुरुषों का हृदय समृद्धि के समय तो कमल के समान कोमल होता है परन्तु वही आपत्तिकाल में महान् पर्वत के शिला-समूह के समान कठोर हो जाता है । (1468) सम्पत्ति हो या विपत्ति, दोनों दशाओं में महान पुरुष एक जैसे ही दिखाई देते हैं ; जैसे सूर्य उदय होते समय भी और डूबते समय भी लाल ही होता है । (1469) जो व्यक्ति थोड़ी सी भी धन-दौलत प्राप्त करके सन्तुष्ट हो जाता है, विधाता उसके इस चिन्तन से अपना कर्त्तव्य पूरा समझ लेता है ( कि मैंने इसकी इच्छा पूरी कर दी है ), अतः वह उसकी सम्पत्ति को और अधिक नहीं बढ़ाता । (1470) सम्पत्ति आने पर जिसे प्रसन्नता नहीं होती, विपत्ति के समय जो दुःखी नहीं होता और युद्ध के मैदान में जो डरता नहीं, तीनों लोकों में श्रेष्ठतम ऐसे किसी विरले पुत्र को ही माता जन्म देती है, अर्थात् ऐसे लोग बहुत कम होते हैं । (1471) अपने सम्बन्धियों के साथ मिलकर भोजन, वार्त्तालाप, विचार-विमर्श और मेल-जोल करना चाहिए और उनसे विरोध कभी भी नहीं करना चाहिए । (1472) या तो सभा में प्रवेश नहीं करना चाहिए या यदि प्रवेश किया जाए, तो उचित सत्य ही बोलना चाहिए । सत्य न बोलने वाला अथवा असत्य बोलने वाला मनुष्य पाप का भागी होता है । (1473) सम्मान में व्याकुलता प्रेम को प्रकट करती है, शरीर भोजन के स्वरूप को बताता है, रहन- सहन का ढंग खानदान का बोधक होता है और बोलने का ढंग निवास-स्थान को बताता है । (1474) सर्प और दुष्ट व्यक्ति दोनों क्रूर हैं, परन्तु दुष्ट व्यक्ति सर्व से अधिक क्रूर है, क्योंकि सर्व मन्त्र और औषधि से वश में आ जाता है, परन्तु दुष्ट का निवारण किससे करें ? उसकी चिकित्सा का कोई साधन नहीं, अतः दुष्ट व्यक्ति साँप से भी बुरा है । (1475) साँप भोजन के स्थान पर वायु ही पी लेते हैं परन्तु वे दुर्बल नहीं होते, जंगली हाथी सूखे तिनके खाकर ही बलशाली हो जाते हैं और मुनि लोग तो कन्दों और फलों से ही अपना निर्वाह कर लेते हैं । अतः सन्तोष ही मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ खजाना है । (1476) क्योंकि साँपों, दुष्टों और दूसरों के धन चुराने वालों की कामनाएँ पूर्ण नहीं हो पातीं, इसीलिए यह संसार अभी तक बचा हुआ है । (1477) जहाँ सम्पूर्णतः विनाश ही विनाश है, जिससे पाप की वृद्धि होती है और अभाव हो जाने से जो पूर्णतः नरक का द्वार है, ऐसा कार्य भला कौन व्यक्ति समझ-बूझ कर करेगा ? उसमें तो हार और जीत दोनों ही समान रूप के हैं ? (1478) हे भरतकुल के श्रेष्ठ व्यक्ति ( धृतराष्ट्र ), तुम्हें सर्वत्र श्रेष्ठ बुद्धि के विषय में बतााया गया है कि भविष्य के संकट का पहले से ही प्रबन्ध कर लेने वाली अनागत बुद्धि और तत्काल सूझ बता देने वाली उत्पन्न बुद्धि श्रेष्ठ हैं, परन्तु काम को लटकाने वाली दीर्घसूत्रा बुद्धि नष्ट कर देती है । (1479) मित्र बनाना तो बहुत आसान है पर निभाना कठिन है, क्योंकि चित्त की अस्थिरता के कारण जरा सी बात पर ही प्यार टूट जाता है । (1480) जब सब कुछ नष्ट होता दिखाई दे, तो