प्रथम अध्याय १ महर्षियों ने एक समय ध्यान में लीन बैठे भगवान मनु की सेवा में उपस्थित होकर पहले उन्हें प्रणाम करके उनकी विधिवत् अर्चना-पूजा की और इसके बाद उनसे आगे बताए श्लोक के अनुसार निवेदन कियेा । २ भगवन ! आपसे विनम्र निवेदन है कि आप हमें चारों वर्णों-ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा वर्ण संकर (भिन्न वर्ण की स्त्री तथा भिन्न वर्ण के पुरुष के संयोग से उत्पन्न संतान) जाति के लोगों द्वारा आचरण करने योग्य धर्मों को बताने की कृपा करें । ३ आप ही ऐसे तत्वज्ञ पंडित हैं जिसके स्वरूप का ठीक-ठीक चिन्तन नहीं किया जा सकता, आप ही ज्ञान की सीमा से परे, स्वयं अपने को जन्म देने वाले तथा परमेश्वर द्वारा वेदों में बताए गए समस्त यज्ञ आदि अनुष्ठानों के ज्ञाता हैं । ४ भगवन् ! आप हमें चारों तरह की सृष्ट-जेर सहित जन्म लेने वाले मनुष्य और जानवर आदि, अण्डे से निकलने वाले सभी प्राणी, पसीने से पैदा होने वाले जुएं आदि पृथ्वी को फोड़ कर निकलने वाले वनस्पति, वृक्ष आदि समस्त जीवों की उत्पत्ति और लय के संबंध में बताने की अनुकम्पा करें । ५ हे प्रभु ! हमें आप सभी तरह के लोगों के लिए आचरण योग्य नियमों की, करने योग्य तथा नहीं करने योग्य कार्यों की एवं यज्ञ-यागादि के अनुष्ठान के उचित समय आदि की सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने की अनुकम्पा करें । ६ महान तेज से पूर्ण भगवान मनु ने महर्षियों की प्रार्थना को सुनकर उनकी जिज्ञासा के लिये पहले उनका अभिनन्दन किया फिर उनका सत्कार करके कहा आप लोग अपने प्रश्नों के उत्तर सुनें । ७ यह जगत प्रलयकाल में अंधकार से पूरी तरह पूर्ण था । कहीं कोई जीवन का लक्षण तक न था ।चारों ओर अचेतनता एवं अज्ञान छाया था । ऐसा लगता था जैसे सारा संसार निद्रा में लीन हो । ८ प्रलयकाल समाप्त हो जाने के बाद भगवान नारायण देव ने प्रकृति के प्रेरक महान पंचभूत तत्वों (वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी तथा जल ) को आलोकित करने के रूप में स्वयं को प्रकट किया, जिससे अंधकार दूर होकर आलोक हो गया । ९ इन्द्रियां जिसको ग्रहण करने में अक्षम हैं, ऐसे बहुत ही सूक्ष्म तथा प्राणिमात्र मे सदैव रहने वाले उस नित्य परमात्मा का प्रकट हो जाना ही सृष्टि की रचना होना है । परमात्मा ही कारण और परमात्मा ही कार्य है । १० महर्षि मनु कहते हैं- उस परमात्मा ने अनेक प्रकार की प्रजाओं को रचने की इच्छा से, सबसे पहले पंचभूतों वाली प्रकृति को उत्पन्न कर, जल में शक्ति रूपी बीज को छोड़ा । ११ यह बीज सहस्त्रों सूर्यों के समान चलकीले अण्डे के समान प्रकाशयुक्त हो गया, उसके बाद उसी अण्डे से सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्ना जी उत्पन्न हुए । अतः परमात्मा द्वारा प्रकृति में डाले गए बीज से ही पूरी सृष्टि का विकास हुआ । इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा सृष्टि के पूर्व भी था, सृष्टि के मध्य में भी है और सृष्टि के अंत में भी रहेगा । उसी से सबको जन्म देने वाले ब्रह्न जी का जन्म हुआ । वही इस जगत का कर्ता, कारण और कार्य है । १२ अप्त तत्व का एक नाम 'नार' है क्योंकि वह नर अर्थात् ब्रह्न से उत्पन्न हुआ है । ब्रह्न की ब्रह्न रूप में उत्पत्ति इसी नार से हुई । इसीलिए ब्रह्ना जी का एक नाम 'नारायण' है । १३ वास्तवमें इस संसार में, उसको उत्पन्न करने वाला परमात्मा अदृश्य रहता है, नित्य तथा सत-असत की मूल प्रकृति के मुख्य आधार परमात्मा का ही प्रकृतियुक्त नाम 'ब्रह्ना' है । १४ ब्रह्ना जी ने उस अण्डे में एक वर्ष तक रहने के बाद अपने ध्यान की शक्ति द्वारा उस अण्डे के दो टुकड़े कर दिए (ब्रह्ना जी का एक वर्ष लगभग इकतीस खरब, दस अरब और चालीस करोड़ मानवीय वर्षों के बराबर होता है ) । १५ अण्डे के एक टुकड़े से ब्रह्ना जी ने द्युलोक तथा दूसरे टुकड़े से पृथ्वी लोक की सृष्टि की और इन दोनों के बीच आकाश, आठ दिशाएं तथा सदैव रहने वाला जल का स्थान निर्मित किय । १६ ब्रह्नजी ने अपनी ही प्रकृति से संकल्प-विकल्प वाले मन को उत्पन्न किया और इसी मन से अहम् भाव को जन्म दिया । १७ ब्रह्ना जी ने इसके बाद महत्त तत्व की (सत्व, रज और तम प्रकृति ) तीन गुणों और सभी विषयों (रूप, शब्द, गन्ध, रस एवं स्पर्श) को अनुभव करने वाली पांचों इन्द्रियों (अांखें, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) की रचना की । १८ सृष्टि रचयिता ब्रह्ना जी ने उन अत्यन्त ओजस्वी छह तत्वों- अहंकार तथा पांच इन्द्रियों के सूक्ष्म अंगों में अपनी-अपनी मात्राओं-कर्तृत्व एवं रूप, रस गन्ध, शब्द तथा स्पर्श का संगम करके सभी जीवों की रचना की । १९ प्रकृति से युक्त उस ब्रह्न की मूर्ति के शब्दादि पांच तन्मात्राएं एवं अहंकार ये सुक्ष्म अवयव हैं तथा यह कर्म भाव से उसका आश्रय लेते हैं । इसी कारण परमात्मा द्वारा रचे गए इस जगत को उनका शरीर माना जाता है अर्थात् अव्यक्त ब्रह्न जब व्यक्त रूप ग्रहण करता है तो सृष्टि ही उसकी मूर्ति मानी जाती है । इस प्रकार सूक्ष्म रूप से भौतिक जगत ही भगवान का शरीर है उसमें व्याप्त ऊर्जा ही भगवान है । २० नाशहीन तथा समस्त भूतों (पंच महाभूतों) के कर्ता उस ब्रह्न से युक्त अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश एवं सूक्ष्म अवयवों के साथ मन की रचना हुई । २१ इसके बाद विनाश रहित ब्रह्न से महाशक्ति वाले सात पुुरुषों (अहंकार, मन और पांच ज्ञानेन्द्रियों की पांच तन्मात्राओं ) की सूक्ष्म मूर्ति के अंशों से यह नाशवान संसार उत्पन्न हुआ । २२ इन पांच महाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) के गुण उनके क्रमानुसार बढ़ते जाते हैं । हर आगे आने वाला भूत अपने पिछले भूत के गुणों को भी ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए प्रथम भूत आकाश का गुण 'शब्द' है, द्वितीय भूत वायु में 'शब्द' का गुण होने के साथ 'स्पर्श' का भी गुण है, तृतीय भूत अग्नि में आकाश का गुण 'शब्द' , वायु का गुण 'स्पर्श' के साथ ही अपना गुण 'रूप' भी है । चतुर्थ भूत जल में उपर्युक्त भूतों के सभी गुण 'शब्द, रूप' के अतिरिक्त अपना गुण 'रस' भी है । पंचम भूत पृथ्वी में चारों भूतों के गुणों 'शब्द, स्पर्श, रूप, रस' के साथ ही अपना गुण 'गंध' भी है । २३ परम शक्ति ईश्वर ने सृष्टि के शुरू में ही इन पांचों के भिन्न-भिन्न नाम और कर्म आदि की वेद अनुसार व्यवस्था करके उन्हें अलग-अलग संस्थाओं के रूप में प्रतिष्ठित किया । २४ सभी जीवों के स्वामी परमात्मा ने कर्म स्वभाव रखने वाले अग्नि, वायु आदि देवताओं, साध्यों के सूक्ष्म समूह को और सनातन यज्ञ आदि की सृष्टि की । २५ इसके बाद उस परमात्मा ने यज्ञों की सिद्धि हेतु तीन देवों-अग्नि, वायु और सूर्य और सनातन तीनों वेदों ऋग्वदे, यजुर्वेद और सामवेद को क्रमशः प्रकट किया । टिप्पणी- १. इससे प्रकट होता है कि आरम्भ में तीन ही वेद थे । समय व्यतीत होने के साथ इन वेदों के अभिचार और अनुष्ठान वाले कुछ मंत्रों को अलग करके चतुर्थ वेद अस्तित्व में आाय जिसका नाम अथर्ववेद या अथर्वणवेद हुआ । इसके संपादके महर्षि अंगिरा माने जाते हैं । सम्भवतया वे ही अभिचार विद्या के पंडित थे । देवताओं के पुरोहित और नक्षत्रों में बृहस्पति यही हैं । अथर्ववेद को इसी कारण 'अंगिरस वेद' भी कहते हैं । अभिचार के अंतर्गत अथर्ववेद में दिए गए ऐसे मंत्र आते हैं जिनका प्रयोग शत्रु को मारने के लिए किया जाता था । कुछ विद्वानों ने मन में व्याप्त अत्यधिक क्रोध, घृणा, भय, हिंसा, द्वेष, लोभ आदि को शत्रु माना है और इन मंत्रों को इन हानिकारक भावों पर नियंत्रण करने वाला बताया है । २. यह भी एक विचारणीय तथ्य है कि मूल रूप में वेद एक ही है । उसे विषयानुसार तीन भागों में बांटा गया है । इसी कारण विशेष से भगवान मनु ने एक वचनान्त रूप 'त्रयम' का उपयोग किया है । ३. वेद की रचना नहीं की गई वरन् उनका दोहन हुआ है । परमात्मा ने प्रलयकाल के समय अग्नि, वायु और सूर्य को तीनों वेदोंकी सरुक्षाा का कार्य सौंपा और पुनः सृष्टि करते समय उनके द्वारा उसे प्रकट करवाया । २६ सृष्टिकर्ता ब्रह्ना जी ने तीनों वेदों को प्रकट करने के पश्चात् समय और उसके विभाग [ काष्ठा (समय की सबसे छोटी इकाई), काष्ठाओं से कला, कलाओं से एक पल, पलों से एक घटिका, घटिकाओं से एक प्रहर, आठ प्रहरों से एक तिथि या एक दिन-रात, पंद्रह तिथियों से एक पक्ष, कृष्ण और शुक्ल पक्षों से एक माह, छः माहों से एक अयन, दक्षिणायन और उत्तरायण अयनों से एक वर्ष, वर्षों से युग, और सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग से एक कल्प बनता है ।] बनाए तथा नक्षत्रों, ग्रहों, नदियों, सागरों एवं ऊंची-नीची भूमि की रचना की । टिप्पणी- १. कई कल्पों के बाद प्रलय होती है । २. ग्रह और नक्षत्र भिन्न होते हैं, एक नहीं । २७ मानव रूपी प्राणी अर्थात् प्रजा की रचना करने की इच्छा करते हुए ब्रह्ना जी ने तप, वाणी, अनुराग, काम और क्रोध की भी सृष्टि की । २८ परमपिता परमात्मा ने करने योग्य और न करने योग्य कर्मों पर विचार करने के लिए धर्म तथा अधर्म का रूप निश्चित किया और अपने द्वारा रची गई प्रजा को यह बतलाया कि धर्म से सुक और अधर्म से दुःख मिलता हे । इस तरह परमात्मा ने प्रजा को सुख-दुःख मान-अपमान और जीवन-मरण के द्वन्द्वों से जोड़ दिया । इसका अर्थ यह है कि परमात्मा ने एक ओर मनुष्यों तथा जीवों (प्रजा) में आपस में विरोधी भावों जैसे-सुख-दुःख, आसक्ति-विरक्ति, प्रेम-घृणा, राग-द्वेष आदि को उत्पन्न किया वहीं दूसरी ओर यह विधान किया कि सतकर्मों के पालन से सुख तथा असत् कर्मों के पालन से दुःखों की प्राप्ति हो । २९ मनुष्य सुख-दुःख आदि के भावों को पहले बताई गई सूक्ष्म तन्मात्राओं के माध्यम से ही अनुभव करता है । अगर मनुष्य शुद्ध शब्दों को सुनता है, शास्त्रों द्वारा अनुकूल बनाई गई वस्तुओं, व्यक्तियों आदि का स्पर्श करता है और अनुकूल रूप, रस, गंध का उपभोग करता है, उसे इसके फलस्वरूप सुख की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत आचरण करने पर उसे दुःख मिलता है । ३० ब्रह्ना जी ने सबसे पहले जिसको जिस कर्म में लगाया था (अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकारके जीवों को जैसा-जैसा कर्म करने के लिए दिया था, उदाहरण के लिए शेर का भोजन हिरण आदि जीव हैं जबकि ये जीव (हिरण आदि) घास खाते हैं और अपना जीवन यापन करते हैं), बार-बार जन्म लेता हुआ वह जाति विशेष जीव अपने कर्मवश उसी कर्म को करने लगा । सृष्टि होने के समय प्राणियों के विभिन्न योनियों में जन्म लेने का आधार उनका कर्मानुष्ठान ही रहा है । कहने का आशय यह है, प्राणियों ने जिस प्रकार के सत्-असत् कर्म किए थे उनके फलस्वरूप ही उन्हें नई योनि प्राप्त हुई । ३१ जिस तरह ऋतु के उपरान्त दूसरी ऋतु आती है तोवह अपनी विशेषताओं कोा साथ लाती है, उदाहरण के लिए बरसाए में आकाश बादलों से ढका रहता है और वर्षा होती है, गर्मियों में कड़ी धूप पड़ती है तथा लू चलती है, इसी तरह जब सृष्टि होती है प्राणियों द्वारा किए गए उनके सत्-असत् कर्म भी उनके पास अपने आप आ जाते हैं । इसी के अनुरूप किसी प्राणी को हिंसक (जैसे-शेर-चीते का), किसी को अहिंसक (गाय, हिरण आदि का), किसी को प्रशंसनीय (जैसे ब्राह्नण, योगी, राजा आदि का), किसी को निन्दा योग्य (जैसे-चोर-डाकू आदि का), किसी को सम्मान योग्य (जैसे-गुरु, मंत्री आदि का) जन्म प्राप्त हुआ । ३२ जिस तरह ऋतु बदलने पर वह स्वयं ही अपने चिह्रों को प्रकट करती है (जैसे-वसन्त आने पर आमों के वृक्षों में मंजरी आ जाना, कोयल का कुंजन करना, अच्छा मौसम होना) उसी तरह देह धारण करने वाले जीव अनपे-अपने कर्मों (हिंसक-अहिंसक, कोमल-क्रूर आदि) को स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं । ३३ संसार की वृद्धि करने के लिए ब्रह्ना ने अपने मुख से ब्राह्नण की, भुजाओं से क्षत्रियों की, ऊरु से वैश्यों की, पैरों से शूद्रों की सृष्टि की । टिप्पणी- कुछ विद्वानों के अनुसार जिस प्रकार सभी प्रमुध देवता मानव शरीर में वास करते हैं, उसी प्रकार पूरा मानव समाज ब्रह्ना जी का प्रतीक है । समाज में जो लोग ज्ञान-विज्ञान की साधना करते हैं वे समाज के मुख (ब्राह्नण) हैं, जो अत्याचारियों से समाज की रक्षा करते हैं वे हाथ (क्षत्रिय) हैं, जो व्यापार-उद्योग आदि करते हैं वे जंघा (वैश्य) हैं और जो सेवा या नौकरी का कार्य करते हैं वे पैर (शूद्र) हैं । जिस प्रकार एक व्यक्ति की कार्यकुशलता के लिए उसके सभी अंगों का स्वस्थ होना और उनमें आपस में संतुलन एवं सौमनस्य रहना आवश्यक है उसी प्रकार ऊपर बताए गए समाज के विभिन्न वर्गों में भी आवश्यक है । इसमें प्रत्येक वर्ग (वर्ण) महत्वपूर्व, कोई ऊंचा या नीचा नहीं है । ३४ वे ब्रह्ना जी सृष्टि को बराबर बनाए रखने के लिए दो भागों में विभक्त हो गए । इस प्रकार उनका आधा भाग पुरुष का और आधा स्त्री का हो गया । इस आधे-आधे भाग ने आपस में संभोग करके इस विशाल संसार को उत्पन्न किया । ३५ ऋषियों को सम्बोधित करते हुए मनु भगवान कहते हैं, हे महर्षियो ! विराट पुरुष ने तप करके जिसका सृजन किया था वह मैं ही हूं । अतः आप लोग सारी सृष्टि को रचने वाला मुझे ही जानिए । ३६ मैंने ही प्रजा की रचना करने के लिए कठोर तपस्या की और उसमें सफलता पाकर सबसे पहले दस महर्षियों को उत्पन्न किया । ३७ मनु भगवान द्वारा उत्पन्न किए गए दस महर्षि हैं-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु, नारद । ३८ इन दस तेजवान प्रजापतियों (महर्षियों) ने अत्यधिक कांतिवान सात अन्य मनुओं, अनेक देवों, उनके वास स्थानों (लोोकों) एवं ब्रह्नर्षियों की सृष्टि की । ३९ उन दस महर्षियों ने यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, गंधर्वों, अप्सराओं, असुरों, नागों, गजों, साोंपों, गरुड़ों और पितरों के अलग-अलग गणों की सृष्टि की । ४० उन दस महर्षियों ने ही विद्युत (आकाश में चमकने वाली बिजली) वज्र, मेघों (बादलों), इन्द्रधनुष, उल्काओं, उत्पात करने वाले पुच्छल तारों और अनेक प्रकार के प्रकाश युक्त तारों की रचना की । ४१ उन दस महर्षियों ने ही किन्नरों, वानरों, अनेक तरह की मछलियों, पक्षियों तथा ऊपर-नीचे दांतों वााले पशुओं, हिरणों (मृग आदि), मनुष्यों एवं व्यालों (जैसे शेर, चीते आदि हिंसक जीवों) को उत्पन्न किया । ४२ उन दस महान ऋषियों ने ही अत्यन्त सूक्ष्म कीड़ों (कृमियों), पतंगों, जुओं खटमलों, डंक मारने वाले जीवों जैसे-मच्छर और अनेक तरह के एक ही स्थान पर रहने वाले वृक्षों, लताओं, वल्लियों, घास आदि की रचना की । ४३ इस भांति दस प्रजापतियों ने मेरी आज्ञा से इस पूरे स्थावर-जंगम (चल सकने वाले) प्राणियों की रचना उनके कर्मों के अनुसार की । ४४ इन महर्षियों (प्रजापतियों) ने सृष्टि करते समय कर्म, काल, प्रज्ञा, श्रुति, युग, देश, वृत्ति तथा क्रम व्यवस्था का पूरी तरह उचित रूप से पालन किया । इस स्मृति के अनुसार सृष्टि करने वाले चार हैं- ब्रह्ना, विराट पुरुष, मनु एवं मरीचि आदि । पुराणों में सृष्टि के संबंध में जो विवरण मिलता है, वह इससे भिन्न है । ४५ भगवान मनु महर्षियों को आगे बताते हैं- इस जगत में जिस जीव का जो कर्म है, उसके जन्म का जो आधार और क्रम हो वह मैं बताने लगा हूं । ४६ गर्भ की झिल्ली से पैदा होने वाले प्राणी जरायुत हैं । ये जरायुज प्राणी हैं- १. गाय-बैल आदि जैसे पशु, २. ऊपर-नीचे दांतों वाले प्राणी जैसे राक्षस, ३. वन में रहने वाले जैसे सिंह, व्याघ्र आदि, ४. स्वार्थी प्रवृत्ति के निशाचर (जो रात्रि में जागकर दूसरे जीवों को मारकर खाते हैं ।), ५. कच्चा मांसाहार करने वाले अर्थात् पिशाच, ६. अपने विवेक से कर्म करने वाला मनुष्य । मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो भली प्रकार सोच-विचार कर कार्य करने की सामर्थ्य रखता है । यही नहीं वरन् वह विवेक द्वारा विधायक विचारों, सृष्टिकोण और कर्मों द्वारा अपने भाग्य को पर्याप्त सीमा तक बढ़ा सकता है । इस भांति मनुष्य योनि कर्म प्रधान है । अतः अपने विवेक और संयम का उपयोग करते हुए उचित कर्मों को करने वाला व्यक्ति ही वास्तविक अर्थ में मनुष्य है । ४७ माता के गर्भ से बाहर निकले अण्डे से उत्पन्न होने वाले प्राणी 'अण्डज' कहे जाते हैं । स्थल तथा जल में पैदा होने वाले सभी तरह के पक्षी, कछवे, सर्प आदि जो अण्डे से प्रकट होते हैं, इसी श्रेणी में आते हैं । ४८ ऊष्मा और गर्मी लगने से आने वाले पसीने आदि से बने वातावरण में जन्म लेने वाले छोटे-छोटे जीव आदि 'स्वेदज' हैं । इनके अंतर्गत जूं, मच्छर, खटमल, मक्खी तथा उनकी श्रेणी के जीव आते हैं । ४९ अपने उत्पत्ति स्थान को फोड़ कर बाहर आने वाले उदभिज जीव कहे जाते हैं । एक ही स्थान पर बने रहने वाले सभी पेड़, वनस्पतियां आदि इसी श्रेणी मेेेें आते हैं । इनके रूपों को दो श्रेणियों में बाटा जा सकता है । प्रथम- अपने बीज से जन्म लेने वाले द्वितीय- शाखा से उत्पन्न होने वाले समस्त औषधियां जैसे जड़ी-बूटी से पैदा होने वाले फूल-फल जिनका उपयोग दवाओं के रूप में होता है, उदभिज जीव हैं । ५० जिनमें फूल नहीं होते वरन् फल ही होते हैं ऐसे उदभिज जीवों को वनस्पति कहते हैं । जिनमें फूल और फल होते हैं, उन्हें वृक्ष (पेड़) कहा जाता है । ५१ गुच्छ और गुल्म उनको कहते हैं जिनमें शाखाएं नहीं होतीं और उन लताओं का मूल उनकी जड़ में होता है । ईख, मल्लिका आदि इसी तरह उदभिज माने जाते हैं । तरह-तरह के बीजों और शाखाोओं से जन्म लेने वाली और सूत सा निकालने वाली तथा फैल जाने वाली लतााएं प्रतान और वल्ली कही जाती हैं । ५२ वृक्ष आदि अपने पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों के कारण तमोगुण से युक्त हैं । ये अंदर से चेतनापूर्ण होने पर भी उसे बाहर किसी को भी बताने में असमर्थ हैं । इन्हें जो सुख-दुःख आदि अनुभव होता है वह ये अपने अंदर ही अनुभव करते हैं । टिप्पणी- यहां यह उल्लेखनीय है कि मनुस्मृति के अनुसार वृक्षों-लताओं आदि में भी जीवन है और वे भी सुख-दुःख अंदर-ही-अंदर अनुभव करते हैं पर उसे प्रकट नहीं कर पाते । सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा इसी तथ्य को संसार के सामने सिद्ध कर सबको चकित कर दिया था । ५३ जिस तरह प्यास से बेचैन होने पर मनुष्य तक मर जाते हैं उसी तरह वृक्ष भी जल न मिलने पर कष्ट पाते हैं लेकिन वे अपने कष्ट को प्रकट करने में असमर्थ रहके हैं । जल की कमी से वृक्षों-वनस्पतियों आदिका सूखना तो ऊपर से दिखाई पड़ जाता है पर उनक कष्ट या दुःख ज्ञान नहीं हो पाता । भांति-भांति के जीवों से पूर्ण इस भयानक और गतिवान संसार में ब्रह्ना जी से लेकर वनस्पतियों तक सभी जीवों की यही अवस्था है । ५४ इस तरह परमात्मा ने जिसके पराक्रम के बारे में कल्पना तक नहं दी जा सकती, इस पूरे स्थावर और जंगम जगत की रचना की । उसने अपनी सृष्टि रचना के अंतर्गत मुझ मनु को भी उत्पन्न किया और तत्पश्चात् समय आने पर पूरी सृष्टि में प्रलय लाकर उसे अपने भीतर समा लिया । प्राणियों को उनके कर्मों का फल प्रदान करने के लिए परमात्मा सृष्टि को उत्पन्न करता है और समय व्यतीत होने पर फिर प्रलय द्वारा सृष्टि का नाश करता है । यह क्रम अनवरत चलता रहता है । ५५ जब वह देवता अर्थात् प्रजापति जागता है, सृष्टि रचना करने की चेष्टा करता है, तब सारा संसार गति और चेष्टा से युक्त हो जाता है और जब (प्रजापति) वह निवृत्त होने की कामना करता है, तब पूरा जगत अर्थात् संसार प्रलय होने के कारण समाप्त हो जाता है । आशय यह कि आदि देव का जागना ही सृष्टि का निर्माण होना है और उनका शयन करना अर्थात् सोना प्रलय होना है । ५६ इस भांति परम शक्ति रूप परमात्मा के आत्मविश्रांति की अवस्था में जाने पर प्रलय हो जाती है और कर्मयोनि के जो प्राणी कर्म बन्धन से मुक्त नहीं हो पाते वे भी अपने-अपने कर्मों के बन्धन से स्वतंत्र हो जाते हैं और उनका मन भी ग्लानि अनुभव करता हूआ सब इंद्रियों सहित चेष्टा शून्य हो जाता है । वे फिर देह की धारण नहीं करते । ५७ समस्त प्राणी जब एक ही काल में उस परमशक्ति परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय ये संपूर्ण जीव सब प्रकार के कार्य-व्यापार से शून्य होकर मानो सुखपूर्वक सोती हुई अवस्था में रहते हैं । उनके मन की गतिशीलता पूरी तरह समाप्त हो जाती है । इसीलिए प्रलयकाल को सभी प्राणियों और उनके आधार तत्व परमात्मा की निद्रा अवस्था कहा गया है । टिप्पणी- वास्तविकता यह है कि परमशक्ति परमात्मा को न तो कभी विश्राम या निद्रा की आवश्यकता होती है और न जागृत होकर कुछ करने की । परन्तु मनुष्य की बुद्धि प्रकृति के सूक्ष्म सत्य को समझ सके, सृष्टि और प्रलय के स्वरूप को पमशक्ति परमात्मा की जागृति और निद्रा के रूपक द्वारा बताया गया है । आधुनिक विज्ञान भी अब यह मानने लगा है कि सारा ब्रह्नाण्ड शून्य से उत्पन्न होता है और अंत में शून्य में ही विलीन हो जाता है । ब्रह्नाण्ड मेें अनेक ग्रह हैं, इनमें से अनेक में जीवन का विकास प्रारम्भ हो रहा है और अन्य में जीवन का नाश । इसी प्रकार कुछ ग्रह बन रहे हैं तो कुछ समाप्त हो रहे हैं । ५८ यह जीव जब काफी समय तक सुषुप्ति अवस्था में रहकर श्वास-प्रश्वास, मति-गति आदि कोई क्रिया नहीं करता तो वह शरीर से पृथक हो जाता है । ५९ जब यह जीव अणुमात्रिक (चेतना, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वासना, कर्म, आयु और अविद्या के साथ पूर्ण रूप से जुड़ जाता है ) हो जाता है, तो पेड़-पौधे आदि (अचर) और मनुष्य (चर) के हेतु बीजों में प्रविष्ट होता है । ६० इस भांति आदि देव और नाश रहित ब्रह्ना जी अपनी जागृति और सुुषुप्ति अवस्था के द्वारा इस सारे चर और अचर संसार की सृष्टि तथा उसका नाश करते रहते हैं । ६१ सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्नाजी ने सृष्टि करने के बाद सबसे पहले मनुस्मृति के रूप में धर्मशास्त्र की रचना की और विधिवत् मुझे बताकर उसको प्रकाश में लाए । मैंने इस ज्ञान का परिचय मरीचि आदि ऋषियों को प्रदान किया । ६२ मरीचि आदि ऋषियों में से एक महर्षि भृगु ने मुझसे इस शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया । ये भृगु ऋषि यह सम्पूर्ण शास्त्र आप महर्षियों को सुनाएंगे । ६३ मनु जी से आदेश प्राप्त करने के बाद महर्षि भृगु ने प्रसन्नतापूर्वक सभी ऋषियों से कहा-सभी से प्रेम रखने वाले ऋषियो ! सुनिए ! ६४ स्वायम्भुव (ब्रह्नाजी के पुत्र) मनु के वंश में छः और पराक्रमी तथा तेजस्वी मनु हुए, जिन्होंने अपनी-अपनी प्रजाओं को उत्पन्न किया । ६५ इन छः मनुओं के नाम हैं-१. स्वरोचिष, २. औत्तम, ३. तामस, ४. रैवत, ५. चाक्षुष और महातेजस्वी, ६. वैवस्वत । ६६ इस भांति स्वायम्भुव आदि सातों मनुओं ने अपने-अपने काल और अपने-अपने अधिकार के क्षेत्र में इस सम्पूर्ण चर एवं अचर जगत की रचना कर उसका पालन-पोषण किया । टिप्पणी- कुछ विद्वानों के अनुसार मनु जी ही वास्तव में इस स्मृति के प्रवक्ता हैं और श्लोक संख्या ६१ से ६६ तक बाद में जोड़े गए हैं । भृगु जी का इस प्रवचन से कोई सम्बंध युक्ति संगत नहीं जान पड़ता । ६७ इस श्लोक में दिन-रात का परिमाण बताया गया है । १८ निमेष की एक काष्ठा होती है (आंखों की पलकों के गिरने में लगने वाला समय निमेष कहलाता है ) तीस काष्ठा की एक कला और ३० कला का एक मुहूर्त होता है । तीस मुहूर्त का एक दिन-रात (अर्थात् २४ घंटे) होते हैं । ६८ सूर्य ही मानवों और देवों के दिवस तथा रात्रि का विभाजन करता है अर्थात् सूर्य के उदय होने से अस्त होने तक का समय दिन कहलाता है । सूर्यास्त के बाद से पुनः सूर्योदय तक की अवधि रात्रि होती है । रात्रि सभी मनुष्यों के लिए सोने और विश्राम करने का समय है और दिन अपने कार्यों को करने का । ६९ इस श्लोक में पितरों के दिन-रात का परिमाण बताया गया है । मानवों का एक माह ( तीस दिन) पितरों की एक दिन-रात्रि होती है । मनुष्यों के एक माह में दो पक्ष होते हैं । ये पक्ष चन्द्रमा के अनुसार होते हैं । जिन रातों में चांद निकलता है उस अवधि को शुक्ल पक्ष तथा जिन रातों में चन्द्रमा नहीं निकलता उन्हें कृष्ण पक्ष कहते हैं । ये दोनों पक्ष पंद्रह-पंद्रह दिन के होते हैं । कृष्ण पक्ष पितरों के जागने अर्थात् कार्य करने का और शुक्ल पक्ष पितरों के सोने के लिए है । ७० इस श्लोक में देवों के दिन-रात के परिमाण पर प्रकाश डाला गया है । मनुष्यों के एक वर्ष में अर्थात् १२ महीनों में छः-छः माह के दो अयन होते हैं । सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर जाने की ६ माह की अवधि (श्रावण से पौष तक) को दक्षिणायन और दक्षिण से उत्तर की ओर आने की अवधि (माघ से आषाढ़ तक) को दक्षिणायन कहते हैं । इन दोनों उत्तरायण तथा दक्षिणायन को मिलाकर एक वर्ष होता है जिसमें १२ महीने होते हैं । मनुष्यों का एक वर्ष देवों का एक दिन-रात होता है । देवों की रात्रि दक्षिणायन की अवधि में होती है । उनका (देवों का) दिन उत्तरायण की अवधि में होता है । उत्तरायण में देवता गण जागते और कर्मरत रहते हैं । दक्षिणायन में वे शयन करते हैं । ७१ भृगु जी कहते हैं, विप्रो ! मैं आप लोगों को अब ब्रह्ना जी के दिन तथा रात्रि का और चार युगों का जो परिमाण है उसे बताता हूं । उसे आप लोग संक्षेप में सुनें ७२ चार युगों (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग) के अन्तर्गत सत्ययुग ४००० देवों के वर्ष का काल परिणाम है एवं ४००-४००दिव्य वर्ष (अर्थात् देवों के वर्ष) उस सत्य युग की संध्या और संध्यांश का परिमाण है । इस प्रकार सत्य युग काल के देव वर्षों को मानव वर्ष में परिवर्तित करने के लिए हमें उसकी गणना निम्न विधि से करनी होगी- मनुस्मृति के कुछ व्याख्याकारों द्वारा ३६० मानव वर्षों का एक दैवी वर्ष माना गया है । ऐसा उन्होंने किस आधार पर किया, यह नहीं बताया । इसके अनुसार चारों युगों का परिमाण निम्रलिखित आता है- ७३ सत्य युग के बाद आने वाले बाकी त्रेता, द्वापर और कलि युगों में क्रमशः एक-एक हजार दैवी वर्ष कम होते जाते हैं । उनकी सन्ध्याएं और सन्ध्यांश में क्रमशः एक सौ दैवी वर्ष कम होते हैं । इस आधार पर इन युगों के मानवी वर्ष निम्न बनते हैं- ७४ यह जो मानवों के चार युगों का काल परिमाण बताया गया है, उसे बारह हजार से गुणा करने पर आने वाली संख्या देवताओं का एक युग होती है अर्थात् मनुष्यों के बारह हजार यतुर्युग बीतने पर देवों का एक युग व्यतीत होता है । ७५ देवों के एक हजार योगों के बराबर ब्रह्ना जी का एक दिन और इतने ही काल अवधि की उनकी रात होती है । इस तरह देवों के दो हजार युग व्यतीत हो जाने पर ब्रह्ना जी का एक दिवस-रात्रि व्यतीत होती है (यह एक शंख बत्तीस अरब मानव वर्ष के बराबर होती है ) । ७६ पुण्य आत्मा गणित ज्ञाता ब्रह्ना जी की आयु सहस्त्र युग बताते हैं (इस एक युग का एक दिन-रात उपर्युक्त श्लोक में बताई काल अवधि के बराबर होाता है)। विद्वान ब्रह्ना जी के दिवसों और रात्रियों को क्रमशः ' पुण्य दिवस' तथा 'अहोरात्र' कहते हैं । ऐसे विद्वान 'अहोरात्र' के ज्ञाता कहे जाते हैं । ७७ ब्रह्नाजी अपने अहोरात्र का अंत होने पर जागते हैं और सबसे पहले संकल्पविकल्प करने वाले मन की सृष्टि करते हैं । ७८ सृष्टि की रचना करने की इच्छा से प्रेरित मन प्रकृति को विकृत करता है जिससे आकाश उत्पन्न होता है । आकाश का गुण शब्द है, ऐसा महर्षि कहते हैं । ७९ विकार पैदा होने पर उस आकाश से सभी प्रकार की गन्ध को धारण कर ले चलने वाली, पवित्र और शक्तिशाली वायु (हवा) उत्पन्न होती है वह (वायु) स्वर्श गुण वाली मानी गई है अर्थात् वायु का गुण स्पर्श माना गया है । वायु को बलवान (शक्तिशाली) कहा गया है क्योंकि वह सब जगह व्याप्त है और अत्यन्त तीव्र गति से चल सकती है । वह दुर्गन्ध और सुगन्ध को धारण कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है परन्तु उससे दूषत नहीं होती । इसलिए उसे 'पवित्र' विशेषण दिया गया है । ७९अ विकार उत्पन्न करने वाली वायु से अन्धाकर को दूर करने वाले प्रकाश (ज्योति) और ऊष्मा से युक्त अग्नि उत्पन्न होती है । अग्नि को रूप गुण वाला कहा गया है क्योंकि उसको देखा जा सकता है । ८० अग्नि के विकार ग्रस्त होने पर जल का जन्म होता है । इसका गुण 'रस' अर्थात् स्वाद है । इसके पश्चात् जल में विकार आने पर पृथ्वी पैदा होती है । पृथ्वी का गुण गन्ध माना गया है । उपर्युक्त के अनुसार सृष्टि का आदि क्रम निम्नलिखित बनता है- १. मन-२. आकाश-३. वायु-४ अग्निन-५. जल-६. पृथ्वी । ८१ मैंने आप लोगों को मनुष्यों के १२ सहस्त्र युग वर्ष को एक दैव युग का काल बताया है । इस तरह ७१ देव युग का एक मन्वन्तर होता है। दूसरे शब्दों में एक मन्वन्तर में मनुष्यों के आठ आख बावन हजार यतुर्युग होते हैं । ८२ मन्वन्तरों की संख्या गणना से परे अर्थात् असंख्य है और इसी प्रकार सृष्टि तथा प्रलय भी असंख्य हैं । जिस प्रकार कोई खेल खेलता है, उसी तरह मानो प्रजापति ब्रह्ना जी संसार की सृष्टि और प्रलय करने की क्रीड़ा पुनः-पुनः करते रहते हैं । ८३ प्रथम सत्ययुग में सब धर्म अपने चारों पैरों पर स्थिर रहता है । वह सत्य रूप में रहता है अर्थात् सभी लोग सत्य तथा धर्म का पालन करते हैं क्योंकि असत्व अथवा अधर्म द्वारा किसी को विद्या या धन आदि की उपलब्धि नहीं होती । विद्वानों ने धर्म के चार पैर-तप, ज्ञान यज्ञ और दान बताए हैं । 'सत्य' के बारे में अलग से कहा गया है क्योंकि उसे सब धर्मों में सर्वोत्तम माना जाता है । ८४ द्वापर, त्रेता और कलि युगों में मानवों द्वारा क्रमशः चोरी, असत्य तथा कपट को अपनाने से धर्म का एक-एक पैर कम होता जाता है । टिप्पणी- द्वापर युग आने पर मनुष्य चोरी करना शुरू कर देते हैं । इसके कारण धर्म का एक पैर नष्ट हो जाता है । ऐसी स्थिति में धर्म केवल तीन पैरों पर टिका रहता है । त्रेता युग में मनुष्यों में चोरी करने की प्रवृत्ति के साथ-साथ झूठ बोलने की आदत शुरू हो जाती है । इससे धर्म का दूसरा पैर ज्ञान समाप्त हो जाता है । कलियुग में मनुष्यो के द्वारा चोरी और झूठ के साथ-सथा छल-कपट भी अपनाया जाने लगता है । इससे धर्म का तीसरा चरण 'यज्ञ' भी खत्म हो जाता है (कुछ विद्वानों ने सभी के द्वारा यथाशक्ति परिश्रम कर धनोपार्जन करने और उसे सभी की आवश्यकतानुसार वितरित करने को 'यज्ञ' माना है) । 'यज्ञ' के समाप्त हो जाने के बाद धर्म 'एकपाद' रह जाता है । यहां 'मनुष्यों द्वारा' कथन का अर्थ 'अधिकांश लोोगों द्वारा' माना जाना चाहिए, क्योंकि धर्म और सत्य का पालन करने वाले महापुरुष प्रत्येक युग में रहते हैं । यह बात अलग है कि उनकी संख्या बहुत कम या नाम मात्र रह जाती है । ८५ सत्य सुग में मनुष्य नीरोग, समस्त सिद्धियों और अर्थों से युक्त होते हैं । उनकी आयु चार सौ वर्ष होती है । शेष तीन युगों में उनकी आयु का एक-एक चरण कम होता जाता है अर्थात् त्रेता युग में मनुष्यों की आयु तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में घटकर सौ वर्ष रह जाती है । यहां पर मनुष्यों की औसत आयु का वर्णन किया गया है । इसका आशय यह नहीं लेना चाहिए कि प्रत्येक युग के प्रत्येक मनुष्य की आयु उस युग में बताई गई निश्चित आयु के बराबर होगी । ८६ वेदों मे बताई गई मनुष्यों की उम्र तथा उनके द्वारा किए जाने वाले कर्मों के फल और उनके प्रभाव युग के अनुसार ही प्रवर्तित होते जाते हैं । आशय यह है कि सत्ययुग में मनुष्यों की उम्र, उनके कर्मों के द्वारा किए गए फल और उनका प्रभाव जिस उच्च स्तर का रहता है वह सब युग परिवर्तन के अनुसार क्रमशः कम होता चला जाता है । ८७ युग का परिवर्तन होने के साथ-साथ धर्म का ह्रास भी होता जाता है । इस तरह त्रेता, द्वापर और कलियुग में मनुष्यों द्वारा पालन किया जाने वाला धर्म सत्ययुग के स्तर का नहीं रहता वरन् उसका युगानुसार पतन होता जाता है । टिप्पणी- यहां धर्म शब्द पदार्थ के गुण का वाचक है, यज्ञ आदि का नहीं । ८८ सत्य युग का प्रधान धर्म तप, त्रेता का ज्ञान, द्वापर का यज्ञ और कलियुग का दान है । इस कथन का अर्थ यह है कि सत्य युग में तप करने को ज्ञान, यज्ञ और दान की अपेक्षा ज्यादा महत्व दिया जाता है । त्रेता युग में धर्म के अन्य अंगों की अपेक्षा ज्ञान साधना को सबसे अधिक महत्व दिाय जाता है । द्वापर के मनुष्यों द्वारा यज्ञानुष्ठान करने को सर्वाधिक महत्व दिया जााता है । कलियुग के मनुष्यों द्वारा धर्म के अन्य अंगों की पूर्णतः उपेक्षा कर दी जाीती है और दानशीलता को ही धर्म समझा जाता है । संक्षेप में, अलग-अलग युगों के अपने-अपने प्रमुख धर्म हैं । ८९ सृष्टि की सुव्यवस्था तथा उसका भली प्रकार संचालन करने के लिए परम तेजस्वी ब्रह्ना जी ने शरीर के चार अंगों- मुख, बाहु, उरु तथा चरण की तरह सभी लोगों को चार वर्णों में- ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा तथा उनके अलग-अलग कर्मों को निर्धारित किया । ९० ब्राह्नणों के लिए जो छः कर्तव्य कर्म निर्धारित किए हैं, वे हैं-वेदों को पढ़ना और उन्हेें दूसरों को पढ़ाना, यज्ञों को करना और करवाना एवं दान देना तथा लेना । ब्राह्नण के लिए इन कर्तव्यों का पालन करना परम धर्म है । ९१ क्षत्रियों के लिए आचरण में लाने योग्य जो धर्म बनाए हैं, वे हैं- प्रजा की रक्षा करना, (वेद) पढ़ना, दान लेना, यज्ञ करना और विषय भोगों में आसक्ति नहीं रखना । (मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रिय लोग विषय भोग में प्रवृत्त तो हो सकते हैं पर उन्हें उनमें आसक्त नहीं होना है । इसका कारण यह है कि विषय भोगों में आसक्त होने से मनुष्य अपने कर्तव्यों की ओर उचित ध्यान नहीं दे पाता । इसके परिणामस्वरूप उसका सर्वनाश हो जाता है ।) ९२ वैश्य के लिए निर्धारित प्रमुख कर्म हैं- व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती करना, पशुओं का पालन-पोषण और क्रय-विक्रय करना (जिससे पशुओं की रक्षा हो सके), दान देना, वेद पढ़ना और यज्ञ करना । ९३ ब्रह्ना जी ने शूद्र वर्ण के लिए एक ही कर्तव्य बताया है । यह कर्तव्य है ईर्ष्या तथा द्वेष से परे रहते हुए तीनों वर्णों (ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य) की सेवा करना । ९४ ब्रह्ना जी के उत्तम अंग मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्नण जन शेष तीनों (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) वर्णों से बड़े (ज्येष्ठ) हैं क्योंकि उनका जन्म सबसे पहले हुआ । ब्राह्नण वेद को धारण करने से इस संसार में सर्वश्रेष्ठ है, अर्थात् शेष तीनों वर्णों को उसके द्वारा किया गया विधान मानना चाहिए और उसको पूज्य समझना चाहिए । ९५ उन स्वयम्भू ब्रह्ना जी ने तपस्या द्वारा सृष्टि के प्रारम्भ में अपने मुख से ब्राह्नण की उत्पत्ति की, जिससे देवों को हव्य और पितरोों को कव्य प्राप्त होता रहे और सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा हो सके । यज्ञ की अग्नि में देवताओं के लिये दी जाने वाली आहुति 'हव्य' और पितरों के लिए दी जाने वाली आहुति 'कव्य' कही जाती है । ब्राह्नणों द्वारा यज्ञों में मंत्र पाठ का कार्य किया जाता है । यज्ञों द्वारा वायुमण्डल का तापक्रम बढ़ने, यज्ञ का सुगंधित हुआं आकाश मं ऊपर जाने आदि से आकर्षित होकर मेघ आकर वर्षा करते हैं । वर्षा के फलस्वरूप अन्न पैदा होता है । अन्न से ही प्राणियों का पेट पलता है । इस प्रकार ब्राह्नणों द्वारा कराए जाने वाले यज्ञ के फलस्वरूप प्राणियों का जीवन चलता है । इसी कारण उसे सृष्टि की रक्षा करने वाला कहा गया है । ब्रह्ना के मुख द्वारा उत्पन्न होने का एक प्रतीकात्मक अर्थ यह भी है कि ब्रह्न ज्ञान को मुखरित करने वाला व्यक्ति ही ब्राह्नण है । ९६ महर्षि मनु ब्राह्नण के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिसके मुख से बोले गए मंत्रों से पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्यौ लोकों में निवास करने वाले देवता सदैव अपना हव्य एवं पितर गण अपना कव्य पाते हैं, उपकार करने वाले ब्राह्नण से अधिक श्रेष्ठ प्राणी कौन हो सकता है । ९७ पृथ्वी आदि पांच महाभूतों में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ हैं । प्राणियों में वे जीव श्रेष्ठ हैं जो बुद्धि से काम करते हैं । इन बुद्धिमान प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है । सभी मनुष्यों की तुलना में ब्राह्नण श्रेष्ठ है । आशय यह है कि पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि कू तुलना में वे सभी जीव श्रेष्ठ हैं जिनमें प्राण हैं । इसके अंतर्गत वृक्षों, पौधों से लेकर मनुष्य तक आ जाते हैं क्योंकि उनमें प्राण शक्ति सक्रिय है । इन प्राणियों में वे जीव श्रेष्ठ हैं जो अपनी बुद्धि से काम ले सकते हैं । इन जीवों की श्रेणी में हाथी, कुत्ते, बिल्ली आदि से लेकर मनुष्य तक आ जाते हैं । मनु महाराज इस श्रेणी मेें भी मनुष्य को श्रेष्ठ बताते हैं क्योंकि मनुष्य की बुद्धि और विवेक सबसे अधिक विकसित है । परन्तु मनुष्यों में वे मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं जिन्होंने ब्राह्नणत्व प्राप्त कर लिया है अर्थात् ब्राह्नण । ब्राह्नण को मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ इसलिए कहा गया है क्योंकि वह अपना जीवन ज्ञान प्राप्त करने, ज्ञान दान करने और समाज कल्याण करने के कार्यों में लगाता है । ९८ ब्राह्नणों में भी वे ब्राह्नण श्रेष्ठ हैं जो वेद ज्ञान से युक्त हैं । वेद ज्ञान से युक्त ब्राह्नणों में वे ब्राह्नण श्रेष्ठ हैं जो वेदोक्त कर्मों से युक्त बुद्धि रखते हैं । इस श्रेणी के ब्राह्नणों में वे ब्राह्नण श्रेष्ठ हैं जो वेदोक्त कर्मों को करने वाले हैं क्योंकि ज्ञान और बुद्धि की उपयोगिता तभी हो जब उनके अनुसार कर्मों को किया जाए । ऐसे वेदोक्त कर्मों को करने वाले ब्राह्नणों में वे ब्राह्नण श्रेष्ठ हैं, जिन्होोंने ब्रह्न अर्थात् परमपिता परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है अर्थात् ब्रह्नज्ञानी ब्राह्नण समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है । ९९ केवल ब्राह्नण का जन्म ही धर्म की मूर्ति के रूप में होता है अर्थात् ब्राह्नण धर्म की साकार मूर्ति है । इसका कारण यह है कि धर्म के लिए उत्पन्न ब्राह्नण ब्रह्न ज्ञानी होने से मोक्ष प्राप्त करने योग्य होता है । १०० उत्पन्न हुआ ब्राह्नण धरती पर श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह सभी प्राणियों के धर्म रूपी कोश (खजाने) की रक्षा के लिए ईश्वर द्वारा उत्पन्न किया जाताहै । कुछ विद्वानों ने इसी के आधार पर कहा है कि ब्राह्नणत्व जन्म से नहीं होता वरन् वह परमात्मा की कृपा से उत्पन्न होता है । यहां ब्राह्नण से आशय ब्रह्नज्ञानी विद्वान से है । १०१ पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उस सबको ब्राह्नण अपना मानता है अर्थात् ब्रह्न सबमें व्याप्त है अतः सभी कुछ ब्राह्नण का है । इसलिए ब्राह्नण का यह स्वाभाविक कर्म है कि वह सभी प्राणियों को अपना रूप समझे और उन्हें अपने समान श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रयत्न करे । १०२ ब्राह्नण अपना ही अन्न खाात है, अपने ही वस्त्र आदि पहनता है तथा अपना ही धन आदि दान करता है । दूसरे लोग ब्राह्नण की कृपा से अन्न, वस्त्र तथा अन्य सभी वस्तुओं का उपभोग करते हैं । (वास्तव में ब्राह्नण का सारा जीवन ज्ञान प्राप्त करने और उसका प्रसार करने में लगा रहता है । वह पूरे समाज के लाभ तथा उन्नति के लिए कार्य करते हुए कभी धन प्राप्त करने की लालसा नहीं रखता । अतः ब्राह्नण की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का दायित्व पूरे समाज का होता है समाज के अन्य लोग उसे जो कुछ दान आदि देते हैं, वह उसी से अपना जीवन यापन करता है । परन्तु अन्य लोग ब्राह्नण की कृपा से ही धनार्जन करते और उसका उपभोग करते हैं । अतः ब्राह्नण जो कुछ उपभोग करता है, वास्तव में वह सब उसी का है ।) १०३ 'मनुस्मृति' नामक धर्मशास्त्र की रचना स्वयंभू मनु ने ब्राह्नण तथा अन्य वर्णों के लोगों के लिए आचरण योग्य कर्मों का ज्ञान प्रदान करने के लिये की । १०४ विद्वान ब्राह्नण को धर्मशास्त्र के अध्ययन में पूरा मन लगाकर प्रवृत्त होना चाहिए । उसे अपने शिष्यों को भी इस शास्त्र को पढ़ाना चाहिए । किसी कुपात्र को इस धर्मशास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए । कहने का अभिप्राय यह है कि इस धर्मशास्त्र उसी को पढ़ाना चाहिये जो सुपात्र होने के कारण उसका अधिकारी हो । १०५ इस धर्मशास्त्र को पढ़ने वाला तथा इसी के अनुसार आचरण करने वाला ब्राह्नण मानसिक, वाचिक और कायिक दोषों से दूर रहने के कारण उनसे मुक्त हो जाता है । मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आना और उनमें लिप्त होना मासिक दोष माना जाता है । वाणी द्वारा झूठ बोलना, बुरे वचन कहना आदि क वाचिक दोष कहा जाता है । शरीर द्वारा चोरी, परस्त्री से सम्बंध बनाना, दूसरों को किसी प्रकार की हानि पहुंचाना कायिक दोष हैं । इस धर्मशास्त्र (मनुस्मृति) को पढ़ने वाला तथा उसके अनुसार जीवन व्यतीत करने वाला उपर्युक्त सभी दोषों से मुक्त हो जाता है । १०६ इस शास्त्र को पढ़ने वाला तथा इसी के अनुसार अपने जीवन को व्यतीत करने वाला ब्राह्नण अपनी सात आगे और सात पीछे की पीढ़ियों तक को पवित्र कर देता है । सत्पात्र होने के कारण उसमें पूरी पृथ्वी को ग्रहण करने की योग्यता आ जाती है । कहने का आशय यह है कि ऐसा ब्राह्नण अपने उच्च ज्ञान तथा चरित्र के कारण पूरी पृथ्वी पर कहीं भी चला जाए, उसे सम्मान प्राप्त होता है । १०७ यह धर्मशास्त्र अभीष्ट अर्थ को प्राप्त करवाने वाला, बुद्धि का विकास करने वाला, कल्याणकारी, यश, दीर्घ आयु तथा मोक्ष प्राप्ति में सहायता देने वाला है । १०८ इस धर्मशास्त्र में सम्पूर्ण धर्म, कर्मों के गुण-दोष और चारों वर्णों (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के सनातन नियमो एवं आचारों को बतलाया गया है १०९ वेदों और स्मृतियों में बताया गया आचार (आचरण करने योग्य कर्मविधान ) ही परम धर्म है । अतः आत्मा का हित करने के अभिलाषी द्विज को इस आचार का पालन करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए । टिप्पणी- महर्षि मनु के अनुसार ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य 'द्विज' हैं । द्विज का अर्थ होता है जिसका दो बार जन्म हो । इन तीन वर्णों के लोग जिस समय जन्म लेते हैं वे ज्ञान रहित और शिक्षाविहीन होने के कारण 'शूद्र' की श्रेणी में आते हैं । जब उनका यज्ञोपवीत संस्कार होता है तथा वे गुरुकुल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते हैं उनका दूसरा जन्म होता है । इसी कारण वे 'द्विज' कहलाते हैं । ११० जो ब्राह्नण अपने आचार से भ्रष्ट हो जाता है वह वेद पाठ के फल को प्राप्त नहीं कर पाता तथा आचारवान ब्राह्नण संपूर्ण वेदोक्त फलों का अधिकारी होता है । इस प्रकार महाराज मनु ने आचार को सर्वोपरि प्रधानता दी है । अतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात उच्च स्तर का आचरण है । जो उच्च आचरण का पालन नहीं करता, उसे ब्राह्नण होने और वेदपाठ करने पर भी उसका फल नहीं मिलता । १११ महात्माओं ने अपने अनुभव से यह जाना है कि आचार से ही धर्म की गति है । आचार से रहित होने पर धर्म स्थिर नहीं रह सकता और न चल सकता है । अतः महर्षियों ने आचार को समस्त प्रकार की तपस्याओं का मूल आधार माना है । ११२ इस मनुस्मति के प्रथम अध्याय में संसार की उत्पत्ति का वर्णन है । दूसरे अध्याय में गर्भाधान तथा जातिकर्म आदि संस्कारों का, अपने अध्ययनकाल में ब्रह्नचारियों द्वारा पालन किए जाने वाले व्रतों, अनुष्ठानों और नियमों का तथा विद्या अध्ययन समाप्त हो जाने पर दीक्षित आदि होने की विधियों का वर्णन है । ११३ तृतीय अध्याय के विषय हैं- आठ प्रकार के विवाहों के लक्षण, महायज्ञों को करने की विधि तथा श्राद्ध कल्प । ११४, ११५ चौथे अध्याय में भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों जैसे-व्यापार, सेवा, उद्योग आदि के लक्षण और विद्या पूरी करने के बाद जीविकोपार्वजन में लगे गृहस्थोंके व्रतों का वर्णन है । पांचवें अध्याय में भक्षण करने योग्य (खाने योग्य) और भक्षण न करने योग्य पदार्थों का, तन-मन तथा बुद्धि की शुद्धि करने का और स्त्रियों के लिए आचरण योग्य धर्मानुष्ठानों का वर्णन किया गया है । छठे अध्याय में वानप्रस्थ धर्म, यति धर्म और संन्यास धर्म का उल्लेख है । इसके अंतर्गत तपस्वी द्वारा पालन किए जाने वाले नियम तथा मोक्ष प्राप्त करने के साधनों का वर्णन है । सातवें अध्याय में राजा के कर्तव्यों (धर्मों) उसके सामने उपस्थि होने वाले मुकदमों के निर्णय से सम्बंधित उपायों पर प्रकाश डाला गया है । ११६, ११७ आठवें अध्याय में गवाहों से विवाद विषयक प्रश्न पूछने तथा सही निर्णय पर पहुंचने के उपायों का उल्लेख किया गया है । नवें अध्याय में महिलाओं और पुरुषों के कार्यों का बंटवारा किया गया है । जुआरियों और चोर, डाकू आदि को उचित दण्ड देकर इस बुराइयों पर नियंत्रण पाने की विधियों तथा वैश्यों एवं शूद्रों के द्वारा आचरण करने योग्य धर्मों का उल्लेख है । दसवें अध्याय वर्ण संकरों की उत्पत्ति (जैसे-पुरुष क्षत्रिय, स्त्री ब्राह्नण या । पुरुष ब्राह्नण और स्त्री क्षत्रिय से उत्पन्न संतान) का और चारों वर्णों (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का संकटकाल में सामान्य धर्मों का परित्याग (आपद् धर्म) तथा कुछ ऐसे विशेष धर्मों का पालन करने का विधान है जो सामान्य स्थिति में मना है । ग्यारहवें अध्याय में संकटकाल में मजबूरी से किए गए या साधारण स्थिति में जानबूझकर अथवा अनजाने किए गए पापों के प्रायशिचतों का उल्लेख है । ११८ बारहवेें अध्याय में मृत्यु के बाद देहान्त प्राप्ति के साधन-भूत (उत्तम, मध्यम और अधम) कर्मों का, कर्मों के अच्छा या बुरा होने की परीक्षा करने की विधि का एवं मोक्ष देने वाले आत्मज्ञान का वर्णन है । ११९ इस भांति महर्षि मनु ने अपने इस ग्रंथ में समस्त प्रकार के देश धर्मों, विभिन्न वर्णें तथा उपजातियों के परम्परागत आचार-विचारों का, कुल धर्मों का तथा पाखण्डी लोगों द्वारा संसार में प्रचारित वेद विरुद्ध त्याग करने योग्य धर्मों का वर्णन किया है । उपर्युक्त से यह स्पष्ट है कि इस ग्रंथ में सभी प्रकार के आचार विचारों, करने योग्य और न करने योग्य कर्मों, धर्मों, तथा आपद् धर्म आदि का वर्णन है जिसके फलस्वरूप यह (मनुस्मृति) आचार-संहिता का विश्वकोश बन गया है । द्वितीय अध्याय १ मनु भगवान महर्षियों से कहते हैं-महर्षियो ! धर्मात्माओं (धर्म के ज्ञाता तथा उसका पालन करने वाले ) एवं राग-द्वेष से रहित (जिनमें प्रिय जनों के प्रति मोह नहीं और शत्रुओं के प्रति घृणा नहीं है) निर्विकार भाव से जीवन जीने वाले विद्वानों द्वारा सदैव पालन किया जाने वाला और हृदय से भली प्रकार जाना गया जो धर्म है, उसका एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो । आशय यह है कि मनुस्मृति में जिस धर्म का वर्णन किया गया है वह उन महान आत्माओं की अनुभूति का सार है जो वेद विद्या के विद्वान थे और जिनका व्यावहारिक जीवन विश्वबंधुत्व की भावना से ओतप्रोत था । अतः यह सभी प्रकार से आदर्श तथा अनुकरणीय है । २ कामना करना अथवा कर्म फल की इच्छा करना श्रेष्ठ नहीं है (इसका कारण यह है कि कामना प्रायः लौकिक विषयों को प्राप्त करने की होती है । इसी प्रकार जो कर्म, फल पाने की इच्छा से किया जाता है वह वांछित फल नहीं मिलने पर दुःख का कारण बनता है ।) किन्तु कोई कामना नहीं होना भी उचित नहीं है क्योंकि वेद का ज्ञान और उसके अनुसार कर्म करना भी कामना (इच्छा) से होता है । अतः कामना को पूरी तरह देना वांछनीय नहीं । अतः जिन कामनाओं या इच्छाओं का सम्बंध सांसारिक सुख-वैभव प्राप्त करने से है, वे त्यागने योग्य हैं लेकिन जो कामनाएं वेद विद्या को पाने तथा उसे अपने जीवन में लाने के लिए की जाती हैं, वे त्यागने योग्य नहीं हैं । निष्कर्ष यह है कि कामना अपने आपमें न तो बुरी है और न अच्छी । अतः उसको त्यागने की नहीं वरन् उसका लक्ष्य बदलने की आवश्यकता है । ३ कामना से ही कार्य करने की प्रवृत्ति या दृढ़ निश्चय अर्थात् संकल्प का जन्म होता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कामना का मूल संकल्प है । संकल्प अथवा दृढ़ निश्चय करने से ही यज्ञ पूरे होते हैं । नही वरन् सभी यम-नियम, व्रत, धार्मिक कार्य आदि संकल्प से ही होते हैं । ४ सच यह है कि इस जगत में कोई भी ऐसी क्रिया नहीं है जिसके पीछे कोई कामना नहीं हो । इच्छा के बिना किसी मनुष्य को कोीई कार्य करते हुए नहीं देखा जाता । मनुष्य जो कुछ भी करता है उसके पीछे कोई न कोई इच्छा या कामना अवश्य होती है । वस्तव में मनुष्य का कर्म उसकी इच्छा की ही चेष्टा है । कामना या इच्छा नहीं होने पर मनुष्य कुछ नहीं कर सकता । ५ शास्त्रोक्त कर्मों को करने की इच्छा रखने वाला ज्ञानी व्यक्ति इस संसार के सभी मनोवंछित पदार्थों (धन, यश, समृद्धि, सफलता आदि) ) को प्राप्त करता है । इस जीवन के पश्चात् उसे अमरलोक की प्राप्ति होती है अर्थात् वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है । ६ इस श्लोक में धर्म के प्रमाण बताए गए हैं । एकमात्र वेद ही पूरे धर्म का मुख्य आधार है । दूसरे शब्दों में वेदों में धर्म का पूरा प्रतिपादन किया गया है । इसके अतिरिक्त धर्म के तत्व को जानने वाले शास्त्रों, चरित्र की उत्तमता, महात्माओं के आचरण एवं आत्मा की संतुष्टि (अर्थात् जहां धर्मशास्त्रों में किसी विषय के बारे में कई पक्ष बताए गए हैं, वहां जिस पक्ष के विधान को मानने से आत्मा प्रसन्न तथा संतुष्ट हो ) को भी धर्म के तत्व का आधार मानते हैं । उपर्युक्त का अभिप्राय यह है कि धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिए सबसे पहले वेद को प्रमाण मानना चाहिए । यदि वेद से कहीं संतुष्टि नहीं हो पाती, शास्त्रों के ज्ञान को प्रामाणिक मानना उचित है । यदि किसी तत्व का निर्णय शास्त्रों से भी नहीं हो पाता तो महात्माओं के चरित्र (अर्थात् उन्होंने उस विषय में क्या निर्णय लिया) को पढ़कर निर्णय लेना चाहिए । यदि इससे भी संतुष्टि नहीं मिले तो अपनी आत्मा को जिससे संतुष्टि मिले वही करना चाहिए । ७ भगवान मनु ने जिन कर्मों का विधान वर्णों के लिए किया है उनका वेद ही आधार है । वे वेद को ही समस्त ज्ञान का मूल स्त्रोत मानते हैं । वे समस्त वेदों के अर्थ जानने वाले हैं । कहने का अर्थ यह है कि भगवान मनु ने जो कुछ कहा है वह वेद के अनुसार है । अतः मनुस्मृति एक प्रामाणिक ग्रन्थ है । ८ भगवान मनु का स्पष्ट निर्देश है कि विद्वान लोग वेदार्थज्ञानोचित सम्पूर्ण शास्त्र समूह को ज्ञान रूपी नेत्रों से सब विचार कर वेद की प्रामाणिकता से जांच कर अपने धर्म को निश्चित कर उसका पालन करें । मनुजी के कथन से यह अर्थ निकलता है कि मनुस्मृति में दिए गए विषय की जांच-परख करने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले यह देखना चाहिए कि इसमें जो उल्लेख किया गया है वह वेद पर आधारित है ? यदि वेद पर आधारित है तो वह स्वतः प्रमाण है । ऐसा कहने का उद्देश्य यह हो सकताहै कि मनु महाराज का विचार होागा कि यदि कोई दूसरा विद्वान उनके नाम से कोई वेद विरुद्ध ज्ञान मनुस्मृति में मिलाएगा तो भावी विद्वान उसे स्वीकार नहीं करेंगे । दूसरे मनुस्मृति को पढ़ने वाले को चाहिए कि वह इसे ज्ञानपूर्वक पढ़े । इस कथन द्वारा मनुजी ने भावी पीढ़ी को मनुस्मृति की समयानुकूल व्याख्या करने की पर्याप्त स्वतंत्रता दे दी है । यह निश्चय ही उनके महान भविष्यद्रष्टा और पूर्ण ज्ञानवान होने को स्पष्ट दर्शाता है । ९ वेदों तथा स्मृतियों में बताए गए धर्म का पालन करने से मनुष्य इस संसार में और परलोक में सदकर्मों के फलस्वरूप अति उत्तम सुख को भोगता है । १० यहां श्रुति शब्द का अर्थ वेद और स्मृति शब्द (भगवान मनु तथा अन्य महर्षियों द्वारा कथिन ज्ञान) का धर्मशास्त्र है । इनके सभी विषय प्रतिकूल तर्क के योग्य नहीं हैं अर्थात् वे प्रामाणिक हैं और उनके विरुद्ध कोई तर्क नहीं करना चाहिए । इसका कारण यह है कि इन दोनों से ही धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है । ११ धर्म के चार स्पष्ट लक्षण हैं- १. वेद द्वारा प्रतिपादित, २. स्मृतियों (धर्मशास्त्रों) द्वारा अनुमोदित, ३. महर्षियों द्वारा आचारित, ४. जहां किसी विषय के बारे में एक से अधिक पक्ष बताए गए हों, वहां जो धर्म अपनाने वाले व्यक्ति की आत्मा को प्रिय हो । इन कसौटियों पर सच्चा सिद्ध होने वाला तत्व ही प्रामाणिक धर्म है । १२ धर्म का उपदेश देने का विधान उन्हीं लोगों के लिए है जो अर्थ और काम में आसक्त नहीं हैं अर्थात् उन्हीं मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया जाता है जो अधिकाधिक धन कमाने या अधिकाधिक काम सुख पाने में डूबे हुए नहीं है । इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति धन लोभ या काम सुख में पूरी तरह डूबा है उसकी रुचि धर्म में नहीं रहती । ऐसे लोगों को यदि धर्म का उपदेश दिया जाए तब भी वे उसे अपनी आसक्ति के कारण समझेंगे नहीं । अतः मनु महाराज के अनुसार व्यक्ति को धनार्जन करने और काम सुख लेने में अनासक्त भाव रखना आवश्यक है अन्यथा वे अपने धर्म से पतित हो जाएंगे । धर्म तत्व को जानने के इच्छुक लोगों के लिए वेद ही सर्वोच्च प्रमाण हैं । १३ वेदों में जहां दो वचनों में आपस में विरोध हो अर्थात् एक स्थान पर जो कहा गया हो वही दूसरे स्थान पर उसके विपरीत बताया गया हो अथवा अलग-अलग अर्थ लेने के कारण स्वरूप में विपरीतता आ गई हो, वहां मनीषी लोग दोनों को बराबर महत्व देेते हुए दोनों को धर्म ही समझते हैं । १४ उपर्युक्त श्लोक के कथन को पुष्ट करने के लिए महाराज मनु उदाहरण देकर समझाते हैं । उदाहरणार्थ-वेद में एक स्थान पर यह कहा गया है कि सूर्य जब उदय हो रहा हो तब यज्ञ करना चाहिए, दूसरे स्थान पर बताया गया है कि सूर्योंदय होने से पहले यज्ञ करना चाहिए । इसी तरह कहीं सूर्य के अस्त होने से पहले यज्ञ करने के लिए कहा गया है तो कहीं सूर्य अस्त हो जाने के बाद । इस कथनों मेें कहीं भी आपस में विरोध नहीं समझना चाहिए । इस प्रकार के विकल्प वचन आने पर बताए गए सभी समयों में अग्निहोत्र सम्बंधी यज्ञ करना धर्मानुकूल है। १५ मनुष्य के जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों का वर्णन वेद के जिस प्रकरण में है उसी को मनुस्मृति में लिया गया है । हमने उसके अतिरिक्त अपनी ओर से अन्य कुछ नहीं कहा । १६ मुनि लोग वेदों का साक्षात्कार (दर्शन) करते हैं और वे ही लोग स्मृतियों को अपने स्मृति पटल पर अंकित कर स्मरण रखते हैं । अतः ऐसी लोक प्रसिद्धि है कि मुनियों का वचन भी प्रामाणिक है । १७ हमने श्रेष्ठ व्यक्तियों को भी धर्म के नियमों का उल्लंघन करने का साहस करते हुए देखा है परन्तु हमारा यह दृढ़ मत है कि धर्म के विपरीत आचरण करने वालों को परिणाम में भारी दुःख उठाना पड़ता है । कहने का आशय यह है कि मुनि गण विवेकशील होते हैं, अतः वे किसी तरह का गलत साहस नहीं करते । अतएव उनके कथन प्रामाणिक ही होते हैं । १८ ब्रह्नावर्त नामक देश जो स्वयं देवताओं द्वारा निर्मित किया गया है, वह सरस्वती और दृषद्वती नाम की देव नदियों के मध्यवर्ती भूभाग में बसा है । १९ उस देश अर्थात् ब्रह्नावर्त में रहने वाले (ब्राह्नणों, क्षत्रियं, वैश्यों तथा शूद्रों) चारों वर्णों एवं वर्ण संकरों द्वारा अपनाया गया परम्परागत आचार ही सदाचार (सतपरुषों के द्वाराा पालन किया जाने वाला ) है जो सदा से चला आ रहा है । २० अगर इष्ट कार्यों के करने में सदाचार के विपरीत किसी स्मृति में कोई विवरण आता है, ऐसी स्थिति में उस स्मृति को विदानुकूल नहीं समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि वदे कभी सदाचार के विरुद्ध नहीं होते । ( यह पद्य केवल मेधातिथि द्वारा विहित मनुस्मृति के भाष्य में है अन्य में नहीं । ) २१ ब्रह्नर्षियों के निवास अन्य पवित्र देश कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल तथा शूरसेनक हैं जो ब्रह्नावर्त के निकट स्थित हैं । २२ संसार के समस्त मानव अपने चरित्र और कर्मों के लिए इन देशों (ब्रह्नावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल और शूरसेनक ) में जन्मे ब्राह्नण से शिक्षा लें । कहने का आशय यह है कि इन देशों में रहने वाले ब्राह्नण का जीवन वैदिक शिक्षा के अनुसार पूरी तरह पवित्र एवं आदर्श रूप होता है । इसलिए उनका आचरण विश्व के सभी लोगों के लिए अनुकरण योग्य है । यह मानव मनोविज्ञान के अनुसार भी स्वाभाविक है क्योंकि समाज जिन व्यक्तियों को श्रेष्ठ समझता है, उनका अनुकरण सामान्य लोगों द्वारा किया जाता है । २३ हिमालय और विन्ध्याचल के बीच, सरस्वती नदी के पूर्व में तथा प्रयाग के पश्चिम में देश स्थित है उसका नाम मध्यदेश है । २४ पूर्वी समुद्र व पश्चिमी समुद्र तक और उन्हीं दोनों पर्वतों हिमालय तथा विन्ध्याचल के मध्य स्थित प्रदेश को विद्वज्जन आर्यावर्त अर्थात् का आवर्त (निवास) कहते हैं । २५ जहां पर काला मृग (हिरन) अपने स्वभाववश ही स्वच्छन्द विचरण करता रहता है (अर्थात् उसे कहीं से पकड़कर नहीं लाया गया है वरन् वह स्वेच्छा से घूमता रहता है ।) वह यज्ञ की पवित्र यज्ञिय भूमि है । इससे आगे की भूमि में म्लेच्छों का निवास है । (कुछ टीकाकारों ने कृष्णसार (काला) हिरन को ऐसा हिरन बताया है जिसकी चमड़ी अत्यधिक यज्ञों के उठते हुए धुएं के कारण काली हो गई है ।) २६ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य (द्विजाति) के लोगों को चाहिए कि वे ब्रह्नावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल, शूरसेनक, मध्य देश, आर्यावर्त, यज्ञिय देश में से किसी भी एक देश में निवास करने का प्रयत्न करें । शूद्रों को जहां भी जीविका के साधन मिलें वहां रहें । मनु महाराज नेे निवास के सम्बंध में द्विज जनों को जो निर्देश दिया है उसके पीछे यह मनोवैज्ञानिक तथ्य छिपा है कि मनुष्य के चरित्र पर उसके वातावरण तथा परिस्थितियों का बहुत प्रभाव पड़ता है । चूंकि ऊपर बताए गए देशों में उस काल में सात्विक वातावरण तथा परिस्थितियां थीं और द्विज जन भी धर्मानुरागी होते थे अतः उनके लिए वे ही प्रदेश निवास हेतु श्रेष्ठ थे । २७ ऋषियो ! मैंने आप लोगों से धर्म के कारण तथा पूरे संसार की उत्पत्ति का विवरण संक्षेप में कहा । कहा । अब आप वर्ण धर्मों (१. वर्ण धर्म, २. आश्रम धर्म, ३. वर्णाश्रम धर्म, ४. गौण धर्म, ५. नैमित्तिक धर्म) को ध्यान से सुनिए । २८ ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य लोगों का शरीर सांसारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पवित्र बनाने के लिए वैदिक विधि-विधान से गर्भाधान, जातकर्म तथा नामकरण आदि सभी संस्कार करने चाहिए । २९ मानव शरीर की रचना स्त्री के रज तथा पुरुष के वीर्य के मिश्रण से होती है । उसका विकास स्त्री के गर्भाशय में होता है । द्विजों के वीर्य और गर्भ से उत्पन्न दोषों को गर्भ शुद्धिकारक हवन, चूड़ाकरण (मुण्डन) और यज्ञोपवीत संस्कार नष्ट कर देते हैं । ३० वेदों और उपनिषदों आदि प्रामाणिक धर्मग्रंथों के अध्ययन और सत्य बोहने से,भौतिक पदार्थों का संकलन नहीं करने से, आध्यात्मिक साधना के व्रतों का पालन करने से, नित्य पूजा-अर्चना करने से, पुत्र उत्पन्न करने से (गृहस्थाश्रम का पालन करने हेतु), पर्वों पर किए जाने वाले यज्ञों से तथा विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले बड़े-बड़े यज्ञों (जैसे अश्वमेध, राजसूय आदि महायज्ञ) को करने से यह शरीर ब्रह्न प्राप्ति के योग्य होता है । इस प्रकार शरीर तथा मनोमस्तिष्क को शुद्ध एवं पवित्र बनाने के लिए दो उपाय बताए गए हैं- १. वैदिक संस्कार, २. स्वाध्याय, व्रत, यज्ञादि । ३१ जातक के जन्म लेने पर नाड़ा काटने से पूर्व 'जातकर्म' संस्कार किया जाता है । इसके उपरान्त 'प्राशन' संस्कार किया जाता है । इसमें वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुए सोने की सलाई अथवा चम्मच से शिशु को घी और मधु चटाया जाता है । ३२ जन्म के दसवें या बारहवें दिवस या उसकी परवर्ती किसी शुभ तिथि में, शुभ मुहूर्त में शिशू का नामकरण संस्कार किया जाता है । कुछ टीकाकारों का मत है कि अगर दसवें या बारहवें दिन शुभ मुहूर्त न आता हो तो ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जिस दिन भी शुभ मुहूर्त निकले उसी दिन नामकरण संस्कार करना उचित है । ३३ इस श्लोक में प्रत्येक वर्ण के नामकरण हेतु पृथक-पृथक नियम अपनाने के बारे में बताया गया है । ब्राह्नण का नाम मंगल सूचक शब्द से युक्त होना चाहिए (जैसे-आनन्द प्रकाश, ज्ञान प्रकाश, राम स्वरूप आदि), क्षत्रिय का नाम बलसूचक शब्द से युक्त होना चाहिए (जैसे-अजेय, विजय, शक्तिमान आदि), वैश्य का नाम धन सूचक होना चाहिए (जैसे-लक्ष्मीप्रसाद, धनपति, धनपाल आदि) तथा शूद्र का नाम सेवावृत्ति का सूचक होना चाहिए (जैसे-रामसेवक, कृष्णदास, चन्द्रास) आदि । ३४ भगवान मनु चारों वर्णों के नामों के साथ जोड़े जाने वाले उपनामों के बारे में बताते हैं कि ब्राह्नणों के नाम के साथ 'शर्मा' शब्द, क्षत्रियों के नामों के साथ 'रक्षा' का बोध कराने वाला शब्द, वैश्यों के नामों के साथ 'पुष्टि' का बोध कराने वाला शब्द तथा शूद्रों के नामों के साथ दासता का बोध कराने वाला शब्द जोड़ना चाहिए । ३५ कन्याओं के नामकरण सम्बंधी नियम हैं- १. नाम का उच्चारण सरलता तथा सुविधापूर्वक हो सके । २. उसका अर्थ तथा स्वरूप कोमल और मीठा हो । ३. नाम का अर्थ भली प्रकार स्पष्ट हो । ४. नाम मन को प्रिय लगने वाला और शुभ का सूचक हो । ५. नाम का अंतिम स्वर दीर्घ हो जैसे रामा, राधा, शुभ्रा आदि । ६. वह आशीर्वाद की ध्वनि रखने वाला हो जैसे-दिव्या, शारदा, सुषमा आदि । ३६ जन्म के चतुर्थ माह में शिशु को घर से बाहर निकालने का और छठे महा में अन्न प्राशन संस्कार करना चाहिए (अन्न प्राशन संस्कार में शिशु को घी, मधु या दूध के साथ अत्यन्त अल्प मात्रा में गेहूं, चावल, दाल आदि अन्न का सेवन कराया जाता है ) । चौथे और छठे महीने का विधान सुविधा की दृष्टि से किया गया है, यदि कुल परम्परा के अनुसार ये मांगलिक संस्कार कुछ समय आगे या पीछे करने का हो तो उसी का पालन करना चाहिए । ३७ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य अर्थात् द्विजाति के बालकों का जन्म के पहले या तीसरे वर्ष में अपनी सुविधा अनुसार वैदिक विधि से केश-मुण्डन संस्कार होना चाहिए । ३८ ब्राह्नण बालक का गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रिय बालक का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य के पुत्र का बारहवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार कराना चाहिए । इस संस्कार के बाद बालक को विद्या प्राप्ति के लिए गुरुकुल ले जाया जाता है । ३९ ब्रह्न तेज को पाने की इच्छा रखने वाले ब्राह्नण के बालक का गर्भ से पांचवें वर्ष में, विशेष बल पाने की कामना वाले क्षत्रिय का छठे वर्ष में और अधिक धनखेती आदि की इच्छा वाले वैश्य बालक का आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत करना चाहिए । आशय यह है कि ऐसे लोगों के बालकों का विद्या अध्ययन अन्यों से पहले करवा देना चाहिए । ४० सोलह वर्ष तक ब्राह्नण की, बाईस वर्ष तक क्षत्रिय की और चौबीस वर्ष तक वैश्य की 'सावित्री' का उल्लंघन नहीं होता । अतः इन बालकों का इस आयु से पहले यज्ञोवपीन संस्कार हो जाना चाहिए । यज्ञोपवीत के लिए इस श्लोक में 'सावित्री' (गायत्री) शब्द का प्रयोग किया गया है । यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही व्यक्ति को गायत्री जब का अधिकार प्राप्त होता है । ४१ यदि ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य बालकों का क्रमशः सोलह, बाईस और चौबीस वर्ष क उम्र तक यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता तो वे गायत्री मंत्र जप का अधिकार नहीं करते । अतः वे पतित होने के कारण आर्य पुरुषों की दृष्टि में तिरस्कृ बनते हैं और वे 'व्रात्य' कहे जाते हैं । ४२ उपर्युक्त श्लोक में कहे गए 'व्रात्यों' (जिन लोगों ने अधिकतम आयु बीत जाने पर भी यज्ञोपवीत संस्कार नहीं किया और न प्रायश्चित करने के बाद किया ) के साथ संकटकाल में भी खान-पान, विवाह आदि का सम्बंध नहीं करना चाहिए । ४३ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों के ब्रह्नचारियों के लिए कृष्णमृग, रुरुमृग तथा बकरे के चमड़े को (दुपट्टे की जगह प्रयोग करें ), सन ( बोरिया बनाने में प्रयोग की जाने वाली सुतली ), क्षौम ( रेशम ) तथा ऊन के बने कपड़े ( धोती और कोपीन के स्थान पर ) धारण करें । कुछ टीकाकारों न क्षौम का अर्थ 'अलसी' बताया है । शलोक के अर्थ में भी भिन्नता मिलती है । इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार है-ब्राह्नण ब्रह्नचारी को कृष्ण मृग के चर्म अथवा सम के, क्षत्रिय ब्रह्नचारी को रुरुमृग के चमड़े या क्षौम (रेशम) के तथा वैश्य ब्रह्नचारी को बकरे (अज) के चमड़े या ऊन के वस्त्र उपयोग करने चाहिए । ४४ ब्रह्नण ब्रह्नचारी की कमर में बांधी जाने वाली पेटी या पट्टी सूत से तीन तहों वाली, कोमल, चिकनी और सुखदायक बनानी चाहिए । क्षत्रिय ब्रह्नचारी की मेखला ( कमर पट्टी ) धनुष की डोरी के रूप में प्रयोग किए जाने वाले मूंज से तथा वैश्य ब्रह्नचारी की कमर पट्टी सन की डोरी से बनानी चाहिए । ४५ यदि ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य ब्रह्नचारियों की मेखला ( कमर पेटी ) बनाने के लिए सूत, मूंज और सन आदि नहीं मिल सकें तो इनके लिए क्रमशः कुश, अशमन्तक ( पथरीली धरती पर उगी घास, तृण ) तथा बल्वज (झाड़ियों के पास उगी घास) की तीन लड़ी वाली कमर पट्टी (मेखली) बनानी चाहिए । इनमें आवश्यकतानुसार एक, तीन या पांच गांठें बांधनी चाहिए । ४६ ब्राह्नण ब्रह्नचारी का जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) कपास की रूई से बने सूत का, क्षत्रिय ब्रह्नचारी का जनेऊ सन से बने धागे का और वैश्य ब्रह्नचारी का जनेऊ भेड़े के बाल से धागे का होना चाहिए । ब्राह्नण के जनेऊ में तीन लड़ियां होनी चाहिए और प्रत्येक में एक गांठ लगी होनी चाहिए । ४७ ब्राह्नण ब्रह्नचारी को बेल या पलाश पेड़ की लकड़ी की, क्षत्रिय ब्रह्नचारी को बड़ अथवा खादिर पेड़ की लकड़ी की और वैश्य ब्रह्नचारी को पीलू या गूलर की लकड़ी की लाठी ( दण्ड ) रखनी चाहिए । ४८ प्रमाण के अनुसार ब्राह्नण ब्रह्नचारी की लाठी ( दण्ड ) सिर के बालों तक, क्षत्रिय ब्रह्नचारी की लाठी ललाट तक और वैश्य ब्रह्नचारी की लाठी नाक तक लम्बी होनी चाहिए । ४९ उपरोक्त वर्णन के परिणाम अनुसार तीनों वर्णों के ब्रह्नचारियों के दण्ड सीधे, गांठरहित, सुंदर, उद्वेग न उत्पन्न करने वाले, बव्कल सहित एवं आग एवं आग से न जले हुए होने चाहिए । ५० ब्राह्नण आदि ( ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य ) ब्रह्नचारियों को जो सुलभ और रुचिकर हो ( पहले श्लोक में दिए वर्णन के अनुसार ) वह दण्ड लेकर सूर्य नारायण के सामने आकर उनको नमस्कार करें । इसके बाद जलती हुई की प्रदक्षिणा करें और तत्पश्चात् भिक्षाटन के लिए जाएं । ५१ यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ब्राह्नण ब्रह्नचारी को 'भवत्' शब्द का उपयोग वाक्य के पहले उच्चारण कर भिक्षा की याचना करनी चाहिए । जैसे-भवती भिक्षां यच्छतु । इसी क्रम में क्षत्रिय ब्रह्नचारी को 'भवत्' शब्द का वाक्य के मध्य में उपयोग कर भिक्षा मांगनी चाहिए, जैसे-भिक्षां भवती यच्छतु । वैश्य ब्रह्नचारी को 'भवत्' शब्द का वाक्य के अंत में प्रयोग करना चाहिए, जैसे भिक्षां यच्छतु भवती । ५२ सबसे पहले ब्रह्नचारी को उस गृहिणी से भिक्षा मांगनी चाहिए जो उसका अपमान नहीं करे और भिक्षा अवश्य दे । इस बारे में मनु महाराज ने सबसे पहले माता, उसके बाद मौसी और उसके पश्चात अपनी बहन और सबसे अंत में किसी विश्वसनीय सम्बंधिनी का क्रम रखा है । यह विधान इस दृष्टिकोण से रखा गया है ताकि नए बने ब्रह्नचारी का दूसरे के अपमान से मन दुःखी न हो । दूसरे ब्रह्नचारी स्वयं तथा उसके परिवार की स्तियां यह जान लें कि अब उस पर गुरु का पूरा अधिकार होने वाला है । ५३ भिक्षा में प्राप्त अन्न तथा सभी वस्तुओं को बिना किसी दुराव-छिपाव के गुरु के समाने रखना ब्रह्नचारी का कर्तव्य है । गुरु उसमें से अपनी इच्छानुसार लेने के बाद ब्रह्नचारी के लिए जितना छोड़ दे, उसे ही पर्याप्त जानकर वह अपनी भूख शांत करे । भोजन करते समय ब्रह्नचारी को अपना मुख पूर्व की ओर रखकर बैठना उचित है । ५४ भिक्षा में मिले अन्न को गुरु को समर्पित करने के बाद, बचे हुए को गुरु का प्रसाद जानकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके से ब्रह्नचारी की आयु बढ़ती है । इसका कारण मनु महाराज का यह मानना है कि शरीर का हित करने वाले अन्न को आयु वृद्धि के लिए पूर्व की ओर, यश के लिए दक्षिण की ओर, धन-धान्य के लिए पश्चिम की ओर तथा सत्य की अनुभूति पाने के लिए उत्तर की ओर मुख कर भोजन करना चाहिए । मनु जी ने ब्रह्नचारी के लिए आयु वृद्धि को सबसे अधिक महत्व दिया है क्योंकि अधिक आयु पाने से व्यक्ति हर प्रकार के सुख-वैभव को भोग सकता है । ५५ द्विज ( ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य ) के लिए स्मृतियों में प्रातः और सायं दो बार भोजन करने का विधान है अर्थात् दिन में तीन बार भोजन नहीं करना चाहिए । यह विधि अग्निहोत्र के समान पुण्य देने वाली है । यह बताकर मनु महाराज यह कहना चाहते हैं कि ब्रह्नचारियों को भी दिन में केवल दो बार भोजन चाहिए । ५६ द्विजाति के लोग ( ब्रह्नचर्य की अवस्था के उपरान्त भी ) तीन आचमन कर एकाग्रता के साथ भोजन करना शुरू करें और भोजन करने के बाद भी तीन बार आचमन करें । सभी अंगों ( दोनों आंख, कान के दोनों कान ) का गीले हाथों से स्पर्श करें । भोजन शांतिपूर्वक एकाग्र चित्त से करने तथा आंखों, नाक, कान आदि पर जल का स्पर्श करने से होने वाले लाभों के बारे में अब विज्ञान भी सहमत हो चुका है । मन शांत होने से भोजन सरलता से पचता है । अंगों पर जल का स्पर्श करने से मन शांत हो जाता है और उसे एकाग्र करने में सरलता होती है । ५७ मनुष्य को जैसा भोजन प्राप्त हो उसे देखकर मन में प्रसन्नता अनुभव करे । उसकी बिना निन्दा किए पूरा खा जाए, जूठन नहीं छोड़े । प्राप्त भोजन की प्रशंसा करे तथा मन में किसी तरह की हीन भावना नहं लाए । मुझे यह अन्न सदा प्राप्त हो, इस प्रकार उसका प्रतिनन्दन करे । आधुनिक शरीरशास्त्र तथा मनोविज्ञान के अनुसार भी भोजन करते समय क्रोध, चिन्ता, तवना, भय आदि के विचारों से पीड़ित होने पर वह भली प्रकार नहीं पचता और मनुष्य को भूख भी कम लगती है । ५८ ऊपर के श्लोक में बताई गई विधि से भोजन करने पर वह बल-वीर्य की वृद्धि करता है । निन्दा करते हुए खाया गया भोजन सामर्थ्य और वीर्य को नष्ट करता है । ५९ मनुष्य को खाने से बचा (जूठन) अन्न कभी किसी को नहीं देना चाहिए । इसी प्रकार उसे स्वयं भी नहीं खाना चाहिए । बीच में भोजन नहीं करें अर्थात् प्रातः और सांय के मध्य भोजन नहीं करना चाहिए । जिनती भूख हो उतना एक बार में ही खा ले और बिना कुल्ला किए कहीं नहीं जाए । भूख से अधिक भोजन करने से भांति-भांति के रोग उत्पन्न होते हैं और बिना कुल्ला किए बाहर जाने से मुंह से दुर्गंध आने लगती है । इन्हीं कारणों से ऐसा विधान किया गया है । ६० अपनी भूख से ज्यादा भोजन करने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है, आयु कम होती है, सुख के बजाय दुःख मिलता है और पुण्य की हानि होती है । यही नहीं वरन् अधिक खाने वाले की दूसरे लोग निन्दा भी करते हैं । अतः उतना ही भोजन करें जितना आवश्यक हो । चिकित्साशास्त्र के अनुसार भूख से अधिक भोजन करने से अतिसार, अपच, वायुविकार, भूख का न लगना आदि रोग हो जाते हैं । जहां आवश्यक मात्रा में भोजन करने से अच्छी नींद आती है, वहीँ अधिक भोजन करने से अनिद्रा, पेट दर्द आदि दुःखों को सहना पड़त है । शरीर की ऊर्जा को पेट में गए अतिरिक्त भोजन को शरीर से बाहर निकालने ( मल-मूत्र, पसीने आदि के रूप मेंं) के लिए आवश्यकता से अधिक श्रम करना पड़ता है जिससे आयु कम होती है । ६१ ब्राह्नण सदा ब्रह्न तीर्थ या प्रजापति तीर्थ अथवा देव तीर्थ से आचमन करे । उसे कभी पितृ तीर्थ से आचमन नहीं करना चाहिए । अगले श्लोक में यह बताया गया है ते तीर्थ हाथ में कहां होते हैं । ६२ हाथ के अंगूठे के मूल में ब्रह्न तीर्थ, कनिष्ठा उंगली का मूल प्रजापति तीर्थ ( काय तीर्थ ), इसी उंगली का आगे वाला भाग देव तीर्थ तथा अंगूठे एवं तर्जनी उंगली के बीच पितृ तीर्थ होता है । ६३ सबसे पहले तीन बार पानी (जल) से आचमन करें । इसके बाद दो बार मुख को धोना चाहिए । तत्पश्चात् जल से आंखें, कान, नाक, हृदय और सिर का स्पर्श करें । ६४ पवित्रा का इच्छुक धर्मात्मा व्यक्ति ठंडे और फेन रहित (शुद्ध) जल से ब्रह्न आदि तीर्थों से एकान्त में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे हुए आचमन करें । ( यह नियम ब्रह्नचर्य आश्रम का त्याग करने के बाद भी पालनीय है । ब्रह्न आदि तीर्थों के बारे में पहले के श्लोक संख्या ६२ में बताया जा चुका है । ) ६५ आचमन के समय जल (शुद्ध) जब ब्राह्नण के हृदय तक पहुंचता है तभी वह पवित्र होता है । कण्ठ में जल पहुंचने पर क्षत्रिय तथा मुख में जल पहुंचने पर वैश्य पवित्र होता है । शूद्र जल को छूने भर से पवित्र हो जाता है । ६६ जनेऊ (यज्ञोपवीत) को दाहिने हाथ से निकालकर बाएं हाथ में लेने पर ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य (द्विज) 'उपवीती' कहलाते हैं । दाहिने हाथ पर रखने से वह 'आवीती' और उसे (यज्ञोपवीत) गले से लगाने पर 'निवीती' कहलाता है । ६७ मेखला (कमर पट्टी), हिरन की खाल [ (मृग चर्म ) अथवा अन्य पशु की खाल जिसे ब्रह्नचारी उपयोग में ला रहा हो ], दण्ड, जनेऊ तथा कमण्डलु के नष्ट होने पर उन्हें जल में छोड़कर मंत्र पाठ द्वारा दूसरा धारण करना चाहिए । ६८ सोलह वर्ष का होने पर ब्राह्नण का, बाईस वर्ष का होने पर क्षत्रिय का, चौबीस वर्ष का होने पर वैश्य का केशान्त (मुण्डन) संस्कार करना चाहिए । ६९ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य स्त्रियों के सभी जातकर्म आदि संस्कार उसी आयु में करने चाहिए जिसमें उस वर्ण के पुरुषों के होते हैं परन्तु इन संस्कारों को करते समय वेदमंत्रों का पाठ नहीं करना चाहिए । ७० वेद में पुरुषों के लिए विवाह संस्कार की जो विधि बताई गई है वही विधि स्त्रियों के लिए भी है । स्त्रियों के लिए विवाह के बाद पति के अधीन रहने का विधान है । लेकिन विवाह से पहले उसे भी गुरुकुल में रहकर विद्या प्राप्त करने तथा प्रातः और सायं होम करने का अधिकार है । इसी तरह महिलाओं के भी पुरुषों के समान गर्भाधान आदि सभी सोलह संस्कार करने चाहिए । सोलह संस्कारों के विधि निरूपण में महर्षि मनु ने पुंल्लिंग का उपयोग किसी विशेष उद्देश्य से नहीं किया है । जिस तरह 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः' पुंल्लिंग प्रयोग होने पर भी स्त्रियों-पुरुषों सबके लिए समान अर्थ रखता है, इसी प्रकार सोलह संस्कारों के विधि निरूपण में किया गया मनु जी का पुंल्लिंग प्रयोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है । ७१ महर्षि मनु कहते हैं-ब्राह्नणो ! द्विजाति ( ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य) वर्णों की यज्ञोपवीत ( उपनयन ) सम्बंधी विधि यही है । यह जन्म की व्यंजक तथा पुण्यवर्धक है । इसे समाप्त कर अब मैं द्विजाति के कर्तव्य कर्म बताता हूं । ७२ गुरु अपने शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करवाने के बाद उसे अपने गुरुकुल में ही रखे, उसे धर्म-सम्बंधी नियमों को बताए तथा उनका पालन करवाए । उसे यज्ञहवन तथा सन्ध्या-उपासना आदि करने का यथाविधि प्रशिक्षण दे । ७३ गुरु अपने शिष्य को यह बताए कि वह हल्के वस्त्र पहनकर, अध्ययन शुरू करने से पहले पूर्वोत्तर (पूर्व-उत्तर) की ओर मुख करके सबसे पहले जल से तीन बार आचमन करे । शिष्य अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखे और हाथ जोड़ कर गुरु से अध्यापन हेतु प्रार्थना करे । शिष्य द्वारा ऐसा करने के उपरान्त ही गुरु उसे शिक्षा देना प्रारम्भ करे क्योंकि ऐसा शिष्य ही पढ़ाने के योग्य होता है । ७४ वेद अध्ययन के प्रारम्भ मेंं और उसकी समाप्ति पर शिष्य को सदैव गुरु के दोनों चरणों का स्पर्श करना और दोनों हाथ जोड़ कर गुरु को प्रणाम करना चाहिए । यही ब्रह्नांजलि है अर्थात् दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम करने का ब्रह्नांजलि कहते हैं । ७५ गुरु से वेद का अध्ययन करने से पहले और अध्ययन के बाद शिष्य का यह कर्तव्य है कि वह ब्रह्नाञ्जलि प्रणाम करे और फिर दोनों हाथों से गुरु के चरणों का स्पर्श करे, बाएं हाथ से गुरु के बाएं पैर का और दाहिने हाथ से दाहिने पैर का । ७६ शिष्य को वेदाध्ययन कराते समय गुरु को आलस्य नहीं करना चाहिए, बिना मन के नहीं पढ़ाना चाहिए । उसे अध्यापन से पूर्व शिष्य से कहना चाहिए, 'वत्स आओ ! पढ़ो ।' इसी तरह अध्ययन समाप्ति पर गुरु को शिष्य से कहना चाहिए, 'वत्स ! अब विश्राम लो ।' ७७ अध्ययन-अध्यापन और अंत में गुरु का यह कर्तव्य है कि शिष्य से 'ओ३म्' कहलावे । ऐसा नहीं करने पर पढ़ा हुआ पाठ सदा स्मरण नहीं रहता । वह धीरे-धीरे स्मृति से पूरी तरह विलीन हो जाता है । इस भांति गुरु-शिष्य दोनों का परिश्रम बेकार हो जाता है । इसलिए पाठ को स्मरण शक्ति में सदैव बनाए रखने के लिए अध्ययन के प्रारम्भ तथा अंत में सदैव श्रद्धासहित प्रणव का उच्चारण करना आवश्यक है । ७८ कुश के आसन पर पूर्व की ओर मुख किए हुए बैठा शिष्य दोनों हाथों में ग्रहण की हुई पवित्री ( अंगूठी के रूप में उंगलियों में पहने हुए गोल आकार जो कुश से ही बनाए जाते हैं ।) से अपने ऊपर जल छिड़ककर अपने को शुद्ध करे । इसके उपरान्त तीन बार प्राणायाम करके आंतरिक शुद्धि करे । इस भांति अपनी बाह्य और आंतरिक शुद्धि के बाद शिष्य 'ओम्' के उच्चारण योग्य होता है । ७९ प्रजापति ब्रह्ना जी ने तनों वेदों ( ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ) से उनके सार तत्व के रूप मे निकले क्रमशः अ, उ तथा म् अक्षरों से 'ओम्' शब्द का निर्माण किया है । ये तीनों अक्षर क्रमश भूः, भुवः तथा स्वः लोकों के वाचक हैं । आशय यह है कि ओम् का उच्चारण करने से परमशक्ति परमात्मा का ध्यान हो जाता है । टिप्पणी- प्रारम्भ में तीन ही वेद थे । तीनों वेदों से अभिचार से सम्बंधित मंत्रों को अलग करके महर्षि अंगिरा ने चतुर्थ वेद के रूप में अथर्ववेद बनाया । ८० मनु महाराज कहते हैं कि 'ओम्' की महिमा के उपरान्त ब्रह्ना जी ने तीनों वेदों से एक-एक पद निकालकर गायत्री मंत्र की रचना की है । ये तीन पद निम्नलिखित हैं- १. तत्सवितुर्वरेण्यं २. भर्गो देवस्य धीमहि ३. धियो यो नः प्रचोदयात । ८१ वेद ज्ञाता ब्राह्नण प्रातः और सायंकाल में ओंकार और व्याहृति- भूः भुवः स्वः को आगे लगाकर गायत्री मंत्र का जप करने से वेदों के पढ़ने के पुण्य को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार बना पूरा गायत्री मंत्र निम्नलिखित है- 'ओ३म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ।' ८२ अपने निवास स्थान से बाहर जाकर, आसन पर बैठकर एक माह तक निरन्तर इन तीनों ( १. प्रणव- ऊँ, २. व्याहृति- भूः, भुः, स्वः, ३. सावित्री- तत्) का प्रतिदिन तक सहस्त्र बार जप करने वाले द्विज का बड़े से बड़ा पाप भी उसी प्रकार दूर हो जाता है जिस प्रकार सांप केंचुली से मुक्त हो जाता है । ८३ वेद पाठ का अधिकार रखने वाला द्विजाति ( ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य ) का जो व्यक्ति त्रिक, प्रणव, व्याहृति और गायत्री का जप नित्य नहीं करता, प्रातः और संध्याकाल में सन्ध्या-वन्दन नहीं करता, वह साधु समाज में सबकी निन्दा का पात्र बनता है । ८४ ओंकार के बाद कही जाने वाली तीन महाव्याहृतियां नाश रहित हैं और इनके बाद बोला जाने वाला गायत्री मंत्र ( इसे सावित्री भी कहते हैं ) प्रजापति ब्रह्ना का मुख अथवा ब्रह्ना प्राप्ति का द्वार है । ८५ आलस्य को छोड़कर जो व्यक्ति तीन वर्षों तक ओंकार तथा तीन व्याहृतियों सहित तीन चरणों वाले गायत्री मंत्र का जप करता है, वह परब्रह्न परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । उसकी गति वायु के समान स्वतंत्र हो जाती है और वह कहीं भी आजा सकता है । वह शरीर की सीमा से परे जाकर आकाश के समान असीम रूप प्राप्त कर लेता है । ८६ ओंकार केवल एक अक्षर (ऊँ) ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन होने से सर्वश्रेष्ठ है, प्राणायाम परम तप है अर्थात् इससे बड़ा कोई तप नहीं, गायत्री ( सावित्री) से श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं और मौन की तुलना में सत्य बोलना श्रेष्ठ है । ८७ वेदों में बताई गई हवन-यज्ञ आदि सभी क्रियाएं अपना-अपना फल प्रदान कर समाप्त हो जाती हैं परन्तु प्रजापति ब्रह्ना का प्रतिपादक एक मात्र अक्षर 'ओम्' (ऊँ) का ब्रह्न के समान ही कभी नाश नहीं होता । इस श्लोक में मनु महिर्ष ने ओंकार के जप को वेदों में बताई सभी क्रियाओं से अधिक महत्व दिया है । यज्ञ-हवन आदि के मंत्रों के प्रारम्भ में भी ऊँ का उच्चारण उसके इसी सर्वोच्च महत्व के कारण किया जाता है । ८८ जप यज्ञ विधि रूप में निरूपित अनुष्ठेय यज्ञों से दस गुना श्रेष्ठ है । उपांशु जप श्रेष्ठता की दृष्टि से जप यज्ञ से सौ गुना श्रेष्ठ है । मानस जप, उपांशु जप से हजार गुना श्रेष्ठ है । टिप्पणी- जप यज्ञ तीन प्रकार के होते हैं- वाचिक जप यज्ञः इसमें साधक स्पष्ट स्वरों से, पदों एवं वर्णों से मंत्र का जप करता है । उपांशु जप यज्ञः इसमें जप आदि का धीरे-धीरे उच्चारण करने से जिह्वा तथा ओठों में कंपन होता है । ३. मानस जप यज्ञः इसमें साधक मन ही मन पद, वर्ण आदि का विचार कर, अर्थ का ज्ञान रखते हुए मंत्र या बीजाक्षर का जप करता है । ८९ अमावस्या तथा पूर्णिमा को किए जाने वाले विधि यज्ञों के सहित, पांच महायज्ञों के अंतर्गत जो चार पाक-यज्ञ हैं ( वैश्वदेव, बलिकर्म, नित्य श्रद्ध तथा अतिथि सेवा ) वे भी जप यज्ञ के सोहलवें भाग बराबर भी महत्व नहीं रखते । ९० इसमें कोई संदेह नहीं कि जप यज्ञ से ब्राह्नण को सिद्धि लाभ होता है । ऐसा यज्ञ करने वाला ब्राह्नण अन्य यज्ञोंं आदि को न करने पर भी जप यज्ञ की महिमा के फलस्वरूप संसार में सम्मानित होता है । ९१ एक कुशल सारथी जिस तरह अपने घोड़ों पर नियंत्रण रखने के लिए सदैव चेष्टा करता रहता है, उसी तरह विद्वान व्यक्ति को भी चित्त को आकर्षित करने वाले विषयों में भ्रमण करने वाली इंद्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए । ९२ महाराज मनु महर्षियों से कहते हैं- पहले के विद्वानों ने जिन ग्यारह इंद्रियों के बारे में बताया है, उन्हें मैं भली प्रकार क्रम में वताता हूं । ९३ कान (कर्ण), त्वचा, चक्षु, (नेत्र), जिह्वा, नाक, गुदा, लिंग, हाथ, पैर और वाणी ये दस इन्द्रियां बताई गई हैं । ९४ ऊपर के श्लोक में बताई इन्द्रियों में से पांच (कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका) इन्द्रियां ज्ञानेन्द्रियां हैं और पांच इन्द्रियां गुदा, लिंग, हाथ, पैर तथा वाणी ) कर्मेन्द्रियां है । अभिप्राय यह है कि कानों से सुनकर, त्वचा से स्पर्श द्वारा, आंखों से देखकर, जीभ ( जिह्वा ) से चखकर, नासिका से सूंघ कर हमें बाहरी जगत का ज्ञान होता है । अतः इन्हें ज्ञानेन्द्रियां कहा है । गुदा, शिश्न, हाथ, पैर, वाणी का उपयोग कर हम अपने कर्म करते हैं । अतः इन्हें कर्मेन्द्रियां कहा गया । ९५ मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है । इसमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों दोनों के गुण हैं ( इसका कारण यह है कि मन के माध्यम से ही सभी इन्द्रियां कार्य करती हैं ) । इस मन को जीत लेने पर पांचों ज्ञानेन्द्रियों और पांचों कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण हो जाता है । ९६ इस जगत में जीव इन्द्रियों के विषयों ( शब्द, रूप, रस, स्पर्श तथा गन्ध ) में आसक्त होकर दोष का भागी होता है अर्थात् इन्द्रियों में आसक्त होने से कोई न कोई दोष अवश्य आता है । इसके विपरीत इन्हीं इंद्रियों पर नियंत्रण रखने से सिद्धि को प्राप्त करता है । कहने का आशय यह है कि जो व्यक्ति दोषों से बचना और सिद्धि प्राप्त करना चाहता है उसे इंद्रियों का स्वामी होना चाहिए, दास नहीं । ९७ इस श्लोक में महाराज मनु ने विषयों का उपभोग करने से इच्छा की पूर्ति नहीं होने का उदाहरण दिया है । यह एक सच है कि एक इच्छा की पूर्ति हो जाने पर मनुष्य दूसरी इच्छा उत्पन्न होती है तथा उसकी पूर्ति होने पर तीसरी । इच्छाओं की तृप्ति होने के बजाय वे इस प्रकार बढ़ती हैं जैसे अग्नि में घी डालने पर उसकी ज्वाला और भड़क उठती है । ९८ एक व्यक्ति जो सब विषयों को प्राप्त कर ले और दूसरा सब विषयों का त्याग कर दे, उन दोनों में विषयों का त्याग करने वाला श्रेष्ठ है । इसका कारण यह कि जिस व्यक्ति को विषयों से सम्बंधित सामग्री उपलब्ध है, वह उनका दास बन जाएगा और इसके फलस्वरूप उसका तन-मन क्षीण हो जाएगा । यह भी सम्भव है कि व्यक्ति विषयों को प्राप्त करने के बाद भी शारीरिक रूप से उनको भोगने की सामर्थ्य नहीं रखता हो । इसके विपरीत जिस व्यक्ति ने सब विषयों का त्याग कर दिया है वह सभी प्रकार से बलशाली और संतुष्ट होता है । ९९ इन्द्रियों की विषयों में स्वाभाविक आसक्ति होती है, अतः उन्हें इनका सेवन करने से रोकना अर्थात् उन्हें जीतना सरल नहीं है । इसके लिए विषयों में जो बुराइयां या हानियां छिपी हैं उन्हें जानना आवश्यक है । किस-किस विषय में कौन-कौन सा दोष है इस बारे में व्यक्ति को भली प्रकार पता होना चाहिए । विषयों का केवल बाहरी और प्रारंभिक रूप ही आकर्षक तथा भोग के योग्य होता है, इसके अतिरिक्त विषयों का भोग बहुत दुःखदायक है । इस ज्ञान का अनुभव करने के बाद ही व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर संयम रख पाता है । १०० दुष्ट भाव रखने वाला व्यक्ति इंद्रियों का दास बनकर विषयों में प्रवृत्त रहता है । अतः वह वेद-अध्ययन, त्याग, बलिदानस, यज्ञानुष्ठान नियम पालन तथा तप आदि नहीं कर पाता । इसके परिणामस्वरूप उसे कुछ हो पाता । १०१ ऐसे ही व्यक्ति को जितेन्द्रिय समझना चाहिए जिसे अपनी प्रशंसा-निन्दा, प्रिय या अप्रिय वचन सुनने से, सन्दर और बदसूरत को देखने से, कोमल-कठोर के छूने से, अच्छे-बुरे स्वाद वाली वस्तुएं खाने से, अच्छी-बुरी गन्ध सूंघने से किसी तरह की खुशी या दुःख नहीं होता । कहने का आशय यह कि जिस व्यक्ति ने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वह हर अवस्था में शांत तथा संतुलित रहता है । १०२ पांच ज्ञानेन्द्रियों तथा पांच कर्मोन्द्रियों में से किसी भी एक इन्द्रिय के विषयों में रुचि होने से वह उसमें प्रवृत्त होने लगती है, इससे तत्वज्ञानी व्यक्ति का सारा विवेक एवं चेतना धीरे-धीरे उसी प्रकार नष्ट हो जाती है जैसे एक छोटा-सा छेद होने पर भरे हुए चर्म-पात्र का सारा जल शनैः-शनैः बह जाता है और पात्र रिक्त रह जाता है । १०३ इस श्लोक में इन्द्रियों के संयम द्वारा सभी प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करने के बारे में बताया गया है । मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह बाहरी इंद्रियों के समूह और मन को अपने वशीभूत करके ऐसे उपाय करे जिससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को सिद्ध किया जा सके और शरीर को किसी तरह का कष्ट नहीं हो । टिप्पणी- युपर्युक्त श्लोक में शरीर को किसी प्रकार का कष्ट न होने से आशय शरीर को साधने से है । जैसे योग साधना द्वारा योगी अपने शरीर, उसकी पूरी इन्द्रियों और मन पर धीरे-धीरे इतना नियंत्रण प्राप्त कर लेता है कि उसे विषयों को त्यागने अथवा उनको भोगने में कोई कष्ट नहीं होता । १०४ प्रातःकाल की संध्योपासना में एक आसन में खड़ा होकर उषा काल से लेकर सूर्योदय तक गायत्री मंत्र का जप करता रहे । इसी तरह सायंकाल की सन्ध्या वेला में सूर्यास्त के प्रारम्भ से लेकर तारों के दिखाई देने तक गायत्री मंत्र का जप करता रहे । १०५ प्रात- की गई सन्ध्या में गायत्री मंत्र का जप करने से रात भर के पाप नष्ट हो जाते हैं । सायं सन्ध्या में गायत्री मंत्र का जप करने से दिन भर के पाप नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार दोनों समय की गई सन्ध्या से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । उसकी बुरी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं और उसकी बुद्धि हो जाती है । १०६ जो द्विज (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य) प्रातःकाल एवं सायंकाल सन्ध्योपासना नहीं करता, वह शूद्र की तरह सभी प्रकार के द्विज कर्मों से बहिष्कृत किए जाने योग्य है । १०७ प्रतिदिन प्रातःकाल और सांयकाल वन (फुलवाड़ी, बाग-बगीचा आदि एकान्त स्थान ) में जाकर (नदी, सरोवर, झील आदि के ) जल के पास एकान्त में एकाग्रचित्त होकर सन्ध्या वन्दनादि नित्य कर्म के साथ द्विज गायत्री का जप करें । आशय यह है कि द्विज के लिए सन्ध्या-वन्दना आदि के साथ-साथ नियमित रूप से गायत्री का जप करना आवश्यक है । १०८ अनध्याय के दिनों में भी गुरु से शिक्षा ग्रहण करने, यज्ञ-मंत्रों के उच्चारण करने तथा दैनिक स्वाध्याय कनरे का कोई निषेध नहीं है । टिप्पणी- शास्त्रों में सूतक, पातक आदि शौच ग्रस्त होने के, श्रावणी आदि कुछ पर्वों के एवं आकाश में बादल घिरे होने के दिनों में स्वाध्याय करने की मनाही (निषेध) है । इन्हें ही उपर्युक्त श्लोक में अनध्याय के दिन कहा गया है । १०९ पूर्वोक्त नित्य कर्म ब्रह्नयज्ञ का ही एक रूप है । अतः उसे करने में अनध्याय किसी तरह से बाधा डालने वाला नहीं है । अनध्याय दिनों में इस ब्रह्नयज्ञ में ब्रह्न आहुतियों द्वारा होम होता है और हरेक आहुति के अंत में 'वषट्' शब्द बोला जाता है । ११० जो एक वर्ष तक श्रद्धा सहित नित्य पावन भाव से विधि अनुसार ( वन में जल के समीप एकान्त में पूरी एकाग्रता से ) सन्ध्यावन्दना, गायत्री जप तथा वेद पाठ करता है, उसके यहां दूध, दही, घी और शहद की वर्षा होती है अर्थात् ऐसा व्यक्ति हर तरह से धनवान और संपत्तिशाली बन जाता है । १११ जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका हो, ऐसा द्विज ( ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य) समावर्तन संस्कार ( वेदों का अध्ययन पूरा कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पूर्व काल की अवधि ) तक प्रातः तथा सायं हवन, भिक्षा मांगना, पृथ्वी पर सोना और गुरु हित कार्य को करते रहना चाहिए । कहने का आशय यह है शिक्षा समाप्त हो जाने लेकिन समावर्तन संस्कार नहीं होने तक द्विज को ब्रह्नचर्य के नियमों का पहले की तरह पालन करते रहना चाहिए । ११२ गुरु के अऩुसार दस श्रेणी के व्यक्ति धर्म-शिक्षा देने योग्य होते हैं-१. आचार्य पुत्र, २. सेवा करने वाला अर्थात् पुराना सेवक, ३. ज्ञान देने वाला अध्यापक, ४. आचारवान और धर्मात्मा व्यक्ति, ५. पवित्र आचरण करने वाला, ६. सत्य बोलने वाला, ७. समर्थ पुरुष, ८. धन य आजीविका देने वाला, ९. परोपकार करने वाला, १०. भलाई चाहने वाला स्वजातीय । ११३ विद्वान व्यक्ति बिना पूछे तत्वज्ञान को नहीं बतलाए । इसके अतिरिक्त अगर कोई यत्नपूर्वक कुछ कहने के लिए विवश करे तो भी कुछ बोलना नहीं चाहिए । अभिप्राय यह हैं कि जब तक दूसरा आग्रहपूर्वक सम्मित प्रकट करने के लिए अनुरोध नहीं करे अथवा श्रद्धा भाव से तत्वज्ञान की बात नहीं पूछे, बुद्धिमान व्यक्ति को सब कुछ जानते हुए भी अनजान ( जड़ ) की तरह व्यवहार करना चाहिए । ११४ अधर्म से पूछने पर जो उसका उत्तर देता है अथवा अधर्म से जो प्रश्न करता है, उनमें आपस में वैर हो जाता है अथवा उन दोनों में से एक की ( व्यतिक्रम करने वाले की ) मृत्यु हो जाती है । यहां मनु महाराज का आशय यह है कि न तो कभी किसी से अनुचित प्रश्न करना चाहिए और न किसी को अनुचित रीति से जवाब देना चाहिए । ऐसा करने से दोनों के बीच शत्रुता उत्पन्न हो सकती है जो किसी की मृत्यु तक का कारण बन सकती है । ११५ ऐसे शिष्य को विद्या दान नहीं करे जिसके पास धर्म और अर्थ नहीं हो तथा शिष्य में शिक्षा के अनुरूप सेवा ( गुरु-सेवा) करने की भावना न हो । जिस प्रकार ऊसर में बीज बोने से बीज नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं रखने वाले को विद्या देने से वह नष्ट हो जाती है । टिप्पणी- यहां, उपर्युक्त श्लोक में जिस शिष्य के पास धर्म न हो, का अर्थ ऐसे शिष्य से है जो धर्म के नियमों का पालन नहीं करता हो । ११६ वेदों का ज्ञान रखने वाला विद्वान चाहे अपनी विद्या किसी को बिना दिए ही मर जाए परन्तु घोर संकट आने पर भी उसे ( अपना ज्ञान ) अपात्र या अयोग्य शिष्य को नहीं दे । ११७ विद्या की देवी (सरस्वती ) ने विद्वान ब्राह्नण के पास आकर कहा, 'मैं तुम्हारी निधि ( कोश ) हूं, मेरी रक्षा करो । ऐसे व्यक्ति को मत दो अर्थात् ऐसे व्यक्ति को विद्या मत दो जो मेरी शक्ति को कमजोर कर दे । मुझे सत्पात्र को ही दो मेरा सदुपयोग करे जिससे मैं शक्तिशालिनी बनी रहूं ।' कहने का आशय यह है कि विद्वान व्यक्ति को अपनी विद्या सत्पात्र को देना चाहिए ताकि वह उसका सदुपयोग कर अपनी तथा समाज की उन्नति करे, जिसके फलस्वरूप विद्या का गौरव बढ़े । ईर्ष्या-द्वे से ग्रस्त रहने वाले व्यक्ति को विद्या देने से वह उसका दुरुपयोग करेगा जिससे उसकी महिमा कम होगी । ११८ जिस शिष्य को गुरु पवित्र, जितेन्द्रिय और ब्रह्नचारी समझे, जो विद्या रूपी कोश की रक्षा करने योग्य हो तथा जो आलस्य रहित हो उसे ही मुझे ( विद्या ) दे (पढ़ाये) । ११९ अगर कोई गुरु से श्रद्धापूर्वक विद्या नहीं ग्रहण करता वरन् जब गुरु दूसरे को पढ़ा रहा है तब चुपचाप चोरी से सनुकर उसे सीख लेता है, ऐसा व्यक्ति ब्रह्न की चोरी करने का अपराध करने के कारण नरक को जाता है । आशय यह है कि विद्या गुरु मुख से ही श्रद्धापूर्वक ग्रहण करना उचित है । गुरु आज्ञा बिना चोरी से विद्या सीखना एक अपराध है । कारण यह है कि कुपात्र विद्या सीखकर अपना अहित कर सकता है अतः गुरु आज्ञा आवश्यक है । १२० शिष्य का यह कर्तव्य है कि वह जब माननीय व्यक्तियों के मध्य बैठे तब जिस गुरु से उसने लौकिक विद्या ( आजीविका कमाने के योग्य बनाने वाली ), वैदिक विद्या ( वेद विषय से सम्बंधित ) और आध्यात्मिक विद्या ( ब्रह्न विषयक प्राप्त की हो उसे सर्वप्रथम प्रणाम करे । टिप्पणी- यदि तीनों विद्याएं भिन्न-भिन्न गुरुओं से प्राप्त की हैं तो सर्वप्रथम आध्यात्मिक गुरु, द्वितीय वेदज्ञान देने वाले गुरु तथा अंत में लौकिक विद्या के गुरु को प्रणाम करना उचित है । १२१ केवल एक मात्र गायत्री मंत्र का ज्ञाता ब्राह्नण अगर जितेन्द्रिय है तो उसे शिष्ट समाज में सम्मान मिलना चाहिए । इसके विपरीत वेदों का ज्ञाता ब्राह्नण भी अगर जितेन्द्रिय नहीं और निषिद्ध अन्न को खाने वाला है तथा सब कुछ बेचने वाला है तो उसको शिष्ट समाज में मान-सम्मान नहीं देना चाहिए । सारांश यह कि विद्या से हीन पर अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से कहीं श्रेष्ठ है जो विद्वान तो है परन्तु उसाक चरित्र अच्छा नहीं है । १२२ पूज्य जनों ( माता-पिता, गुरु और अपने से बड़ों ) की शय्या ( चारपाई, गद्दी आदि ) तथा आसन (कुर्सी, स्टुल, चटाई आदि ) पर स्वयं नहीं बैठें और यदि शिष्य शय्या, आसन आदि पर बैठा हो तो पूज्य जनों के आने पर उनके स्वागत में खड़ा होकर उन्हें प्रणाम करे । १२३ महर्षि मनु शिष्य को उठकर पूज्य जनों को प्रणाम करने का सूक्ष्म कारण बताते हुए कहते हैं कि युवा जनों के प्राण वृद्ध लोगों के आने पर ऊपर को उछलते हैं, अतः उनके खड़े होकर प्रणाम करने से प्राण ( शक्ति) अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ जाते हैं जिससे वे अपने को संतुलित तथा स्वस्थ अनुभव करने लगते हैं । १२४ अपने से आयु, विद्या, शक्ति आदि में बड़े पुरुषों की प्रतिदिन सेवा करने और उन्हें प्रणाम करने का स्वभाव रखने वाले व्यक्ति की आयु, ज्ञान और यश बढ़ते हैं । इसका कारण वह है कि वृद्ध लोग या पूज्य जन सेवा तथा सम्मान से प्रसन्न हो जो आशीर्वाद देते हैं उससे आयु बढ़ती है । वे लोग अपने जो अनुभव सुनाते हैं उससे ज्ञान में वृद्धि होती है । पूज्य जन जब छोटों की दूसरी जगह जाकर प्रशंसा करते हैं उससे उनका यश बढ़ता है । १२५ गुरु और अपने से बड़ों के आने पर उठकर इस तरह कहना चाहिए, 'मैं अमुक नाम वाला आपको प्रणाम करता हूं ।' इस तरह अपने नाम, गोत्र आदि को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए । १२६ बुद्धिमान व्यक्ति जिन वृद्ध व्यक्तियों को नाम-गोत्र सहित प्रणाम करना आवश्यक नहीं समझे उन्हें 'मैं प्रणाम करता हूं ।' यह कहकर अभिवादन करें माननीय स्तियों को भी इसी विधि से प्रणाम करना चाहिए अर्थात् उन्हें भी अपना नाम-गोत्र बताना आवश्यक नहीं । १२७ जिन बड़े लोगों को नमस्कर किया जाए उनका नाम नहीं लेना चाहिए, अभिवादन में अफने नाम के बाद 'भोः' शब्द का उच्चारण करना चाहिए । ऋषियों ने 'भोः' शब्द को नामों का स्वरूप कहा है । १२८ गुरु आदि श्रेष्ठ लोगों को अपने अभिवादन के उत्तर में ब्राह्नण से-' सौम्य आयुष्मान भव' कहना चाहिए । अगर 'सौम्य' कहने के स्थान पर अभिवादन करने वाले का नाम लिया जाए तो उसके नाम के अंतिम व्यञ्जन के स्वर को प्लुत ( तीन मात्राओं वाला ) कर देना चाहिए । इससे उस व्यक्ति के प्रति आदर भाव की अभिव्यक्ति होती है (जैसे-आयुष्मान भव शर्माsss) । १२९ जो ब्राह्नण यह भी नहीं जानता कि अभिवादन के उत्तर में किस तरह का आशीर्वाद देना चाहिए, उसे प्रणाम या नमस्कार आदि नहीं करना चाहिए क्योंकि वह नमस्कार के अयोग्य और शूद्र है । १३० मिलने के लिए आए ब्राह्नण से अभिवादन तथा आशीर्वाद के विनिमय के बाद ब्राह्नण से उसकी कुशलता, क्षत्रिय से उसकी नीरोगता (अनामय), वैश्य से उसका क्षेम तथा शूद्र से उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछना चाहिए । १३१ धर्म को जानने वाले ज्ञानवान पुरुष को चाहिए कि दीक्षित व्यक्ति चाहे उसकी आयु से छोटा क्यों न हो लेकिन वह उसका नाम लेकर कभी नहीं बुलाए । उसे सदैव 'भो' या 'भवत' शब्द से ही सम्बोधित करे । १३२ जो दूसरे की पत्नी हो तथा जिससे अपना किसी प्रकार से योनि सम्बंध (रक्त सम्बंध ) नहीं हो ( अर्थात् जो बहन आदि नहीं हो ), उससे वार्तालाप करते समय 'भवति, सुन्दरि, भगिनी' आदि कहें । १३३ गुरुजन, पूज्य पुरुष तथा मामा, चाचा, श्वसुर, यज्ञ कराने वाला कभी अपनी आयु से छोटे हों तब भी मिलने पर खड़े होकर उनका अभिवादन करना चाहिए तथा-यह मैं हूं-(मैं अमुक नाम वाला हूं ।) कहकर अपना नाम-गोत्र आदि बताना चाहिए । १३४ मां की बहन (मौसी), मामी, पत्नी की मां (सास), पिता की बहन (बुआ), ये चारों (मौसी, मामी, सास एवं बुआ) गुरु की पत्नी के समान पूज्य हैं । १३५ अपने बड़े भाई की सवर्णा पत्नी (ब्राह्नण पुरुष द्वारा ब्राह्नण स्त्री से विवाह करने पर उसकी पत्नी सवर्णा कही जाती है ।) को प्रतिदिन ही अभिवादन करना चाहिए । जाति वालों तथा सम्बंधियों की स्त्रियों को परदेश से जाने पर (या उनके परदेश से घर आने पर ) प्रणाम करना चाहिए । १३६ मां की बहन (मौसी), पिता की बहन (बुआ फूफी ) तथा अपनी ज्येष्ठ बहन, तीनों को अपनी माता के समान आदर-सम्मान प्रदान करना चाहिए । यद्यपि यह निश्चित है कि इन तीनों से माता का पद उच्च है । १३७ एक ही नगरवासियों के साथ लगातार दस वर्ष तक रहने से, कलाकारों के साथ पांच वर्षों तक रहने से, वेदज्ञ ब्राह्नणों के साथ तीन वर्ष तक रहने से तथा अपने जाति के बन्ध-बान्धवों के साथ कुछ दिनों तक रहने से मित्रता हो जाती है । १३८ क्षत्रिय सौ वर्ष का वृद्ध हो और ब्राह्नण दस वर्ष का बालक हो तो भी उन दोनों में ब्राह्नण को पिता के समान और क्षत्रिय को पुत्र के समान समझना चाहिए । वसातिव में किसी भी आयु का ब्राह्नण पिता तुल्य होता है । १३९ न्याय से अर्जित धन (चाचा, मामा आदि) जाति बन्धु, वेदों के अनुसार कार्य करने वाला आचारशील व्यक्ति, आयु में अपने से बड़ा और विद्या से युक्त पुरुष ये पांच आदर योग्य (मान्यता के ) स्थान हैं अर्थात् इन पांचों को महत्व देना चाहिए । इनमें भी धन की तुलना में सम्बंध का, सम्बंध अपेक्षा आचार का, आचार की तुलना में आयु का तथा आयु से विद्वता का अधिक महत्व है । १४० ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों वर्णों के जिस व्यक्ति में उपर्युक्त श्लोक (श्लोक संख्या १३९) में बताए गए पांचों गुणों में जितने ज्यादा गुण हों, उसे उतना अधिक आदरणीय मानना चाहिए । यदि शूद्र व्यक्ति भी सौ वर्ष की आयु का हो जाता है तो उसे भी आदरणीय मानना चाहिए क्योंकि आचारवान, बुद्धिमान और संयमी व्यक्ति ही उतनी आयु प्राप्त कर सकता है ( अपने जीवन के दीर्घ अनुभव के कारण वह आदरणीय स्थान प्राप्त कर लेता है और उसके अनुभव से लाभ लेने में ही बुद्धिमानी है । इसी कारण मनु महाराज ने उसे आदरणीय माना है ) । १४१ चक्र (पहिये) वाले रथ पर सवार व्यक्ति, नब्बे से अधिक उम्र वाले व्यक्ति, रोगी, बोझा उठाए हुए व्यक्ति, स्त्री, स्नातक, राजा तथा वर (दूल्हा) इन आठों को आगे जाने का मार्ग देना चाहिए और स्वयं एक ओर हट जाना चाहिए । १४२ उपर्युक्त श्लोक में बताए लोग अगर कहीं एक साथ एकत्रित हों तो उनमें सबसे अधिक महत्व उस व्यक्ति को देना चाहिए जो स्नातक है और उसके बाद राजा को महत्व देना चाहिए अर्थात् इन दोनों को पहले मार्ग देना चाहिए । राजा और स्नातक अगर दोनों एक-दूसरे के सामने आ जाएं तो राजा के लिए यही उचित है कि वह स्नातक के लिए मार्ग छोड़ दे क्योंकि राजा के लिए स्नातक का सम्मान करना उपयोगी है । १४३ 'आचार्य' उस ब्राह्नण को कहते हैं जो शिष्य का उपनयन संस्कार करके उसे अपने पास रखकर वेद का ज्ञान तथा यज्ञ-यागादि करने की विधि पढ़ाता तथा सिखाता है । १४४ 'उपाध्याय' वह ब्राह्नण कहलाता है जो अपनी आजीविका के साधन रूप में एक वेद या वेद के कुछ अंश अथवा वेदों के किन्हीं अंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, धन्द तथा ज्योतिष) के बारे में शिष्य को पढ़ाता है । १४५ 'गुरु' वह ब्राह्नण कहा जाता है जो अपने शिष्य के गर्भाधान आदि संस्कार कराता तथा अन्न से उसका पालन-पोषण करता है । १४६ 'ऋत्विक' उस ब्राह्नण को कहते हैं जो यज्ञकर्म के लिए अग्नि का आह्वान करके उसे उत्पन्न करता है, पाक यज्ञ, बलिवैश्वदेव आदि तथा अग्निष्टोम आदि यज्ञों को पूरा करने के लिए उसे वरण किया जाता है । १४७ वह ब्राह्नण माता-पिता के तुल्य सम्माननीय होता है वेद विद्या को पढ़ाकर अपने शिष्य के दोनों कानों को पवित्र करता है । १४८ एक आचार्य का सौ उपाध्यायों से, पिता का सौ आचार्यों से और माता का एक हजार पिताओं से भी अधिक गौरव है । १४९ जन्म देने वाले और वेद विद्या पढ़ाने वाले दोनों ही व्यक्ति पिता कहलाते हैं, परन्तु वेद विद्या के ज्ञान से शिष्य का यह लौकिक जीवन और परलोक दोनों ही सुधरते हैं । अतः वेद विद्या का ज्ञान देने वाले का महत्व अधिक है । १५० काम के वश में आकर माता-पिता जब संभोग करते हैं और उसके फलस्वरूप मां के गर्भवती हो जाने से बालक का जन्म होता है । इस प्रकार माता-पिता द्वारा संतान को जन्म देना एक संयोग मात्र है । संतान प्राप्ति की इच्छा से माता-पिता द्वारा संभोग किए जाने पर भी उन्हें काम तृप्ति मिलती है । १५१ उपर्युक्त श्लोक में बताई पिता की स्थिति के विपरीत वेद ज्ञाता ब्राह्नण अपने शिष्य को गायत्री उपदेश देकर उसे दूसरा जन्म देता है, तभी शिष्य द्विज कहलाता है । इस भांति वेदज्ञ ब्राह्नण द्वारा दिया गाय दूसरा जन्म सत्य, अजर तथा अमर है । ब्रह्न ज्ञान पाने से द्विज अपने सच्चे तथा अमृतत्व रूप को पहचानता है । अतः आचार्य का महत्व पिता से अधिक है । पिता उसे शूद्र रूप में उत्पन्न करता है पर आचार्य उसे 'द्विज' के उच्च आध्यात्मिक वर्ग में लाता है । १५२ ब्रह्नाचारी को चाहिए कि वह वेद का आंशिक ज्ञान कराने वाले उपाध्याय को भी इस उपकार के फलस्वरूप गुरु के रूप में माने । वास्तव में वेद का ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वश्रेष्ठ उपकार है जिसका प्रतिदान करना असम्भव है । १५३ वेद सुनने योग्य जन्म करने वाला अर्थात् शूद्र से द्विज बनाने वाला और अपने धर्म का उपदेश देने वाला ब्राह्नण चाहे बालक हो वह धर्म के अनुसार वृद्ध व्यक्ति के लिए भी पिता के समान आदरणीय होता है । १५४ अङ्गिरस के विदज्ञ पुत्र ने अपनी आयु से भी बड़े चाचा, मामा आदि को वेद विद्या का ज्ञान दिया और उन्हें 'हे पुत्रोंं' कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वह ज्ञान के क्षेत्र में उनसे बड़ा था । १५५ इस पर अङ्गिरस के बड़ी आयु के पितृव्यों ने क्रोधित होकर देवताओं से पूछा कि 'हे पुत्र' का क्या अर्थ होता है । देवताओं ने उन्हें समझाया और एकमत से बताया कि अङ्गिरस ने आप लोगों को जो 'हे पुत्र' कहा है, वह न्यायोचित है । ज्ञान युक्त बालक भी अज्ञानी वृद्धों के लिए माननीय होता है । १५६ जो ज्ञानरहित है वही बालक है और उसे वेद मंत्र पढ़ाने वाला ही उसका पिता है । अतः शिक्षा और ज्ञान देने वाला पिता तुल्य है । कहने का तात्पर्य यह कि व्यक्ति की आयु नहीं वरन् उसकी ज्ञानोपलब्धि महत्वपूर्ण होती है । १५७ ज्ञान और आचरण का आयु, बालों की सफेदी, धन एवं उच्च कुल आदि से अधिक महत्व है । आशय यह है कि जो व्यक्ति ज्ञानवान तथा उच्च आचरण वाला है वह अपने से बड़ी आयु के लोगों, वृद्धजनों, धनवानों और ऊंचे कुल में जन्म लेने वालों की अपेक्षा समाज के लिए अधिक उपयोगी है, अतः अधिक महत्वपूर्ण भी । १५८ ब्राह्नण के सम्मान का आधार उसका ज्ञान है, क्षत्रिय के सम्मान का आधार उसकी वीरता-पराक्रम है, वैश्य का सम्मान उसकी धन-सम्पत्ति पर आधारित रहता है । शूद्रों का सम्मान अपने वर्णानुसार स्वाभाविक कर्मों को करने से होता है । १५९ व्यक्ति के बाल सफेद होने से वह बड़ा नहीं होता अर्थात् आदरणीय नहीं हो जाता । युवा वयक्ति भी ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद, बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में सम्मान योग्य हो जाता है । १६० शिक्षा हीन ब्राह्नण काष्ठ (लकड़ी) के हाथी और चमड़े के हिरन के समान निरर्थक है । इन तीनों का कोई महत्व नहीं है क्योंकि वे नाम के लिए ही ब्राह्नण, हाथी या हिरन हैं, सचमुच में नहीं । १६१ जैसे नपुंसक व्यक्ति स्त्रियों को काम सुख देने में अयोग्य होने