आधा दे कर शेष बचा लेना चाहिए । समझदार व्यक्ति वही है, जो ऐसे समय में आधे से ही निर्वाह कर लेता है, क्योंकि सर्वनाश तो असहनीय हो जाता है । (1481) हे युधिष्ठिर । जिस व्यक्ति का व्यवहार सबके प्रति समान है, जिसे कठोर पिरश्रम नहीं करना पड़ता, जो सच बोलता है, जो विरक्त है और जिसमें नया कार्य करने की कामना नहीं है, वही सुखी है । (1482) सब लोग कठिनाइयों को पार करें, सभी कल्याण ही कल्याण देखें, सभी की मनोकामना पूर्ण हो, और सभी हर परिस्थिति में आनन्दित रहें । (1483) सब प्रकार की शुद्धियों में मन की शुद्धि श्रेष्ठ है, क्योंकि सन्तान का अन्य प्रकार से आलिंगन किया जाता है और पति का अन्य प्रकार से । (1484) प्रत्येक वस्तु की सिद्धि में अभ्यास ही मुख्य कारण होता है । बिना अभ्यास के मनुष्य की प्राप्ति की हुई कार्य-कुशलता भी नष्ट हो जाती है । (1485) सब स्वच्छताओं में से धन की पवित्रता ही सर्वश्रेष्ठ है । धन के रखने-रखाने में जो लोभ नहीं करता, वही वस्तुतः पवित्र है, मिट्टी के ढेर से सफाई करने मात्र से कोई पवित्र नहीं हो सकता । (1486) सभी लोग दण्ड से वश में आते हैं । सर्वथा पाप-रहित साफ-सुथरा आदमी मिलना कठिन है । सारा संसार दण्ड के भय से ही उपभोग के योग्य बनता है । (1487) सब दवाइयों में से अमृत ही मुख्य है, सभी सुख देने वाली वस्तुओं में भोजन ही मुख्य है, सभी इन्द्रियों में आँख ही मुख्य है और सभी अंगों में सिर ही मुख्य है । (1488) प्रिय वही है जो संकट से रोकता है, कर्म वही है जो निष्पाप है, पत्नी वही है जो अनुकूल रहती है, बुद्धिमान् वही है जिसकी विद्वान् पूजा करते है, धन-दौलत वही है जो अभिमान पैदा नहीं करती, सुखी वही है जो लालसा से दूर रहता है, मित्र वही है जो स्वाभाविक रूप से हितचिन्तक है और पुरुष वही है जो इन्द्रियों का दास नहीं । (1489) मित्र वही है, जो संकट में साथ निभाता है । पुत्र वही है, जो माता-पिता का भक्त है । नौकर वस्तुतः वही है, जो आज्ञाकारी है और सच्चे अर्थों में पत्नी वही है, जो शान्ति प्रदान करती है । (1490) मित्र वही है, जो संकट में साथ निभाता है, भले ही वह दूसरी जाति में भी पैदा हुआ हो । उन्नति के समय तो सभी प्राणियों के सभी मित्र बन जाया करते हैं । (1491) यह गुरु और शिष्य का कथन है कि हम दोनों की प्रभु एक साथ रक्षा करें, हम दोनों का खान- पान साथ-साथ हो, हम दोनों मिलकर शक्ति संचय करें, हमारा पठन-पाठन प्रभावशाली हो और हम परस्पर कभी द्वेष न करें । (1492) मनुष्य को बिना सोचे-समझे उतावलेपन में कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि अविवेक सभी आपत्तियों का स्रोत है । जो लोग विचार-विमर्श पूर्वक कार्य करते हैं, धन-दौलत उनके गुणों से खींची हुई स्वयं उनके पास आ जाती हैं । (1493) प्रभु उपदेश देते हैं - ''हे मनुष्यो । मैं तुम्हें समान हृदय और समान विचारों वाला तथा परस्पर द्वेष से रहित बना रहा हूँ । तुम सब परस्पर इस प्रकार प्यार से रहो, जिस प्रकार गाय अपने नवजात बछड़े से प्यार करती है ।'' (1494) पुत्र, मित्र और सम्बन्धी जन श्रेष्ठ पुरुषों से दूर हो जाते हैं ; परन्तु जो उनके साथ चलते हैं, उनके उस धर्म के कारण वंश शुभकर्मी हो जाता है । (1495) सदगुण रूप अमृत का आनन्द लेने में प्रायः साधु पुरुष ही कुशल होते हैं । आम की अभिनव- मञ्जरियों का आनन्द लेने में कोकिल ही समर्थ होती है । (1496) जो महात्मा लोग श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से उत्पन्न विवेक रूपी उत्तम फूल की रक्षा करते हैं, वे ही उससे उत्पन्न फल ( परम आनन्द ) के पात्र बनते हैं । (1497) जबकि स्वभावतः निश्छल हृदय वालों की मित्रता केवल सात कदम साथ चलने पर ही हो जाती है, तो परस्पर गुणोों की चर्चा के अनन्तर विश्वसा पूर्वक प्रेम में आबद्ध लोगों की मित्रता के विषय में तो कहना ही क्या है । अर्थात् वह तो और भी सुदृढ़ हो जाती है । (1498) पत्नी वही है जो गृह-कार्य में दक्ष हो, प्रियभाषिणी हो, पति-परायणा हो और सन्तति वाली हो । (1499) पत्नी वही है, जो मीठा बोलती है । पुत्र वही है, जिससे शान्ति प्राप्त हो । मित्र वही है, जिस पर विश्वास किया जा सके और अपना देश वही है, जहाँ सुखपूर्वक जिया जा सके । (1500) जैसे तपे हुए घी पर पानी की बूँदें डालने से वह छिटकने लगता है, उसी प्रकार क्रोध से परिपूर्ण व्यक्ति को कही हुई शान्ति की बात उसके गुस्से को और बढ़ा देती है । (1501) ब्रह्ना ने राजनीति के चार भेद - साम, दान, भेद और दण्ड बताए हैं । उनमें से दण्ड सबसे बुरा है । अतः उसका प्रयोग सबके बाद करना चाहिए । (1502) वेद द्वारा मनुष्यों को भोजन प्रापः तथा साय इन दो कालों में करने को कहा गया है । इन दोनों कालों के मध्य में अतिरिक्त भोजन नहीं करना चाहिए । जैसे अग्निहोत्र दो समय ही किया जाता है, ऐसी ही विधि भोजन करने की भी है । (1503) अपनी तथा शत्रु की महत्ता या दुर्बलता एवं बत तथा बहादुरी को समझ कर जो बुद्धिमान् तद- नुसार आचरण करता है, उसकी पराजय कभी नहीं होती । (1504) सेवक के लिए अच्छे बुरे का पारखी स्वामी कठिनता से मिलता है, तथा स्वामी के लिए उसका ठीक-ठीक आदेश पालन करनेवाला और अच्छी स्मरण-शक्ति वाला सेवक भी मिलना कठिन हो जाता है । (1505) जो मनुष्य साहित्य, संगीत आदि कलाओं से अनभिज्ञ है, वह साक्षात् पशु है । अन्तर केवल इतना है कि उसके पूँछ और सींग नहीं हैं । मनुष्य रूपी पशु घास न खाने पर भी जीवित रहता है, यह पशुओं का बड़ा भाग्य है, अन्यथा यदि घास भी खाता होता, तो पशु क्या खाते ? (1506) शिशु-सिंह भी हाथियों के मद से मलिन हुए गण्ड-स्थलों पर आक्रमण कर बैठता है । साहसी व्यक्तियों में वीरता जन्म-सिद्ध ही होती है । तेजस्विता के लिए आयु का कोई महत्त्व नहीं होता । (1507) व्याकरण की रचना करने वाले पाणिनि मुनि के प्रिय प्राणों को शेर ने हर लिया था । मीमांसाशास्त्र की रचना करने वाले जैमिनि मुनि को हाथी ने अचानक ही कुचल डाला था । छन्दःशास्त्र के ज्ञान के