के कारण उनके लिए निष्फल है, जैसे गायों में गाव (जिसका अण्डकोश निकाल दिया जाता है ताकि वह मैथुन और गर्भाधान नहीं कर सके ) निष्फल है तथा जैसे अज्ञानी को दान देने से वह निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार वेद ज्ञान से रहित ब्राह्नण निर्थक है । १६२ धर्मात्मा व्यक्ति (जैसे आचार्य, गुरु, प्रवचन कर्ता आदि) को अपनी शिक्षा देने का कार्य अहिंसा द्वारा करना चाहिए अर्थात् उसे शारीरिक या मानसिक दण्ड देने के बजाय समझाने-बुझाने का उपाय अपनाना चाहिए । उसे प्रणियों को उपदेश देने के लिए प्रिय एवं मधुर वाणी का ही उपयोग करना चाहिए । १६३ जिसका मन तथा वाणी सब प्रकार से शुद्ध हैं और उसके वश मं हैं, ऐसा ही प्राणी वेदान्त के सभी फलों को प्राप्त कर लेता है । १६४ स्वयं दुःखी होने पर भी किसी दूसरे व्यक्ति को दुःख नहीं दे, दूसरे को हानि पहुंचाने का विचार तक नहीं करे तथा जिस वचन से कोई दुःखी हो सकता है, ऐसा स्वर्ग पाने में बाधा डालने वाला वचन नहीं कहे । १६५ ब्राह्नण को सम्मान पाने से सदा बचने का प्रयत्न करना चाहिए और उसे विषतुल्य समझना चाहिए । इसके विपरीत अपमान की सदैव इच्छा करे और अपमान करने वाले को क्षमा कर दे । इस श्लोक में ब्राह्नण को सामाजिक मान अपमान से ऊपर उठकर जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है, ताकि वह अपने तटस्थ दृष्टिकोण के कारण समाज को लाभ पहुंचा सके । १६६ जूसरों द्वारा अपमान किए जाने पर भी क्षमा कर देने वाला मनुष्य सुख से सोता है, सुख सहित जागता है तथा सुखपूर्वक ही इस संसार में विहार करता है परन्तु अपमान करने वाला मनुष्य अपने द्वारा किए गए पाप से नष्ट हो जाता है । १६७ जात कर्म से लेकर उपनयन तक संस्कार प्राप्त द्विज गुरुकल में रहता हुआ वेद ज्ञान प्राप्त करने के लिए आगे बताए जाने वाले तप का संग्रह करें । १६८ द्विज को शास्त्रों मे बताए गए अनेक तरह के विशेष तपों ( जैसे-यम-नियम, गुरु सेवा, सत्य पालन, शाकहार आदि ) का करते हुए उपनिषदों एवं पूरी वेद विद्या को ग्रहण करना चाहिए । १६९ इस जगत में वेदं की शिक्षानुसार अपने जीवन को व्यतीत को व्यतीत करने से बड़ा कोई तप नहीं है । अतः अगर श्रेष्ठ ब्राह्नण वास्तव में तप करना चाहता है तो उसे वेदों का अध्ययन करना चहिए । १७० वह ब्राह्नण सिर से से लेकर पैर के नाखून तक कठोर तपस्या करता है जो गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने के बाद भी प्रतिदिन अपनी सामर्थ्यानुसार वेदों का स्वाध्याय करता है । आशय यह है कि वेदाध्ययन करना तपस्या करने के समान है । १७१ जो ब्राह्नण अन्यान्य कार्यों (यज्ञ, जप आदि) में प्रवृत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना छोड़ देता है, वह जीते हुए भी अपने वंशसहित शुद्र बन जाता है । कहने का आशय यह है कि ब्राह्नण का प्रमुख कर्तव्य वेदों का अध्ययन करना है । १७२ वेद वाक्यानुसार ब्राह्नण का तीन बार जन्म होता है-प्रथम मातृगर्भ से, द्वितीय यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा, तृतीय यज्ञ दीक्षी द्वारा । १७३ पूर्व श्लोक में वर्णित तीन जन्मों में द्विज का यज्ञोपवीत संस्कार रूपी जो दूसरा जन्म होता है उसमें बालक की माता गायत्री (सावित्री) और पिता (यज्ञोपवीत कराने वाला) आचार्य होते हैं । १७४ ब्राह्नण को उपनयन संस्कार (मौञ्जीबन्धन) से पहले वेद में बताए किसी कर्म को करने का अधिकार नहीं । वह वेद में बताए यज्ञ आदि करने तथा वेद विद्या का अध्ययन करने का अधिकार मौञ्जीबन्धन के बाद ही प्राप्त करता है । इसीलिए वेद-विद्या को देने वाला आचार्य पिता कहलाता है । १७५ बालक का उपनयन संस्कार जब तक न हो जाए उससे वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं कराना चाहिए । वास्तव में उस समय तक वह शूद्र कहलाता है और शूद्र को वेद मंत्रों का जप करना मना है । बालक के पिता आदि का स्वर्गवास हो जाने पर उससे वेदमंत्रों का उच्चारण करवाया जा सकता है । १७६ यज्ञोपवीत संस्कार होने पर व्रतों (हवन के लिए समिधा का लाना, दिन में निद्रा नहीं लेना ) का पालन तथा वेद का उपदेश और ग्रहण क्रमशः विधिपूर्वक करना चाहिए लेकिन यह यज्ञोपवीत से पहले करना मना है । १७७ उपनयन संस्कार में जिस वर्ण के बालक हेतु जिस प्रकार का चर्म, सूत्र, मेखला तथा दण्ड धारण करने का निर्देश किया गया है, अन्य समस्त प्रकार के व्रतों में उन्हीं वस्तुओं को धारण करने का विधान समझना चाहिए । १७८ ब्रह्नचारी गुरु के पास रहते हुए अपनी सभी इन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण रखे । आगे बताए गए नियमों का अपने तप की सिद्धि के लिए दृढ़ता से पालन करे । १७९ ब्रह्नचारी को नित्य स्नान करने के बाद पवित्र होकर देवताओं, ऋषियों एवं पितरों का जल द्वारा तर्पण करना चाहिए । समिधाओं को लेकर यज्ञ-हवन द्वारा देवताओं का पूजन करना चाहिए । १८० ब्रह्नचारी को निम्नलिखित वस्तुओं को पूरी तरह त्याग देना चाहिए-मधु (शहद), मांस, सुगन्धित द्रव्य, पुष्पहार, खट्टी-मीठी चटपटी चीजें, स्त्रियों की संगत, सड़े पदार्थ (जैसे मदिरा, सिरका आदि) तथा जीव हिंसा । १८१ ब्रह्नचारी को मनोविकार उत्पन्न करने वाले निम्नलिखित कार्य नहीं करने चाहिए-शरीर में तेल-घृत मलना, उबटन लगाना, आंखों में अंजन या काजल नाचना-गाना या संगीत वाद्य बजाना । १८२ जुआ खेलने में, लोगों के साथ झगड़ा में, दूसरों की बुराई या निन्दा करने में, झूठ बोलने में, स्त्रियों को देखने और उनके साथ हंसी-मजाक करने में, दूसरों को चोट मारने या उनका वध करने में कभी प्रवृत्त नहीं होना चाहिए । १८३ ब्रह्नचारी को हमेशा अकेला सोना चाहिए और कामवासना में न तो प्रवृत्त होना चाहिए और न कामुक चिन्तन करना चाहिए । उसे अपना वीर्यपात नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे उसके ब्रह्नचर्य व्रत का नाश होता है । १८४ यदि ब्रह्नचारी को सोते हुए स्वप्न दोष हो जाता है और उसका वीर्यपात हो जाता है तो उसे स्नान करने के बाद सूर्य का पूजन तथा तीन बार 'पुनर्मामित्वेन्द्रियम..' मंत्र का जप करना चाहिए । १८५ ब्रह्नचारी आवश्यकता के अनुसार प्रतिदिन पानी का घड़ा, फूल गोबर, मिट्टी और कुश लाए । कहने का आशय यह है कि प्रतिदिन गुरु, गुरुकुल और व्यक्तिगत आवश्यकतानुसार ये वस्तुएं लाए, उनका संग्रह नहीं करे । वह प्रतिदिन भोजन के लिए भिक्षा मांगकर लाए । १८६ ब्रह्नचारी को प्रत्येक दिन नियम क अनुसार ऐसे घरों से भीख मांग कर लानी चाहिए जहां यज्ञों का आयोजन किया जाता है एवं वेदों का अध्ययन होता है । उसे ऐसे घरों से भिक्षा लानी चाहिए जो धार्मिक नित्य कर्मों के कारण समाज में भली प्रकार प्रतिष्ठित है । जिन घरों में वेदों का स्वाध्याय नहीं होता और यज्ञों का अनुष्ठान नहीं किया जात वहां से भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । १८७ अपने गुरु, अपनी जाति तथा वंश वालों एवं बन्धु-बान्धवों के घरों से ब्रह्नचारी को भीख नहीं मांगनी चाहिए । अगर कभी दूसरों के घरों से भीख नहीं मिले तो पहले बन्धु-बांधवों के घरों से, वहां से नहीं प्राप्त होने पर कुलजनों से, वहां से भी न प्राप्त होने पर अपनी जाति वालों से और वहां से भी निराश होने पर गुरु के घर से भिक्षा मांगनी चाहिए । १८८ पूर्वोक्त श्लोकों में बताए योग्य गृहों से भिक्षा नहीं मिलने पर अथवा ऐसे घरों के न होने पर ब्रह्नचारी को गावं के किसी भी घर से भिक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिए । परन्तु उसे भिक्षा के लिए वाणी का दुरुपयोग ( जैसे गिड़गिड़ाना या अपने को हीन बताना) नहीं करना चाहिए और न ही महापापी लोगों के घरों से भिक्षा ले । १८९ दूर से समिधा लाकर अर्थात् जहां से वे मिल जाएं, वहां से लाकर किसी ऊंची जगह पर उन्हें रख दे, तत्पश्चात् उन समिधाओं से प्रातः काल और सांयकाल हवन करे । १९० अगर स्वस्थ रहते हुए भी कोई ब्रह्नचारी सात दिन तक बिना भिक्षा याचना किए तथा बिना हवन किए रहता है तो उसे प्रायश्चित करने हेतु 'अवकीर्णि' नामक व्रत करना चाहिए । १९१ ब्रह्नचारी को अनेक घरों मे भिक्षा याचना करके अपनी क्षुधा पूर्ति करनी चाहिए, कभी किसी एक ही घर से भिक्षा लेकर क्षुधा पूर्ति नहीं करनी चाहिए । महर्षियों के अनुसार भिक्षा में मिले भोजन को ग्रहण करने से ब्रह्नचारी की वृत्ति उपवास के समान हो जाती है । १९२ अगर किसी ब्रह्नचारी को ऋषि के रूप में देवयज्ञ और पितृकर्म (श्राद्ध) आिद से सम्बंधित ब्रह्न भोज में बुलाया जाता है तो उस दिन केवल एक घर के भोजन द्वारा क्षुधा शांत करने पर भी वह अपने व्रत में ही स्थित रहता है । १९३ पूर्वोक्त श्लोक में वर्णिन कर्म केवल ब्राह्नण ब्रह्नचारी के लिए है, क्षत्रिय अथवा वैश्य ब्रह्नचारी के लिए यह विधान नहीं है । १९४ आचार्य आज्ञा दे या नहीं दे, ब्रह्नचारी का यह कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन यत्न सहित अध्ययन करे और आचार्य की सेवा करने में लगा रहे । प्रतिदिन आचार्य के निर्देश की प्रतीक्षा नहीं करे वरन् एक बार वह जो आज्ञा दे उसे भली प्रकार समझकर नित्य उसका पालन करे । १९५ ब्रह्नचारी को अपने तन-मन, बुद्धि, वाणी और सभी इन्द्रियों पर संयम रखकर हाथ जोड़कर और नम्रता भरे भाव से गुरु के सामने रहना और आदेश पाने के लिए उनका मुख देखते रहना चाहिए । १९६ ब्रह्नचारी को गुरु के द्वारा अनुमति मिलने पर कि वह बैठ जाए, बैठना चाहिए । जब तक गुरु अनुमति नहीं दे उनके सम्मुख करबद्ध और विनम्र भाव से खपड़ा रहे । ब्रह्नचारी को ऐसे समय अपना दाहिना हाथ सदैव अपनी चादर (ओढ़ने के वस्त्र) से बाह निकालकर रखना चाहिए । १९७ गुरु के सन्निध्य में (समीप) रहते हुए ब्रह्नचारी को सदैव सादी वेशभूषा तथा साादा खान-पान अपनाना चाहिए । उसे हमेशा गुुरु के सोने के बाद सोना और गुरु के जाग्रत होने से पूर्व जाग का अभ्यास करना चाहिए । १९८ गुरु से वार्तालाप करते समय ब्रह्नचारी को सोते हुए सा नहीं रहना चाहिए अर्थात् पूर्णतः जागरूक रहना चाहिए । उसे लेटे या बैठे हुए भी नहीं रहना चाहिए तथा गुरु को पीठ नहीं दिखानी चाहिए । १९९ यदि आचार्य आसन पर बैठे हुए शिष्य को आज्ञा देते हों, उसे उनके सामने खड़े होकर सुनना चाहिए । अगर गुरु खड़े हों तो शिष्य को उनके निकट पहुंच जाना चाहिए । अगर शिष्य को गुरु या आचार्य उसकी ओर आते दिखाई दें, उसे दौड़ कर उनके पास जाना चाहिए । यदि आचार्य चलते-चलते बोल रहे हों, शिष्य को चाहिए कि वह उनके पीछे चलते हुए बात करे । २०० शिष्य का यह कर्तव्य है कि अगर आचार्य / गुरु आज्ञा देते हुए अथवा अपने पीछे आते हुए दिखाई दें तो वह उनके सम्मुख जाकर खड़ा हो जाए । अगर वह दूर हों तो दौड़कर उनके पास पहुंच जाए और यदि वे शयन कर रहे हों तो उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ध्यान से सुने । गुरु के साथ सिर झुकाकर बातचीत करे । २०१ ब्रह्नचारी के लिए यह बात ध्यान रखने योग्य है कि आचार्य की शय्या से उसकी शय्या नीची होनी चाहिए । उसे आचार्य (गुरु) के सम्मुख उनके आसन से ऊंचे आसन पर नहीं बैठना चाहिए । इसी तरह गुुर के सम्मुख यथाविधि आदरपूर्वक बैठना उचित है, मनमाने ढंग से नहीं । २०२ ब्रह्नचारी को गुरु की अनुपस्थिति में भी उनका नाम नहीं बोलना चाहिए और न उनके सम्मुख (उनका नाम) बोलना चाहिए । उसे भूलकर भी अपने गुरु की चाल-ढाल या बोलने की रीति की नकल नहीं करनी चाहिए । २०३ गुरु के पीठ पीछे आदरपूर्वक उनके नाम का उच्चारण करे अर्थात् उनके नाम से पूर्व 'परम आदरणीय' या 'श्रीयुत परमपूज्य' आदि विशेषण लगाए । गुरु के सामने किसी भी प्रकार उनके नाम का उच्चारण नहीं करे । गुरु के साथ दुष्ट आचरण करने वाला शिष्य इस लोक तथा परलोक में अधोगति पाता है । २०४ शिष्य को चाहिए कि जहां गुरु की बुराई या निन्दा की जा रही हो वह वहां से उठकर चला जाए या अपने कान बंद कर ले । कान बंद करने का आशय यह है कि गुरु निन्दा करने वाले से स्पष्ट कह दे कि वह उसकी बात सुनना नहीं चाहता। मनु जी ने शिष्य को गुरु निन्दक से बहस करने अथवा उससे लड़ने की सलाह नहीं दी क्योंकि दोनों ही स्थितियों में बात का बतंगड़ बनने की अधिक संभावना होती है । चुप रहने, कान में उंगली डाल लेने या निन्दा को सुनने से मना कर देने पर गुरु निन्दा करने वाले के पास चुप रह जाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता । गुरु की निन्दा नहीं सुनने के फलस्वरूप शिष्य के मन में गुरु के प्रति कोई संदेह नहीं जन्म लेता । २०५ शिष्य द्वारा गुरु की बुराई करने पर वह मरने के बाद गधे की योनि में, गुरु वे ऊपर झूठा दोष लगाने वाला कुत्ते की योनि में, गुरु के धन का भोग करने वाला कीट योनि में तथा गुरु से ईर्ष्या रखने वाला मकोड़े (मकोट) की योनि में जन्म लेता है । २०६ शिष्य को चाहिए कि वह कभी दूर से गुरु की पूजा नहीं करे वरन् उनके पास जाकर पूजा करे । गुरु की पूजा करते समय सदैव शांत मुद्रा में रहे, क्रोध की मुद्रा में की गई पूजा विपरीत फल देती है । शिष्य को उस समय भी गुरु की पूजा नहीं करनी चाहिए जब वे अपनी स्त्री के साथ हों । अगर शिष्य किसी वाहन पर सवार हो अथवा आसन पर बैठा हो तो उससे उतर कर गुरु को नमस्कार करे । २०७ प्रतिवात उस वायु को कहते हैं जो शिष्य की ओर से गुरु जहां उपस्थित हैं उस दिशा की ओर जाती है । अनुवात उस वायु को कहते हैं जो गुरु की ओर से शिष्य जिस दिशा में बैठा है उस तरफ जाती है । इन दोनों ही स्थितियों या जगहों पर शिष्य, गुरु के साथ नहीं बैठे । यदि वातावरण या स्थिति ऐसी हो कि गुरु शिष्य की बात नहीं सुन पाते हों अथवा वे स्वयं सुनना नहीं चाहते तो शिष्य कुछ नहीं बोले । २०८ महाराज मनु के विचारानुसार शिष्य गुरु के साथ बैल (भैंसा), घोड़ा, ऊंट आदि से जुड़ी गाड़ियों (बैल गाड़ी, भैंसा गाड़ी, ऊंट गाड़ी) में बैठ सकता है । इसके अतिरिक्त मकान की छत पर, पाषाण शिला पर, चटाई पर, लकड़ी या तत्थर की चौकी पर भी वह गुरु के साथ बैठ सकता है । २०९ शिष्य को अपने गुरु के भी गुरु के साथ वैसा ही सम्मानपूर्ण आचरण रखना चाहिए जैसा कि वह गुरु के साथ रखता है । गुरु के पास (गुरुकुल में) रहता हुआ शिष्य गुरु से अनुमति लिए बिना वहां आए अपने माता -पिता, चाचा आदि का भी अभिवादन नहीं करे । २१० ब्रह्नचारी को चाहिए कि वह विद्या-गुरुओं के समान ही पिता, चााचा, मामा आदि तथा अदर्म से दूर रहने की प्रेरण देने वालोों एवं सदमार्ग दिखलाने वालों का आदर-सम्मान करे । २११ ब्रह्नचारी उन व्यक्तियों का, जो उसकी अपेक्षा विद्या तथा तप में श्रेष्ठ हैं, अवस्था में अपने से बड़े गुरु पुत्र का और गुरु के बन्धु-बान्धवों का अपने गुरु के समान ही आदर तथा सत्कार करे । २१२ गुरु पुत्र आयु में अपने से छोटा हो, समान आयु का हो, अध्ययन या अध्यापन कार्य करता हो, यज्ञ कर्म में ऋत्विक हो अथवा केवल यज्ञ दर्शन हेतु आया हो, वह गुुरु के समान पूजनीय है । २१३ शिष्य को चाहिए कि यद्यपि वह गुरु पुत्र का गुरु के समान ही आदर-सत्कार करे परन्तु गुरु पुत्र के शरीर में उबटन लगाने, उसे स्नान कराने, उसका जूठा भोजन करने तथा उसके पैर धोने के कार्यों को नहीं करे । २१४ गुरु की सवर्णा स्त्रियां (पत्नियां ) गुरु के समान पूज्य हैं और गुरु की असवर्णा स्त्रियों (पत्नियों) को खड़े होकर नमस्कार करना चाहिए । गुरु के समान आदर करने से आशय यह है कि शिष्य को गुरु की सवर्णा पत्नियों (ब्राह्नण गुरु की ब्राह्नण कुल में उत्पन्न पत्नी ) के आने पर उन्हें पाद्य, अर्घ्य तथा आचमन आदि देना चाहिए पर असवर्णा पत्नियों (ब्राह्नण गुरु की अन्य वर्णों जैसे-क्षत्रिय और वैश्य कुल में जन्मी पत्नी) को केवल खड़े होकर प्रणाम करना उचित है । २१५ शिष्य इन कर्मों को नहीं करे जैसे गुरुपत्नी के शरीर पर उबटन लगाना, उसे नहलाना, उसके शरीर को दबाना, उसके बालों को संवारना या उसका श्रृंगार करना । २१६ बीस वर्षीय ब्रह्नचारी जिसे गुण-दोष का ज्ञान हो जाता है, उसे चाहिए कि गुरु की युवा पत्नी के चरणों का सपर्श नहीं करे वरन् नहीं करे वरन् दूूर से ही धरती का स्पर्श कर ले । २१७ महाराज मनु युवा ब्रह्नचारी का युवती गुरुपत्नी से दूर रहने का कारण बताते हुए कहते हैं कि यह स्त्रियों का स्वभाव है कि वे पुरुषों को अपनी श्रृंगार चेष्टाओं द्वारा मोहित कर उनमें दूषण उत्पन्न कर देती हैं । अतः विद्वान पुरुष स्त्रियों के सम्बंध में असावधान नहीं रहते और उनसे दूर रहते हैं । २१८ स्त्रियां काम एवं क्रोध के वश में हुए मूर्ख अथवा विद्वान पुरुष को बुरे मांर्ग पर ले जाने में समर्थ होती हैं । अतः काम और क्रोध के वश में होते ही बुद्धिमान व्यक्ति भी अपना ज्ञान खो देता है । २१९ इन्द्रियां बहुत ही बलवान होती हैं । ये इन्द्रियां मूर्ख व्यक्ति को ही नहीं वरन् ज्ञानवान व्यक्ति को भी अपने वश में कर लेती हैं । अतः पुरुष युवा मााता, बहन तथा पुत्री के साथ भी अधिक समय एक एकान्त में नहीं रहे । २२० युवा शिष्य को चाहिए कि वह युवती गुरु पत्नी को बिना पृथ्वी का स्पर्श किए ही 'अमुक गोत्र और नाम वाला मैं आपको प्रणाम करता हूं' कहकर अभिवादन करे । २२१ युवा शिष्य प्रवास से लौटकर आने के पश्चात् पूज्य पुरुषों का चरण स्पर्शकर उन्हें प्रणाम करे और युवा गुरु पत्नियों को बिना चरण स्पर्श किए ही दूर से प्रणाम कर उनका अभिवादन करें । २२२ जिस प्रकार खनित्र (जमीन खोदने का यंत्र कुदाल ) से धरती को खोदता हुआ मनुष्य पानी को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जमीन को नीचे खोदते चले जाने से मनुष्य जिस तरह को पा लेता है उसी प्रकार गुरु की सेवा करते रहने से शिष्य गुरु की विद्या को प्राप्त कर लेता है । २२३ ब्रह्नचाीरी अपनी इच्छानुसार सिर पर जटा रख सकता है सिर पूरी तरह मुंडवा सकता है अथवा केवल शिखा (चोटी) मात्र रख सकता है । हां, ब्रह्नचारी को यह ध्यान रखनाा चाहिए उसे सूर्य उदय होते समय और सूर्यास्त के बाद किसी भी ग्राम में नहीं रहना है । कहने का अभिप्राय यह है कि अगर ब्रह्नचारी किसी गांव में है तो सूर्य अस्त होने से पहले ही उसे अपने आश्रम में पहुंच जाना चाहिए तथा सूर्योदय से पहले अपने नित्यकर्म (सन्ध्या-वन्दना, हवन आदि) पूरे करके ही आश्रम से बाहर जाना चाहिए । २२४ ब्रह्नचाीरी को हमेशा सूर्य के उदय होने से पहले जाग जाना चाहिए और सूूर्य के अस्त हो जाने के बाद सोना चाहिए । अगर कभी वह इच्छापूर्वक सूर्योदय के बाद भी सोता रह जाए ( बीमार या किसीी कारणवण अस्वस्थ होने के कारण नहीं ।) या सूर्यास्त से पूर्व सो जाए तो उसे पूरे दिन उपवास रखते हुए गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए । २२५ सूर्य के उदय होते समय तथा सूर्य के अस्त होते समय सोता रहने वााला और इसके लिए किसी तरह का प्रायश्चित नहीं करने वाला ब्रह्नचारी महापाप का भागी होता है । २२६ प्रतिदिन दोनों सन्ध्याओं (रात्रि और दिन की सांध्य वेला ) में ब्रह्नचारी किसी पवित्र स्थान में बैठकर विधिपूर्वक सन्ध्या का अनुष्ठान करे । २२७ स्त्री एवं शूद्र का शास्त्रानुकूल जिस विधान के अनुष्ठान में मन लगता हो अथवा परम्परा के अनुसार वे जो धर्मानुकूल नियमों का पालन करते हों, उन्हें वैसा ही करने देना उचित है । २२८ कोई आचार्य धर्म तथा धन को प्राप्त करने योग्य एवं कल्याणकारी मानते हैं । दूसरे प्रकार के आचार्य काम तथा धन को ही मानव जीवन का लक्ष्य मानते हैं । परन्तु मनु महर्षि के अनुसार पुरुषार्थता के कारण धर्म, अर्थ और काम तीनों हीं मानव के लिए उपयोगी हैं, अतः प्राप्त करने योग्य है । टिप्पणी-यहां मनु महाराज ने संसार का भोग करने की इच्छा रखने वालों के लिए उपदेश दिया है । मोक्ष की अभिलाषा रखने वालों के लिए आगे कहा है । २२९ आचार्य ब्रह्न का रूप है, पिता प्रजापति का, माता पृथ्वी की और सहोदर भ्राता अपनी आत्मा का । इसाक आशय यह है कि इसी रूप में आदर करना उचित है । २३० आचार्य, पिता, मां, सहोदर बड़े भाई का स्वयं कष्ट उठाकर भी कभी अपमान नहीं करे (द्विजाति के लोगों को इसका ध्यान रखना चाहिए विशेष रूप से ब्राह्नणों को ) । २३१ माता-पिता को मनुष्यों को जन्म देने तथा उनका पालन-पोषण करने में जितने कष्ट होते हैं, उससे उऋण होने में कोई उनकी सौ वर्ष तक सेवा करता रहे फिर भी नहीं हो सकता । २३२ अतः माता-पिता तथा आचार्य को जो कार्य प्रिय हो तथा उन्हें संतोष देने वाले हों वही नित्य करे । इन तीनों के प्रसन्न होने पर सभी व्रतों का फल अपने आप मिल जाता है । २३३ उन तीनों अर्थात् माता-पिता और आचार्य की सेवा-सुश्रुषा करना सर्वश्रेष्ठ तप है । इनके आदेश बिना व्यक्ति को कोई धार्मिक अनुष्ठान आदि नहीं करने चाहिए । २३४ पुत्र तथा शिष्य के लिए माता-पिता एवं गुरु ही तीनों लोक (पृथ्वी, पाताल और अंतरिक्ष) हैं, वे ही तीनों आश्रम (ब्रह्नचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ ) हैं, वे ही तीनों वेद ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) हैं वे ही तीनों अग्नि (गार्हपत्याग्नि, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीयाग्नि हैं । टिप्पणी-महर्षि अंगिरा ने चौथा अथर्ववेद बनायाा, उससे पहले तीन ही वेद माने जाते थे । २३५ माता दक्षिण नाम की, पिता गार्हपत्य नाम की और गुरु (आचार्य) आवहनीय नाम की अग्नि हैं । यह तीनों अग्नियां लोक प्रसिद्ध तीनों अग्नियों में श्रेष्ठ हैं । २३६ प्रमाद रहित होकर जो इन तीनों (माता-पिता एवं गुरु) की सेवा में संलग्न रहता है वह त्रिलोक विजेता होता है तथा अपने शरीर से प्रकाशमान होता हुआ देवताओं के समान सुखों को प्राप्त करता है । २३७ पुत्र मातृ भक्ति द्वारा इस लोक को, पितृ भक्ति से अंतरिक्ष लोक को और गुरु सेवा से ब्रह्न लोक को प्राप्त करता है । २३८ जिसने माता, पिता एवं गुरु इन तीनों की सेवा की और उनका सम्मान किया उसने सब धर्मों का सम्मान किया अर्थात् सभी धर्म उसको फल देने वाले होते हैं । जिसने इन तीनों का अनादर किया, उसे किसी भी धार्मिक अनुष्ठान का फल नहीं मिलता । २३९ जब तक वे तीनों (माता-पिता एवं गुरु) जीवित रहें तब तक (उनकी आज्ञा लिए बिना) अन्य धर्म को अपनी इच्छा से नहीं करे वरन् उन्हीं के हित में तथा उन्हें जो प्रिय हो वही करता रहे । २४० परलोक की सिद्धि के लिए माता-पिता एवं गुरु की आज्ञा से जो भी कार्य करे उन्हें मन-वचन तथा कर्म से उन्हीं (माता, पिता तथा गुुरु ) को अर्पित कर दे । २४१ मनुष्य का सर्वोत्तम तथा परम धर्म माता-पिता तथा गुरु की सेवा करना ही है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी धर्म गौण हैं अर्थात् उनका इस धर्म के सामने कोई महत्व नहीं । २४२ श्रद्धा सहित अपनी तुलना में नीच व्यक्ति से भी श्रेष्ठ विद्या को सीख लेना चाहिए । चाण्डाल से भी उत्कृष्ट धर्म को प्राप्त करना चाहिए तथा नीच कुल से भी शुभ लक्षणों वाली कन्या रत्न को विवाह हेतु ग्रहण कर लेना चाहिए । २४३ विवेकशील व्यक्ति विष में से भी अमृत निकाल लेता है, एक बालक से भी कल्याण करने वाला कथन ग्रहण कर लेता है, शत्रु से भी श्रेष्ठ आचरण सीख लेता है और गंदे या अपावन स्थान से भी सोना प्राप्त कर लेता है । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति को गुण तथा वस्तु को महत्व देना चाहिए व्यक्ति या स्थान को नहीं । २४४ जहां कहीं या जिस किसी से (उच्च या नीच व्यक्ति, अच्छे अथवा बुरे स्थान आदि पर ध्यान दिए बिना ) धर्म, रत्न, विद्या, पवित्रता, सुन्दर स्त्रियां, उपदेश तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्प मिलते हों, उन्हें बिना किसी संकोच के प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । २४५ आपातकाल में, ब्राह्नण से अलग वर्ण (क्षत्रिय, वैश्य ) के व्यक्ति से भी विद्या अध्ययन करने का विधान किया गया है । जब तक विद्या अध्ययन चलता रहे तब तक ब्राह्नण से भी इतर वर्ग के गुरु की भी सेवा करते रहना चाहिए । २४६ गुरु अगर ब्राह्नण से भिन्न वर्ण का हो तो विद्या अध्ययन काल में शिष्य का गुरुकुल में निवास करना जरूरी नहीं है । इसी भांति अगर ब्राह्नण गुरु वेद-वेदाङ्ग के ज्ञान में कुशल नहीं हो तो यह शिष्य पर निर्भर है कि वह चाहे तो गुरुकुल में निवास करे अथवा नहीं करे । २४७ अगर शिष्य (जीवन भर ब्रह्नचारी रहकर ) गुरुकुल में ही रहना चाहता हो तो उसे मृत्यु तक सावधानीपूर्वक गुरु की सेवा करनी चाहिए । २४८ जो ब्रह्नचारी अपनी मृत्यु तक गुरु सेवा करता है, वह ब्राह्नण ब्रह्नचारी विनाश रहित ब्रह्न लोक को पाता है । २४९ गुरु की अनुमति बिना और उनसे पहले स्नान को छोड़कर धर्माचरण के ज्ञाता ब्रह्नचारी को कोई दूसरा कार्य नहीं करना चाहिए । स्नान के बाद शिष्य को गुरु के स्नान हेतु जल लाना चाहिए । २५० शिष्य द्वारा गुरु को अत्यधिक प्रेम सहित ही भूमि, सोना, गाय, घोड़ा, छाता, जूता, अनाज, शाक तथा वस्त्र आदि दिए जाने चाहिए । २५१ गुरु के स्वर्गवासी होने पर शिष्य को गुरु के गुणवान पुत्र में, उसके नहीं होने पर गुरु पत्नी में, उसके भी अभाव में गुरु के सहोदर भाई में गुरुत्व रखना चाहिए । २५२ गुरु, गुरु के पुत्र, गुरु की पत्नी तथा गुरु के सपिण्डी भाई आदि के नहीं रहने पर शिष्य को स्नान तथा होत्र आदि से अपने शरीर की साधना करते हुए अपने आपको ब्रह्न प्राप्ति के योग्य बनाना चाहिए । २५३ इस तरह ऊपर बताई विधि से ब्रह्नचर्य आश्रम के नियमों का अनुसरण करने वाला ब्राह्नण ब्रह्न को उपलब्ध कर लेता है । वह इस पृथ्वी पर दोबारा जन्म नहीं लेता है । उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है । तृतीय अध्याय १ गुरुकुल में ब्रह्नचारी को छत्तीस वर्ष तक निवास करके तीनों वेदों का पूर्ण अध्ययन करना चाहिए । छत्तीस वर्ष तक सम्भव न होने पर अट्ठारह वर्ष तक और उतना भी सम्भव न होने पर उसके आधे अर्थात् नौ वर्ष तक अथवा उतने काल तक जितने में वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए । २ ब्रह्नचारी को चाहिए कि अखण्डित ब्रह्नचर्य तथा अपनी कुल परम्परा का पालन करते हुए तीनों वेदों अथवा दो वेदों या एक वेद (अपने-अपने वेद की शाखाओं सहित ) का पूर्ण अध्ययन समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे । ३ पुत्र के गुरुकुल से वापस आने पर पिता उसे अपने दाय भाग का धर्मानुसार अधिकारी मानते हुए श्रेष्ठ आसन पर बैठाए, पुष्प माला पहना कर उसका स्वागत करे और उपहार स्वरूप गाय प्रदान करे । ४ ब्रह्नचारी गुरु से आज्ञा लेकर विधि अनुसार स्नान कर अपने घर वापस आ जाए । इसके बाद वह शुभ लक्षणों वाली अपने समान वर्ण वाली सुन्दर कन्या से विवाह करे । ५ विवाह एवं सम्भोग के लिए वही युवती उपयुक्त है जो माता या पिता की सात पीढ़ियों तक की नहीं हो तथा पिता के गोत्र की न हो । ऐसी ही युवती, ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के ब्रह्नचारी के लिए श्रेष्ठ होती है । ६ निम्नलिखित (अगले श्लोक में वर्णित ) प्रकार के दस कुलों की कन्या से ब्रह्नचाीरी को विवाह सम्बन्ध नहीं करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता गो धन, बकरी धन, मेष धन, कृषि धन से अत्यन्त हों । कहने का आशय यह है कि कन्या के माता-पिता दहेज में बहुत कुछ देना चाहें परन्तु इन कुलों की कन्या से विवाह नहीं करे । ७ त्यागने योग्य से दस कुल हैंः (१) जात-कर्म आदि संस्कार से हीन, (२) जिस कुल में सदा कन्या ही जन्म लेती हो । (३) जो वेद पाठ नहीं करता हो । (४) जिस कुल के पुरुषों के शरीर पर अत्यधिक बाल हों । (५) बवासीर रोग से ग्रस्त परिवार (६) जिस कुल में राजयक्ष्मा (टी. बी.) हो । (७) मन्दाग्नि रोग हो । (८) मूर्छा अर्थात् मृगी रोग हो । (९) श्वेत कुष्ठ रोग हो । (१०) गलित कुष्ठ रोग हो । ८, ९, १० ज्ञानवान व्यक्ति को निम्न प्रकार की युवती से भी विवाह नहीं करना चाहिए (१) कपिल अर्थात् भूरे वर्ण (रंग) वाली । (२) अधिक अंगों वाली (जैसे हाथ या पैर में छह अंगुलियां होना । (३) नित्य रोग ग्रस्त रहने वाली । (४) बिना केशोों वाली (जिसके सिर पर बाल नहीं उगते हों । (५) बहुत अधिक रोमों वाली । (६) अधिक और कठोर बोलने वाली । (७) पीले रंग वाली । (८) वृक्ष, नदी, नक्षत्र, पर्वत, वर्गान्त, पक्षी, शूद्र तथा भयंकर नाम वाली (९) जिसका कोई सगा भाई नहीं हो । (१०) जिसके पिता के सम्बन्ध में सही जानकारी नहीं हो । ११ निम्नोक्त लक्षणों वाली युवती से ब्रह्नचारी को विवाह नहीं करना चाहिए (१) सन्दुर अंगों वाली, (२) मधुर एवं प्रिय नाम वाली, (३) हंस या हाथी जैसी चाल वाली, (४) पतले रोमों से युक्त, (५) सुन्दर और चमकीले बाोलों वाली, (६) उज्ज्वल दांतों वाली, (७) कोमल शरीर वाली । १२ ब्राह्नण को अपनी ब्राह्नण जाति (वर्ण) के अलावा क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण की कन्याओं से भी विवाह करने का अधिकार है । क्षत्रिय को अपने क्षत्रिय वर्ण के अलावा वैश्य तथा शूद्र वर्ण की कन्या से भी विवाह करने का अधिकार है । वैश्य को अपनी जाति (वर्ण) की कन्या के अतिरिक्त शूद्र वर्ण की कन्या से भी शादी करने का अधिकार है । परन्तु शुद्र कन्या से ही शादी करने का अधिकार है । १३ वास्तव में द्विज के लिए अपने-अपने वर्ण को युवती से विवाह करना ही श्रेष्ठ है । परन्तु कामवासना की अतृप्ति या किसी युवती से मोहग्रस्त होने पर, यह अच्छा है कि अपने वर्ण से एक चरण नीचे की युवती का वरण करे । उदाहरण के लिए उपर्युक्त परिस्थितियों में ब्राह्नण को क्षत्रिय को वैश्य से तथा वैश्य को शूद्र से परिण्य सम्बन्ध जोड़ने की अनुमति है । परन्तु एक चरण से नीचे नहीं उतरना चाहिए (जैसे-ब्राह्नण को वैश्य या शूद्र की कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए ) । १४ यद्यपि ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य को अपने-अपने वर्ण के अलावा अपने से निम्न वर्णों की युवतियों से विवाह करने की अनुमति दी गई है । परन्तु संकट काल में भी शूद्र युवती से विवाह नहीं करना चाहिए । १५ यदि निम्न वर्ण (शूद्र जाति) की कन्या के रूप और सौंदर्य पर मोहित होकर कोई ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण का व्यक्ति उससे विवाह कर लेता है तो उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली सन्तान और उससे आगे बढ़ने वाली कुल परंपरा में शूद्रता के गुण आ जाते हैं । १६ महर्षि भृगु के मतानुसार उपर्युक्त श्लोक में बताए अनुसार शूद्र कन्या से विवाह करने तथा उससे पुत्र उत्पन्न करने से नहीं वरन् उस पुत्र को अपना मानकर उससे कुल परम्परा चलाने से ही द्विजाती का व्यक्ति पतित होता है । महर्षि शौनक के मत से केवल विवाह द्वारा यौन भोग से नहीं वरन् उसे अपनी धर्मपत्नी मानकर उससे पुत्र उत्पन्न करने पर ही द्विजाति का व्यक्ति पतित हो जाता है । अत्रि तथा उतथ्य का मत है कि द्विजाति का व्यक्ति शूद्र स्त्री से शादी करते ही पतित हो जाता है । १७ महर्षि मनु कहते हैं कि जो ब्राह्नण अपनी शय्या पर शूद्र स्त्री को सुलाता है, वह नीच गति को प्राप्त होता है अर्थात् उसका पतन हो जाता है । शूद्र स्त्री से अपनी सन्तान उत्पन्न करने वाला ब्राह्नण अपने ब्राह्नणत्व को समाप्त कर देता है क्षौर वह ब्राह्नण कहलवाने का अधिकार खो देता है । १८ ऐसे ब्राह्नण के अन्न तथा हव्य को देवता तथा पितर नहीं स्वीकार करते जो शूद्र स्त्री से विवाह करके यज्ञ, होम, श्राद्ध तथा अतिथि सेवा करता है । ऐसे ब्राह्नण को स्वर्ग की भी प्राप्ति नहीं होती । १९ शुद्र स्त्री के मुख को चूमने वाले तथा उसके मुख की श्वास को अपने मुख में ग्रहण करने वाले ब्राह्नण तथा उससे जन्मी संतान की शुद्धि नहीं होती । २० चारों वर्णों (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के लिए इस संसार तथा परलोक हित-अहित करने वाले आठ प्रकार के विवाहों को आप लोग सुनें । २१ ये विवाह हैं-ब्राह्न, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और आठवां बहुत तुच्छ पैशाच । इसमें पैंशाच विवाह को सबसे निम्न कोटि का बतााया गया है । २२ महर्षि मनु आगे बोले-ब्राह्नणो ! अब मैं चारों वर्णों के लिए जो विवाह धर्मयुक्त है, आठों प्रकार के विवाहों के जो गुण-दोष हैं और आठों प्रकार के विवाहों से जन्म लेने वाली संतान के गुण-दोषों को आप लोगों से कहूंगा । २३ ब्राह्नण के लिए प्रथम छह प्रकार के विवाह धर्म के अनुकूल हैं (ये छह हैं १. ब्राह्न, २. दैव, ३. आर्ष, ४. प्राजापत्य, ५. आसुर, ६ गान्धर्व) । क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के लिए चार- १. आर्ष, २. प्राजापत् ३. आसुर ४. गान्धर्व प्रकार के विवाह अनुकूल हैं राक्षस तथा पैशाच विवाह किसी के लिए भी ठीक नहीं हैं । २४ प्राचीन ऋषियों के अनुसार ब्राह्नण के लिए पहले चार प्रकार के विवाह (ब्राह्न, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य) को ही उत्तम कहा गया है और क्षत्रिय के लिए राक्षस विवाह तथा वैश्य और शूद्र के लिए असुर विवाह को उत्तम बतााया गया है । २५ विवाह के पहले पांच प्रकारों में प्रथम तीन (ब्राह्न, दैव, आर्ष) धर्मानुकूल हैं तथा पिछले दो (प्राजापत्य तथा आसुर) धर्मानुकूल नहीं हैं । राक्षस एवं पिशाच विवाह कभी नहीं करने चाहिए । २६ पहले कहे गए और पृथक या मिश्रित रूप में वर्णन किए गए आठ प्रकार के विवाहों में क्षत्रिय के लिए गान्धर्व तथा राक्षस विवाह भी धर्मानुकूल माने जाते हैं । २७ वेद पढ़े हुए विद्वान तथा सच्चरित्रवान युवक को आमंत्रित करके उसको सम्मानपूर्वक वस्त्र और आभूषण आदि से सजी कन्या देना (कन्या दान करना ) 'ब्राह्न विवाह' कहलाता है । २८ यज्ञ-यागादि विधिवत् करवाने वाले ऋत्विज् का वरण करके उसे वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत कन्या दान करना 'दैव विवाह' कहा जाता है । २९ वरण किए जाने वाले युवक से गाय और बैल दोनों अथवा दोनों में से कोई एक-एक या दो-दो लेकर विधि-विधान पूर्वक उसे कन्या देना 'आर्ष विवाह' कहलाता है । ३० 'प्राजापत्य विवाह' उसे कहते हैं जिसमें 'तुम दोनों साथ में धर्माचरण करो' इस शुभ कामना के साथ वर को आदरपूर्वक वस्त्र और अलंकारों से सज्जित कन्या प्रदान की जाती है । ३१ कन्या के माता-पिता, चाचा जाति वालों आदि को तथा स्वयं कन्या के लिए यथाशक्ति धन देकर अपनी इच्छा से वर द्वारा कन्या के स्वीकार करना 'आसुर विवाह' कहा गया है । ३२ 'गान्धर्व विवाह' उसे कहते हैं जिसमें कन्या तथा वर स्वेच्छा से एक-दूसरे को पसन्द करके विवाह बंधन में बंध जाते हैं । इस तरह का विवाह कामजन्य वासना पर आधारित होता है । ३३ कन्या पक्ष वालों की हत्या कर अथवा उनके हाथ-पांव का छेदन कर तथा घर-द्वार आदि तोड़ कर रोती या गाली देती हुई कन्या का बल से हरण कर अपने अधिकार मं करना 'राक्षस विवाह' कहा जाता है । ३४ निद्रा मग्न, नशे आदि के सेवन से अर्ध मूर्छित अथवा अपने शील की रक्षा में प्रमादग्रस्त किसी कन्या के साथ मैथुन करके उसे विवाह करने को मजबूर कर देना 'पैशाच विवाह' कहा गया है, जो अत्यन्त निन्दित है । ३५ ब्राह्नण का विवाह (कन्या का हाथ ग्रहण कर पिता आदि के द्वारा हाथ में जल लेकर कन्यादान का संकल्प करके) जलदान करने से होता है । दूसरे वर्णों के लिए विवाह पारस्परिक इच्छा द्वारा केवल वचन मात्र से भी हो सकता है । वर तथा कन्या पक्ष के लोग जिस विधि-विधान को मानना चाहें वही ठीक है । ३६ भृगु महर्षि कहते हैं, हे ब्राह्नणो ! मनु महाराज ने सभी आठ प्रकार के विवाहों के जो गुण बताए हैं उन्हें आप लोग मुझसे सुनिए । ३७ ब्राह्न विवाह द्वारा जन्मा पुत्र पुण्यात्मा तथा सदाचारी होने पर अपनी पीढ़ी तथा दस आगे और दस पीछे की पीढ़ियों के वंशजों को पाप से मुक्त कर देता है । इस प्रकार वह कुल मिलाकर इक्कीस पीढ़ियोोों को पाप मुक्त करता है । ३८ दैव विवाह से जन्मा पुत्र सात आगे की पीढ़ियों तथा सात पिछली पीढ़ियों के वंशजों का तथा अपनी पीढ़ी का (कुल पन्द्रह पीढ़ियों का ) उद्धार करने की सामर्थ्य रखता है । प्राजापत्य विवाह से जन्मा सदाचारी पुत्र पीछे की छह तथा आगे की छह पीढ़ियों तथा एक अपनी पीढ़ी (कुल तेरह पीढ़ियों ) के वंशजों का उद्धार करता है । आर्ष विवाह से जन्मा सदाचाीरी पुत्र आगे की तीन तथा पीछे की तीन पीढ़ियों तथा एक अपनी (कुल सात पीढ़ियों ) को पापों से मुक्त करता है । ३९, ४० ब्राह्न आदि पहले चार प्रकार के विवाहों के फलस्वरूप जन्म लेने वाला ब्रह्न तेज से पूर्ण पुत्र अपने आचरण के लिए श्रेष्ठ जनों द्वारा प्रशंसा पाता है, वह रूपसोन्दर्य, शक्ति, धैर्य, उदारता गुणों से युक्त होता है । वह धनवान, यशवान अत्यधिक भोग भोगने वाला तथा धर्मात्मा भी होता है, वह सौ वर्ष की आयु वाला होता है । ४१ शेष चार प्रकार के विवाहों (आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच) से जन्म लेने वाले पुत्र क्रूर, झूठ बोलने वाले, ब्राह्नण विरोधी, धर्म से द्वेष रखने वाले तथा लज्जाहीन प्रकृति के होते हैं । ४२ अनिन्दित स्त्री विवाहों से जन्म लेने वाली सन्तान अनिन्दित तथा निन्दित स्त्री विवाहों से जन्मी सन्तान निन्दित होती है । अतः निन्दित स्त्री विवाह पूरी तरह त्यागने योग्य है । अभिप्राय यह है कि सदाचारी एवं सफल सन्तान पाने के लिए विवाह की श्रेष्ठ विधियां अपनानी चाहिए तथा निन्दित विवाहों की विधियों का पूर्ण त्याग करना चाहिए । ४३ उपर्युक्त श्लोकों में पाणिग्रहण संस्कार (विवाह) के बारे में जिस विधिविधान का वर्णन किया है । वह सब सवर्ण स्त्रियों (अपने-अपने वर्ण की जैसेब्राह्नण कन्या का विवाह ब्राह्नण से क्षत्रिय कन्या का क्षत्रिय वर से, वैश्य कन्या का वैश्य वर से ) के बारे में है । अब हम असवर्ण विवाह सम्बन्ध (जनमें वर तथा वधू का वर्ण भिन्न हो ) की विधि बताते हैं । ४४ अगर ब्राह्नण जाति का पुरुष क्षत्रिय वर्ण की कन्या से विवाह करता है तो क्षत्रिय कन्या को ब्राह्नण के हाथ में ग्रहण किए हुए वाण के एक सिरे को पकड़ना चाहिए । यदि ब्राह्नण या क्षत्रिय पुरुष वैश्य वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता है तो वैश्य कन्या को वर के हाथ में ग्रहण किए हुए चाबुक (सांटे) के एक सिरे को पकड़ना चाहिए । ब्राह्नण, क्षत्रिय या वैश्य वर के साथ विवाह करने वाली शूद्र वर्ण की कन्या वर के कपड़े का एक सिरा पकड़े । ४५ पुरुष (पति) को पत्नी के साथ केवल उसके रज के स्त्राव के परवर्ती काल (ऋतुकाल) में ही सम्भोग करना चाहिए । सम्भोग (मैथुन) में, रति भोग की इच्छा होने पर भी अमावस्या, एकादशी, संक्रान्ति तथा पूर्णिमा आदि दिवसों पर मैथुन नहीं करना चाहिए । ४६ स्त्रियों के ऋतुकाल में उनके साथ मैथुन करने की १६ रातें स्वाभाविक हैं । इनमें वे चार रातें भी शामिल हैं, जिन्हें निन्दनीय माना गया है और उनमें मैथुन करना मना है । ४७ ऋतुकाल की पहली चार रातों के अलावा एकादशी और त्रयोदशी के दिनों में मैथुन करना मना है । इन दिनों (तिथियोों) को छोड़कर शेष दस रातें सम्भोग करने के लिए सब प्रकार से योग्य मानी गयी हैं । ४८ ऋतुकाल की छठी, आठवीं, दसवीं और बारहवीं रातों में गर्भाधान से पुत्रों का और ऋतुमती होने की सातर्वी, नौवीं तथा तेरहवीं रातों में गर्भाधान होने से पुत्रियों का जन्म होता है । इसलिये पुत्र पाने की कामना वाले पुरुष को युग्म रातों ऋतुकाल की ६, ८, १०, १२ रातों) में ही सम्भोग करना चाहिए । ४९ पुरुष के शुक्र (वीर्य) की अधिकता होने से पुत्र का और स्त्री के रज की अधिकता होने से पुत्री का जन्म होता है । पुरुष के वीर्य (शुक्राणु) और स्त्री बीज के समान होने पर एक पुत्र तथा एक पुत्री की अथवा नपुंसक की उत्पत्ति होती है । पुरुष के शुक्राणु के कम मात्रा में या कमजोर होने पर गर्भ ही नहीं ठहरता । ५० पुरुष किसी भी आश्रम (ब्रह्नचर्य, गृहस्थ आदि) से संबंधित क्यों न हो यदि वह निन्दित आठ (ऋतुकाल होने पर पहली चार, पूर्णिमा और अमावस्या की दो तथा एकादशी और त्रयोदशी की दो रात्रियां) रात्रियों को छोड़कर शेष रात्रियों में स्त्री से मैथुन करता है तो वह ब्रह्नचारी कहलाता है । ५१ बुद्धिमान पिता को अपनी कन्या को दान देने के बदले में अल्प से अल्प मात्रा में भी कोई शुल्क नहीं लेना चाहिए, क्योंकि शुल्क लेने वाला पिता अपनी संतान को बेचने वाला माना जाता है । ५२ पति द्वारा छोड़ दिए जाने या उसकी मृत्यु हो जाने पर यदि पति के सम्बन्धी स्त्री को उसके पति या पति के सम्बन्धियों द्वारा दी गई धन, संपत्ति, वाहन, मूल्यवान वस्त्रों पर अपना अधिकार कर लेते हैं तो ऐसे लोगों को निश्चित रूप से अधोगति प्राप्त होती है । अभिप्राय यह है कि विवाह में वधू को मिली धन-संपत्ति, वाहन-वस्त्र, आभूषण आदि 'स्त्री धन' कहलाते हैं । इन पर उसके अतिरिक्त किसी का अधिकार नहीं होता । ५३ आर्ष विवाह के अन्तर्गत वधू के पिता द्वारा जामाता (दामाद) से गाय आदि लेने का विधान है, परन्तु मनु महााराज के अनुसार यह उचित नहीं है, क्योंकि कन्या के विनिमय में चाहे थोड़ा लिया जाए अथवा अधिक इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है और उसे बेचना ही समझ जाता है । सिद्धान्त के अनुसार जामाता से कुछ भी ग्रहण करना पाप है । ५४ जातिबन्धु या पिता अपनी जिन कन्याओं के विवाह के अवसर पर विनिमय के रूप में कोई मूल्य या शुल्क नहीं लेते, उन कन्याओं का विवाह एक तरह की पूजा और मावता के प्रति दया भाव माना जाता है । ५५ विवाहित होने वाली कन्या को वस्त्राभूषण आदि से सजाना उसकी पूजा करना कहलाता है । इस पूजा में अपनी कल्याण कामना रखने वाले पिता के अतिरिक्त, भाई, पति तथा देवर भी सम्मिलित हो सकते हैं । ५६ जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता रमण करते हैं । कहने का आशय यह है कि जिस घर में स्त्रियों को पूरा आदर-सम्मान दिया जाता है और उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाता है, वहां सभी तरह की सुख-शांति रहती है लेकिन इसके विपरीत जहां स्त्रियों की पूजा नहीं होती वहां सभी प्रकार के शुभ और पवित्र कर्म भी कोई सुखद फल नहीं देते । ५७ उस परिवार का नाश शीघ्र हो जाता है जिसकी स्त्रियां दुख या अभाव के फलस्वरूप रोती-कलपती रहती हैं लेकिन जिस परिवार की नारियां सुखी तथा संतुष्ट रहती हैं । उसकी निरन्तर वृद्धि होती जाती है । ५८ जिस घर को ये जामियां अर्थात् पत्नी, पुत्रवधू, बहन, कन्या आदि अनादर होने से शाप देती हैं । वह घर कृत्या (अभिचार कर्म, जैसे-मारण, मोहन, उच्चाटन आदि ) से अभिशापित घर की तरह नष्ट हो जाता है । ५९ इसलिए अपने परिवार की उन्नति चाहने वाले पुरुषों को यज्ञपवीत, विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों को स्वादिष्ट उत्तम भोजन तथा वस्त्राभूषण आदि आदर सहित देने के रूप में उनकी पूजा करनी चाहिए । ६० जिस परिवार में पत्नी अपने पति से तथा पति अपनी पत्नी से सन्तुष्ट रहते हैं । उन परिवारों में निश्चित रूप से सदैव सुख और शांति का निवास रहता है । ६१ अगर स्त्री प्रसन्न नहीं होती तो वह अपने पति के साथ भोग-विलास करने को उद्यत नहीं होती । इससे पति को सुख प्राप्त नहीं होता और संभोग आदि नहीं करने से संतान नहीं होती जिससे पति की कुल परंपरा आगे नहीं बढ़ती । अतः स्त्री को सदैव उत्तम भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि देकर प्रसन्न रखना चाहिए । ६२ वस्तुतः जब स्त्री भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि प्राप्त कर प्रसन्न होती है तो वह पूरे कुल की शोभा बन जाती है । परन्तु स्त्री के साज-श्रृंगार न करने और खुश न रहने पर सारा कुल मलिन हो जाता है । ६३ प्रतिष्ठित कुल भी निन्दित विवाह विधियों को अपनाने से, यज्ञ-हवन आदि अनुष्ठानों का त्याग कर देने से, वेदों का अध्ययन करने की उपेक्षा कर देने से तथा ब्राह्नणों का आदर नहीं करने से नीच बन जाते हैं । ६४, ६५ यदि कोई उच्च ब्राह्नण परिवार अपने कर्तव्य-कर्मों से विमुख होकर निम्न निकृष्ट कर्मों को अपनाता है तो पतित हो जाता है । जैसे- १. शिल्पकला, २. व्यापार, ३. शूद्र वर्ण की स्त्रियों से संतानोत्पति, ४. गाय, अश्व तथा रथ आदि को आजीविका का साधन बनाना, ५. कृषि, ६. राजसेवा, ७. चाण्डालों आदि का यज्ञ कराना, ८. वेदों में आस्था न रखना तथा ९. वेद-मंत्रों का ज्ञान न होना आदि कर्म ब्राह्नणों के लिए वर्जित हैं । टिप्पणी-ब्राह्नण के लिए ये सब कर्म निषिद्ध हैं । अतः इनका व्यवहार करने वाला ब्राह्नण निन्दा का पात्र बनता है । ६६ वेद ज्ञान से संपन्न परिवार निर्धन होने पर भी धनवान, यशवान और ऊंचे बन कर समाज में प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं । ६७ एक गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह विवाह की अग्नि में विधिवत् गृहस्थ धर्म के लिए बताए गए कर्मों (जैसे-प्रतः-सायं यज्ञ-होम आदि करना ) को करें । इसके साथ ही वह प्रतिदिन उसी अग्नि से बलिवैश्वदेव आदि पंच यज्ञ तथा पाकयज्ञ आदि भी संपन्न करें । ६८ गृहस्थ के लिए चीजों (चूल्हा, चक्की, झाडू, ऊखल-मूसल तथा जल कलश) का उपयोग सूक्ष्म जीवों के वध का कारण बनता है और इनका उपयोग करने वाला पाप का भागीदार बानता है । ६९ उपर्युक्त श्लोक में बताए गए पंच पापों से बचने के लिए महा ऋषियों ने गृहस्थाश्रम के लोगों के लिए पंच महायज्ञ करने का विधान बतलाया है । टिप्पणी- यह कितने सुखद आश्चर्य का विषय है कि भारतीय महर्षियों को आज से हजारों वर्ष पूर्व इस वैज्ञानिक सत्य का ज्ञान था कि संसार में सैकड़ों प्रकार के ऐसे सूक्ष्म जीव (बैक्टीरिया, जीवाणु आदि) हैं जो चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ऊखल-मूसल और जल कलश द्वारा नष्ट हो जाते हैं । यह जीव केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा ही देखे जा सकते हैं । विज्ञान को इस सत्य की जानकारी सन् १८७६ में ए.वी. लीयूवेनहोएक नामक व्यक्ति ने सूक्ष्मदर्शी यंत्र बनाकर दी । ७० इन पांचों महायज्ञों के बारे मेें बताते हुए महर्षि मनु कहते हैं, वेदों का अध्ययन करना और कराना ब्रह्न यज्ञ है । अपने पितरों (स्वर्गीय पूर्वजों ) का श्राद्ध-तर्पण कराना पितृ यज्ञ है । हवन करना देव यज्ञ है । बलिवैश्वदेव करना 'भूत यज्ञ' है । अतिथियों का सत्कार करना और उन्हें भोजन कराना 'नृयज्ञ' है । नृयज्ञ अर्थात् मनुष्य यज्ञ ७१ अपनी सामर्थ्य भर इन पांच महायज्ञों को करने वाला व्यक्ति गृहस्थाश्रम में ऊपर बताए गए पांच पापों के दोषों का भागीदार नहीं होता । ७२ गृहस्थाश्रम में रहने वााला जो व्यक्ति देवताओं, और अपने आश्रितों, पितरों (माता-पिता तथा गुरु आदि) तथा स्वयं के लिए भोजन का प्रबन्ध नहीं कर सकता वह सांस लेते हुए (जीते हुए) भी मरे हुए के समान है । ७३ अन्य मनियों ने जो पञ्च महायज्ञ बताए हैं, वे हैं-अहुत, हुत, प्रहुत, ब्राह्नहुत तथा प्राशित । ७४ जप करना 'अहुत' यज्ञ है । हवन करना 'हुत यज्ञ' है । भूत बलि देना 'प्रहुत' ब्राह्नण की पूजा करना, 'ब्राह्नहुत' तथा जीवित पितरों की सेवा और मृत पितरों का तर्पण करना, 'प्राशित' यज्ञ है । ७५ गृहस्थाश्रम में रहने वाले को नित्य यज्ञ-हवन आदि करना चाहिए । वास्तव में यज्ञ-हवन आदि करने से इस जगत के समस्त जड़-चेतन का पालन तथा विकास होता है । टिप्पणी-यज्ञ हवन आदि करने से वायुमण्डल-स्वच्छ तथा पवित्र बनता है । यज्ञ करने से मेघों की उत्पत्ति होती है । मेघों द्वारा वर्षा होती है, जिससे अन्न की उत्पत्ति होती है । जीव-जगत को जीवन रूपी जल मिलता है । जल से वृक्ष-पौधों आदि का विकास होता है । इस प्रकार यज्ञ-हवन आदि अन्न और जल प्रदान कर सबका पालन और विकास करते हैं । ७६ अग्नि में डाली जाने वाली आहुति सूर्य के पास पहुंचती है । सूर्य ही वर्षा का कारण है, वर्षा पाकर ही खेतों में अन्न पैदा होता है । इसी अन्न से प्रजा का पालन होता है । ७७ सभी आश्रम (ब्रह्नचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) उसी प्रकार गृहस्थ पर आधारित हैं जिस प्रकार संसार का सम्पूर्ण जीवन वायु पर आधारित है । वायु नहीं मिलने पर कोई जीवधारी जीवित नहीं रह सकता । वायु नहीं मिलने पर सभी जीव मर जाएंगे क्योंकि सभी को सांस के रूप में वायु चाहिए । इसी तरह यदि गृहस्थ अन्य आश्रम में रहने वाले लोगों को दान नहीं दे तो वे भी समाप्त हो जाएंगे । ७८ तीनों आश्रम के लोग (ब्रह्नचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी ) बिना किसी चिन्ता के जिस ज्ञान का लाभ प्राप्त करते हैं, उसका पूरा श्रेय गृहस्थाश्रम को जाता है, क्योकि इसी आश्रम के लोग उनका पालन-पोषण करते हैं । अतः गृहस्थ ही सब आश्रमों में श्रेष्ठ है । ७९ जीवन में इस संसार के सुखों और मृत्यु के बाद स्वर्ग के सुखोों की कामना रखने वाले पुरुष को प्रयत्नपूर्वक इस आश्रम को निबाहना चाहिए । इस आश्रम का निर्वाह कमजोर इन्द्रिय वाले व्यक्तियों द्वारा नहीं हो सकता । ८० ऋषि-मुनि, पितर, देवता, अतिथि और अन्य सभी जीव गृहस्थ से ही कुछ पाने की आशा करते हैं, इसलिए गृहस्थ को प्रति दिन पांचों यज्ञों को अवश्य पूरा करना चाहिए । ८१ ऋषियों का सत्कार तथा पूजा वेदपाठ, से विधिपूर्वक हवन करके देवताओं की पूजा, श्राद्धों से पितरों की पुजा, अन्न देकर अतिथियों का पूजा और बलिकर्म से भूतों की पूजा (संतुष्टि ) करनी चाहिए । ८२ गृहस्थ को पितरों का आशीर्वाद पाने हेतु प्रतिदिन अन्न, जल, दूध, कन्दमूल तथा फल से पितरों का श्राद्ध करते रहना चाहिए । ८३ पंच महायज्ञों के अन्तर्गत पितृ यज्ञ के लिए, पिता के जीवित नहीं होने पर 'पिता' की संज्ञा धारण करने वाले ( यहां 'पिता' से आशय उस व्यक्ति से है जिसने २४ वर्ष तक ब्रह्नचर्य का पालन किया हो । ऐसे ब्रह्नचारी को 'पिता की संज्ञा दी गई है ।) एक ब्राह्नण ब्रह्नचारी को भोजन करा देना चाहिए । यह विधान केवल पितृयज्ञ हेतु है अन्य यज्ञ के लिए नहीं । ८४ ब्राह्नण को चाहिए कि वह अपने घर में स्थापित अग्नि में सिद्ध वैश्वदेव के नाम से देवों को हवि अर्पित करने के रूप में होम करे । ८५ अग्नि, सोम, विश्वेदेव और फिर धन्वन्तरि देव को हवि अर्पित करते हुए निम्न मंत्रों को उच्चारण करे- अग्नये स्वाहा ! (अग्नि के लिए) सोमाय स्वाहा ! (अग्नि के लिए ) अग्नि सोमाभ्यां स्वाहा ! (अग्नि और सोम दोनों के लिए ) धन्वंतरये स्वाहा ! (रोग निवारक देवता धन्वन्तरि के लिए ) ८६ फिर क्रमशः कुह्व (अमावस्या का दिन), अनुमति (पूर्णिमा का दिन ) , प्रजापति ( ब्रह्ना) तथा द्यावा पृथ्वी के उद्देश्य से और सबसे अंत में स्विष्टकृत् के उद्देश्य से हवन करे । मन्त्रोच्चार इस क्रम में होगा- कुह्वै स्वाहा ! अनुमत्यै स्वाहा ! प्रजापत्ये स्वाहा ! द्यावा पृथ्वीभ्याम स्वाहा ! अंत में अग्नि के लिए स्विष्टकृते स्वाहा ! ८७ ऊपर बताई विधि से होम करने के बाद पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर चारों दिशाओं में अनुग सहित क्रमशः इन्द्र, वरुण, यम एवं सोम को बलि देनी चाहिए । ८८ घर के द्वार पर 'मरुदभ्य स्वाहा' (वायुके लिए), जल में 'अदभ्य स्वाहा' कह कर तथा 'वनस्पतिभ्यः स्वाहा' कहकर ऊखल और मूसल पर बलि देनी चाहिए । ८९ चरणों की ओर मस्तक पर उत्तर-पूर्ण कोण में श्री के लिए, उसी वास्तुपुरुष के चरणों की ओर दक्षिण-पश्चिम कोण में भद्रकाली के लिए, वास्तुपुरुष के मध्य में ब्रह्ना एवं वास्तोष्पति के हेतु बलि विसर्जन करे । टिप्पणी- यहां वास्तुपुरुष के मस्तक से आशय भवन की छत से है । 'श्री' का अर्थ धन-संपत्ति, यशदात्री लक्ष्मी जी से है । भद्रकाली को सम्बन्ध धरती माता से है । ९० 'विश्वदेवेभ्यः स्वाहा' कहते हुए दिन में तथा रात्रि में विचरण करने वाले जीवों के लिए 'दिवाचेभ्यो निसाचरेभ्यः भूतेभ्यः स्वाहा' कहते हुए आकाश में बलि फेंकनी चाहिए । ९१ सर्वात्म भूतों के लिए भवन के पीछे 'सर्वात्मभूतये स्वाहा' कहकर घर के पीछे तथा बची हुई बलि 'पितृभ्यः स्वाहा' कहकर शेष बलि पितरों के हेतु दक्षिण दिशा में डाल देनी चाहिए । टिप्पणी- इन्द्र का पूर्व दिशा से, यम का पश्चिम दिशा से, श्रीका छत से तथा भद्रकाली का भूमि से सम्बन्ध वेदों में भी बताया गया है । बलि का अर्थ अन्न आदि से है । ९२ कुत्तों, पतित लोगों, चाण्डलों, पाप रोगियों, कौओं एवं कीट-पतंगों हेतु जो बलि रखी जाए उसे भूमि पर सहेज कर रखना चाहिए । जिससे वह मिट्टी, धूल, गंदगी आदि से दूषित नहीं हो । टिप्पणी- यहां बलि का अर्थ भोजन तथा कीट-पतंगों द्वारा खाए जाने वाले अन्न के दानों, जल आदि से है । पाप-रोगों का आशय कुष्ठ, यक्ष्मा आदि रोगों से है । ऐसा भोजन किसी पत्ते या दोनों में पूरी सफाई के साथ रखने का निर्देश है । ९३ जो ब्राह्नण सभी देवों, पितरों, भूतों और कीड़े-मकोड़ों को बलि देकर नित्य उनकी पूजा करता है वह आलोकमय ब्रह्न पद को सीधे पथ से जाता है । ९४ ऊपर बताई विधि अनुसार बलि देने के बाद गृहस्थ को चाहिए कि यदि कोई अतिथि आया हो तो उसे भोजन करवाए और भिक्षा लेने आए ब्रह्नचारी, संन्यासी तथा भिक्षुक को भिज्ञा दे । ९५ मनु महाराज भिक्षा देने का महत्व बताते हुए कहते हैं कि एक गृहस्थ को ब्रह्नचारी आदि को भिक्षा देकर वही पुण्य लाभ प्राप्त होता है जो एक शिष्य द्वारा गुरु को श्रद्धापूर्वक गाय देने (गऊदान) से मिलता है । अभिप्राय यह है कि भिक्षा मांगने आए ब्रह्नचारी, संन्यासी, भिक्षुक आदि को श्रद्धापूर्वक भिक्षा देने से गृहस्थ को अत्यधिक पुण्य मिलता है । ९६ यदि अन्न पर्याप्त मात्रा में न हो तो ग्रास भर भिक्षा को भी स्वादिष्ट बना कर और अगर उतना भी न हो तो जल से पूर्ण पात्र को ही फल-फूल आदि से सजाकर वेद के तत्व और अर्थ को जानने वाले ब्राह्नण को आदरपूर्वक देना चाहिए । इससे भी गृहस्थ को पुण्य की उपलब्धि होती है । ९७ ज्ञानहीन व्यक्ति द्वारा वेद ज्ञान से रहित तथा शुद्ध आचार से हीन ब्राह्नण को दान देने से उसके हव्य-कव्य आदि समस्त पुण्यकर्म नष्ट हो जाते हैं । टिप्पणी-इस श्लोक में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डााला गया है कि दान भी सुपात्र तथा आचारवान व्यक्ति को ही देने से पुण्य मिलता है । अज्ञानी, आलसी तथा भोग-विलाीसी, नशेबाज आदि को दान देने से पुण्य के बजाय पाप ही मिलता है । ९८ गृहस्थ द्वारा विद्या और तप विकसित हुए ब्राह्नण के मुख रूपी अग्नि में हवन किया हुआ अन्न आदि उसे (गृहस्थ को ) कठिन से कठिन रोगों, राजभय, शत्रुभय आदि के पाप से मुक्त कर देता है । टिप्पणी- उपरोक्त का आशय यह है कि तपस्वी तथा विद्वान ब्राह्नण को अवश्य सम्मान सहित भोजन कराना चाहिए । यह उतना ही पुण्यदायक है जितना हवन करना । ९९ संयोग से आए हुए अतिथि का गृहस्थ द्वारा स्वागत-सत्कार किया जाना चाहिए तथा उसे (अतिथि को ) आसन, भोजन-जल आदि देना चाहिए । १०० नित्य किसान द्वारा बोए-काटे अनाज को उठा ले जाने के बाद खेत तथा मार्ग पर जो अनाज के दाने पड़े रहते हैं । उनको खोजकर चुनना और उसी से अपना पेट पालना तथा नित्य पंञ्चाग्नि होम करना । इस त्यागपूर्ण कर्मों को करने वाले ब्राह्नण के घर से भी अगर अतिथि बिना सन्तुष्ट हुए लौट जाता है तो ऐसे ब्राह्नण के भी सारे पुण्य समाप्त हो जाते हैं । १०१ एक सज्जन व्यक्ति के घर से घास से बना आसन, बैठने या विश्राम हेतु भूमि, जल तथा मधुरवाणी ये चारों कभी दूर नहीं रहते अर्थात् सदैव रहते हैं । अतः अतिथि की अगर अन्न, फल-फूल, दूध आदि से सेवा करना सम्भव नहीं हो तो उसे उचित जगह आसन पर आदर सहित बैठा कर जल देकर और मधुर वाणी बोल कर संतुष्ट करना चाहिए । १०२ एक रात्रि गृहस्थ के घर ठहरने वाला ब्राह्नण ही अतिथि कहा गया है क्योंकि उसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं । अतः एक रात से अधिक ठहरने वाला ब्राह्नण अतिथि नहीं है । टिप्पणी-इस श्लोक का सही अर्थ निकालने के लिए विद्वानों का कथन है कि 'एक रात्रि' से आशय पूरे एक दिन से है । यहां ब्राह्नण का आशय भी ब्राह्नण वर्ण के व्यक्ति से न होकर सज्जन व्यक्ति से है । १०३ अगर एक गांव का आदमी दूसरे गांव या नगर मे जाकर बस जाता है तथा उसके गांव का कोई व्यक्ति उसके उसके घर आकर ठहरता है या रोजी-रोटी कमाने के लिए दूसरे गांव गया व्यक्ति अपने गांव वापस आता है तो उसे 'अतिथि' नहीं कहा जााता । इसी प्रकार मित्र, साथ में पढ़ने वाला व्यक्ति या यज्ञ आदि करवाने के लिए घर आया ब्राह्नण भी अतिथि नहीं कहे जाते । १०४ जो मन्द बुद्धि गृहस्थ अतिथि सत्कार करवाने के लालच में दूसरे गांव में जाकर दूसरे व्यक्ति के यहां भोजन आदि करता है । वह मरने के बाद भोजन करवाने वाले के यहां पशु बनता है । १०५ सूर्य अस्त हो जाने के बाद, असमय आने वाले अतिथि को भी घर से बिना भोजन करवाए वापस भेजना उचित नहीं माना गया है । अतिथि चाहे समय पर आए अथवा असमय उसे भोजन कराना ही गृहस्थ का धर्म है । १०६ जो खाद्य पदार्थ आदि के आगे नहीं परोसे गए हों, उन्हें गृहस्थ स्वयं भी नहीं खाए । अतिथि का भोजन आदि से आदर सत्कार करने से धन, आयु यश एवं स्वर्ग की प्राप्ति होती है । १०७ एक साथ अनेक अतिथियों के आ जाने पर आसन, विश्राम हेतु स्थान, शय्या, पीछे-पीछे चलना तथा सेवा-सत्कार करना, यह सब अतिथियों के (आदध्यात्मिक, मानसिक, शरीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि) स्तर के अनुसार होने चाहिए । १०८ यदि संयोग से बलिवैश्वदेव यज्ञ के पूरा हो जाने के बाद कोई दूसरा अतिथि आ जाए तो भले ही गृहस्थ फिर से यज्ञ आदि नहीं करे परन्तु अतिथि को अपनी सामर्थ्यानुसार भोजन अवश्य कराए । १०९ ब्राह्नण को भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल एवं गोत्र का आश्रय नहीं लेना चाहिए । भोजन हेतु अपने पूर्वजों के यश का सहारा लेने वाला दूसरों के द्वारा वमन (उगले) किए गए भोजन को ग्रहण करने वाला होता है, ऐसा विद्वानों का मत है । ११० क्षत्रिय जब ब्राह्नण के घर जाता है तो वह ब्राह्नण का अतिथि नहीं कहा जाता । इसी तरह ब्राह्नण के घर आए गुरु, जाति बन्धु, मित्र, वैश्य, शूद्र आदि अतिथि नहीं कहे जाते । १११ अगर कोई क्षत्रिय ब्राह्नण के घर अतिथि बन कर आ जाए तो ब्राह्नण को उस क्षत्रिय को भी भोजन करा देना चाहिए । ११२ इसी तरह वैश्य और शूद्र भी ब्राह्नण के घर अतिथि बन कर आ जाएं तो ब्राह्नण का कर्तव्य है कि वह अपने परिवार के सेवकों के रूप में उन्हें भोजन देने की यदा करे । ११३ क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के अलावा ब्रह्नण के घर उसके अपने मित्र आ जाएं तो उसे (ब्राह्नण) चाहिए कि उनका सत्कार करे और पत्नी के साथ मिलकर उन्हें भोजन प्रदान करे । ११४ विवाह योग्य युवती, छोटी आयु की कन्या, कुमारी, रुग्ण एवं गर्भवती स्त्रियों को बिना कोई संकोच किए अतिथियों से पहले भोजन करा देना चाहिए । ११५ जो मूर्ख गृहस्थ ऊपर के श्लोक में बताई स्त्रियों, अतिथि, ब्राह्नण और सेवकों को भोजन कराने से पहले स्वयं भोजन कर लेता है उसे यह ज्ञान नहीं है कि वह इस दोष के कारण मरने के बाद कुत्तों तथा गीधों के द्वारा खाया जाएगा । ११६ गृहस्थ पति-पत्नी, ब्राह्नणों, माता-पिता, परिजनों और अपने पर आश्रित लोगों को भोजन से तृप्त करने के बाद शेष भोजन स्वयं करें । ११७ गहस्थ का यह कर्तव्य है कि पहले वह देवों, ऋषियों, पितरों, गृहदेवों, परिजनों एवं आश्रितों को भोजन कराए और उसके बाद ही शेष रहा भोजन ग्रहण करे । ११८ जो गृहस्थ देवों-अतिथियों आदि को भोजन न देकर केवल अपने लिए भोजन पका कर खाता है, वह केवल पाप को भोगता है, क्योंकि (पञ्च) यज्ञ से बचा भोजन ही सज्जनों का भोजन (अन्न) कहा गया है । ११९ यदि राजा, यज्ञ करवाने वाला, स्नातक, गुरु, प्रिय मित्र, श्वसुर तथा मामा एक वर्ष बाद घर पर आएं तो उनको मधुपर्क अर्पित करें तथा उनका पूजन करें । १२० अगर यज्ञ में राजा तथा वेदपाठी ब्राह्नण आ जाए तो उनका भी मधुपर्व अर्पित करके पूजन करना चाहिए । ऐसा नहीं करने पर यज्ञ सफल नहीं होता । १२१ स्त्री सायंकाल पके हुए भोजन को बिना मन्त्रों का उच्चारण किए ही बलि दे । प्रातःकाल तथा सायंकाल बलिवैश्वदेव यज्ञ करने का यह शास्रों में बतााय गया विधान है । १२२ अमावस्या की तिथि को पितृ श्राद्ध करके प्रतिमाह 'पिण्डावाहार्यक' श्राद्ध करना एक अग्निहोत्री गृहस्त ब्राह्नण का कर्तव्य है । १२३ वह द्विज (अर्थात् ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य) जो प्रत्येक अमावस्या को अपने स्वर्गीय पितरों का श्राद्ध कर्म नहीं करता, घोर पाप का भागी होता है । उस पाप से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित करना आवश्यक होता है । १२४ प्रत्येक माह किया जाने वाला पितरों का श्राद्ध 'अन्वाहार्य' कहा जाता है । उत्तम भोज्य पदार्थों से पितृ श्राद्ध करना ही बुद्धिमान गृहस्थ का कर्तव्य है । १२५ महर्षि मनु कहते हैं- इस पितृ श्राद्ध में जो श्रेष्ठ ब्राह्नण भोजन करने के अधिकारी हैं और जो अनधिकारी हैं तथा जितनी संख्या में एवं जिन खाद्यान्नों से भोजन कराने के योग्य हैं, उन सबके बारे में आगे कहूंगा । १२६ गृहस्थ पितृ श्राद्ध में तीन ब्राह्नणों को तथा देव श्राद्ध में दो ब्राह्नणों को भोजन कराए । इन दोनों श्राद्धों में केवल एक-एक ब्राह्नण को भी आमंत्रित किया जा सकता है । धनवान व्यक्ति को भी इन यज्ञों में अधिक ब्राह्नणों को आमंत्रित नहीं करना चाहिए । १२७ श्राद्ध में अधिक संख्या में उत्तम ब्राह्नणों को आमंत्रित करने से पूजा की उचित विधि, देश और काल एवं पवित्रता ये सब नष्ट हो जाती हैं । अतः ब्राह्नणों को अधिक संख्या में निमंत्रित नहीं करना चाहिए । टिप्पणी- कहने का आशय यह है ब्राह्नणों की संख्या बढ़ाने से अनेक समस्यााएं उत्पन्न हो जाएंगी । ये समस्याएं श्राद्ध के लक्ष्य को ही नष्ट कर देंगी । ये समस्याएं निम्न प्रकार की हो सकती हैं- १. आमंत्रित ब्राह्नण क्या श्राद्ध में भोजन करने योग्य है ? २. सभी आमंत्रित ब्राह्नणों की विधिवत् पूजा में लगने वाला धन, समय आदि । ३. अधिक मात्रा में भोजन तथ जल का प्रबन्ध करने से उसकी शुद्धता रखना कठिन होगा । ४. काल का प्रवाह सतत परिवर्तनशील है । इसके अनुसार ही देश की सांस्कृतिक परंपगाएं भी परिवर्तित होती रहती हैं लेकिन रूप या संख्या में किया गया कार्य समय के प्रवाह को भी झेल लेता है । ५. एकत्रित विद्वानों की संख्या जितनी अधिक होगी उतने ही विवाद बढेंगे । इन सभी उपर्युक्त कारणों से ही महान चिंतक और सब लोगों द्वारा पूज्य भगवान मनु श्राद्ध में कम ब्राह्नणों को आमंत्रित करने की सलाह देते हैं । १२८ अमावस्या की तिथि पर प्रेतकृत्य करने वाला व्यक्ति प्रतिदिन किए जाने वाले लौकिक श्राद्ध के फल का भी भागीदार बन जाता है । प्रेतकृत्य को ही श्राद्ध अथवा पितृकर्म कहते हैं । १२९ दाता गृहस्थ हव्य अर्थात् देव बलि के उद्देश्य से दिया गया अन्न और पितृ बलि हेतु दिया गया अन्न वेद के ज्ञाता ब्राह्नण को ही दें । यह दान जितने श्रेष्ठ ब्राह्नण को दिया जाएगा उसका ही श्रेष्ठ फल होगा । १३० अनेक मूर्ख ब्राह्नणों को दान देने तथा उनकी पूजा करने से वह पुण्य लाभ नहीं प्राप्त होता जो देव यज्ञ और पितृ यज्ञ में एक वेद ज्ञाता ब्राह्नण को देने से मिलता है । आशय यह है कि मूर्ख ब्राह्नण को दान देना व्यर्थ है । १३१ पहले से ही पूछताछ तथा परीक्षा करके वेद ज्ञान में निपुण ब्राह्नण का पता लगा लेना चाहिए। उसे तभी आमांत्रित करें जब स्वयं संतुष्ट हो जाएं । देव बलि तथा पितृ बलि पाने का वास्तविक अधिकारी केवल ऐसा विद्वान ब्राह्नण ही है, वही अतिथि भी है । १३२ चाहे लाखों ब्राह्नणों को भोजनादि करा दिया जाए लेकिन अगर वे मूर्ख हैं तो श्राद्ध सफल नहीं होता है लेकिन एक ही वेद ज्ञाता विद्वान ब्राह्नण को भोजनादि से सन्तुष्ट करने पर श्राद्ध सफल हो जाता है । १३३ ज्ञान में श्रेष्ठ ब्राह्नण को ही श्राद्ध तथा यज्ञ में भोजन कराना तथा दान देना चाहिए, मूर्ख को नहीं, क्योंकि जैसे खून से सने हाथ खून से नहीं, वरन् जल से शुद्ध होते हैं वैसे ही श्रेष्ठ ब्राह्नण की संतुष्टि से ही श्राद्ध सफल होता है । १३४ अपने पितरों का श्राद्ध करने वाला मूर्ख ब्राह्नण को भोजन के जितने ग्रास (कौर) खिलाता है उसे मरने के बाद उतने ही गरम-गरम शूलर्ष्टि (दो धारों वाला एक विशेष अस्त्र) और लौह पिण्ड खाने पड़ते हैं । अतः भूलकर भी अज्ञानी तथा मूर्ख ब्राह्नण को हव्य-कव्य समर्पित नहीं करने चाहिए । १३५ कुछ ब्राह्नण ज्ञाननिष्ठ अर्थात् आत्मज्ञानी होते हैं, कुछ तप में मग्न रहते हैं, कुछ तप तथा स्वाध्याय (वेद पाठ) में आसक्त रहते हैं और कुछ कर्मनिष्ठ होते हैं । १३६ केवल ज्ञानिष्ठ अर्थात् आत्मज्ञानी ब्राह्नणों को ही श्राद्धों में भोजन कराना चाहिए । इसके अतिरिक्त अन्यान्य यज्ञों में ज्ञाननिष्ठ, तपोनिष्ठ, स्वाध्याय करने वाले तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्नणों को आमंत्रित किया जा सकता है । १३७, १३८ पुत्र वेद ज्ञाता है परन्तु पिता नहीं है अथवा पिता वेद ज्ञाता है पर उसका पुत्र वेद ज्ञाता नहीं है । इन दोनों में से जिसका पिता वेद ज्ञाता है और पुत्र भी वेद ज्ञाता है वही श्रेष्ठ है । आशय यह है कि उस ब्राह्नण को हव्य-कव्य देना तथा उसकी पूजा करना सर्वश्रेष्ठ है जिसका पिता भी वेद ज्ञाता है और वह स्वयं भी वेदज्ञ हो । १३९ श्राद्ध में मित्र को भोजन नहीं कराना चाहिए । मित्र की धनादि से सहायता तथा उसका सत्कार किया जा सकता है । उस ब्राह्नण को श्राद्ध में निमन्त्रित नहीं करना चाहिए जिससे किसी प्रकार की दोस्ती या दुश्मनी हो । १४० जिस श्राद्ध में मुख्य रूप से मित्रों को भोजन कराया जाता है उस कव्य और हव्य का परलोक में कोई पुण्य नहीं मिलता । १४१ जो ज्ञानहीन व्यक्ति श्राद्ध को मित्रता बनाने या अपने सम्बन्धों को दृढ़ करने का साधन बनाता है, उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति नहीं होती । १४२ जिस तरह एक अंधी गाय अपने अंधेपन के कारण कहीं आती-जाती नहीं और एक घर में ही खड़ी रहती है, उसी तरह मित्रों को श्राद्ध में भोजन कराना केवल इसी लोक में फलदायक होता है, परलोक में नहीं । ऐसे श्राद्ध को पैशाचिक कृत्य कहा गया है । १४३ ऊसर धरती में बीज बोने वाला जिस प्रकार फल प्राप्त नहीं करता, क्योंकि बीज से पोधा ही नहीं उगता उसी प्रकार वेद ज्ञान से हीन ब्राह्नण को श्राद्ध में भोजन कराने वाला कोई फल नहीं प्राप्त करता है । १४४ जो यजमान विद्वान ब्राह्नण से विधि अनुसार दान कराता तथा उसे दक्षिण अर्पित करता है, उसको तथा विद्वान ब्राह्नण दोनों को लोक एवं परलोक में पुण्य की उपलब्धि होती है । १४५ श्राद्ध में (विद्वान ब्राह्नण के न मिलने पर ) भले ही मित्र को भोजन करा दे परन्तु शत्रु चाहे विद्वान क्यों न हो, उसे भोजन नहीं कराए क्योंकि द्वेष भाव से कराया और खाया गया भोजन इस लोक और परलोक दोनों में फलहीन होता है । १४६ ऋग्वेद में निपुण ब्राह्नण को तथा सम्पूर्ण सामदेव में कुशल ब्राह्नण को अत्यन्त आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए । कहने का आशय यह है कि जो वेद ज्ञान में विशेष योग्यता रखते हैं ऐसे विद्वान ब्राह्नणों को बड़े आदर-सत्कार तथा सावधानी के साथ भोजन कराना चाहिए । १४७ उस यजमान की सात पीढ़ी तक के पितरों की तृप्ति हो जाती है जिसके यहां ऋग्वेद, यजुर्वेद या सामवेद का विद्वान श्राद्ध मेें मिले आदर-सत्कार तथा भोजन से सन्तुष्ट होता है । १४८ मनु महाराज ऋषियों से कहते हैं-अभी तक मैंने हव्य-कव्य से सम्बन्धित प्रथम मुख्य कल्प के बारे में बताया है । अब मैं सज्जन व्यक्तियों द्वारा आचरण किए जाने वाले अनुष्ठान के बारे में बताता हूं, यह अनुकल्प इस प्रकार है- १४९ अनुकल्प में इन लोगोों को भोजन अवश्य कराएं- नाना, मामा, बहिन का पुत्र, ससुर, गुरु, पुत्री का लड़का, जामाता, सगा भाई तथा ममेरा, चचेरा, मौसेरा, फुफेरा भाई-बन्धु, ऋत्विक और आने वाला यज्ञ कर्ता ब्राह्नण । १५० धर्म का पालन करने वाला पुरुष चाहे यज्ञ कर्म कराने वाले ब्राह्नण की परीक्षा नहीं करे परन्तु श्राद्धकर्म में उसकी भली-भांति परीक्षा करने के बाद ही आमंत्रित करे । १५१ महर्षि मनु के अनुसार हव्य-कव्य के लिए चोर, महापापी, नपुंसक तथा नास्तिक वृत्ति वाले ब्राह्नण पूरी तरह अनधिकृत हैं । इन्हें श्राद्ध में कभी निमंत्रित नहीं करें । १५२ श्राद्ध कर्म में ऐसे ब्राह्नण को भी आमंत्रित नहीं करें जो जटाएं रखता हो, स्वाध्याय नहीं करात हो, कमजोर शरीर का हो, जुआ खेलता हो, (आवश्यकता से ) अधिक व्रत रखता हो और उनका उद्यापन करता हो । १५३ चिकित्सा करने वाले, मन्दिर में पूजा करने वाले, मांस बेचने वाले और व्यापर से जीविका चलाने वाले ब्राह्नण को भी श्राद्ध एवं देवयज्ञ में आमंत्रित नहीं करते । १५४, १५५ ऐसे ब्राह्नण को हव्य अर्थात् देव यज्ञ और कव्य अर्थात् पितृ श्राद्ध में आमंत्रित नहीं करना चाहिए जो राजा या ग्राम द्वारा सन्देशवाहक के रूप में नियुक्त हो, जिसके नाखून गंदे हों, जिसके दांत मैले या काले हों, जो गुरु की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता हो, जो अग्निहोत्र का परित्याग करने वाला हो, ब्याज से जीवन चलाता हो, क्षय का रोगी हो, पशु पालन कर जीवन चलाता हो, कन्या बचेने वाला हो, नित्य किए जाने वाले अनुष्ठानों की उपेक्षा करता हो, ब्राह्नणों से द्वेष रखता हो, कुल धर्म को तोड़ने वाला हो और समाज के धन का अपने हित में खर्च करने वााला हो । १५६, १५७ उपर्युक्त की तरह ऐसे ब्राह्नण को भी देव यज्ञ तथा पितृ श्राद्ध में आमंत्रिता नहीं करना चाहिए जो नर्तक हो, जिसका ब्रह्नचर्य खंडित हो गया हो, शूद्र स्त्री का पति हो, जिसका दूसरे विवाह से जन्म हुआ हो, एक आंख वााला हो, जिसके घर में ही उसकी पत्नी का प्रेमी रहता है, जो वेतन देकर पढ़ता हो या वेतन लेकर पढ़ाता हो, शूद्र से शिक्षा ग्रहण करता हो । कटु बोलने वाला हो, जो जार से जन्मा सधवा नारी का पुत्र हो (कुण्ड हो) या जार से जन्मा विधवा का पुत्र (गोलक) हो । १५८, १५९ यज्ञ तथा श्राद्धकर्म में ऐसे ब्राह्नण भी आमंत्रित होने के अधिकारी नहीं हैं जो गुरु एवं माता-पिता का बिना कारण त्याग करने वाला हो, पतितों के साथ वेदादि का अध्ययन करने वाला हो अथवा उनके साथ यौन सम्बन्ध रखने वाला हो, घर में आग लगाने वाला, जहर देने वाला, कुण्ड का अन्न खाने वाला हो, सोमरस बेचने वाला हो, समुद्र के पार जाने वाला हो, भाटों की तरह स्तुति-प्रशंसा करने वाला हो, तेल व्यापारी हो तथा झूठी गवाही देने वाला हो । १६०, १६१ इसी प्रकार पिता के साथ निरर्थक झगड़ा करने वाला, धूर्त, शराबी, कोढ़ी, समाज में कलंकित, दम्भी, रस बेचने वाला, धनुष-बाण निर्माता, ऐसी स्त्री (जिसकी बड़ी बहन कुंआरी हो) का पति, मित्र से द्वेष करने वाला, जुआ घर खोलकर जीविका चलाने वाला तथा पुत्र से पढ़ने वाला ब्राह्नण भी देव यज्ञ एवं श्राद्ध में निमंत्रण पाने अधिकारी नहीं हैं । १६२ ऐसे ब्राह्नण को भी हव्य-कव्य हेतु आमंत्रित नहीं करे जो मिरगी का रोगी हो, गण्डमाला रोग से पीडित हो, चुगलखोर हो, उन्माद से ग्रस्त हो, दृष्टिहीन हो और वेदों की निन्दा करने वाला हो । १६३, १६४ इसी प्रकार उन ब्राह्नणों को भी हव्य-कव्य हेतु आमंत्रित नहीं करे जो हाछी, बैल, अश्व तथा ऊटों को प्रशिक्षण देेते हैं । ज्योतिष का व्यापार करते हों, युद्ध विद्या सिखाते हों, नदियों के तटबन्धों को तोड़ने वाले हों, नदियों के बहाव को मोड़ने वाले हों, वास्तुकला से जीविका चलाते हों, दूत कर्म करते हों तथा वृक्षों को आरोपण करने वाले हों । १६५, १६६ श्राद्ध कर्म और यज्ञ में उस ब्राह्नण को भी पुरोहित नहीं बनाना चाहिए जो कुत्तों से खेलने