सागर पिंगल मुनि को समुद्र के तट पर मगरमच्छ ने मार डाला था । अतः अज्ञान से ढके हुए चित्त वाले और अति क्रोधी स्वभाव वाले प्राणियों के गुणों से क्या लाभ । वे तो अपनी प्रकृति के अनुसार ही आचरण करते हैं । (1508) पका हुआ भोजन, पका फल, प्रथमयौवना नारी, सुभाषित और पान-पत्र को बुद्धिमान व्यक्ति तत्काल ग्रहण कर लेता है । (1509) दुःख भोगने के बाद ही सुख अच्छा लगता है, जैसे घोर अन्धेरे में ही दीपक की शोभा होती है । जो व्यक्ति सुख भोगने के बाद गरीबी में पहुँचता है, वह शरीरधारी होने पर भी मृतक के समान ही जीवन व्यतीत करता है । (1510) सुख और दुःख को देने वाला कोई नहीं है । दूसरा हमें सुख या दुःख देता है, यह विचार ठीक नहीं है । 'मैं करता हूँ' यह अभिमान भी व्यर्थ है । सभी लोग अपने-अपने किए कर्मों का ही भोग करते हैं । (1511) सभी प्राणियों के सभी कार्यकलाप सुख-प्राप्ति के लिए ही माने जाते हैं । परन्तु धर्म के बिना सुख प्राप्त नहीं हो सकता । अतः धर्म का ही आचरण करना चाहिए । (1512) सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ । विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? यदि सुख की इच्छा हो तो विद्या छोड़नी पड़ेगी, यदि विद्या की इच्छा हो तो सुख छोड़ना पड़ेगा । (1513) सज्जन क्रोध नहीं करता । यदि क्रोध करता भी है तो कभी अनिष्ट का चिन्तन नहीं करता । यदि ऐसा चिन्तन करता भी है तो बोलता नहीं और यदि बोल देता है तो लज्जित हो जाता है । (1514) परोपकार में सर्वदा संलग्न रहने वाला सज्जन व्यक्ति अपने विनाश के अवसर पर भी विनाश करने वाले से शत्रु-भाव नहीं रखता । चन्दन का वृक्ष छेदन करने वाले कुल्हाड़े का भी मुख सुगन्धित बना देता है । (1515) भलीभाँति पचा हुआ अन्न, बहुत चतुर पुत्र, भली भाँति अनुशसित पत्नी, अच्छी सेवा किया हुआ राजा, बहुत चिन्तन करके किया हुआ भाषण और बहुत विचार करके किया हुआ कर्म दीर्घकाल व्यतीत होने पर भी हानिप्रद नहीं होते । (1516) सुपात्र को दी गई विद्या, सुपात्र को सिखाई गई कला, सुपात्र के साथ मैत्री तथा सुपात्र को दिया गया धन खूब चमकते हैं । (1517) छोटी नदी थोड़े से ही जल से भर जाती है । चूहे की अञ्जलि भी थोड़े खाद्य से भर जाती है । इसी प्रकार छोटा व्यक्ति थोड़ा सा ही धनादि प्राप्त करके पूर्णतः सन्तुष्ट हो जाता है । (1518) मधुर वचन से प्रेम, लक्ष्मी की प्राप्ति से गर्व का न होना, दूसरों का कार्य सिद्ध करने वाली क्रिया करना, गुणों से तृप्त न होना और गुणवानों का आदर करना - ये सब महात्मओं के चरित्र में छिपे हुए तत्त्व होते हैं । (1519) जिस किसान के घर में सदा अन्न रहता है, जिस व्यक्ति को रोग नहीं सताता तथा जिसकी पत्नी प्यार-भरी है, उन सबके घरों में प्रतिदिन खुशी का ही दिन होता है । (1520) मनुष्य को युद्ध में, विषय-जन्य सुख में, अथवा धनार्जन में सहायक आसानी से मिल सकते हैं पर आपद्-ग्रस्त होने पर या धर्म के विषय में संशय होने पर सहायक दुर्लभ होते हैं । (1521) हे राजन् । निरन्तर मीठी-मीठी बातें बोलने वाले लोग आसानी से मिल जाते हैं पर अप्रिय और हितकारी बात कहने वाला दुर्लभ है और वैसी बात सुनने वाला भी दुर्लभ है । (1522) सुवर्ण के फूलों से भरपूर अर्थात् धन-सम्पत्ति से पूर्ण पृथ्वी को तीन प्रकार के लोग ही प्राप्त कर सकते हैं - (1) शूरवीर, (2) विद्वान् और (3) जो सेवा करना जानता है । (1523) जिसने अच्छी तरह न सुश्रुत को सुना और न चरक का अवलोकन किया, उस वैद्य का अन्य अनेक ग्रन्थों के सुनने तथा अवलोकन करने का क्या लाभ है ? इन ग्रन्थों को न पढ़ने वाला वैद्य तो निन्दनीय ही है । (1524) मित्रों के धन को खा-पीकर और मनचाहा प्रेम प्राप्त कर के भी जो व्यक्ति उसका बदला चुकाने में असमर्थ है, उसके जीने से तो उसका मरना ही अच्छा है । (1525) अभेद रखने वाले मित्र को, गुणवान् नौकर को, पतिव्रता पत्नी को और सहानुभूतिमय स्वामी को अपना दुःख बताकर मनुष्य सुखी हो सकता है । (1526) जो व्यक्ति अनुभवी मित्रों द्वारा बारम्बार सोचे गये तथा अपनी बुद्धि से भी अच्छी प्रकार विचार किए गए कार्य को करता है, वही बुद्धिमान् है और वही धन-दौलत और कीर्ति का पात्र है । (1527) सूर्य की ओर फेंकी गई धूल अपनी आँख में ही पड़ेगी । गुरु के प्रति की गई अवहेलना भी व्यक्ति के लिए ही अवहेलनाकारी बनेगी । (1528) जैसे पशुओं का कार्य मलमूत्र त्यागना और खाना-पीना मात्र है और वे दूसरों की गुलामी करते हैं, उसी प्रकार धर्महीन मनुष्यों का जीवन भी मलमूत्र त्यागने, खाने-पीने और दूसरों की गुलामी करने के लिए ही होता है । (1529) नौकर अपने ऐसे मालिक से द्वेष करता है, जो कंजूस है और कठोर बोलता है । क्या वहा अपने आप से द्वेष नहीं करता, जो सेवा करने योग्य और न करने योग्य को नहीं पहचानता ? (1530) जैसे जल से परिपूर्ण, आकाश में विचरे वाले, लोगों के ताप को नष्ट करने वाले बादल कम ही होते हैं, उसी प्रकार प्रेमार्द्र, उदाहृदय, जनता के कष्टों को नष्ट करने वाले सज्जन भी संसार में विरले ही होते हैं । (1531) स्त्रियाँ, रत्न, विद्या, धर्म, स्वच्छता, सुभाषित तथा नाना शिल्पों को सब ओर से ग्रहण कर लेना चाहिए । (1532) प्रतिदिन दैन्य-रहित मन से थोड़े से भी थोड़ा कुछ न कुछ देते रहना चाहिए । इसे ही अकार्पण्य अर्थात् उदारता कहा जाता है । (1533) तराजू की डण्डी के एक पलड़े पर यदि भार कम हो जाए, तो वह उस ओर से ऊपर चढ़ जाती है, यदि कुछ अधिक भार पड़ जाए तो नीचे आ जाती है; इसी प्रकार नीच पुरुष थोड़ी-थीड़ी अनुकूल या प्रतिकूल बात से बनते या बिगड़ते रहते हैं ; वे धैर्यशाली नहीीं होते । (1534) नौकरों और आभूषणों को यथोचित स्थान पर ही लगााना चाहिए । कोई व्यक्ति अपने को समर्थ समझकर सिर का आभूषण पैरों से नहीं बाँदता । (1535) स्नान मन में प्रसन्नता का उत्पादक, दुःस्वप्ननाशक, पवित्रता का अधिष्ठान, अपवित्रता का अपहारक, तेजवर्धक, रूपवर्धक, शत्रुनाशक, कामाग्निदीपक, स्त्रियों का मन हरण करने वाला और थकावट दूर