और उनसे मनोरंजन करने वाला हो, बाजों को खरीदता-बेचता हो, जीवों की हत्या करने वाला हो, शूद्रों का कार्य करके जीविका चलाता हो, गण-यज्ञ (विनायक शान्ति) कराने वाला हो, आचरण भ्रष्ट हो, नपुंसक हो, सदा भिक्षा मांगता हो, खेती करने वाला हो, पीलिया रोग से ग्रस्त हो अपने दुष्कर्मों के लिए समाज द्वारा निन्दित हो । १६७ श्राद्ध कर्म हेतु वह ब्राह्नण भी आमंत्रित करने योग्य नहीं है जो भैंसे तथा मेढ़े से अपनी जीविता चलाता हो, जिसने किसी विवाहिता से पुनर्विवाह किया हो अथवा प्रेत कर्म से धन लेता हो । १६८ ऊपर बताए गए निन्दित, अपनी पंक्ति को दूषित करने वाले और द्विजों में नीच ब्राह्नणों को देव यज्ञ तथा पितृ श्राद्ध में विद्वान मनुष्य आमंत्रित नहीं करे । १६९ जिस तरह फूस की आग हवन सामग्री (हविष्य) डालने पर बुझ जाती है, वैसे ही जो ब्राह्नण वेदाध्ययन नहीं करता उस देवता को दी जाने वाली हवि अर्पित नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हवन राख में नहीं, जलती अग्नि में किया जाता है । टिप्पणी- यहां वेदाध्ययन करना या वेद पाठ करना हवन की अग्नि के समान माना गया है । उसे ज्ञानाग्नि की उपमा दी गई है । इस ज्ञानाग्नि से हीन ब्राह्नण मूर्ख के समान है । अतः उसे पितृ यज्ञ अथवा देव यज्ञ में निमंत्रित करना व्यर्थ तथा फलहीन है । १७० महाराज मनु कहते हैं कि पहले बताए गए प्रकार के पंक्ति बाह्य ब्राह्नणों को हव्य एवं कव्य के लिए आमंत्रित करने पर जो दोष यजमान पर लगता है, उसे मैं आगे बाताता हूं । १७१ वेदों में बताए नियमों को तोड़ने वाले, चोरी करके धन कमाने वाले और समाज द्वारा निकाल दिए जाने वाले लोगों के घर में किया गया भोजन 'राक्षस भोजन' कहा जाता है । १७२ अगर छोटा भाई अपने सगे बड़े भाई से पहले ही अग्निहोम तथा विवाह आदि करता है तो ऐसा छोटा भाई 'परिवेत्ता' और 'परिवित्त' कहा जाता है । १७३ ऐसा बड़ा भाई जो छोटे से पहले विवाह नहीं करता (परिवित्त), बड़े भाई से पहले विवाह कर लेने वाला (परिवेत्ता), छोटे भाई से विवाह करने वाीली कन्या, उसे दान करने वाला पिता तथा ऐसे वर-वधू का विवाह कराने वाला पुरोहित पांचों को नरक मिलता है । १७४ स्वर्गीय भाई की पत्नी से काम के वशीभूत होकर प्रेम करने वाला पुरुष, उससे नियोग करने पर भी धर्म के अनुसार 'दिधिषूपति' कहा जाता है । १७५ यदि किसी पुरुष द्वारा परायी पत्नी से संभोग के फलस्वरूप पुत्र उत्पन्न होते हैं तो उन्हें 'कुण्ड' तथा 'गोलक' कहते हैं । पति के जीते रहने पर सधवा से जार उपपति के द्वारा उत्पन्न पुत्र 'कुण्ड' और विधवा से जार के द्वारा उत्पन्न पुत्र 'गोलक' कहा जाता है । १७६ परायी पत्नी (स्त्री) से पैदा हुए दोनों प्रकार के बालक 'कुण्ड' तथा 'गोलक' जिस देवता को हव्य तथा पितर को कव्य अर्पित करते हैं, उसके लोक एवं परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं । कहने का आशय यह है 'कुण्ड' और 'गोलक' को श्राद्ध करने का अधिकार नहीं है । इसके बावजूत भी अगर वे श्राद्ध करते हैं तो उससे उनके पितरों को पाप का ही भागी होना पड़ेगा । १७७ परायी नारी से जन्मा पुत्र (कुण्ड या गोलक) के आमंत्रण को पाकर उसके यहां भोजन करने के लिए जाने वाला ब्राह्नण पंक्ति में बैठने का अधिकार खो देता है । इसके अतिरिक्त वह मूर्ख पुत्र (कुण्ड अथवा गोलक) किसी भी तरह का पुण्य पाने से वंचित हो जाता है । अभिप्राय यह है कि ब्राह्नण ऐसे निमन्त्रण पर भोजन करने जाता है उसे अन्य ब्राह्नण अपने साथ नहीं बैठाते हैं और न उसके साथ बैठते हैं । इस प्रकार उस ब्राह्नण का जाति बहिष्कार हो जाता है । १७८ जो ब्राह्नण इस सत्य का ज्ञान होने के बाद भी कुण्ड अथवा गोलक पुत्र के यहां निमंत्रण पाकर भोजन करता है वह ( ब्रह्नण ) भले ही अंधा, काना, कोढ़ी या पापी न हो क्रमशः अस्सी, नब्बे, सौ और एक हजार वेदपाठ करने वाले ब्राह्नणों को भोजन कराने के पुण्य फल को समाप्त कर देता है । १७९ कुण्ड या गोलक पुत्र (शूद्र याज्ञिकः चाहे कितने ही ब्राह्नणों के पैरों को धोएं और कितनों को ही भोजन एवं दान-दक्षिण देकर संतुष्ट करे परन्तु उसे दान देने से कोई पुण्य लाभ नहीं मिलता। १८० कुण्ड अथवा गोलक पुत्र के निमंत्रण को अगर कोई ब्राह्नण स्वीकार कर लेता है तो वह इस प्रकार नष्ट हो जोता है जैसे पानी में पड़ा कच्ची मिट्टी का बर्तन नष्ट हो जाता है । १८१ कुण्ड या गोलक पुत्र द्वारा जो दान सोम विक्रेता, ब्रह्नण को दिया जाता है, वह विष्ठा के समान होता है, वैद्य ब्राह्नण को दिया दान पीप और खून के समान होता है, मंदिर के पुजारी को दिया दान नष्ट हुई वस्तु के समान होता है । ब्याज से जीविका चलाने वाले ब्राह्न को दिया दान उसीक प्रतिष्ठा को नष्ट कर देता है । १८२ दोबारा विवाह करने के फलस्वरूप जन्मे पुत्र द्वारा दान करााना और बनिए (वणिक) जैसी मानसिक वृत्ति वाले ब्राह्नण द्वारा दान स्वीकार करना दोनों के लिए ही यह कार्य (दान देना-लेना) राख में घी की आहुति देने की तरह अर्थहीन है अर्थात् बेकार है । १८३ जो खाद्यान्न जाति से भ्रष्ट हुए और दुष्ट प्रवृत्ति वाले ब्राह्नण को दिया जाता है वह मांस, रक्त, मज्जा, हड्डियों की तरह होता है अर्थात् खाने योग्य नहीं होता । आशय यह है जाति से निकाले हुए ब्राह्नण को भोजन कराना पुण्य रहित है । १८४ महाराज मनु कहते हैं-जिन श्रेष्ठ ब्राह्नणों के द्वारा जाति से बहिष्कृत एवं असज्जन प्रकति के ब्राह्नण शुद्ध, पवित्र होकर पुनः अपनीी जाति की पंक्ति में बैठने के अधिकारी हो जाते हैं (अर्थात् पुनः जाति में मिला लिए जाते हैं) पंक्ति को पवित्र करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्नणों के लक्षणों को ध्यानपूर्वक सुनो । १८५ ऐसे ब्राह्नणों को ही पंक्ति पावन समझना चाहिए जिनके कुलों में परम्परा से वेदों का अध्ययन-अध्यापन तथा प्रवचन होता आया है और जो अपनी वंश परम्परा के अनुसार श्रेत्रिय (वेद विद्या विशारद ) हैं । १८६ वही ब्राह्नण पंक्ति पावन होता है अर्थात् जाति बहिष्कृत ब्राह्नण को पवित्र कर पुनः जाति की पंक्ति में बैठाने वाला होता है जो पंचाग्नि का सेवन करता हो, कठोपनिषद में बताए व्रत को धारण करने वाला हो, ऋग्वेद में बताए ब्राह्न विवाह वाले दम्पति से जन्मा हो तथा सामवेद के आरण्यक का गान करने वाला हो । १८७ वह ब्राह्नण भी जाति से बाहर निकाले गए (पंक्ति बहिष्कृत) ब्राह्नण को शुद्ध करने में समर्थ होता है जो सौ वर्ष की आयु का हो, हजारों गायें दान कर चुका हो और वेद के रहस्यमय अर्थ को समझने तथा समझाने वाला हो । टिप्पणी- पिंक्ति बहिष्कृत ब्राह्नण होता है जो किन्हीं विशेष कार्यों में दूसरे के समान अधिकार नहीं रखता । परन्तु उसकी जाति ब्राह्नण ही मानी जाती है । इसके विपरीत जाति से बहिष्कृत या बाहर निकाला गया ब्राह्नण अपने ब्राह्नणत्व के सभी अधिकार को देता है । दोनों में साधारण सा पर महत्वपूर्ण अन्तर है । १८८ श्राद्ध कर्म करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि श्राद्ध करने से पहले एक, दो या तीन ऐसे ब्राह्नणों को आदर सहित आमंत्रित करे जो शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध कर्म कराने के अधिकारी तथा गुण सम्पन्न हों । १८९ जिस ब्राह्नण को श्राद्ध के लिए निमंत्रित किया जाए वह उस रात (श्राद्ध करवाने के दिन से पूर्व की रात) ब्रह्नचर्य आदि नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करे । शार्दध के दिन श्राद्ध करने तथा कराने वाले के लिए वेदों का अध्ययन करना मना है । टिप्पणी- वेदाध्ययन का निषेध इस उद्देश्य से किया गया है ताकि श्राद्ध कर्म में पूरी तन्मयता लायी जा सके । १९० पितर श्राद्ध हेतु आमंत्रित ब्राह्नणों के पास आ जाते हैं और वायु की तरह उनका अनुगमन करते हैं तथा उनके आसन पर बैठने के साथ उनके पास बैठ जाते हैं । १९१ कुछ विद्वानों का कहना है जो ब्राह्नण किसी के द्वाारा दिया गया श्राद्ध का आमंत्रण स्वीकार करने के बाद भी किसी कारण से श्राद्ध का भोजन नहीं करता तो उसे पाप लगता है और वह अगले जन्म में सुअर की योनि में उत्पन्न होता है । १९२ श्राद्ध कर्म के लिए निमंत्रित ब्राह्नण अगर शूद्र स्त्री के साथ संभोग करता है तो वह यजमान के सभी पापों के कुफल पाता है । १९३ मनु महर्षि कहते हैं-भीतर तथा बाहर से पावन, क्रोधहीन, इन्द्रियों को जीत लेेने वाला, हिंसा से मुक्त, दया, उदारता आदि उच्च गुणों से युक्त, देवता से तुलना करने योग्य पुरुष ही पितर है । १९४ महाराज मनु कहते हैं कि अब मैं आप लोगों को उन नियमों के बारे में बताता हूं जिनसे पितरों की उत्पत्ति होती है तथा जिन नियमों से वे पूजित होते हैं । १९५ मरीचि आदि स्वायुम्भव मनु के पुत्र हैं और मरीचि आदि सभी ऋषियों के पुत्र ही पितर हैं । १९६ प्रजापति विराटके पुत्र सोमसद साध्यों के पितर हैं तथा प्रजापति मरीचि के जगत प्रसिद्ध पुत्र अग्निष्वात्त देवों के पितर हैं । १९७ दैत्य, दानव, यक्ष, गन्धर्व, सर्प, नाग, राक्षस, सुवर्ण तथा किन्नरों के पितर अत्रि के पुत्र बर्हिषद हैं। १९८ सोमपा, हविर्भुज, आज्यपा तथा सुकालिन क्रमशः ब्राह्नणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के पितरों के नाम हैं । १९९ सोमपा भृगु (कवि) के पुत्र हैं, हविर्भुज अङ्गिरस के पुत्र हैं, आज्यपा, पुलस्त्य के पुत्र हैं, सुकालिन वसिष्ठ के पुत्र हैं । २०० ब्राह्नणों के पितर हैं- अग्निदग्ध, अनग्निदग्ध, काव्य, बर्हिषद, अग्निष्वात तथा सौम्य । काव्य को शुकाचार्य भी कहा जाता है । २०१ मनु महाराज कहते हैं- 'ऋषियो ! मैंने आप लोगों को अब तक पितरों के मुख्य-मुख्य गणों के बारे में बताया है । इनके इस संसार में असंख्य पुत्र-पौत्र जन्मे हैं जिनकी गिनती करना असम्भव है । २०२ ऋषियों से पितरों का पितरों से देवताओं का और देवताओं से मानवों का जन्म हुआ । देवताओं द्वारा ही संसार के समस्त जड़-चेतन का जन्म हुआ । इस भांति यह जगत देवताओं से व्याप्त है । २०३ जल भरे चांदि की परत से मढ़े अथवा चांदी (रजत) से निर्मित पात्रों द्वारा केवल श्रद्धापूर्वक जल देने के रूप में श्रद्ध-तर्पण करने से असीम सुख की उपलब्धि होती है । २०४ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के पुरुषों के लिए देवकार्य (यज्ञ-हवन आदि) की तुलना में श्राद्ध-तर्पण आदि करना अधिक महत्वपूर्ण है । क्योंकि पहले के ऋषियों ने भी बताया है कि देवकार्य श्राद्ध-तर्पण (पितृकार्य) का पूर्व रूप है । २०५ पितृ कार्य में सबसे पहले पितरों रक्षा करने वाले देवताओं की स्थापना करनी चाहिए अन्यथा रक्षकों की अनुपस्थिति से राक्षस श्राद्ध को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । २०६ पितृ कार्य के आदि एवं अन्त में देवकार्य अवश्य करना चाहिए अन्यथा श्राद्ध-तर्पण करने वाला सन्तान सहित नष्ट हो जाता है । २०७ पितृ श्राद्ध हेतु एकान्त और पवित्र स्थल को गोबर से लीपना चाहिए । उस जगह को दक्षिण दिशा की ओर ढालू रखे और वहां एक वेदी बनाएं । २०८ प्राकृतिक स्वभाव से ही पवित्र वन आदि की भूमि, नदी तट और एकान्त स्थान में किए गए श्राद्ध आदि करने से पितर सदा सन्तुष्ट होते हैं । २०९ पूर्वोक्त श्लोक में बताए गए स्थानों पर अलग-अलग सुन्दर कुशों का आसन बिछाकर आमंत्रित ब्राह्नणों को आदर सहित उन पर बैठाए । २१० श्राद्ध हेतु निमंत्रित ब्राह्नणों को आसन पर बैठाने के बाद, पहले देवस्थानीय तत्पश्चात् पितृ स्थानीय ब्राह्नणों का सुगन्ध, माला आदि पदार्थों से सादर पूजन करें । २११ उन ब्राह्नणों के अर्घ्य में तिल जल का मिश्रण करे और उनसे आज्ञा लेकर उनके साथ अग्नि में होम करें । २१२ अग्नि में होम करने के बाद अग्नि, सोम तथा यम देवों को विधिपूर्वक हविष्य के हवन से संतुष्ट कर बाद में पितरों को हवि देकर विधिपूर्वक तर्पण करे । २१३ अग्नि के अभाव में ब्राह्नणों के हाथ पर ही श्राद्ध करने वाले को तीन आहुतियों देनी चाहिए क्योंकि मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने कहा है कि जो अग्नि है वही ब्राह्नण है । २१४ वही ब्राह्नण श्राद्ध-तर्पण कर्म में आमंत्रित करने योग्य हैं जो क्रोध से रहित हैं, सर्वथा प्रसन्न चित्त रहते हैं, ज्ञानी एवं वृद्ध हैं और लोक कल्याण में लगे रहते हैं । २१५ अपने दाहिने हाथ से आग में होम करके यज्ञ वेदी को ढक दें और फिर दाहिने हाथ से वेदी के चारों ओर धरती पर पानी डाल कर उसे गीला कर दें जिससे वायु द्वारा अग्नि की चिन्गारी उड़कर कुछ जला नहीं सके । २१६ हवन से बचे हुए अन्न से तीन पिण्ड बनाकर, चित्त को एकाग्र कर, दक्षिण दिशा की ओर मुख करके उन कुशाओं पर पिण्डों को रखें । २१७ विधिपूर्वक उन (तीनों) पिण्डों को कुशाओं पर स्थापित कर, उन कुशाओं की जड़ में लेपभागी (अर्थात् वृद्ध प्रपितामह आदि) पितरों की तृप्ति हेतु हाथ को रगड़ना-पोंछना चाहिए । २१८ उत्तर दिशा की ओर मुख करके मंत्र ज्ञाता पुरुष धीरे-धीरे आचमन करे तथा तीन बार प्राणायाम करके पितरों और उनके ही समान छह ऋतुओं को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करे । २१९ शेष जल को धीरे-धीरे पिण्डों के पास छोड़ना चाहिए तथा उसके बाद उसी क्रम में (जिस क्रम में उन्हें पहले रखा गया था ) उन पिण्डों को सूंघना चाहिए । २२० तीनों पिण्डों से सावधानी सहित क्रमशः थोड़ा-थोड़ा अंश लेकर ब्राह्नणों को भोजन के समय सर्वप्रथम खाने के लिए देना चाहिए । २२१ पिता के जीवित होने पर उसे ब्राह्नण के समान ही सादर भोजन कराएं और बााबा (दादा), परबाबा आदि का श्राद्ध करें । २२२ अगर पिता का स्वर्गवास हो चुका हो तथा बाबा (दादा-पिता का पिता) जीवित हो तो पिता का नाम लेने के बाद (परदादा-दादा का पिता) का नाम लें और बाबा को आदरपूर्वक ब्राह्नण की तरह भोजन कराएं । २२३ मनु महाराज का कहना है कि अगर (दादा) बाबा जीवित हों तो उन्हें ही श्राद्ध का भोजन आदरपूर्वक कराएं । यद वह इसके लिए सहमत न हों तो वे जैसी आज्ञा दें, पौत्र को उसका पालन करना चाहिए । २२४ श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्नणों के हाथों में कुशा के साथ तिल तथा पानी देकर अमुकाय स्वधा, पितरे स्वधा आदि कहते हुए पिण्ड का थोड़ा सा भाग उन्हें प्रदान करें । २२५ पके हुए खाद्यान्न से भरे बरतनों को अपने हाथों में लेकर 'मे वृद्धिः अस्तु' कहते हुे पितरों को याद करते हुए खाद्यान्न पात्रों को धीमे से ब्राह्नण जनों के पास रख दें । २२६ अगर खाद्यान्न से पूर्ण पात्रों को श्रद्धा सहित दोनों हाथों से पकड़ कर ब्राह्नणों के पास नहीं रखा जाता तो दुष्ट बुद्धि वाले असुर उन्हें छीन लेते हैं । २२७ निमन्त्रित ब्राह्नणों को दान में देने हेतु, यजमान साग, दाल, घी (घृत), दधि (दही), दुग्ध तथा मधु आदि से पूर्ण पात्रों को सावधानीपूर्वक धाती पर रखे । २२८, २२९ तरह-तरह की खाने योग्य वस्तुओं से, कंदमूल और फलों से, मनोहर मांस, सुगंधित पीने योग्य शरबत आदि से भरे पात्रों को ब्राह्नणों के पास लाकर धीरे से संयत और सावधान होकर उन पदार्थों के गुणों का बखान करते हुए श्राद्ध करने वाले को चाहिए कि वह उन्हें यथाक्रम परोसे । २३० रुदन करने, क्रोध करने और असत्य बोलने का श्राद्ध के दिन निषेध है । श्राद्ध करने वाले को अन्न को ( या उससे भरे पात्र को) पैर नहीं लगाना चाहिए न उसे फेंकना चाहिए । २३१ श्राद्ध के दिन रुदन करने से श्राद्ध का अन्न प्रेतों को, क्रोध करने से शत्रुओं को, झूठ बोलने से कुत्तों को, पैर लगाने से राक्षसों को तथा फेंकने से वह पापी जीवों को मिलता है । टिप्पणी-ब्राह्नण श्राद्ध में मिलने वाले स्वादिष्ट भोजन, मांस, पकवानों आदि को प्रसन्नता तथा शांतिपूर्वक खा-पी सके इसलिए उस दिन रोने, क्रोध करने और झूठ बोलने की मनाही की गई है । २३२ श्राद्ध-तर्पण के दिन ईर्ष्या-द्वेष से रहित होकर श्रद्धावान यजमान को निमंत्रित ब्राह्नणों को उनकी रुचि के अनुसार ही भोजन बनाकर उनके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए । इस अवसर पर परमात्मा के बारे में चर्चा करनी चाहिए । सभी पितरों को यही अनुकूल तथा प्रिय होता है । २३३ पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध के दिन यजमान को वेद, धर्म शास्त्र, रामायण, महाभारत एवं पुरााणों की कथाएं सुननी चाहिए । कहने का अभिप्राय यह है कि श्राद्ध के दिन लौकिक चर्चा को छोड़कर आध्यात्मिक जगत में विचरण करना चाहिए । २३४ यजमान को स्वयं प्रसन्न रहते हुए ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे ब्राह्नण लोग प्रसन्न हों । उन्हें भोजन कराने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए वरन् धीरे-धीरे खिलाना चाहिए । भोजन और मिठाई आदि के गुणों का बखान करते हुए ब्राह्नण को और अधिक खाने के लिए प्रेरित करें । २३५ श्राद्ध पर पुत्री का ब्रह्नचारी पुत्र (दौहित्र) आया हो तो उसे भोजन कराना चाहिए और इसके लिए उससे प्रेमपूर्वक अनुरोध करना चाहिए । उसे बैठने के लिए उच्च कोटि का कम्बल देना चाहिए तथा श्राद्ध की जगह तिल डालने चाहिए । २३६ श्राद्ध में पुत्री का पुत्र, नेपाली कम्बल तथा तिल इन तीनों को पवित्र माना गया है । श्राद्ध में क्रोध नहीं करना, जल्दबाजी नहीं करना तथा पवित्रता रखना इनकी मन्वादि ऋषि द्वारा प्रशंसा की गई है । २३७ समस्त भोज्य पदार्थ जो ब्राह्नणों को परोसे जाते हैं वे भली प्रकार गर्म होने चाहिए । ब्राह्नण मौन रहकर भोजन करे और श्राद्ध करने वाले अथवा अन्य व्यक्ति द्वारा भोज्य पदार्थों के गुणों के बारे में पूछे जाने पर वाणी या संकेत से कोई उत्तर नहीं दे । टिप्पणी-मनु महाराज ने ऐसा निर्देश इसलिए दिया है ताकि भोजन के मध्य वार्तालाप शुरू नहीं हो सके और ब्राह्नण शांतिपूर्वक भोजन का रसास्वादन ले सकें । २३८ जब तक भोजन गर्म रहता है, ब्राह्नण चुपचाप भोजन करते रहते हैं और भोज्य पदार्थों की प्रशंसा नहीं होती तब तक पितर भोजन करते रहते हैं । इन तीनों के नहीं होने पर पितर भोजन छोड़कर चले जाते हैं । २३९ सिर पर वस्त्र डाल कर, दक्षिण की ओर मुख करके या जूता पहनकर जो व्यक्ति भोजन करता है उसके द्वारा ग्रहण किए भोजन को पितर स्वीकार नहीं करते । ऐसा भोजन राक्षसों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । २४० श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्नणों पर चाण्डाल,स सुअर, मुर्गा, कुत्ता, मासिक धर्म वाली स्त्री और नपुंसक की दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए । (अतः इन सभी को उस स्थान से दूर रखें जहां ब्राह्नण श्राद्ध का भोजन कर रहे हों । ) २४१ यदि देवपूजन, पित-तर्पण (श्राद्ध कर्म ) अग्नि होम आदि पवित्र अनुष्ठानों पर चाण्डाल, सुअर, मुर्गा, कुत्ता, मासिक धर्म वाली स्त्री अथवा नपुंसक की दृष्टि पड़ जाती है तो समस्त कर्म कोई फल प्रदान नहीं करते । २४२ सूंघने से सुअर, अपने पंखों की हवा से मुर्गा, देखने से कुत्ता और भोजन का स्पर्श करने से शूद्र उसे शूद्र उसे अशुद्ध कर देते हैं जिससे श्राद्ध कर्म निष्फल हो जाता है । अतः इन सभी को श्राद्ध स्थल से दूर रखें । २४३ श्राद्ध करने वाला लंगड़े, काने, अपने सन्देशवाहक, किसी अंग से हीन या अधिक अंग वाले व्यक्ति को श्राद्ध-स्थान में आने पर वहां से हटा दे ताकि इन्हें देखकर ब्राह्नणों के मन किसी प्रकार का खेदजनक विचार आने पर भोजन में अरुचि उत्पन्न नहीं हो । २४४ अगर कोई ब्राह्नण या भिक्षुक भोजन करने की इच्छा से उस समय आ जाए जब निमंत्रित ब्राह्नण श्राद्ध-भोज कर रहे हों तो यजमान को चाहिए कि वहां उपस्थित ब्राह्नणों से आज्ञा लेकर उनका भी उचित स्वागत-सत्कार करे । २४५ बाकी बचे सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों को एकत्रित करके उन पर जल के छोंटे मारने चाहिए तत्पश्चात् कुशाएं फैलाकर उन पर भोज्य पदार्थों (अन्नों) को बिखेर कर रख दें । २४६ ऊपर के श्लोक में विकिर शब्द का उपयोग किया गया है । इसका अर्थ होता है, बिखेरना । मनु महाराज बताते हैं कि संस्कार के अयोग्य बालकों, संसार त्यागी पुरुषों तथा कुल की नारियों का कुशाओं पर गिरी जूठन विकिर कहलाता है । २४७ श्राद्ध में गिरी जूठन और कुशाओं पर गिरा सभी अन्न या भोज्य पदार्थ दासों को दिया जाना चाहिए परंतु ये दास ऐसे होने चाहिए जो पूरी तरह सरल स्वभाव के हों । २४८ सपिण्डन श्राद्ध तक कुछ समय पहले मरे हुए द्विजाति का (विश्वेदेव) ब्राह्नण भोजन से रहित श्राद्ध करे तथा एक ब्राह्नण को श्राद्धान्न का भोजन कराए और एक पिण्ड प्रदान करे । २४९ धर्म के अनुसार सपिण्डन के पश्चात् इसी पार्वण श्राद्ध की विधि द्वारा पिण्ड दान करना चाहिए । २५० श्राद्ध में ब्राह्नण भोजन करने के उपरान्त जो मूर्ख अपना जूठा भोजन या जूठन शूद्र को देता है वह काल सूत्र नाम के नरक में जाता है । २५१ श्राद्ध भोजन करने के बाद, उसी दिन मैथुन इच्छा रखने वाली स्त्री से रतिकर्म करने वाले मूर्ख व्यक्ति के पितर पूरे महीने उस स्त्री के मल-मूत्र में रहते हैं । २५२ ब्रह्नणों द्वाारा भोजन कर लेने के बाद यजमान को पूछना चाहिए ''आप लोगों ने भोजन कर लिया ? ब्राह्नणों द्वारा 'हां' कहने पर यजमान को उन्हें आचमन कराना चाहिए ।'' २५३ भोजनादि से संतुष्ट हो जाने के बाद ब्राह्नणों को आशीर्वाद देना चाहिए और आशीर्वाद में 'तुभ्यं स्वधा अस्तु' कहना चाहिए । समस्त श्राद्ध कर्मों में 'स्वधा' शब्द को आशीर्वादात्मक माना गया है । २५४ भोजन से तृप्त ब्राह्नणों को अवशिष्ट अन्न के बारे में आदरपूर्वक बताते हुए निर्दोश लेना चाहिए । कि उसका क्या किया जाए । वे जैसा निर्देश दें उसका पूरी तरह पालन करना चाहिए । २५५ श्राद्ध-तर्पण आदि में स्वदितम् (भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट बना ) शब्द का, गोष्ठ कर्म में 'सुश्रुतम्' शब्द का अभ्युदममूलक अनुष्ठानों में 'सम्पन्नम्' शब्द का तथा देवकर्म में 'रुचितम्' शब्द का उपयोग करें । २५६ श्राद्ध कर्म में सात बातें सम्पत्ति रूप हैं, ये हैं, १. अपराह्र (दोपहर) का समय, २. कुश, ३. गोबर से लीपा हुआ स्थान, ४. तिल, ५. उदारता से दिया गया अन्न का दान, ६. अन्न का संस्कार, ७. पवित्र ब्राह्नण । २५७ कुश, मन्त्र, पूर्वाह्र (दोपहर के पहले का समय ), पवित्री (कुश से बनी अंगूठियां ) मुनियों के लिए समस्त प्रकार के अन्न, गोबर आदि से लीप कर पवित्र किया हुआ स्थान आदि जो पूर्वोक्त श्लोक में कहे गए हैं, वे सब हविष्य (यज्ञ, हवन, देवश्राद्ध आदि) की सम्पत्तियां हैं । २५८ अन्न, दूध, सोमरस, दुर्गन्ध और विकार रहित मांस और सैन्धव नमक जो मुनियों को प्रिय हो, उसे सब प्रकार से मान्य हवि माना गया है । २५९ निमन्त्रित ब्राह्नणों को सब प्रकार से संतुष्ट करने के पश्चात् उन्हें विदाई देकर, एकाग्र मन और पावन भाव से मौन रह दक्षिण दिशा में देखते हुए पितरों से अपनी इच्छानुसार वर मांगें । २६० हे पितृगण ! हमारे कुल में दाताोओं (दानी पुरुषों ), वेदों ज्ञान-संपन्नता) एवं सन्तति अर्थात् पुत्र, पौत्रादि की बढ़ोत्तरी हो । श्रद्धा का भाव सदैव बना रहे तथा सभी तरह धन-धन्यादि इतना हो कि दान दिया जो सके । २६१ ऊपर लिखे श्लोक में बताई विधि से पिण्ड दान करके उन्हें ब्राह्नणों को अथवा बकरे को खिला दें या अग्नि अथवा जल में फेंक दें । २६२ कुछ ब्राह्नण भोजन के बाद पिण्ड को फेंक देने के लिए कहते हैं, कोई आचार्य उसे पक्षियों को खिलवाने के लिए कहते हैं तथा अन्य उसे आग तथा पानी में छोड़ने के लिए कहते हैं । २६३ पतिव्रता धर्मपत्नी जो श्राद्धकर्म में विश्वास रखने वाली हो तथा जिसे पुत्र प्राप्ति की इच्छा हो, उसे चाहिए कि उन पिण्डों में से बीच का (पितामह से संबंधित ) पिण्ड खा ले । २६४ उस बीच के पितामह सम्बन्धी पिंड को खाने से श्राद्ध करने वाले की पत्नी दीर्घ आयु वाले, यशस्वी, बुद्धिमान, धनी, वंश को बढ़ाने वाले सत्व गुण वाले और धार्मिक वृत्ति के पुत्र को उत्पन्न करती है । २६५ अपनी जाति वालों एवं बन्धु-बान्धवों को ब्राह्नणों के चले जाने के उपरान्त हाथ धोकर तथा आचमन करके भोजन कराना चाहिए । २६६ ब्राह्नणों के चले जाने तक उनके भोजन से बचा अन्न घर में रखना चाहिए । इसके बाद उसे विश्वेदेवों को बलि दे देना चाहिए । इस सम्बन्ध में यही धर्म की व्याख्या है । २६७ महर्षि मनु कहते हैं-ब्रह्नणो ! मैं आप लोगों को विधि अनुसार पितरों को दी गई जो हवि बहुत काल तक उन्हें तृप्ति देती है उसके बारे में समग्र रूप से बताता हूं । २६८ मनुष्यों के पितर विधि अनुसार दिए गए तिल, चावल, जौ, उड़द, जल, फल, कन्दमूल से एक माह तक महा तक तृप्त रहते हैं । २६९, २७०, २७१ विधि अनुसार दिए गए मछली के मांस से दो माह, हिरन के मांस से तीन माह, मेढ़े के पास से चार माह, पक्षी, बकरे, चित्रमृग, ऐणमृग, रुरुमृग, सुअर, भैंसे, खरगोश और कछवे के मांस से क्रमशः ५, ६, ७, ८, ९, १० और ११ माह तक मनुष्यों के पितर तृप्त रहते हैं । २७२, २७३ विधिवत् समर्पित गऊ दुग्ध या उसकी खीर से और लम्बे कानों वाले बकरे के मांस से बारह वर्षों तक, कालशाक तथा महाशल्क नाम की मछलियों के मांस से, गैंडे या लाल बकरे के मांस से, शहद से तथा मुनियों द्वारा खाए जाने वाले अन्न से अनन्त काल तक पितरों को तृप्ति रहती है । २७४ ब्राह्नण को वर्षा ऋतु मेें मघा नक्षत्र वाली त्रयोदशी को पितरों के लिए दिया जाने वाला शहद से युक्त पदार्थ उन्हें सदा रहने वाली तृप्ति देता है । २७५ पितरों की यह इच्छा रहती है कि हमारे वंश में ऐसा योग्य पुत्र जन्म ले जो त्रयोदशी के दिन हमें शहद तथा घी मिश्रित खीर अर्पित करे एवं सूर्य के उदय होने से पहले ही हमारे लिए हाथी का दान करे । २७६ ब्राह्नण को श्रद्धा सहित तथा विधि अनुसार जो कुछ भी पितरों के लिए दिाय जाता है उससे परलोक में पितरों को अन्त न होने वाली तथा सदा रहने वाली तृप्ति प्राप्त होती है । २७७ कृष्ण पक्ष में पहली दशमी तथा फिर चतुर्दशी को छोड़कर बाकी सभी तिथियां, प्रतिपदा से नवमी तक, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं अमावस्या श्राद्ध हेतु सभी प्रकार से प्रशस्त और उपयुक्त हैं । २७८ जिस दिन एक साथ दो तिथियां, प्रथमा और द्वितीय तथा दो नक्षत्र अश्वनी और भरणी पड़ रहे हों, में श्राद्ध करने से समस्त अभिलाषाोओं की तथा अयुग्म तिथियों तथा नक्षत्रों में (जब एक ही तिथि तथा एक ही नक्षत्र पड़ रहे हों) श्राद्ध करने से उच्च कोटि की सन्तान उपलब्ध होती है । २७९ जिस तरह पितृ श्राद्ध हेतु शक्ल पक्ष की तुलना में कृष्ण पक्ष का अधिक महत्व माना जाता है उसी प्रकार दोपहर से पहले की तुलना में अपराह्र अधिक अच्छा समय माना गया है । कहने का आशय यह है कि कृष्ण पक्ष के दूसरे प्रहर में श्राद्ध करने का ज्यादा महत्व है । २८० पुत्र को जीवन भर श्राद्ध-तर्पण आदि कर्म करने चाहिए । उसे इसके लिए हमेशा दाहिने कंधे पर यज्ञोपवीत (जनेऊ) रख कर, आलस्य रहित होकर, हाथ में कुशाएं लेकर तथा बायीं ओर होकर श्रद्धा के साथ शास्त्र विधि का अनुसरण करना चाहिए । २८१ श्राद्ध रात में नहीं करें । रात में किया जाने वाला श्राद्ध राक्षस कर्म माना जाता है । संध्याओं के समय और दोपहर बीतने के बाद भी श्राद्ध कर्म करना अनुचित है । २८२ वर्ष में इस प्रकार, इस विधि से हेमन्त ऋतु में, ग्रीष्म ऋतु में तथा वर्षा ऋतु में, तीन बार श्राद्ध करना चाहिए । प्रति दिन पञ्चयज्ञ के अन्तर्गत किया जाने वाला श्राद्ध तो करना ही चाहिए । २८३ लौकिक अग्नि में पितृ श्राद्धमूल के यज्ञ को नहीं करें । इसी तरह यज्ञ हेतु अग्नि की स्थापना करने वाले ब्राह्नण को अमावस्या के अतिरिक्त किसी और तिथि में श्राद्ध नहीं करना चाहिए । २८४ जो द्विज प्रत्ये दिन स्नान करने के बाद जल से पितरों का तर्पण करता है, वह उससे श्राद्ध के पूर्ण फल को प्राप्त करता है । २८५ पितरों, पितामहों तथा प्रपितामहों को प्राचीन ग्रंथों में क्रमशः वसु, रुद्र और आदित्य कहा गया है । इस प्रकार पितर वसु रूप हैं, पितामह रुद्र हैं तथा प्रपितामह आदित्य रूप हैं । २८६ ब्राह्नणों को श्राद्ध भोज कराने के बाद बचे भोजन को 'विघस' और यज्ञ से बचे को 'अमृत' कहा जाता है । द्विजाति के लोगों को हमेशा 'विघस' एवं 'अमृत' का ही सेवन करने वाला होना चाहिए । २८७ मनु महाराज कहते हैं- ''महर्षियो ! मैंने पञ्च यज्ञों के अनुष्ठान करने की पूरी विधि आप लोगों को संक्षेप में सुनाई है । आप लोगों को अब मैं ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य में मुख्य ब्राह्नण की वृत्तियों के बारे मैं बताऊंगा । आप ध्यान से सुने ।'' चतुर्थ अध्याय १ द्विज अपनी आयु के पहले भाग को गुरुकुल में रहते हुए विद्या-अध्ययन करने में बिताए और उसके बाद का दूसरा भाग गृहस्थ आश्रम में रहते हुए बिताए । टिप्पणी- कुछ आचार्य यहां द्विज का अर्थ ब्राह्नण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के लोगों से लेते हैं और अन्य केवल ब्राह्नणों से । कलियुग में मनुष्य की आयु १०० वर्ष मानी गई है । अतः इसके अनुसार २५ वर्ष (जीवन का प्रथम भाग ) ब्रह्नचर्य तथा अध्यय के लिए है और २६ से ५० वर्ष तक का समय गृहस्थाश्रम हेतु । २ गृहस्थ आश्रम में जीवन निर्वाह हेतु द्विज (ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) को निरापद अवस्था में ऐसी वृत्ति ग्रहण करनी चाहिए जिससे दूसरे जीवों को किसी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचे अथवा कम से पीड़ा या कष्ट हो । ३ अपने जीवन को चलाने और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए द्विज को ऐसे कार्यों से धनार्जन करना चाहिए जो शुभ हों औऱ जिनसे उसके शरीर को कष्ट नहीं पहुंचे । ४ ब्राह्नण को ऋत-अमृत अथवा मृत-प्रमृत या सत्य-अनृत द्वारा अपना जीवन यापन कर लेना चाहिए परन्तु कभी भी कुत्तों की वृत्ति (श्वान-वृत्ति) का आश्रय नहीं लेना चाहिए । टिप्पणी- अगले श्लोक में ऋत-अमृत आदि की परिभाषा दी गई है । ५ उञ्छ और शिल को ऋत कहते हैं । जो कुछ बिना मांगे मिल जाए उसे अमृत कहते हैं । भिक्षा मांगना मृत है और कृषि करना प्रमृत है । टिप्पणी- कृषक द्वारा खेत मं बोए हुए अन्न को काटकर ले जाने के पश्चात् उसके द्वारा छूट गए या गिर गए एक-एक दाने को अंगुलियों से चुनने को उञ्छ ततथा खेत में पड़े रह गए धान्य-गुच्छों (बालियों) को चुनने को 'शिल' कहते हैं । बिना मांगे दी गई वस्तु अमृत के समान और मांगी गई मृत के समान होती है । खेती करने में अनेक सूक्ष्म जीवों की हत्या होती है, अतः उसे अधिक दुखदायक मृत्यु तुल्य मानने से 'प्रमृत' कहते हैं । ६ वाणिज्य या व्यापार करने को सत्यनृत कहते हैं और नौकरी करना श्वानवृत्ति है । ऊपर बताए पांच साधनों-उच्छ, शिल, अमृत, मृत, कृषि तथा व्यापार में से किसी एक साधन से जीवन-यापन करना चाहिए । सेवावृत्ति अर्थात् किसी की नौकरी कभी नहीं करनी चाहिए । ७, ८ अन्न का भण्डार ( कई वर्षों तक के लिए ) करने वाले, एक-दो सप्ताह (एक मटके की मात्रा भर) तक के लिए अन्न जमा रखने वाले, तीन दिन के लिए अन्न जमा रखने वाले एवं आने वाले कल की चिन्ता किए बिना केवल आज की जरूरत भर अन्न रखने वाले गृहस्थ ब्राह्नणों में से भण्डार करने वाले की अपेक्षा मटका भर अनाज रखने वाले, उसकी तुलना में तीन दिन तक के लिए अनाज रखने वाले और उसकी तुलना में कल की जिन्ता न करके केवल आज भर की आवश्यकता का आनाज रखने वाले श्रेष्ठ हैं । ९ इन ब्राह्नणों (गृहस्थ) में से कुछ षट् कर्मों-(उञ्छ-शिल, अयाचित, भैक्ष्य, तथा दान-दक्षिणा से जीवन यापन करता है, कोई यज्ञ और अध्यापन से जीविका चलाता है एवं कोई केवल एक मात्र अध्यापन करके ही जीविका चलाता है । १० ब्राह्नण के लिए यही उत्तम है कि वह शिला-उञ्छ से अपनी जीविका यापन करे, प्रतिदिन यज्ञ-हवन आदि करता रहे तथा विशेष पर्वों पर्व तथा अयन के अंत में होने वाले यज्ञों को करे । टिप्पणी-यहां विशेष पर्वों से आशय अमावस्या, पूर्णिमा आदि तिथियों से है । वर्ष में दो अयन होते हैं और १४ जुलाई से १३ जनवरी तक दक्षिणायन में । हिन्दुओं के धार्मिक अनुष्ठानों में उत्तरायण तथा दक्षिणायन का बहुत महत्व है । ११ ब्राह्नण को अपनी जीविका चलाने के लिए संसार के अन्य व्यक्तियों की तरह छल-कपट नहीं करना चाहिए । वह सब प्रकार से पवित्र और शुद्ध जीविकोपार्जन साधन को ही अपनाए । १२ संतोष और संयम से ही स्थायी सुख की प्राप्ति होती है । अतः उसे सदैव संतोष एवं संयम धारण करना चाहिए । उसे यह ज्ञान होना चाहिए कि संतोष ही सुख का मूल है और इसके विपरीत असंतोष दुःख का । १३ ब्राह्नण गुरुकुल से (शिक्षा पूरी कर ) लौटने के बाद ऊपर बताए जीविकोपार्जन के साधनों में से उत्तम साधनों को ही अपनाए और आयु, .यश तथा स्वर्ग देने वाले इन व्रतों (जिनको आगे बताया जाएगा ) को करे । १४ ब्राह्नण को सावधानीपूर्वक वेदों में बताए अपने कर्तव्यों का यथाशक्ति पालन करना चाहिए । इसी के द्वारा उसे निश्चित रूप से परम गति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है । टिप्पणी- मोक्ष का अर्थ होता है जीवात्मा का जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना । १५ ब्राह्नण को गाने-बजाने में आसक्त होकर एवं शास्त्र विरुद्ध कर्मों के द्वारा धनार्जन नहीं करना चाहिए । सुखद और अनुकूल स्थिति में (धन रहने पर) और आपत्ति पड़ने पर भी पतित साधनों द्वारा धन संग्रह करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए । १६ रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श जो इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें ब्राह्नण को कभी आसक्त नहीं होना चाहिए । विषयों की आसक्ति से बचने के लिए मन को संयमित करना चाहिए । १७ अपना तथा परिवार का पालन-पोषण करते हुए स्वाध्याय (वेद, स्मृति ) के विरुद्ध या उसमें बाधा बनने वाले कर्मों को त्याग दे । ब्राह्नण को जैसे भी सम्भव हो । सदैव स्वाध्याय में मग्न रहना ही उचित है । इसी में उसके जीवन की सार्थकता है । १८ ब्राह्नण को अपनी अवस्था (आयु), कर्म, धन, विद्या एवं, अपने वंश के अनुसार वस्त्रादि पहनने चाहिए, ज्ञान की चर्चा तथा वाणी का सदुपयोग करते हुए शुद्ध आचरण का पालन करना चाहिए । १९ गुरुकुल से वापस आया ब्राह्नण ऐसे शास्त्रों का अध्ययन नित्य करे जिससे वह वेदों के अर्थां को समझ सके, उसकी बुद्धि का विकास हो, उसके शरीर को सुख मिले तथा वह धन का संग्रह कर सके । २० जैसे-जैसे मनुष्य शास्त्र का अभ्यास करता है, वैसे-वैसे उसे गूढ़ तत्व का ज्ञान होता जााता है और उसकी ज्ञान प्राप्ति में रुचि बढ़ती जाती है। २१ उसे जहां तक सम्भव हो अर्थात् सर्वदा ऋषि यज्ञ (वेद अध्ययन), देव यज्ञ (पार्षण श्राद्ध आदि), भूत यज्ञ (बलिवैश्वदेव), नृ यज्ञ अतिथि सत्कार) एवं पितृ यज्ञ (तर्पण-श्राद्ध आदि) के अनुष्ठान करते रहना चाहिए । २२ शास्त्रों को जानने वाले कुछ गृहाश्रमी इन यज्ञों को नहीं करते वरन् पांचों ज्ञानेन्द्रियों में हवन करते हैं । टिप्पणी- कहने का अभिप्राय यह है कि कुछ ज्ञान जन अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियं (नेत्र, नासिका, जीभ, त्वचा तथा कान) पर सदा संयम रखते हैं । उनके लिए यही पंच यज्ञ है । २३ कुछ ज्ञानी गृहाश्रमी वचन तथा प्राणों में यज्ञ के अक्षय फल की जानकारी रखते हुए सदा वचन में प्रणओं की और प्राणों में वचन की हवि देते हैं । २४ कोई-कोई गृहाश्रमी ब्राह्नण सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हैं और उन्हें ज्ञान मूलक मानते हं । इस प्रकार वे अपने ज्ञान द्वारा ही यज्ञानुष्ठान संपन्न करते हैं तथा ज्ञान को ही सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं । २५ द्विज नित्य दिन और रात्रि के अन्त में अग्निहोत्र हवन करे अमावस्या और पूर्णमासी को भी यज्ञ-होम करे । २६ नए अन्न के पैदा होने पर नए धान्य से, प्रत्येक ऋतु के अन्न में घी से, अयन की शुरुआत में पशु से एवं वर्ष के अंत में सोम से ब्राह्नण यज्ञ करे । २७ लम्बी आयु पाने की इच्छा रखने वाले अग्निहोत्र ब्राह्नण को गए धान्य और पशु से यज्ञ किए बिना अन्न तथा मांस को नहीं खाना चाहिए । २८ होन किए बिना जो ब्राह्नण नए अन्न और मांस को खाता है उसे नए अन्न तथा नए पशु की अतिशय इच्छा रखने वाले अग्निदेव भस्म कर देते हैं अर्थात् उसके प्राणों की आहुति बना लेते हैं । इसलिए नए अन्न एवं मांस का होम किए बिना उसे खाना नहीं चाहिए । २९ जिस गृहस्थ के घर में बैठने के लिए आसन, भूख मिटाने के लिए भोजन, आराम करने के लिए शय्या, प्यास मिटाने के लिए पानी और फल आदि नहीं मिलते वहां अतिथि के रूप में नहीं जाना चाहिए । ३० जो व्यक्ति पाखण्डी हो, दुष्ट कर्मों को करने वाला हो, दूसरों को मूर्ख बनाकर उनका धन लूटने वाला हो, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाले स्वभाव को हो, वेदों में श्रद्धा नहीं रखता हो, अंदर से दुष्ट स्वभाव का पर ऊपर से सज्जन दिखाई देता हो, ऐसे व्यक्ति को अतिथि रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए । कहने का अभिप्राय यह है कि जहां एक ओर अतिथि सेवा धर्म का एक अंग है वहीं ऊपर बताए गए दुर्गुणों वाले व्यक्तियो का वाणी तथा शिष्टाचार द्वारा भी स्वागत नहीं करे । ३१ गृहस्थ को वेदाध्ययन पूरा कर, गुरुकुल से वापिस आने वालों, वेदों का अध्ययन करने वालों और घर में नित्य यज्ञ-हवन करने वालों के अतिथि बनकर आने पर उनकी पूजा करनी चाहिए लेकिन जिन लोगों में इसके विपरीत लक्षण हों उनको अतिथि रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए । ३२ अच्छे गृहस्थ को ब्रह्नचारी और संन्यासी को अपनी सामर्थ्यानुसार भिक्षा दान देना चाहिए तथा अतिथि बनकर आए सभी जीवों को भेद-भाव रहित होकर उनके भाग का पका भोजन या अन्न और जल देना चाहिए । ३३ स्नातक को भूख से पीड़ित होने पर राजा से, अपने यजमान तथा शिष्य से अन्न-धन आदि मांगना चाहिए । इन तीनों के अतिरिक्त अन्य से नहीं मांगना चाहिए । ३४ स्नातक ब्राह्नण भूखा नहीं रहे और किसी भी तरह दुखी नहीं रहे तथा धन होने पर फटे या मैमे वस्त्र नहीं पहने । ३५ स्नातक नाखून, सिर के बाल, दाढ़ी और मूंछ कटवाएं । अपनी इंद्रियों पर संयम रखते हुए पवित्र रहे तथा सफेद वस्त्र पहने । वह नित्य वेद का पाठ कर एवं अपने कल्याण में लगा रहे । ३६ ब्राह्नण गृहस्थ बांस की छड़ी, पानी भरा कमण्डल, यज्ञोपवीत एवं वेद अपने पास रखे तथा सोने के दो सुन्दर कुण्डलों को पहनें । ३७ उदय होते और अस्त होते हुए, ग्रहण लगे हुए, जल में प्रतिबिम्बित (सूर्य की पानी पड़ती आकृति ) और आकाश के मध्य में स्थित सूर्य को कभी नहीं देखे । टिप्पणी- उदय और अस्त होते हुए सूर्य को नहीं देखने से अभिप्राय 'उदय होने के बाद' और अस्त होते हुे से 'अस्त होने से कुछ पूर्व' का है क्योंकि उस समय तक सूर्य का प्रकाश इतना तीव्र हो जाता है कि नेत्रों को हानि पहुंचा सकता है । ३८ खूंटे से बंधे बछड़े की रस्सी को नहीं लांघे, वर्षा होने पर दौड़े नहीं और जल में अपनी परछाईं नहीं देखें । टिप्पणी-यह सभी आदेश तत्कालीन परिस्थितियों में व्यक्ति की सुरक्षा को दृष्टि में रख कर दिए गए थे । ३९ कहीं आजे या जाते समय मार्ग में मिलने वाले मिट्टी के टीलों, गउओं, ब्राह्नणो, घी और शहद के भण्डारों, नगर के चौराहों तथा परिचित बड़े-बड़े वृक्षों की प्रदक्षिणा (दक्षिण की ओर होकर) करके जाना चाहिए । टिप्पणी- यहां प्रदक्षिणा से अभिप्राय वर्णन की गईवस्तुओं, वक्षों, विद्वानों के प्रति आदर भाव प्रकट करने से है । ४० कामवासना से ग्रस्त होने पर भी व्यक्ति रजस्वला नारी के समीप नहीं जाए अर्थात् उससेे संभोग नहीं करे । यही नहीं वरन् उसके साथ एक बिस्तर पर शयन भी नहीं करे । ४१ जो पुरुष रजस्वला स्त्री के साथ संभोग करता है उसका तेज, बल, बुद्धि, दृष्टि और आयु कम और कमजोर हो जाती है । ४२ रजस्वला स्त्री के साथ संभोग का त्याग करने वाले पुरुष की बुद्धि, तेज, बल, आंखें, एवं आयु में वृद्धि होती है । ४३, ४४ इन श्लोकों में मनु महाराज ने पुरुषों को विशेष रूप से विद्वान ब्राह्नणों को यह निर्देश दिए हैं कि वे स्त्रियों को कुछ विशेष स्थितियों में नहीं देखें तथा उनके साथ भोजन नहीं करें । वास्तव में उस समय के समाज में ब्राह्नण के जीवन का लक्ष्य ब्रह्नज्ञान की उपलब्धि होता था । इसमें काम वासना सबसे बड़ी बाधा है । इस बाधा से दूर रहने के लिए ही यह उपदेश दिए गए थे । अपने तेज की रक्षा की कामना रखने वाला ब्राह्नण अपनी पत्नी के साथ भोजन नहीं करे और न उसे भोजन करते हुए देखे । छींकती, जम्हाई लेती और अपनी सुविधा के अनुसार निश्चिंत बैठी, अपनी आंखों में अंजन लगाती, नग्न होकर अपने शरीर पर तेल मर्दन करती या नग्न स्त्री और बच्चे को जन्म देती स्त्री को कभी नहीं देखे । ४५, ४६ ब्राह्नण केवल एक वस्त्र धारण कर भोजन नहीं करे (अर्थात् केवल धोती, लंगोट या जांघिया पहनकर भोजन भक्षण नहीं करे) तथा पूर्णतः वस्त्र उतार कर (नग्न होकर ) नहाए नहीं । मार्ग में, चिता में, यज्ञशाला में तथा बांबी में मूत्र त्याग नहीं करे । ४७, ४८ ब्राह्नण को चाहिए कि वह चलते हुए या खड़े होकर, जीव-जंतुओं के रहने वाले बिलों में, नदी तट पर, पर्वतों के शिखर पर, वायु, अग्नि, ब्राह्नण, सूर्य और जल को देखते हुए मल-मूत्र का त्याग नहीं करे । ४९, ५० प्रातःकाल और सायंकाल उत्तर की ओर मुख करके तथा रात के समय (जरूरत पड़ने पर) दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके मल-मूत्र त्यागना चाहिए । मल-मूत्र त्याग करने की जगह को (चारों ओर से ) मिट्टी के ढेले और घाल-फूस आदि से छिपा देना चाहिए ताकि मल-मूत्र त्याग करने वाले को कोई देख न सके और उसे स्वयं भी लज्जी का अनुभव नहीं हो । मल-मूत्र त्याग की अवधि में चुप रहना चाहिए । घुटनों के बल बैठना चाहिए और सिर को कपड़े से ढक लेना चाहिए । ५१ ब्राह्नण को अंधेरे में या छाया मेें, रात अथवा दिन में दिशा ज्ञान नहीं होने पर अपनी सुरक्षा तथा सुविधा को ध्यान में रखते हुए जिस दिशा की ओर मुख करके बैठना संभव हो बैठकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए । ५२ उस व्यक्ति की बुद्धि नष्ट हो जाती है जो आग, सूरज, चांद, पानी, ब्राह्नण, गाय और हवा के सामने मल-मूत्र का त्याग करता है । ५३ आग को मुंह से नहीं फूंके और नारी को नग्न अवस्था में नहीं देखे । आग में मल-मूत्र नहीं फेंके तथा आग के सामने पैर रखकर नहीं तापे । ५४ आग को किसी तरह के सामान (जैसे-मेज, कुर्सी, पलंग आदि) के नीचे नहीं रखे, आग को लांघे नहीं, पैरों को आग पर नहं रखे और न ही कोीई ऐसा कार्य करे जिससे जीवों के प्राण में बाधा पड़े अर्थात् वे मर जाएं । ५५ सन्ध्या में भोजन भक्षण, यात्रा और विश्राम नहीं करें । धरती पर लकीर नहीं खींचें और अपने गले में पहनी हुई मलाा को नहीं उतारें । ५६ पानी में मल-मूत्र, कूड़ा, खून तथा जहर आदि नहीं बहाएं, । इससे जल प्रदूषित हो जाता है, पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है तथा मनुष्ट के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है । ५७ जिस घर में कोई न हो वहां अकेले नहीं सोए, सोते हुए अपने से बड़े हितकारी को जागए नहीं, रजस्वला स्त्री से बातचीत नहीं करे और बिना आमंत्रण पाए किसी के यज्ञ में शामिल नहं हो । ५८ अग्निहोत्र में, गौओं के निवास स्थान में, ब्राह्नणों के समीप, वेद-शास्त्र आदि पढ़ते समय और भोजन के समय (आवश्कता पड़ने पर ) अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाएं ५९ बुद्धिमान को जल पीती हुई गाय को स्वयं को हांकना नहीं चाहिए और न ही दूसरों से हंकवाना चाहिए । आकाश में इन्द्रधनुष देखकर दूसरों को उसे देखने के लिए नहीं कहना चाहिए । ६० ब्राह्नण को उस गांव में निवास नहीं करना चाहिए जहां धर्म पर अविश्वास करने वाले रहते हों या जहां रोग फैला हो । उसे एकाकी (अकेले) ही यात्रा नहीं करनी चाहिए तथा लंबे समय तक पहाड़ पर नहीं रहना चाहिए । ६१ विद्वान ब्राह्नण शूद्रों के राज्य में, धर्म को न मनने वाले लोगों तथा चाण्डालों से भरे प्रदेशों में निवास नहीं करें । ६२ खाए जाने वाले पदार्थ के रस (उसकी चिकनाई, तेल आदि) को निचोड़ कर भोजन नहीं करें, कई बार पेट पूरी तरह भरकर भोजन नहीं करें, बहुत सवेरे अथवा बहुत शाम हो जाने पर भोजन नहीं करें । प्रातःकाल (पूर्वान्ह में) भरपेट भोजन से तृप्त होने के बाद पुनः शाम को भोजन नहीं करें । टिप्पणी-आशय यह है कि भोजन सदैव रसयुक्त पदार्थों का करे, अपनी भूख से कुछ कम करे और अगर एक बार खूब भर पेट भोजन कर लें तो दूसरी बार भोजन नहीं करें । ६३ जिस कार्य से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अच्छा फल नहीं मिलता हो, उसकी चेष्ट नहीं करें, अंजलि से जल नहीं पिए, भोजन को गोद में रखकर नहीं खाएं और बिना प्रयोजन का कुतूहल नहीं करें । ६४ नाचना-गाना, वाद्य यंत्र बजाना (जो शास्त्र विगुद्ध हो), ताल ठोंकना (जैसा पहलवान कुश्ती लड़ते समय करते हैं), दांत पीसकर बोलना और अनुरक्त होकर विपरीत शब्द गधे आदि की तरह रेंकना (जैसे अत्यधिक प्रेम वश हो गाली आदि देना ) इस सभी कार्यों को नहीं करें । ६५ अपने पैर कभी कांसे कोी धातु से बने पात्र में धंसाने नहीं चाहिए तथा अपने विरोधी शत्र के घर में भोजन नहीं करना चाहिए । ६६ उन पदत्राणों (जूते, चप्पल आदि), वस्त्रों, मालाओं, यज्ञपवीतों, फूल मालाओं और कमण्डलों का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए जिन्हें दूसरों द्वारा प्रयोग में लाया जा चुका है । ६७ ऐसे वाहनों (जैसे-बैलगाड़ी, घोड़ गाड़ी, ऊंट या हाथी की गाड़ी) जिनके पशु उद्धत हों, रोग पीड़ित या भूखेे हों, कटे सींग वाले हों, जिनकी दृष्टि खराब हो और जिनके खुर टूटे हों पर सवारी नहीं करना चाहिए । ६८ अच्छा तरह सधाए गए, तीव्रगामी, अच्छे लक्षणों वाले, भले लगने वाले रूप-रंग के वाहनों की सवारी करनीचाहिए । वाहन को स्वच्छ रखना चाहिए ताकि उसमें कीड़े आदि नहीं लगें । ६९ सूर्य के उदय होने के बाद कू धूप का, शव की चिता के धुएं का और टूटे आसन (कुर्सी आदि) का उपयोग नहीं करे । अपने नखों और बालों को खींच कर नहीं उखाड़े तथा नाखूनों को दांतों से नहीं काटें । ७० स्वयं के सुख-सौभाय की इच्छा रखने वाले को मिट्टी के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए तथा मिट्टी के पात्र को स्वच्छ नहीं करना चाहिए (अर्थात् यदि मिट्टी के पात्र उपयोग करना पड़े तो उसे एक बार उपयोग में लाने के बाद फेंक दें) । नखों (अपने नाखूनों) से घास आदि नहीं काटे और भविष्य में दुःख देने वाले कार्यों को नहीं करें । ७१ ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही अपने नाश को प्राप्त होता है जो मिट्टी के बरतन या मिट्टी के ढेले को साफ करता है, तिनकों उखाड़ता है, अपने नाखूनों को चबाताा है, चुगलखोरी करता है और अपवित्र अर्थात् रहता है । ७२ उच्छृंखल होकर वार्तालाप करना अर्थात् बातचीत करते समय विष्टाचार तथा मर्यादा का ध्यान नहीं रखना, दूसरों को दिखाने के लिए कपड़ों के बाहर सोने की माला पहनना और बैल की पीठ पर सवारी करना निन्दनीय कार्य है । अतः इन्हें नहीं करे । ७३ लोगों से घिरे किसी गांव या घर में प्रवेश द्वार के अतिरिक्त किसी अन्य जगह से (जैसे दीवार आदि फांदकर या छत से कूदकर ) प्रवेश नहीं करें । रात में पेड़ के नीचे रहें । ७४ जुआ कभी नहीं खेले और जूते कभी हाथ में उठाकर नहीं चले । बिस्तर पर बैठकर या सोते हुए अथवा हाथ में रखकर भोजन नहीं करें । ७५ सूर्य अस्त होने के बाद तिलयुक्त भोज्य पदार्थ नहीं खाएं, निपट नग्न होकर नहीं सोएं और जूठे मुंह (बिना कुल्ला किए ) कहीं बाहर नहीं जाएं । ७६ पैरों को गीला करके भोजन करे परन्तु गीले पैर करके सोने नहीं जाएं । गीले पैर करके भोजन करने वाले लंबी आयु प्राप्त करता है । ७७ नहीं दिखने वाले दुर्गम स्थान (ऐसी जगह जो लता आदि या अन्य कारण से स्पष्ट नहीं दिखाई देती) में कभी नहीं जाए, मल-मूत्र को नहीं देखें और केवल अपने हाथों के भरोसे नदी को तैर कर पार नहीं करें अर्थात् नदी पार करने के लिए नाव आदि का उपयोग करें । ७८ जो व्यक्ति लम्बी आयु पाने की कामना रखता है उसे कभी बालों, भस्म, हड्डी, खप्पर, कपास की गुठली (बिनौला) तथा भूसे के ढेर पर नहीं बैठना चाहिए । ७९ समाज और जाति द्वारा निष्कास्ति (पतित) लोगों, शूद्र से ब्राह्नणों में उत्पन्न (चाण्डालों) लोगों, निषादों द्वारा शूद्र स्त्रियों से जन्मे लोगों पुल्कसों, मूर्खजनों, धन या विद्या आदि के घमण्ड से भरे लोगों, अछूतों (अन्त्यजों) एवं चाण्डालों द्वारा निषाद स्त्रियों से जन्मे लोगों (अन्त्यावसायियों) के संग नहीं रहना चाहिए । ८० शूद्र को किसी प्रकार की सलाह, यज्ञ होम की बची सामग्री, धर्म का उपदेश तथा किसी प्रकार के व्रत का अनुष्ठान करने का निर्देश नहीं देना चाहिए (अगर शूद्र को किसी तरह का प्रायश्चित करने के लिए बताना हो तो यह कार्य ब्राह्नण द्वारा होना चाहिए . ८१ वह व्यक्ति जो शूद्र को धर्म का उपदेश देता है या किसी व्रत का अनुष्ठान करने का निर्देश देता है, 'असंवृत' नाम के घने अंधेरे से भरे नरक में उस शूद्र के साथ जाता है । ८२ सिर को दोनों जुड़े और जूठे हाथों से स्पर्श नहीं करें और न खुजलाएं । सिर पर जल डाले बिना नहाना नहीं चाहिए । ८३ सिर पर प्रहार नहीं करना चाहिए । सिर के बालों को पकड़ कर शींचना नहीं चाहिए । सिर पर तेल लगाने के बाद शरीर के दूसरे अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए । ८४ क्षत्रिय के अतिरिक्त भिन्न वर्ण से जन्मा और राजा बना व्यक्ति अगर दानदक्षिणा दे तो ब्राह्नण को नहीं लेनी चाहिए । जीवों को मारने वाले, रथ चलाने वाले और सुरा (शराब) बेचकर अपनी जीविका चलाने वाले से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए अर्थात् उनके धर्मानुष्ठान आदि नहीं कराने चाहिए । ८५ दस हिंसकों या कसाई के बराबर एक रथवान है (कुछ अनुवादकों ने रथवान के स्थान पर तेली शब्द का उपयोग किया है ) एक शराब बेचने बाला दस रथवान के बराबर है, एक बहुरूपिया (वेश बदल कर जीविका कमाने वाला या वेश्या का सेवक) दस कसाइयों के बराबर है और एर राजा दस बहुरूपियों के समान है । कहने का अभिप्राय यह है कि ये सब उत्तरोत्तर एक-दूसरे से निम्न कोटि के हैं । यहां राजा का अर्थ उस राजा से है जो क्षत्रिय नहीं है । ८६ अपनी जीविका के लिए दस हजार जीवों की हत्या करने वाले को सौनिक कहते हैं । जो राजा क्षत्रिय नहीं है वह सौनिक के समान ही निम्न कोटि का है । उससे दान लेना घोर पाप कमाने के समान है । ८७ लोभ या कंजूसी के कारण ऊपर बताए निम्न कोटि के राजा से दान लेने वाला ब्राह्नण आगे कहे जाने वाले २१ प्रकार के नरकों में क्रमानुसार पतित होता है । ८८, ८९, ९० ये इक्कीस तरह के नरक हैं-१. तामिस्त्र २. अन्धतामिस्त्र ३. महारौरव ४. रौरव ५. नरक ६. कालसूत्र ७. महानरक ८. सञ्जीवन ९. महावीचि १०. तपन ११. सम्प्रतापन १२. सङ्घात १३. सकाकोल १४. कुडमल १५. प्रतिमूर्तिक १६. लोहशङ्क १७. ऋजीष १८. पन्थान १९. शाल्मली नदी २०. असिपत्रवन २१. लोहदरक । ९१ ऐसे राजा से, जो क्षत्रिय नहीं, ब्रह्नज्ञानी तथा परलोक में सदगति पाने के इच्छुक ब्राह्नण परिणाम को अच्छी तरह जानने के कारण किसी तरह का दान नहीं लेते । ९२ ब्रह्न मुहूर्त (प्रातः लगबग चार बजे ) में उठकर धर्म के अनुष्ठान और धन कमाने के सम्बन्ध में विचार करना चाहिए । इन कार्यों में होने वाले शारीरिक क्लेशों को दूर करने तथा वेदों के तत्व ज्ञान के बारे में भी विचार करना चाहिए ताकि दिन सुखपूर्वक व्यतीत हो । ९३ ब्रह्न मुहूर्त में उठने के बाद मल-मूत्र त्याग कर, दांतों को मांज कर और स्नान आदि करके सावधानी और पवित्रता से प्रातःकाल की सन्ध्या-पूजा जप आदि करें । ९४ महर्षि मनु आगे बताते हैं कि ऋषियों ने लम्बी अवधि तक सन्ध्या-उपासना करके ही दीर्घायु, बुद्धि, यश, कीर्ति तथा ब्रह्नतेज प्राप्त किया । ९५ श्रावण तथा भाद्रपद (सावन-भादों ) की पूर्णमासी को उपनयन धारण करके (उपाकर्म) चार माह तक चित्त को एकाग्र करके वेदों का पाठ करना चाहिए । ९६ माघ माह के प्रथम दिन या पुष्प नक्षत्र वाली पूर्णिमा को पूर्वाह्र के समय गांव के बाहर जाकर वेदपाठ के उपसर्ग की घोषणा करनी चाहिए । ९७ शास्त्र में बताई विधि से गांव बाहर जाकर वेदपाठ की समाप्ति की घोषणा के बाद उस रात्रि-दिवस अथवा उस रात्रि को अनध्याय करे । ९८ ब्राह्नण को वेद उत्सर्ग तथा अनध्याय बाद शुक्ल पक्ष में वेदों के एवं कृष्ण पक्षमें वेदांगों के स्वाध्याय का नियम बना लेना चाहिए । ९९ ब्राह्नण वेदों को अस्पष्ट रूप में नहीं पढ़े और न ही शूद्र के समीप होने पर पढ़े । प्रभात की वेला में उसे वेद पाठ करने के बाद थका होने पर भी फिर से निद्रा लेनी चाहिए । १०० ब्राह्नण विधि के अनुसार प्रतिदिन वेदों का पाठ करे । आपत्ति का समय न होने पर अर्थात् सामान्य स्थिति में वह नियमपूर्वक वेदपाठ और गायत्री मंत्र का जाप करे । १०१ आगे बताए मना किए गए अनध्याय के दिनों में ब्राह्नण वेदों का अध्ययन नहीं करे और न अपने शिष्यों को ऐसा करने की (अर्थात् वेद पाठ करने की ) अनुमति दे । १०२ बरसात के मौसम में रात में सांय-सांय ध्वनि के द्वारा कानों को पीड़ा देने वाली वायु और दिन में धूल भरी हवा के चलने पर वेदों का पाठ नहीं करे । ये दो अनध्याय कहे गए हैं । १०३ उल्का के गिरने के साथ बिजली की चमक और मेघों को गर्जन के साथ यदि वर्षा हो रही हो, तो मनु ने उसे आकालिक (उस समय से लेकर दूसरे दिन तक) और अनध्याय का समय कहा है । १०४ महर्षि मनु ने यह भी कहा है कि वर्षा ऋतु के अलावा किसी अन्य ऋतु में अगर आकाश में बादल दिखाई दें या अग्निहोत्र के समय पानी बरसने की सम्भावना हो तो भी वेदों का अध्ययन नहीं करें । इसे भी अनध्याय काल मानना चाहिए । १०५ अन्य उन ऋतुओं के दिनों में भी वेदपाठ नहीं करना चाहिए जिनमें प्रायः भूकम्प, उल्कापात तथा सूर्य आदि ग्रहों के उपद्रव होते हैं । जैसे-अत्यधिक गर्मी या सर्दी पड़ जाना । इन दिनों को भी अनध्याय काल मानना चाहिए । १०६ हवन के लिए आग जलाने के समय अगर आकाश में बिजली चमक रही हो और बादल गरज रहे हों तो दिनभर वेदों का अध्ययन नहीं करना चाहिए । शेष काल में, दिन या रात में समय विशेष तक (अर्थात् जब तक बादल गरज रहे हों और बिजली चमक रही हो या वर्षा हो रही हो ) वेद पाठ नहीं करना चाहिए । १०७ धर्म में निपुणता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले को गांव या नगर में वेदों का अध्ययन नहीं करना चाहिए । वहां उसके लिए नित्य अनध्याय है । ऐसे व्यक्ति के लिए वन में वेदों का अध्यय करना ही सर्वोत्तम है । दुर्गन्ध से भरी जगह में कभी स्वाध्याय नहीं करे । १०८ उन स्थानों पर भी वेदों का अध्ययन नहीं करे जहां गांव में कोई मृतक पड़ा हो, कोई धर्म से भ्रष्ट व्यक्ति पास में हो, जहां लोगों की भीड़ हो और जहां रुदन या कोहराम मचा हो । १०९ उस समय वेद पाठ करने का मन में विचार तक नहीं करना चाहिए जब व्यक्ति जल में हो, आधी रात हो, मल-मूत्र का त्याग कर रहा हो, जूठे मुंह हो और श्राद्ध भोजन कर रहा हो । ११० श्राद्ध-निमन्त्रण स्वीकार लेने पर, राजा के घर सन्तान जन्म से होने वाली अपवित्रता (सूतक) होने पर तथा सूर्य या चान्द्र ग्रहण लगने पर तीन दिन तक का अधन्याय रखे । १११ विद्वान ब्राह्नण के शरीर में जब तक एक जगह यज्ञ-अनुष्ठान कराते समय लगाए गए टीके आदि की सुगंधि रहती हो, तब तक उसे वेद-पाठ नहीं करना चाहिए । ११२ शयन करते समय, पैरों को ऊंचा किए होने पर, बैठने की मुद्रा में, पैरों को अंदर की ओर मोड़े होने पर, मांस भक्षण करने पर और सूतक वालों का अन्न खाने पर वेद पाठ नहीं करें । टिप्पणी- सूतक वालों से आशय उस घर के लोगों से है जिनके यहां बच्चे का जन्म हुआ हो । ११३ अनध्याय के अन्य दिन हैं-जिस दिन कुहरा छाया हो, ब्राह्नणों से वादविवाद का दिन, दोनों सन्ध्या काल, अमावस्या, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा हेमन्त एवं शिशिर ऋतुओं के कृष्ण पक्षों में आने वाली अष्टमी । ११४ अमावस्या एवं चतुर्दशी के दिन वेदों का अध्ययन करने से क्रमशः गुरु तथा शिष्य का नाश होता है । अष्टमी तथा पूर्णिमा के दिन वेदों का अध्ययन करने से स्वयं वेद-शास्त्र ज्ञान का नाश होता है । ११५ धूल की वर्षा होने पर, दिशाोओं से आग बरसने पर, गीदड, श्वान, गधा तथा ऊंट के रुदन का शब्द होने पर तथा पिंक्तियों में बैठने पर ब्राह्नण वेदाध्ययन नहीं करें । ११६ श्मशान के समीप, गांव के पास, गोशाला में, मैथुन के समय का वस्त्र पहने हुए तथा श्राद्ध के अन्न आदि का दान लेकर वेद-पाठ नहीं करे । ११७ ब्राह्नण जिस दिन अपन हाथ से किसी जीव को काटता अथवा वध करता है, उस दिन उसे वेदों का अध्ययन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ब्राह्नण पाण्यास्य (हाथ ही है मुख जिसका) कहा गया है । ११८ ब्राह्नण को चोरों का उपद्रव होने पर, गांव में उथल-पुथल मच जाने पर, मकान में अग्निकाण्ड हो जाने पर तथा सभी प्रकारके आश्चर्यपूर्ण कामों के होने पर अनध्याय करना चाहिए । ११९ श्रावणी कर्म और वेदोत्सर्ग कर्म में (नवीन यज्ञोपवीत को पहनने और पुराने का पूरी तरह त्याग करने पर ) तीन दिन-रात्रि, अष्टकाओं में और ऋतु के परिवर्तन होने की रातों में वेदों का अध्ययन नहीं करें । १२० घोड़े पर बैठकर, पेड़ पर चढकर, हाथी, नाव, गधे, ऊंट तथा गाड़ी में सवार होकर एवव ऊसर भूमि पर बैठ कर वेदों का पाठ नहीं करे । १२१ वाद-विवाद होने पर, कलह होने पर, सेना और युद्धभूमि में भोजन कर चुकने के तत्काल बाद, अजीर्ण में उल्टी करके तथा घर में प्रसव (शिशु जन्म) होने पर वेदों का अध्ययन नहीं करें । १२२ यदि अतिथि अपनी अनुभूति नहीं दे, वायु तीव्र गति से चल रही हो, शस्त्र से घाव हो जाने के कारण या फोड़े से खून-पीप आदि निकल रहा हो तो वेदों का पाठ नहीं करें । १२३ ऋग्वेद तथा यजुर्वेद का पाठ सामदेव की ध्वनि सुनाई देने पर कदापि नहीं करे । वेद समाप्त कर या आरण्यक ( वेद का एक विशेष अंश) का पाठ कर तत्काल वेदों का अध्ययन नहीं करें । १२४ यजुर्वेद मनुष्यों का, ऋग्वेद देवताओं का तथा सामदेव पितरों का वेद हैं । ऋग्वेद में देवताओं सम्बन्धी, यजुर्वेद में मनुष्यों सम्बन्धी तथा सामवेद में पितृ सम्बन्धी वर्णन किए गए हैं । इसी कारणवश सामवेद की ध्वनि अपवित्र मानी जाती है । १२५ ऊपर बताए गए निषेधों के जानकार विद्वान ब्राह्नण प्रतिदिन गायत्री, ओंकार, व्याहृति और वेदों के सारतत्व के अध्ययन के बाद ही वेदों का पाठ करते अध्ययन करते हैं । १२६ यदि गाय, बैल, मेढक, बिल्ली, श्वान, सर्प, नेवला तथा चूहा आदि जीव गुरु एवं शिष्य के मध्य से निकल जाएं और उस समय गुरुु शिष्य को पढ़ा रहा हो तो उस दिन अनध्याय करें । १२७ पहला, अध्ययन के स्थान का पवित्र नहीं होना और दूसरा, अध्ययन करने वालं का शुद्ध एवं पवित्र न होना, वास्तव में यही दो अनध्याय हैं । अतः शुद्ध स्थान पर बैठकर तथा पवित्र होकर ही द्विज को वेद का पाठ करना चाहिए । १२८ विवाह करने के पश्चात् भी स्नातक द्विज को अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा एवं चतुर्दसी की तिथियों को स्त्री के ऋतुकाल में होने पर भी उससे संभोग नहीं करें । १२९ भोजन करने के बाद, रोग होने पर, आधी-रात में, कपड़े पहन कर, गहरे पानी में और अनजाने सरोवर (जिसकी गहराई, जल की गुणवत्ता, जलजन्तु आदि के बारे में ज्ञान नहीीं हो ) में स्नान नहीं करें । १३० देवताओं (देव प्रतिमाओं), गुरु, राजा, स्नातक, आचार्य, कपिल वर्ण वाले और यज्ञ में दीक्षित मनुष्यों की छाया का इच्छपूर्वक उल्लंघन नहीं करें । १३१ दोपहर में, आधी रात और दोनों सन्ध्याओं के समय एवं श्राद्ध में मांस भोजन करके बाजार के चौराहे पर अधिक समय तक नहीं घूमे-फिरें । टिप्पणी- विद्वानों के अनुसार श्लोक संख्या प्रक्षिप्त है । १३२ ऐसे स्थनों पर रुकना या ठहरना नहीं चाहिए जो उबटन के मैल वाले स्नान के जल से, मल-मूत्र से, कफ, पीक तथा वमन जैसे घृणा या घिन पैदा करने वाले पदार्थों से भरे हों । १३३ वैरी या शत्रु तथा उसकी सहायता-सेवा करने वाले, धर्म विरुद्द आचरण करने वाले पुरुष एवं चोर से और पराई नारी से मिलना-जुलना नहीं बढ़ाएं । टिप्पणी- ऐसे मेल-जोल से व्यक्ति को हानि पहुंच सकती है अथवा उसका नाश हो सकता है । इसलिए यह निर्देश दिया गया है । १३४ इस लोक में पराई नारी से संभोग सुख पाने जैसा आयु को कम करने वाला कोई नीच कर्म नहीं । इसलिए इससे सदैव दूर रहना चाहिए । १३५ अपने को सुखी, स्वस्थ और समृद्धिशाली बनाने की कामना करने वाले को क्षत्रिय, सांप और सुशिक्षित न होने वाले ब्राह्नण के कमजोर होने पर भी उन्हें सताना नहीं चाहिए । १३६ ये तीनों- ( क्षत्रिय, सांप तथा ब्राह्नण ) अपनी मानहानि होने पर अपमान करने वाले को (मौका मिलते ही) भस्म कर देते हैं । अतः बुद्धिमान पुरुष को इनकी कभी बेइज्जती नहीं करनी चाहए । १३७ प्रयत्न करने के बाद भी अगर समृद्धि नहीं मिलती तो अपने को भाग्यहीन समझ कर अपना अपमान नहीं करे । प्रयत्न करते रहना मानव का धर्म है और यह अंतिम सांस तक करता रहे। सम्भव है कि कभी भाग्य साथ दे जाए और अभिलषित धन प्राप्त हो जाए । १३८ सनातन धर्म यही है कि व्यक्ति को सदा प्रिय सत्य बोलना चाहिए । अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य कभी नहीं बोलना चाहिए । १३९ व्यक्ति को दूसरों के व्यवहार को प्रथम तो 'बहुत अच्छा' कहकर प्रशंसा करनी चाहिए तथा 'बहुत' शब्द का प्रयोग अनुचित लगने पर 'अच्छा है' तो अवश्य कहना चाहिए। किसी से भी बेकार मेें या अकारण वैर या विरोध नहीं बढ़ाना चाहिए । १४० बहुत सुबह अर्थात् अंदकार युक्त प्रभात में और शाम को अंधेरे में तथा दोपहर (गर्मियों में) के समय अनजाने व्यक्ति के साथ एवं दुष्ट स्वभाव के शूद्र के साथ अकेले मार्ग में नहीं जाना चाहिए । १४१ ऐसे व्यक्तियों पर कभी व्यंग्य नहीं करें जो हीन अंग वाले हों (अंधे, काने, लूले-लंगड़े आदि ), अधिक अंग वाले हों (जैसे पांच से अधिक अंगुलियों वाले ), शिक्षा प्राप्त न हों, आयु में बड़े हों, कुरूप, निर्धन अथवा छोटी जाति के हों । १४२ गऊ, ब्राह्नण तथा अग्नि को जूठे हाथों से नहीं छुए । स्वस्थ अवस्था में अपवित्र होने पर आकाश के सूर्य-चन्द्र आदि ग्रहों को नहीं देखे । १४३ अगर अपवित्र होने पर अनजाने गऊ, ब्राह्नण तथा अग्नि का स्पर्श हो जाए तो व्यक्ति को अपने शरीर के समस्त अंगों पर जल छिड़कना चाहिए, आचमन करना चाहिए और एक हथेली में जल लेकर अंगुली से सभी अंगों एवं नाभि का स्पर्श करना चाहिए । १४४ स्वस्थ व्यक्ति को अकारण इन्द्रियों तथा गुप्त अंगों (बगलों और गुप्तंगों के रोमों) के रोमों का स्पर्श नहीं करना चाहिए । १४५ व्यक्ति को सदा शुभ कर्मों मेे लगा रहना चाहिए, अपने शरीर को स्वच्छ तथा हृदय को पवित्र रखना चाहिए (अर्थात् राग-द्वेष आदि का त्याग करना चाहिए) तथा आलस छोड़कर प्रतिदिन जप तथा होम करना चाहिए । १४६ शुभ कर्मों को करने वाले, नित्य बाह्य तथा आंतरिक शुद्धि रखने वाले एवं नित्य जप-होम करने वाले को दैहिक रोग, भौतिक बाधा अथवा दैविक उत्पात नहीं सताते । १४७ आलस त्याग कर यथा समय सदैव वेद का ही अभ्यास करें । वेदों का अध्ययन ही श्रेष्ठ धर्म है, अन्य धर्म उपधर्म हैं । १४८ सर्वदा वेदों का अध्ययन करने से, पवित्र आचरण रखने से, तप-अनुष्ठान करने से और दूसरे जीवों के सात मैत्री भाव रखने से पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है । १४९ पूर्व जन्म की स्मृति से मनुष्य की रुचि वेदों का अध्ययन करने में होती है । वेदों के अभ्यास द्वार व्यक्ति को शाश्वत तथा अनन्त सुख प्राप्त होता है अर्थात् वह आवागमन के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष लाभ प्राप्त करता है । १५० अमावस्या, पूर्णमासी आदि पर्वों पर विशेष रूप से गायत्री मंत्र और शान्ति मंत्रों द्वारा यज्ञ-होम करें । इसी तरह (हेमन्त और शिशिर ऋतुओं की ) अष्टमी एवं नवमी को पितरों का श्राद्ध-तर्पण करें । १५१ अपने घर से दूर जाकर ही, मल-मूत्र का त्याग, चरणों को धोना और जूठन को फेंकना चाहिए । १५२ दिन के पूर्वाह्र (प्रथम प्रहर) में ही मल-मूत्र का त्याग, दंत प्रक्षालन (दांत सफाई), स्नान, आंखों में अंजन लगाना तथा देवता का पूजन आदि कर्म करने चाहिए । १५३ अपनी रक्षा एवं कल्याण हेतु अमावस्या तथा पूर्णिमा आदि पर्वों पर देवताओं (यज्ञसालाओं), गुरुओं, धार्मिक पुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्नणों तथा परमात्मा की सेवा में (मन्दिरों आदि में) उपस्थित हना चाहिए । १५४ वृद्धजनों (ज्ञान, आयु, पद तथा प्रतिष्ठा में अपने से बड़े लोगों) के आने पर, उठकर उनका अभिवादन करते हुए प्रणाम करें, उनके बैठने के लिए अपना आसन प्रस्तुत करें । हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़े रहें और उनके जाने पर कुछ दूर तक उनके साथ जाएं । १५५ सदैव आलस्य त्याग कर वेद-शास्त्र में निरूपति किए गए, नियमों में आबद्ध तथा धर्म के मूल सदाचार का पालन करें । १५६ सदाचार को अपने प्रतिदिन के जीवन में अपनाने से लम्बी आयु, पुत्र और पौत्र आदि तथा अक्षय धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है एवं अशुभ लक्षणों का अंत होता है । १५७ दुराचारी पुरुष एक ओर इस संसार में सदैव निन्दा का पात्र बनता है तथा दूसरी ओर वह सदा दुख पाता है, रोग पीड़ित तथा कम आयु का होता है । १५८ सदाचार का पालन करने वाला, सज्जन पुरुषों के अनुसार आचरण करने वाला, वेद-शास्त्रों में श्रद्धा रखने वाला तथा ईर्ष्या-द्वेष से रहित पुरुष (सामुद्रिक शास्त्र जैसे हस्तरेखा शास्त्र आदि के अनुसार) शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी शत आयु प्राप्त करता है । १५९ जो कार्य दूसरों के अधीन रह कर ही किए जा सकते हैं, उनको पूरी तरह त्याग दे तथा अपने अधीन सभी कार्यों का अनुष्ठान पूरे प्रयत्न से करे । १६० जो कुछ दूसरे के अधीन है वह सब दुख है और जो कुछ अपने अधीन है वह सब सुख है । यही सुख-दुःख का लक्षण है । १६१ जिस कार्य से मन की शांति तथा अन्तरात्मा को खुशी मिले, उसे करने का पूरा प्रयत्न करें परन्तु जिस कर्म को करने से मन को शांति नहीं मिले उसे छोड़ दें । १६२ आचार्य, वेदों के व्याख्याता, माता-पिता, गुरु, ब्राह्नण, गाय समस्त तपस्वियों को, उनके द्वारा अपराध हो जाने पर भी मृत्युदण्ड नहीं दे । १६३ परमात्मा की सत्ता में विश्वास नहीं करना, वेदों की निन्दा करना, देवताओं की अवज्ञा, शत्रुता-विरोध, पाखण्ड, अहंकार, क्रोध करना तथा उग्रता होना त्याग करने योग्य दोष हैं । १६४ किसी के द्वारा गलती हो जाने पर गुस्सा आने पर उसे पीटने के लिए हाथ में डण्डा नहीं लेना चाहिए । व्यक्ति को केवल अपने पुत्र या शिष्य को शिक्षित करने की जिम्मेवारी निभाने के लिए पीटने का अधिकार है । १६५ वह व्यक्ति जो ब्राह्नण अथवा गुरु के वध हेतु हाथ में डण्डा लेता है, उसे सौ वर्षों तक तामिस्त्र नाम के नरक में घुमाया जाता है । १६६ अपनी सचेत अवस्था में जो व्यक्ति आचार्य ब्राह्नण को तिनके तक से पीटता है, वह इक्कीस बार पाप योनियों में जन्म लेता है । अभिप्राय यह है कि आचार्य ब्रााह्नण को मारने-पीटने का विचार तक मन में नहीं लाए क्योंकि लाठी-डंडे का प्रश्न तो दूर अगर इसे एक तिनका से भी मार दिया तो मारने वाले का इक्कीस बार नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है । १६७ जो व्यक्ति युद्ध न करने वाले ब्राह्नण के शरीर पर कोई ऐसा आघात करता है जिससे उसके शरीर से खून बहने लगता है तो ऐसा करने वाला व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद घोर दुःख भोगता है । १६८ धरती की मिट्टी के जितने कण ब्राह्नण के शरीर से गिरते खून को सोखते हैं, ब्राह्नण को चोट पहुंचाने वाले व्यक्ति को अपनी मृत्यु के उपरान्त परलोक में उतने ही वर्षों तक अपने शरीर से खून निकलवाना पड़ता है । १६९ ब्राह्नण पर न कभी लाठी उठानी चाहिए और न ही उसे तिनके तक से मारना चाहिए और न ही उसके शरीर से खून निकालना चाहिए । १७० धर्म पालन न करने वाले, झूठ को अपनाने वाले और नित्य हिंसा करने वाले व्यक्ति न इस जगत में सुख पाते हैं और न ही किसी प्रकार की उन्नति करते हैं । १७१ धर्म का आचरण करने पर भी दःख उठाने वाले व्यक्ति को यह देखकर कि अधार्मिक व्यक्तियों को शीघ्र ही अपने कुकर्मों का फल भोगना पड़ रहा है, अधर्म पर चलने का विचार नहीं करना चाहिए । १७२ पापी व्यक्ति द्वारा किया गया पाप धरती में बोए गए बीज की तरह उसी समय अंकुरित-विकसित नहीं होता परन्तु समय आने पर वह इस भांति फलता-फूलता है कि पापी को उसकी जड़ सहित उखाड़ कर फेंक देता है । १७३ अगर पापी को किसी कारण से अपने पाप का फल नहीं मिल पाता तो वह उसके बेटों को मिलता है । अगर पुत्रों को नहीं मिल पाता तो पौत्रों को मिलता है । उन्हें भी न मिलने पर पौत्रों के पुत्रों (धेवतों) को मिलता है । इस तरह दुष्कर्मों का बुरा नतीजा (परिणाम) अवश्य मिलता है चाहे वह कुछ समय बाद मिले । १७४ पापी व्यक्ति अपने अधर्मिक कर्मों से प्रारम्भ में उन्नति करता है, सुखों को भोगता है और ऐसा दिखाई देता है कि वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर रहा है लेकिन कुछ समय बाद वह (पापी) स्वयं जड़सहित समाप्त हो जाता है । १७५ सत्य का पालन करना, दूसरों को कष्ट नहीं देना तथा न्याय युक्त साधनों द्वारा धन कमा कर अपनी जीविका चलाना, इस सबको विशेष महत्व देना चाहिए और जीवन में अपनाना चाहिए । अपने शिष्यों को वाणी, भुजाओं के बल (शक्ति प्रयोग) तथा खाान-पान (उदर) पर संयम रखने की शिक्षा देना चाहिए । १७६ अधार्मिक साधनों द्वारा पाए गए धन तथा काम सुख को पूरी तरह छोड़ दे । वृद्ध हो जाने पर ऐसा धार्मिक कृत्य भी नहीं करे जिससे परिवार को कष्ट पहुंचे । १७७ अकारण हाथ-पैर नहीं हिलाएं और न नेत्रों या शरीर को मटकाएं स्वभाव से कुटिल, दूसरों की निन्दा करने वाला तथा बकवास करने वाला नहीं बनना चाहिए । १७८ जिस पवित्र तथा पुण्य पथ पर व्यक्ति के पिता-पितामह, पूर्वज चलते रहे हों उसी पर उसे भी चलना चाहिए । उस मार्ग का अनुसरण करने से व्यक्ति की हानि नहीं होती । १७९, १८० यज्ञ करने वालों, पुरोहितों, आचार्यों, अतिथियों, माता-पिता, मामा आदि सम्बन्धियों, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पत्नी-पुत्रवधू, दामाद तथा गृह सेवकों से बेकार में वाद-विवाद नहीं करें । १८१ ऊपर बताए गए लोगों के साथ विवाद नहीं करने वाला गृहस्थ सभी पापों से छुटकारा पा जाता है । जो इन लोगों को अपने वश में कर लेता है वह समस्त धरती पर रहने वालों को जीत लेता है । १८२ ब्रह्न लोक का स्वामी आचार्य है । प्रजापति लोक का आचार्य पिता है । इन्द्र लो का स्वामी अतिथि और देव लोक का स्वामी ऋत्विज है । आचार्य के प्रसन्न होने से वेदों का ज्ञान प्राप्त हो । पिता, अतिथि, तथा ऋत्विज की प्रसन्नता द्वारा क्रमशः प्रजापति लोक, इन्द्र लोक और देव लोक में सरलता से गमन हो जाता है । १८३ अप्सरा लोक की बहन और पुत्रवधू, वैश्वदेव लोक के बन्धु-बान्धव, जल लोक के सम्बन्धी एवं मां तथा मामा पृथ्वी लोक के स्वामी हैं । बहन तथा पुत्रवधू को प्रसन्न करने से वैश्वदेव लोक, सम्बन्धियों को प्रसन्न करने से जल लोक, मां तथा मामा को प्रसन्न करने से पृथ्वी लोक में गति हो जाता है । १८४ बालक, बूढ़े, कमजोर और आतुर जन आकाश लोक के स्वामी हैं । अभिप्राय यह है कि इन लोगों का कोई आश्रय नहीं है, अतः इनका पालन-पोषण करना धर्म