करने वाला होता है । स्नान में ये दश गुण होते हैं । (1536) यदि पैदा नहीं किया गया प्रेम तो बाद में नष्ट हो जाने वाले प्रेम से कहीं अच्छा है । जिसकी ठीक-ठाक आँख नष्ट हो गई है, उसे ही दुःख होता है, जन्म से अन्धे को वह दुःख नहीं होता । (1537) हाथी का स्पर्श मात्र भी मृत्यु का कारण बन सकता है । साँप के सूँघने मात्र से मृत्यु हो सकती है । राजा हँसता हुआ भी मृत्यु का दण्ड दे सकता है । दुष्ट व्यक्ति तो सम्मान करता हुआ भी मार देता है । (1538) कौन ऐसा सुबुद्धि पुरुष होागा जो उन सरल हृदय वाले महात्माोओं की प्रशंसा न करेगा, जिनके हृदय, वचन और व्यवहार - ये तीनों ही एक समान हैं ? (1539) मनुष्य को उतनी ही इच्छा करनी चाहिए जितनी भाग्य की सत्ता हो । पाँव उतने ही फैलाने चाहिए जितनी लम्बी चादर हो । (1540) स्फटिक का जो गुण है, वही उसका दोष बन जाता है, क्योंकि किसी स्वच्छ वस्तु की छाया पाकर वह सुंदर दीखता है, किंतु मलिन वस्तु की छाया से वह मलिनही दीखता है । अर्थात् वह अपनी स्वच्छता के कारण मलिनों की भी छाया अपना लेता है । (1541) यह पृथ्वी जिस प्रकार काँटों से रहित होकर निवास-योग्य बनकर सबको पर्याप्त सुख देती है, उसी प्रकार परिवार का विस्तार करने वाली विदुषी पत्नी घर के सब संकटों को दूर करके सब प्रकार से इसे सुखद बनाए, जिससे सम्पूर्ण परिवार सुख और शान्ति से रह सके । (1542) अपने धर्मानुकूल कर्म से जीविका चलाने वाले, अपनी पत्नी में ही सदा अनुरक्त रहने वाले जितेन्द्रिय तथा अतिथि-प्रिय उत्तम पुरुषों के लिए तो घर में ही मोक्ष है, अर्थात् उनका जीवन सुखपूर्ण है । (1543) जो व्यक्ति अपने बाहुबल के भरोसे जीता है, वही संसार में यश को प्राप्त करता है और परलोक में उत्तम पर पाता है । (1544) सज्जन पुरुष दुर्जनों के संसर्ग से अपना सहज स्वभाव नहीं छोड़ते । कौओं के सम्पर्क में आने पर भी कोयलें अपने मधुर स्वर को त्याग नहीं देतीं । (1545) उपदेश देने मात्र से किसी का स्वभाव नहीं बदला ज सकता । खूब गरम किया हुआ भी पानी फिर ठण्डा हो जाता है । (1546) जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को छोड़कर दूसरे का कर्त्तव्य करने लगता है, तथा मित्र के साथ असत्य व्यवहार करता है, वह मूढ़ कहलाता है । (1547) जैसे थोड़ी सी वायु के चलते ही निर्बल तिनकों का ढेर अपने आप झुक जाता है, ऐसे ही निम्न कोटि का मनुष्य छोटे-मोटे भी शत्रु को आते देखकर उसके सामने झुककर पराजय स्वीकार कर लेता है । (1548) स्वयं में अमृत का आधार, वनस्पतियों का स्वामी, शतशः वैद्यों द्वारा प्रशंसित तथा भगवान् शंकर के मस्तक का सिरमौर होने पर भी चन्द्रमा को क्षयरोग नहीं छोड़ता, अर्थात् वह घटता रहता है । पापी भाग्य की परिणति से कौन बच सकता है ? (1549) थोड़ा-थोड़ा करके भी बुद्धिमानों को पुण्योपार्जन करना चाहिए । गिरती बून्दों से ही सूजित हुई बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र तक पहुँच जाती हैं । (1550) जब शरीर और जीवात्मा के संयोग और वियोग को श्रुतियाँ बताती हैं, तब ऐसी दशा में सभी का पुत्र-कलत्रादि बाह्य विषयों का वियोग निश्चित ही है । ऐसी दशा में विद्वान् को शोक करने की क्या आवश्यकता है ? अतः वियोग होने पर शोक नहीं करना चाहिए । (1551) हे विद्वानों । आप हमारा पथ प्रदर्शन कीजिए ताकि हमारे लिए मार्ग में आने वाले मरु-प्रदेशों में, जल प्रदेशों में सुखदायक स्थानों में और सन्तानोत्पादक गृहों में भी कल्याण हो । आप लोगों की श्रेष्ठ शिक्षाओं से धन-प्राप्ति में भी हमाारा कल्याण हो । (1552) अपने से ऊँचे के प्रित जो हृदय में क्रोध का आवेग आता है, उसे मनुष्य अधीनस्थ नौकर- चाकरों पर निकालता है । बहू अपनी सास के प्रति हृदय में संचति क्रोध को अपने हाथ के बर्तन पर निकालती है । (1553) बचपन का फल स्वच्छन्दता है, जवानी का फल आनन्ददायक सम्भोग है, वृद्धावस्था का फल शान्ति है और जन्म लेने का फल दूसरे का हित करना है । (1554) परमात्मा ने व्यक्ति के अपने अधीनस्थ और सदा लाभ पहुँचाने वाला ऐसा गुण बनाया है, जो अज्ञानता को ढके रखता है । यह गुण मौन है, जो विद्वानों के समाज में मूर्खों के लिए विशेष से आभूषण बन जाता है । (1556) दूसरों के धन को हर लेना, दूसरे की पत्नी से सम्पर्क रखना तथा मित्र को छोड़ देना - ये तीन दोष मनुष्य का नाश कर देते हैं । (1556) जिसे चोर नहीं देख सकता, जो सदा शान्ति प्रदान करता है, याचकों को दिन-रात देने पर भी जो निरन्तर बढ़ता ही जाता है और जो युग-युगान्तरों में नष्ट नहीं होता, ऐसा छिपा हुआ धन जिन विद्वानों के पास है, उनके प्रति हे राजा लोगो, अपने अभिमान को त्याग दो । ऐसे विद्या के धनियों के साथ कौन मुकाबला कर सकता है ? (1557) जो सुशी तथा दुःखमय दोनों दशाओं में समान रहता है, जिसकी आदर्श ग्रन्थों में श्रद्धा है और जो नौकरों की उपेक्षा नहीं करता, उसके लिए सम्पूर्ण पृथ्वी धन देने वाली होती है । (1558) यज्ञ में मोदक आदि की हवि, घृत, भात आदि पुरोडाश, दर्भ और खैर आदि से निर्मित स्तम्भ- ये वस्तुएँ पुरानी स्वीकार नहीं की जाती हैं । (1559) हाथी को अंकुश से, घोड़े को हाथ से और सींगधारी बैल आदि को हाथ के डण्डे से हाँका जााता है परन्तु दुष्ट को तलवार या किसी अस्त्रशस्त्र से दूर किया जााता है । (1560) हाथी बहुत मोटा होता है, परन्तु वह अंकुश के वश में रहता है । क्या हाथी और अंकुश बराबर हैं ? दीये के जलते ही अंधकार भाग जाता है । क्या अन्धकार दीये जितना छोटा होता है ? वज्र के आघात से पहाड़ गिर जाते हैं । क्या पहाड़ वज्र जितना होता है ? वास्तुव में जो तेजस्वी होता है, वही बलवान् है, मोटा या बड़ा होने से कोई महत्त्वशाली नहीं होता । (1561) ''हे सियार के समान तुच्छ वृत्ति वाले मानव, तेरे हाथों ने कभी दान नहीं दिया, तेरे कान उत्तम वाणी सुनने से विद्रोह करते रहे हैं, तेरी आँखों ने कभी महात्माओं के दर्शन नहीं किए, तेरे पाँव चलकर कभी किसी तीर्थ पर नहीं गए और तूने अन्यायपूर्वक धन कमाकर केवल अपना ही पेट पाला हौ और फिर भी धन के मद में सिर ऊँचा किए हुए है । ऐसे पापी और निन्दनीय शरीर को शीघ्र ही छोड़ दे ।'' भाव यह है कि ऐसा शरीर किसी काम का नहीं है । (1562) विधाता ने साँपों के लिए तो हिंसा-रहित और सरलता से प्राप्त होने योग्य वायु के ही भोजन बना दिया है और पशु तिनके तथा अंकुर खाकर संतुष्ट होकर भूमि पर ही विश्राम कर लेते हैं । परन्तु संसार-सागर को पार करने में समर्थ बुद्धि वाले मनुष्यों के लिए ऐसी आजीविका उसने निश्चित की है, जिसे ढूँढते-ढूँढते उनके सभी गुण क्रमशः क्षीण होते चले जाते हैं । (1563) क्रोध से परिपूर्ण व्यक्ति न मारने योग्य लोगों को मार सकता है और मारने योग्य लोगों को पूज सकता है और अपने आपको भी मार सकता है । (1564) बुद्धिमान् मनुष्य प्रतिकूल भोजन को अनेक रोगों और कष्टों का जनक समझता हुआ हितकर और परिमित भोजन समयानुसार करे और अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखें । (1565) हितचिन्तक, सदाचारी, शास्त्रज्ञ और बुद्धिमान् विद्वानों द्वारा सोची और विचारी हुई नीतियाँ किसी भी प्रकार से असफल नहीं हुआ करतीं । (1566) आपत्ति रूपी कमलिनी के लिए जो हिमपात सदृश है और मोह रूपी पौधे के लिए जो तुषार पूर्ण वायु के समान नाशक है, ऐसी श्रेष्ठ सत्पुरुषों की संगति ही इस संसार में विजय प्राप्त करती है । (1567) राजाओं के पास सोना, अन्न, रत्न और अनेक प्रकार के धन तथा और भी जो कुछ होता है, वह सब प्रजा के लिए ही होता है । (1568) न्यून अंग वाले, अधिक अंग वाले, विद्या से रहित, आयु में बड़े, सौन्दर्य और धन से रहित तथा निम्न जाति के लोगों पर कभी कटाक्ष नहीीं करना चाहिए । (1569) निम्न प्रकार के लोग सदा संकटों से घिरे रहते हैं - (1) कम बुद्धि वाला, (2) नीच कुल में उत्पन्न, (4) लम्बी शत्रुती वाला, (5) क्षत्रियों की विद्याओं में अकुशल, (6) कम वीरता वाला और (7) असभ्य । (1570) हे प्रिय । नीचों की संगति से मनुष्य नीच बन जाता है, अपने जैसों की संगति से वैसा ही बना रहता है और विशेष व्यक्तियों की संगति से वह विशेषता प्राप्त कर लेता है । (1571) वेद जो हमारे परम धन हैं, वे तो हमारे हृदयों में प्रतिष्ठित हैं और हमारी स्त्रियाँ अपने चरित्र बल से अपने घरों में भी सुरक्षित रह लेंगी । (1572) बुद्धिमान् व्यक्ति पीड़ित होने पर भी उन शब्दों का उच्चारण न करे, जिनसे कोई दूसरा मन में इस तरह सन्तप्त हो जाए, मानो उसे बींधे डाला गया हो । (1573) अरी कड़वी चीजों से प्यार करने वाली जिहवा तू मीठा क्यों नहीं बोलती ? हे कल्याणी । मीठा बोल । यह संसार मिठास को ही पसन्द करता है । (1574) हे मेघ । तुमने ऊँचे उठ कर सारी दिशाओं को घेर लिया है । हे धीर । ऐसा प्रतीत होता है कि तुम बरस कर सरोवर को क्षीरसागर के समान बना दोगे । परन्तु जलचरों का यह समूह ग्रीष्म की गर्मी से व्याकुल होकर बड़ी कठिनाई से जीवन धारण कर रहा है । उसे तो केवल तुम्हारा ही भरोसा है । अतः इसी क्षण कुछ तो बरसो