है । बड़ा भाई अपने पिता के समान तथा पत्नी एवं पुत्र अपने शरीर के समान हैं । इनके साथ किसी तरह का विवाद करना व्यर्थ है । १८५ सेवा करने वाला (दास) अपनी छाया की भांति है अर्थात् उसे अपने से अलग नहीं किया जा सकता । बेटी अत्यधिक कृपा का पात्र है । इसलिए अगर सेवक तथा पुत्री क्रोध के आवेश में आकर कभी कुछ (आलोचना, निन्दा आदि) कह भी दें, उसको सहने कर ले । १८६ पुरोहित, आचार्य एवं माता-पिता से प्रतिग्रह अर्थात् सेवा के बदले में लिया जाने वाला दान पाने में समर्थ होने पर भी ब्राह्नण उसे लेने का प्रयतन् नहीं करें, क्योंकि वापसी दान लेने से उसका ब्रह्नतेज (ब्रह्नज्ञान उपलब्ध होने से उत्पन्न तेज) शीघ्र नष्ट हो जाता है । १८७ भूख से बेैचैन होने पर भी विवेकशील व्यक्ति प्रतिग्रह को धर्म एवं न्याय के विरुद्ध जानकार तथा प्रतिग्रह से मिलने वाली वस्तुओं के गुणों की जानकारी होने पर भी उसके लिए प्रयत्न नहीं करते । १८८ जिस प्रकार अग्नि से लकड़ी जल कर राख हो जाती है, उसी प्रकार मूर्ख ब्राह्नण स्वर्ण, भूमि, घोड़ा, गौ, अन्न, वस्त्र, तिल और घी का दान ग्रहण करने से नष्ट हो जाता है । टिप्पणी-अभिप्राय यह है कि मूर्ख व्यक्ति को चाहे वह ब्राह्नण ही क्यों न हो दान नहीं देना चाहिए । १८९ स्वर्ण तथा अन्न दान लेने मूर्ख की आयु को कम करते हैं, दान में ली गयी गाय तथा पृथ्वी उसके शरीर को सुखा देते हैं, अश्व उसके नेत्रों को, वस्त्र उसकी त्वचा को, घी उसके तेज को तथा तिल सन्तान को नष्ट कर देते हैं । १९० जो ब्राह्नण तपस्या तथा विद्या से हीन है परन्तु फिर भी दान लेता है तो वह उससे इस तरह नरक में डूबता है जैसे पत्थर की नाव पर चढ़ने वाला व्यक्ति उसके साथ जल में डूब जाता है । १९१ इस कारण मूर्ख ब्राह्नण किसी भी वस्तु का दान लेने से डरे क्योंकि थोड़ा सा भी दान लेने से वह मूर्ख ब्राह्नण कीचड़ में फंसी गाय के समान दुख उठाता है । १९२ धर्मज्ञााता व्यक्ति को ऐसे ब्राह्नणों को पानी तक नहीं पलाना चाहिए जो दूसरों को मूर्क बना कर लूटते हैं या जो ऊपर से साधु दिखते हैं पर अन्दर से दुष्ट होते हैं, तथा जो वेद का ज्ञान नहीं रखते । १९३ इन तीनों तरह के लोगों (बिडाल वृत्ति वाले अर्थात् दूसरों को मूर्ख बनाकर लूटने वाले, बक वृत्ति वाले अर्थात् जो ऊपर से साधु पर अन्दर से दुष्ट, वेद ज्ञान से रहित व्यक्ति) को न्याय तथा धर्म से कमाया धन भी दोनों ( दान देने और लेने वाले ) को परलोक में नरकगामी बनाता है । १९४ जिस तरह जल में पत्थर की नाव पर सवार व्यक्ति नाव के साथ पानी में डूब जाता है तरह दान लेने वाला मूर्ख तथा उसे दान देने वाला दोनों नरक में डूब जाते हैं । १९५ अपनी प्रसिद्धि और के लिए धर्म का आचरण करने वाला, दूसरों के धन को छीनने की इच्छा करने वाला, लोगों से ढोंग रचने वाला कपटी, हिंसक स्वभाव का तथा दूसरों को भड़काने वाला व्यक्ति 'बिडाल वृत्ति' का कहा जााता है । १९६ उस ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य को बक वृत्ति का समझना चाहिए जिसकी नजर हमेशा दूसरों की धन-संपत्ति पर लगी रहे, जो हमेशा बुरे कर्म करे, कभी अपने कल्याण के कार्य में नहीं लगे, जो हमेशा अपनी अपनी ही भलाई करने में लगा रहे, जो झूठा तथा अविनीत हो । १९७ बिडाल तथा बक वृत्ति वाले लोग अपने पाप कर्मों के कारण 'अन्धतामिस्त्र' नाम के नरके में गिर कर यातनाएं पाते हैं । १९८ पहले पाप करना फिर उसे छिपाने के लिए व्रत-उपवास आदि करना बेकार है । इस तरह के व्रतों से स्त्री तथा शूद्रों जैसे लोगों को बहकाया जा सकता है किन्तु बुद्धिमान लोग उनकी सच्चाई को देर-सबेर समझ ही जाते हैं । १९९ बिडाल वृत्ति के लोगों की ब्रह्नवादी विद्वान इस लोक तथा परलोक में निन्दा करते हैं । कपटपूर्वक किया गया व्रत या धर्मानुष्ठान राक्षसों को चला जाता है । अतः वह फलहीन होता है । २०० संन्यासी या ब्रह्नचारी नहीं होकर भी जो उनका वेश पहनकर अपनी जीविका चलाता है वह ब्रह्नचारी आदि के पापों को अपने ऊपर लेता है । वह मरने के बाद पक्षियों की योनि में पैदा होता है । २०१ दूसरों के द्वारा निर्मित किए गए स्नानगृहों, सरोवरों, पोखरों और कुओं आदि में स्नान नहीं करें । ऐसा करने वाला स्नानगारों को बनाने वालों के पापों का भागीादार हो जाता है । इसलिए हर उस व्यक्ति को जिसमें सार्थ्य है स्नान के लिए अलग से तालाब, पोखरे आदि निर्मित करवाने चाहिए । २०२ वाहन, बिस्तर, आसन, कुआं, बाग और आवास आदि का दान किए बिना अकेले ही उपभोग करने वाला व्यक्ति घोर पाप में पड़ता है । २०३ सरिताओं, प्राकृतिक सरोवरों तथा मनुष्य द्वारा बनाए गए तालाबों, पोखरों, गड्ढों आदि में व्यक्ति को सदैव स्नान करना चाहिए । २०४ व्यक्ति को नियमों की अपेक्षा यमों का पालन करना उचित है (नियमों के अंतर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा प्रणिधान आते हैं । यमों के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्नचर्य और अपरिग्रह आते हैं) जो व्यक्ति यमों की ओर ध्यान नहीं देकर केवल नियमों को अपनाता है उसका पतन शीघ्र हो जाता है । २०५ पुरोहित जिस यज्ञ का वेदपाठी नहीं हो, यजमान कोई एक विशेष व्यक्ति नहीं परन्तु सारे गांववासी हों, जहां स्त्री या नपुंसक हो, ऐसे यज्ञ में ब्राह्नण भोजन नहीं करे । २०६ स्त्री, नपुंसक और बहुयाजक आदि जिस यज्ञ में हवन करते हैं वह यज्ञ-कर्म अश्लील होता है, सज्जनों की श्री का नाश करने वाला तथा देवताओं के विरुद्ध होता है । अतः उसका त्याग कर देना चाहिए । २०७, २०८ ऐसे अन्न को नहीं खाना चाहिए जो पागल, क्रोधी और रोगी व्यक्ति का हो, जो बालों और कीड़े-मकोड़ों के पड़ जाने से दूषित हो गया हो, खाने के अयोग्य मानकर फेंकने के लिए रखा गया हो, भ्रूण हत्यारों द्वारा गया हो, रजस्वला स्त्री द्वारा स्पर्श किया गया हो अथवा जो कौवे जैसे पक्षियों द्वारा खाया या चाटा गया हो या जिस पर कुत्ते ने मुंह लगा दिया हो । २०९, २१० गाय द्वारा जूठा किए, विशेष घोषणा करके खिलाए जाने वाले, दान आदि द्वाारा जुटाए गए वेश्या समुदाय का अन्न नहीं खाना चाहिए । चोर, गायक, बढ़ई, ब्याजखोर, यज्ञ में दीक्षित (अग्निसोमीय से पूर्व), कंजूस और लोहे की जंजीर से बंधे हुए के अन्न को नहीं खाए । २११, २१२ शापग्रस्त या महापातक आदि दोषों से लांच्छित या नपुंसक व्यक्तियों का, व्यभिचारिणी स्त्री का, ढोंग करने वाले व्यक्ति का, स्वाद में खट्टा, खमीर वाला, बासी, शूद्र का जूठा, वैद्य, शिकारी, क्रूर व्यक्ति का, दूसरों की जूठन खाने वाले का, उग्र स्वभाव के व्यक्ति का और सूतक के अन्न (भोजन) को नहीं खाएं । २१३, २१४ आदर भाव के बिना दिया गया अन्न और बेकार समझा गया मांस नहीं खाए । पति और पुत्र से हीन नारी का, दुश्मन का, गांव के अधिपति का, जाति से निकाले गए व्यक्ति का, चुगली करने वाले व्यक्ति का, झूठी गवाही देने वाले का, यज्ञ बेचने वाले का, शूद्र तथा दर्जी का एवं कृतघ्न व्यक्ति का अन्न नहीं खाना चाहिए । २१५, २१६ लोहे का काम करने वाले, भील, मदारी (खेल दिखाने वाले), सुनार, बांस का काम करने वाले, शस्त्र बेचने वाले, कुत्तों को पालने वाले, शराब बनाने-बेचने वाले, धोबी, कपड़े रंगने वाले, दयाहीन तथा अपने घर में ही अपने जार (प्रेमी) को रखने वाली स्त्री के अन्न को ग्रहण नहीं करें । २१७ अपने ही घर में अपनी स्त्री के उपपति (जार) के रहने की भी सहन करने वाले के, स्त्री के अधनी रहने वाले के, परिवार में किसी की मौत के दस दिन व्यतीत होने से पहले ही भोजन परोसने वाले के और पितरों का श्राद्ध नहीं करने वाले के अन्न को स्वीकार नहीं करें । २१८ राजा का अन्न खाने से तेज, शूद्र का अन्न खाने से विद्या, सुनार का अन्न खाने से आयु तथा चमार का अन्न खाने से यश की हानि होती है । २१९ चिकित्सक के अन्न को पीक की तरह, व्यभिचारिणी के अन्न को वीर्य की तरह, ब्याज का काम करने वाले के अन्न को विष्ठा की तरह और शस्त्र बेचने वाले के अन्न को मल की तरह समझना चाहिए । २२० पहले बताए गए (ऊपर लिखे) समस्त प्रकरा के अन्न भक्षण योग्य नहीं है । मनीषी लोग इन लोगों के भोजन (अन्न) को चमड़ी हड्डी और बालों की तरह मान कर इनको पूरी तरह छोड़ दें । २२१ यदि अनजाने में ऊपर बताए व्यक्तियों के त्यागने योग्य अन्न का भक्षण कर लें तो शुद्धि करने के लिए तीन दिन-रात उपवास करें । जानकारी होते हुए भी मना किए गए अन्न को खा लेना वीर्य तथा मल-मूत्र को ग्रहण करने की भांति है । इनसे निव्रत्ति के लिए कुछ व्रतों के अनुष्ठान आवश्यक हैं । २२२ ऊपर बताए गए त्याज्य व्यक्तियों के अन्न को अनजाने में खा लेने पर तीन दिन-रात का उपवास करने से शुद्धि होती है । किन्तु जान-बूझकर इनका सेवन करना वीर्य, विष्ठा एवं मूत्र के सदृश है । इसकी निवृत्ति के लिए कुछ व्रतों का अनुष्ठान करना चाहिए । २२३ ब्राह्नण का अन्न अमृत के समान, क्षत्रिय का दूध के समान, वैश्य का अन्न समान एवं शूद्र का रक्त के समान है । २२४ जो शूद्र श्रद्धाहीन है उसके पके अन्न को ब्राह्नण स्वीकार नहीं करे अगर भूख को तृप्त किए बिन रहना सम्भव न हो तो शूद्र से केवल एक रात के भोजन योग्य कच्ची सामग्री ले लेवे । २२५ देवताओं ने कंजूस ब्राह्नण तथा सूद खाने वाले वैश्य के अन्नों का गुण-दोष परीक्षण करने के बाद दानों के अन्नों का समान रूप से ग्रहण करने के अयोग्य बताया है । २२६ सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण की अवधि में भोजन नहीं करें । जब ग्रहण पूरी तरह समाप्त हो जाए तब स्नान आदि करने के बाद भोजन करें । अगर ग्रहण समाप्त न हो और सूर्य या चन्द्र छिप जाएं तो दूसरे दिन स्नान आदि करने के पश्चात् भोजन करें । २२७ ब्रह्ना जी ने सम तथा विषम में विवेक का उपयोग करने की सलाह दी है । दान देने में सर्वाधिक महत्व दान देने वाले की श्रद्धा का है । सूद से जीविका चलाने वाले वैश्य द्वारा श्रद्धासहित दिया गया दान पवित्र है । इसके विपरीत कंजूस ब्राह्नण द्वारा श्रद्धा के बिना दिया जाने वाला दान अपवित्र है । वास्तव में श्रद्धा से ही दान पवित्र बनता है । २२८ व्यक्ति को हमेशा बिना आलस्य किए श्रद्धा सहित यज्ञ करने तथा कुएं तालाब आदि को बनाने या बनवाने के कार्य में लगना चाहिए । न्याय द्वारा उचित माने गए उपयों द्वारा कमाया गया धन जब श्रद्धासहित अच्छे कर्मों में लगाया जाता है तो उससे मिलने वाले फल का कभी क्षय नहीं होता । २२९ व्यक्ति को नित्य ही दान, धर्म और यज्ञ आदि कराने के ऐष्टिक कर्मों में एवं कुएं-तालाब आदि बनाने के पूर्तिक कर्मों में लगा रहना चाहिए । अधिकारी व्यक्ति के मिलने पर अपनी शक्ति के अनुसार शुश होकर श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए । इसी से व्यक्ति का कल्याण होता है । टिप्पणी-यहां अधिकारी व्यक्ति से आशय उस व्यक्ति से है जो विद्वान और सदचरित्र वाला है । २३० अगर दान मांगने वाला दान का उचित पात्र नहीं मालूम होता फिर भी उसे बिना किसी कड़वाहट के कुछ दान दे देना उचित है क्योंकि देने की प्रवृत्ति बनाने से ही कभी दान पाने का योग्य पात्र मिलेगा जो दाता का पूर्ण उद्धार कर देगा । २३१ जो प्यासे को जल पिलाता है, उसे तृप्ति मिलती है अर्थात् उसको अपने जीवन में पूर्ण सन्तोष प्राप्त होता है । अन्न का दान करने वाले को क्षय नहीं होने वाला सुख, तिल का दान करने वाले को प्रिय सन्तान, दीपक का दान करने वाले को उत्तम नेत्र दृष्टि, भूमि का दान करने वाले को धरती, सोने का दान करने वाले को दीर्घ जीवन, मकान दान करने वाले को सुन्दर महल एवं चांदी( रजत) दान करने वाले को सौम्य रूप की प्राप्ति होती है । २३३, २३४ वस्त्र- दान करने वाला चन्द्रमा के समान चन्द्र लोक में निवास को, घोड़े का दान करने वाला अश्वनीकुमारों के लोक को, बैल का दान करने वाला स्थिर धन को, गाय का दान करने वाला सूर्य के समान तेज को, रथ आदि सवारी तथा शय्या का दान करने वाला सुन्दर स्त्री को, अभयदान करने वाला राज्य को, धान्य (जौ, धान, चावल, गेहूं, चना आदि) का दान करने वाला स्थायी को तथा वेदों का ज्ञान दूसरों का देने वाला ब्राह्न लोक को प्राप्त करता है । २३५ जल, अन्न, गऊ, भूमि, वस्त्र, तिल, सोना, घी आदि समस्त प्रकार के दानों से वेद विद्या का दान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । २३६ दान देने वाला जिस भाव से जो कुछ दाने देता है, उसी भाव से उसका फल उसे मिलता है । २३७ जो व्यक्ति आदर-सत्कार सहित दान करता है तथा जो दान देने वाले से सत्कारपूर्वक ही दान लेता है, वे दोनों ही स्वर्ग प्राप्त करते हैं । श्रद्धा रहित होकर दान देने और लेने से दोनों ही नरक को जाते हैं । २३८ तप की महिमा का पार नहीं है, इसलिए उससे मिलने वाले फल पर आश्चर्य नहीं करें । यज्ञ करके झूठ नहीं बोलें अन्यथा यज्ञ फल नष्ट हो जाता है । दुख मिलने पर भी ब्राह्नणों से न तो कड़वे बोल कहें और न अपशब्द का प्रयोग करें । दान देकर यश पाने के लिए उसकी चर्चा नहीं करते रहना चाहिए । २३९ असत्य बोलने से यज्ञ का फल नष्ट हो जाता है । अविश्वास से तप का फल समाप्त हो जाता है । ब्राह्नणों की बुराई करने से उम्र कर हो जाती है और अपने दान का बखान करने से दान का फल नष्ट हो जाता है । २४० दीमक जिस तरह धीमे-धीमे अपने रहने के लिए बांबी बनाती है उसी तरह परलोक के सुधार हेतु किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुंचाते हुए धीरे-धीरे ही धर्म का संग्रह करें । २४१ जीव को परलोक में केवल उसका धर्म ही सहायता पहुंचा कर साथ निभाता है । मां, पिता, पत्नी तथा पुत्र आदि केवल इस लोक में ही सहायता देते हैं । आशय यह है कि मनुष्य को सदैव धर्म का पालन करना चाहिए चाहे माताा पिता तथा अन्य निकटवर्ती सम्बन्धियों को नाराज भी क्यों न करना पड़े । २४२ इस संसार में जीव अकेला ही पैदा होता है तथा अकेला ही मरता है । उसे अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भी अकेला ही भुगतना पड़ता है । यह अकाटय सत्य है । २४३ मरे हुए व्यक्ति के शरीर को बेकार मिट्टी का ढेला या लकड़ी समझकर उसके बन्धु-बान्धव उसे धरती में गाड़कर या जलाकर चले जाते हैं । उस समय धर्म ही जीव का अनुगमन करता है अर्थात् उसके साथ जाता है । २४४ शरीर को त्यागने के बाद धर्म ही अकेला सहायक होता है । अतः आत्मा के कल्याण हेतु थोड़ा-थोड़ा करके धर्म का संग्रह करें । परलोक के घोर अन्धकार से भरे मार्ग को जीव संचित धर्म की सहायता से ही पार करता है । २४५ पापों को तप द्वारा नष्ट करके, जीवन में धर्म को प्रमुख स्थान देकर तथा श्रेष्ठ आचरण करके धर्मप्रधान जब शरीर त्याग करते हैं तो धर्म उन्हें शीघ्र मोक्ष प्रदान करता है । २४६ मनुष्य को अपने कुल की सुरक्षा तथा प्रितष्ठा बढ़ाने के लिए अच्छे परिवारों के साथ अपनी कन्या और पुत्र के विवाह सम्बन्ध बनाने चाहिए । उसे नीच तथा धर्म विरोधी पुरुषों के परिवारों के किसी तरह के सम्बन्ध नहीं जोड़ने चाहिए । २४७ श्रेष्ठ पुरुषों से सम्बन्ध जोड़ने और नीच या अधम पुरुषों के साथ सम्बन्ध नहीं रखने से ब्राह्नण की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो जाती है । इसके विपरीत श्रेष्ठों के बजाय नीच लोगों से सम्बन्ध बनाने से ब्राह्नण पर कलंक लग जाता है । २४८ दृढ़ निश्चयी, स्वभाव से दयालु तथा अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाला, क्रूरता से रहित, अहिंसका, संयमी तथा दानशील ब्राह्नण स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है अर्थात् इस लोक में उसकी कीर्ति मरने के बाद भी बनी रहती है और मरकर वह स्वर्ग जाता है । २४९ यदि बिना मांगे ईंधन, जल, फल, कन्द-मूल, अन्न, अभय तथा दक्षिणा आदि मिल जाए तो किसी से भी लो लेना चाहिए । आशय यह है कि यदि कोई व्यक्ति बिना मांगे उपरोक्त वस्तुएं दे तो देने वाले की आयु, वर्ण, योग्यता आदि का विचार नहीं करना चाहिए । २५० घर आए हुए व्यक्ति द्वारा कोई वस्तु आदि न मांगने पर भी अगर गृहस्थ अपने आप भिक्षा लाता है तो आने वाले व्यक्ति को उस भिक्षा को स्वीकार कर लेना चाहिए चाहे वह गृहस्थ पापी ही क्यों ने हो । यह प्रजापति ब्रह्ना जी का मत है । २५१ जो व्यक्ति दूसरों द्वारा अपने आप दी जाने वाली भिक्षा या दान का अपमान करता है, उसके पितर उसके श्राद्ध में पन्द्रह वर्ष तक भोजन नहीं करते और अग्नि देवता भी उसकी हवि को स्वीकार नहीं करते । २५२ भिक्षा के रूप में अपने आप दी जाने वाली वस्तुएं जैसे शय्या, घर, सुगन्धित द्रव्य, पानी, फूल, मणि, दही, धान्य, मछली, दूध, मांस एवं शाक को वापिस नहीं लौटाएं । देने वाले के बारे में कोई तर्क किए बिना उन्हें ग्रहण कर लें । २५३ गुरुजनों तथा सेवा करने वाालों की भूख को शांत करने के लिए और देवताओं एवं अतिथियों की पूजा-अर्चना करने हेतु किसी से भी भिक्षा ग्रहण करना उचित है । यदि दाता की पात्रता के बारे में मन में शंका उठे तो चाहे वह भिक्षा स्वयं ग्रहण नहीं करें परन्तु दूसरों को भूखा नहीं रखें । २५४ माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर तथा घर में अकेले रहने पर अपना पेट भरने के लिए केवल सदाचार का पालन करने वाले से ही भिक्षा लेनी चाहिए । २५५ साझे में कृषि करने वाले, कुल के मित्र, ऐसे सेवक जो कुल परम्परा के अनुसार मित्र का स्तर पा गए हैं, संसार-त्यागी और नापित जैसे व्यक्तियों का अन्न शूद्रों के भक्षण योग्य होता है । अगर इन लोगों द्वारा अन्न भेंट किया जाए तो उसे ग्रहण नहीं करें । टिप्पणी- मनु महाराज ने भृगु जी के मुख से सामान्य तथा संकटकालीन परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के आचरण योग्य कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है । अतः कहीं भी परस्पर विरोधी दिखने वाले वचनों को इसी आधार पर उनके अर्थों को ग्रहण करना चाहिए । २५६ जिसके मन का जैसा भाव हो, जैसा करने की इच्छा हो तथा जैसी सेवा की जा रही हो, वैसा ही उसके प्रति व्यवहार करना चाहिए तथा उसके स्थान पर रुकने या न रुकने का निर्णय लेना चाहिए । २५७ जो व्यक्ति संतों के सम्मुख अपने को कुछ बताता है और होता कुछ है, जैसे-वास्तव में वह दुर्जन है पर अपने को सज्जन दिखलाता है, उसे पापी, चोर तथा स्वयं की आत्मा को धोखा देने वाला समझना चाहिए । २५८ शब्द (वचन) से ही सभी अर्थ निश्चित होते हैं । नचन से ही सबका ज्ञान होता है । समस्त शास्त्रों का जन्म शब्द (वचन) से हुआ है इस भांति सबका मूलाधर वचन या शब्द ही है । अतः अपने वचन या शब्द की चोरी करने वाला (अर्थात् झूठ बोलने वाला) सबसे बड़ा चोर है । २५९ देव, ऋषि तथा पितृ ऋणों को विधिपूर्वक चुका कर (ब्रह्नचर्य और गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों को पूरा कर ) मनुष्य को गृह कार्य भार पुत्र को देकर तटस्थ भाव धारण कर रहना चाहिए । २६० मनुष्य को वन में एकान्तवास करते हुए अकेले ही आत्मा का चिन्तन करना चाहिए । ऐसे एकाकी भाव से आत्म-चिन्तन करने वाला ही मोक्ष को प्राप्त करता है । २६१ महर्षि मनु ने कहा, ''मैंने आप लोगों को उत्तम ब्राह्नण द्वारा स्नातक हो जाने के बाद गृहस्थाश्रम में पालन करने योग्य धर्म के बारे में बताया है । इस धर्म का भली प्रकार पालन करने से मनुष्य का शुभ होता है ।'' २६२ वेद-शास्त्र का ज्ञाता ब्राह्नण इस गृहस्थ धर्म का विधिपूर्वक पालन करने से पूरी तरह पाप रहित होकर ब्रह्नण लोक को प्राप्त करता है । पंचम अध्याय १ महर्षि भृगु के द्वारा स्नातक के लिए भली -भांति निरूपित आचरण योग्य धर्मों को सुनकर ऋषिगण अग्नि के समान प्रकाशमान महात्मा भृगु से बोले- २ भगवन ! हमें आपने जिस तरह ब्राह्नणों के कर्तव्यों के बारे में बताया, उसी तरह यह भी बताने की कृपा करें कि अपने धर्म का पालन करने वाले वेद-शास्त्रों के ज्ञान में निपुण ब्राह्नणों की अकाल मृत्यु किस प्रकार होती है । ३ मनु के वंशज धर्मात्मा महर्षि भृगु ने ऋषियों से कहा-मैं आप लोगों को बताता हूं कि मृत्यु कि दोष के कारण विद्वान तथा आचारनिष्ठ ब्राह्नणों को मारने की इच्छा करती है, सुनिए । ४ वेद पाठ का अभ्यास नहीं करना, सदाचार का पालन नहीं करना, आलस्य में पड़े रहना, समय पर जाग्रत नहीं होना, करने योग्य कर्मों को टालना, दूषित अन्न का भक्षण करना, जो खाने योग्य नहीं है, उसे खाना या अन्याय से कमाए धन से जीवन चलाना इन कारणों से मृत्यु असमय ही ब्राह्नणों को अपना शिकार बनाती है । ५ ललसुन, शलजम, प्याज, कुकरमुत्ता और गन्दे स्थानों में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के खाने से बुद्धि-भ्रष्ट होती है । अतः यह सब ब्राह्नणों को नहीं खाने चाहिए । ६ लाल रंग वाले पेड़ों का गोंद, वृक्षों में छेद करने से निकलने वाला रस, लसूड़ा आदि लेसवाले फल और ऐसी गाय के दूध से जिसने बच्चा हाल ही में जना हो, इन सभी का सेवन नहीं करना चाहिए । इनसे अकाल मृत्यु की सम्भावना बढ़ती है । ७ तिल-चावल की दूध में बनी खीर, दूध की रबड़ी मालपुआ आदि बेकार के पकवान हैं अर्थात् स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं । इनका सेवन नहीं करें । इसके अतिरिक्त मांस तथा हवन के पुरोडाश को भी बलि चढ़ाए बिना नहीं खाएं । ८ प्रसव करने के दिन से जिसको दस दिन व्यतीत नहीं हुए हों ऐसी गाय, ऊंटनी, एक खुर वाले पशु (घोड़ी, गधी आदि) भेड़, गरमाई हुई (गर्भवती होने की इच्छा वाली) तथा ऐसी गाय जिसका बच्चा मर गया हो, इनका दूध नहीं पीना चाहिए । ९ भैंस के अतिरिक्त सभी वनैले पशुओं का और अपनी स्त्री का दूध पीने के योग्य नहीं होता । सभी सड़े-गले या बहुत खट्टे पदार्थ खाने के योग्य नहीं होते । इन सभी का त्याग कर देना चाहिए । १० शुक्तों में दही तथा उससे बनने वाले पदार्थ (मट्ठा, छाछ, तक्र आदि) तथा जो शुभ नशा नहीं करने वाले ) फूल, जड़ तथा फल से निर्मित पदार्थ (अचार, चटनी, मुरब्बा आदि) भक्षण करने योग्य हैं । टिप्पणी- शुक्तों से आशय कांजीं किसी आदि जैसे पदार्थों से है जो अधिक अधिक समय रखे रहने के कारण खट्टे पड़ जाते हैं । दही भी एक ऐसा पदार्थ है । ११ कच्चा मांस भक्षण करने वाले सभी जानवरों-पक्षियों, गांव में रहने वाले (मुर्गों, कबूतर, मैना आदि) पक्षी, नाम से निर्देश नहीं किए गए एक खुर वाले पशु (जैसे गधा आदि) और टिटिहरी का मांस भक्षण नहीं करे । १२, १३, १४ सेवन योग्य नहीं होने से गौरैया, परेवा, हंस, चकवा, पालतू मुर्गा, सारस, डौम कौआ, जल कौआ, तोता, मैना, चोंच से फाड़कर मांस खाने वाले, पैरों में जाल-सा रखने वाले बाज जैसे जीव-जन्तु, चील, नाखूनों से फाड़कर खाने वाले, पानी में डुबकी लगाकर मछलियों को पकड़कर भक्षण करने वाले जलचर, वध स्थल पर पड़ा सूखा मांस, बगला, बत्तख, करेरुंआ, खञ्जन, मछली खाने वाले जीव, मल आदि खाने वाले शूकर (सूअर) एवं मत्स्य (मछली) नहीं खाने चाहिए । १५ जिस जीव का मांस जो वयक्ति खाता है वह उस जीव का भक्षक होता है । मछली द्वारा सभी जीवों का मांस खाया जाता है । अतः मछली खाने वाला सर्वभक्षक होता है । सर्वभक्षक बनने के पाप से बचने हेतु मछली नहीं खानी चाहिए । १६ पाठीन प्रकार की मछलियां हव्य देव यज्ञ में और रोहित किस्म की मछलियां कव्य-पितृ श्राद्ध में स्वीकार की जाती हैं इसलिए इन दोनों तरह की तथा राजीव और सिंहतुण्डा प्रकार वाली एवं मोटी त्वचा वाली मछलियों का भक्षण करना मना नहीं है । १७, १८ ऐसे जीव जिन्हें भक्षण योग्य कहा गया है लेकिन वे एकाकी ही चरते हैं या रेंगते हैं जैसे सांप आदि, अनजाने पशु-पक्षियों और सिंह, चीता, व्याघ्र जैसे पशु जिनके पांच नाखून होते हैं, भक्षण के योग्य नहीं हैं । इसके अतिरिक्त सेह, शल्यक, गोधा, खङ्ग, कछुवा, खरगोश आदि का भक्षण किया जा सकता है । १९ जानबूझकर कवक-भूकन्द विशेष (छत्राक), गांव के सुअर, गांव के मुर्गे, लहसुन, प्याज और शलजम को खाने वाले व्यक्ति को पतित मानना चाहिए । २० अनजाने में इस छः वस्तुओं (ऊपर के श्लोक में बताई) को खाने वाले व्यक्ति को सान्तपन या यति चान्द्रायण व्रतों का अनुष्ठान करके आगे बताये गये के अनुसार प्रायश्चित करना चाहिए । इनमें से किसी एक को भी चथ लेने भर से एक दिन का उपवास करना आवस्यक है। २१ इस शंका को दूर करने के लिए कि कभी अनजाने में कोई निषिद्ध पदार्थ (मना किया गया पदार्थ) नहीं खा लिया हो, वर्ष में एक बार सामान्य रूप से व्रत कर लेना उचित है । अगर जानते-बूझते हुए भी कोीई निषिद्ध पदार्थ खा ले तो फिर विशेष रूप से कुछ व्रत रखे जिससे उसका प्रायश्चित हो जाए । २२ ब्राह्नणों को यज्ञ करने और अपने सेवकों का पेट भरने के लिए केवल भक्षण योग्य बताए गए पश-पक्षियों का ही वध करना चाहिए । प्राचीनकाल से ही महर्षि अगस्त्य ने इस परम्परा का प्रारम्भ किया है । २३ प्राचीनकाल में भी मुनियों, ब्राह्नणों तथा क्षत्रियों के यज्ञों में भक्ष्य पशु-पक्षियों का हविष्य-हव्य (पुरोडाश) बना था । २४ अन्य भोज्य पदार्थ जो बासी हैं, उन्हें भी घी- तेल से संस्कारयुक्त (शुद्ध कर या घी आदि लगाकर गर्म करके ) कर तथा शेष रहे बासी यज्ञ-अन्न को बिना संस्कार किए ही खाना चाहिए । २५ यदि घी वाली मिठाई, जो जौ-गेहूं आदि को दूध में पकाकर बनाई गई हो, बहुत दिनों की रखी भी हो जाए तो भी ब्राह्नण, क्षत्रिय तथा वैश्य को उसे खा लेना चाहिए । २६ भृगुजी ने कहा-महर्षियों ! मैंने द्विजाति (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए समग्र रूप से खाने योग्य तथा न खाने योग्य पदार्थों का वर्णन तो कर दिया । अब मैं मांस खाने और त्याग करने की विधि सुनाता हूं, ध्यान से सुनें । २७ यदि ब्राह्नणों को मांस भक्षण करवाने की कामना हो तो यज्ञ में प्रोक्षण विधि से मांस को शुद्ध करके उन्हें परोसे तथा स्वयं भक्षण करे । अगर अपने प्राणों को बचाने के लिए मांसाहार करना पड़े तो विधि तथा नियम का पालन करके ही उसे खाए । २८ सभी प्रकार के अन्न प्रजापति ब्रह्ना जी ने प्राणों की रक्षा हेतु ही बनाए हैं । इसलिए इस जगत के समस्त स्थावर तथा जंगम पदार्थों को जीवों का भोजन समझना चाहिए । २९ चर जीवों (अर्थात् चलने वाले जानवर जैसे-गाय, भैंस आदि) के लिए अचर (नहीं चलने वाले जैसे-पेड़, घास-फूस आदि), बड़े दांत वाले जीवों जैसे-सिंह, व्याघ्र आदि के लिए छोटे-छोटे दांत वाले (जैसे-हिरन आदि), हाथ वाले जीवों के लिए बिना हाथ वाले (जैस-मछली आदि) तथा साहसी जीवों के लिए कायर जीवों को भजन के रूप में बनाया गया है । ३० भक्षण करने योग्य प्राणियों को प्रतिदिन खाने वाला किसी दोष से ग्रस्त नहीं होता क्योंकि इस लोक में खाने वालों और खाए जाने वालों कोी रचना ब्रह्ना जी ने ही की है । ३१ यज्ञ के लिए पशुओं का वध करना तथा उनका मांस भक्षण करना देवोचित कार्य है । यज्ञ के अतिरिक्त केवल मांस भक्षण के हेतु पशु का वध करना राक्षसी कर्म है । ३२ क्रय करके लाए, पशु को स्वयं मारकर लाएया किसी दूसरे द्वारा पशु का वध करके लाए मांस से देवताओं एवं पितरों का पूजन करके उसे खाने वाला व्यक्ति दोष से ग्रस्त नहीं होता . ३३ जो ब्राह्नण विधि-विधान को जानता है उसे संकटकाल को छोड़ कर सामान्य परिस्थिति में विधि-विधान का पालन किए बिना मांसाहार नहीं करना चाहिए । ऐसा किए बिना जो मांस भक्षण करता है, उसे अगले जन्म में उसी जीव का शिकार बनने को विवश होना पड़ता है । ३४ पशु वध करके आजीविका चलाने वाले को उतना पाप नहीं लगती जैसा विधि-विधान का पालन किए बिना मांस भक्षण करने वाले को इस लोक और परलोक में होता है । ३५ श्राद्ध तथा मधुपर्क में जो व्यक्ति पितरों को विधि अनुसार मांस अर्पण करके स्वयं मांस भक्षण नहीं करता वह मृत्यु के बाद इक्कीस बार पशु योनि में जन्म लेता पितरों को मांस अर्पण करने की आवश्यकता नहीं । ३६ मंत्रों द्वारा पशुओं के मांस को संस्कारित (शुद्ध) किए बिना ब्राह्नण को मांसाहार नहीं करना चाहिए । केवल वेद की सदा से चली आ रही विधि अनुसार पशुओं के मांस को पवित्र करके ही उसे खाना चाहिए । ३७ यज्ञ में देवताओं को अर्पित करने के उद्देश्य के अतिरिक्त केवल स्वार्थ के लिए पशु का वध नहीं करना चाहिए । मांस खाने की इच्छा की पूर्ति घी तथा आटे से बनने वाले किसी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ से कर लेनी चाहिए । ३८ देवताओं के पूजन के उद्देश्य के अतिरिक्त बेकार में पशु का वध करने वाले के शरीर में जितने रोम होते हैं उतने ही जन्मों तक वह उस पशु द्वारा मारा जाता है । ३९ यज्ञ की सिद्धि के उद्देश्य से ही ब्रह्ना जी ने पशुओं की रचना की है । अतः जो पशु वध यज्ञ की सिद्धि हेतु किया जाता है वह वध नहीं है । ४० जो औषधियां, पशु, पेड़, कूर्म आदि जीव तथा पक्षी यज्ञ की सिद्धि-वृद्धि के लिए उपयोग में लाए जाते या मारे जाते हैं वे अपने वध के बाद उत्तम गति का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं । ४१ मनु महाराज का कहना है कि मधुपर्क, यज्ञ, श्राद्ध एवं देवपूजा, इन चारों में पशुओं का वध करने का विधान है, अन्य अवसर पर नहीं । ४२ वेद के मर्म को समझने वाला ब्राह्नण मधुपर्क, श्राद्ध आदि में पशु वध करके अपने तथा वध किए गए पशु के लिए उत्तम गति पाने का पथ तैयार करता है । ४३ जितेन्द्रिय ब्राह्नण को ब्रह्नचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम या वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए आपत्ति के समय में भी ऐसी हिंसा नहीं करना चाहिए जो शास्त्रों के विरुद्ध हो । ४४ वेद ही इस चर-अचर जगत में धर्म-अधर्म का निर्णायक है । अतः वेदों में जिस हिंसा का निरूपण किया गया है उसे अहिंसा ही मानना-समझना चाहिए । ४५ जो व्यक्ति ऐसे जीवों को अपने सुख के लिए मारता है जो अहिंसक हैं और दूसरों को नहीं सताते हैं वह जीवन में तथा मरने के बाद भी कहीं पर सुखपूर्वक उन्नति नहीं करता । ४६ वह व्यक्ति जो दूसरे प्राणियों को बांधकर रकता, उनका वध नहीं करता तथा उन्हें कोई पीड़ा नहीं देता और सबके हित की कामना करता है, वह सदैव सुखी रहता है । ४७ ऐसा व्यक्ति जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह जिसका जिन्तन करता है, जो कर्म करता है तथा जिसमें ध्यान एकाग्र करता है, वह उन सबों को बिना विशेष प्रयत्न किए प्राप्त कर लेता है। ४८ मांस की प्राप्ति तभी संभव है जब दूसरे जीवों का वध किया जाए, लेकिन जीव हींसा करने से स्वर्ग नहीं मिलता । इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले द्विज को मांस भक्षण त्याग देना चाहिए । ४९ मांस की उत्पत्ति और जीवों के बन्धन तथा वध को समझकर, सभी प्रकार के मांस भक्षण को छोड़ देना चाहिए । ५० शास्त्रोंक्त किए जाने वाले जीव वध के अतिरिक्त जो व्यक्ति जीवन में पिशाचों की तरह मांसांहार नहीं करता वह रोगों से पीड़ित नहीं होता तथा संसार में यश तथा प्रियता को उपलब्ध करता है । ५१ वे सभी जीव वध के लिए समान रूप से दोषी हैं जो जीववध की अनुमति देते हैं, जीव के अंगों को काटकर अलग-अलग करते हैं, उसका वध करते हैं, उसको खरीदते या बेचते हैं, उसको पकाते परोसते हैं । ५२ जो देवता और पितरों को बिना तृप्त किए दूसरे जीवों के मांस को खाकर अपना मांस बढ़ाता है उससे बड़ा कोई पापी व्यक्ति नहीं है । ५३ सौ वर्षों तक प्रत्येक वर्ष अश्वमेध यज्ञ करने वाले व्यक्ति का तथा जीवन भर मांसाहार नहीं करने वाले का पुण्यफल एक समान होता है । ५४ मुनियों के बीच रहते हुए उनकी तरह से सात्विक कन्द-मूल तथा फल का सेवन करने से वह पुण्य फल प्राप्त नहीं होता जो फल केवल मांसाहार के त्याग से मिलता है । ५५ विद्वानों के अनुसार मांस शब्द 'मां' तथा 'स' शब्दों के योग से बना है, इसका अर्थ होता है कि जिसे मैं इस संसार में खाता हूं वही मुझे परलोक में खाए । ५६ प्राणियों की मांसाहार, मदिरापान तथा मैथुन में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है अतः इनका सेवन करने में कोई दोष नहीं है परन्तु इनका त्याग करना महान फल प्रदान करने वाला है । ५७ भृगु महर्षि बोले-ब्राह्नणो ! अब मैं आप लोगों को चारों वर्णों की प्रेतशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का क्रमानुसार विस्तार से परिचय देता हूं । ध्यानपूर्वक सुनिए । ५८ जातक के दांत निकलते समय अथवा मुण्डन (चूड़ा कर्म) संस्कार हो जाने पर तथा जातक की मृत्यु हो जाने पर सभी बन्धु-बान्धवों को अपवित्रता (सूतक लगती है । ५९ एक ही रक्त सम्बंध से जुड़े व्यक्तियों (भाई-भतीजों आदि) में मृत्यु की अशुद्धि दस दिनों तक रहती है । इस सम्बंध की दृढ़ता के अनुसार किन्हीं भाई बन्धुओं को मृतक की अस्थियां संचय करने के दिन (चार दिवस ) तक का, किन्हीं को तीन दिन तक का तथा किन्हीं को मात्र एक दिन तक का अशौच (अपवित्रता या अशुद्धि) रहात है । ६० सामान्य रूप से सात पीढ़ियों के बाद सपिण्डता समाप्त हो जाती है, लेकिन अगर सम्बंधों में दृढ़ता या मधुरता कम हो जाए तो दूसरी-तीसरी पीढ़ी में ही सपिण्डता को समाप्त समझना चाहिए । ६१ जिस तरह कुटुम्ब में किसी की मृत्यु हो जाने पर सपिण्डों (जाति-बन्धुओं) को अशुद्धि लग जाती है, उसी तरह शुद्धि को महत्वपूर्ण मानने वाले सज्जन कुटुम्ब में नवजात शिशु के जन्म पर भी अशुद्धि मानते हैं । ६२ मरने वाले का अशौच सभी रक्त सम्बंधियों को होता है परन्तु नवजात शिशु के उत्पन्न होने पर अशुद्धि केवल माता-पिता की होती है । उसमें भी केवल माता को सूतक (१० दिन तक की अशुद्धि) होता है, पिता स्नान कर शुद्ध हो जाता है । टिप्पणी- यहां शुद्धि शब्द से स्पर्श करने योग्य अर्थ लेना अपेक्षित है । ६३ पुरुष अपने वीर्य को निकालने (हस्तमैथुन, स्वप्नदोष में) पर स्नान करने भर से शुद्ध हो जाता है परन्तु स्त्रीं में गर्भाधान करने से तीन दिनों तक अपवित्र रहता है । ६४ जिन बन्धु-बान्धवों (सपिण्डी) को जल-तर्पण करने का अधिकार है वे शव को छूने से दस दिवसों के बाद, दूसरे लोग सम्बंधों की निकटता के अनुपात से तीन दिन या एक ही दिन बाद शुद्ध हो जाते हैं । ६५ गुरु का स्वर्गवास होने पर उनका अंतिम संस्कार जिस शिष्य ने किया होता है तथा जिन शिष्यों ने शव को कन्धा दिया होता है, वे सभी दस दिनों के बाद शुद्ध होते हैं । ६६ स्त्री का गर्भस्त्राव होने पर, उसे जितने माह का गर्भ रहा हो उतनी संख्या के दिनों के बाद शुद्ध होती है । साध्वी स्त्री रजोनिवृत्ति के दिन ही स्नान करने के बाद शुद्धता प्राप्त कर लेती है । ६७ जिन बालकों का मुण्डन संस्कार नहीं हुआ है, उनकी मृत्यु पर एक दिन में और जिनका मुण्डन हो चुका है पर यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ उनके मरने पर तीन दिनों के बाद शुद्धि होती है । ६८ चारों वर्णों (ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ) के शिशुओं के मुण्डन संस्कार से पहले मरने पर तीन दिनों का और कन्याओं के मरने पर एक दिन की अशुद्धि लगती है । ६९ दांत निकलने से पहले जिस बच्चे की मृत्यु हो जाती है उसकी अशुद्धि तत्काल मिट जाती है, मुण्डन संस्कार हो जाने के बाद जिन बच्चों की मृत्यु होती है, उनकी अशुद्धि (अशौच) एक दिन तक रहती है । जो बच्चे यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद मर जाते हैं उनकी अशुद्धि तीन दिनों तक रहती है । ७० जो स्त्री पहले किसी दूसरे की पत्नी थी परन्तु अब अपनी हो गई है, ऐसी स्त्री तथा उसके बच्चों (दूसरे के वीर्य से जन्मे ) की मृत्यु पर और नाना के मरने पर तीन दिन का और अपिण्ड गोत्रियों, दूर के भाई-भतीजों के मरने पर एक दिन का अशौच रहता है । ७१ दो साल से कम बच्चे की मृत्यु पर भाई लोग ग्राम के बाहर किसी अच्छी जगह पर जमीन खोद कर उसके शव को दबा दें । उसका दाह कर्म (जलाना) नहीं करना है और न उसकी हड्डियों को चुनना है । ७२ दो वर्ष से कम उम्र के बालक की मृत्यु हो जाने के बाद उसका दाह संस्कार नहीं करना है न उसकी अस्थियों को चुनना है । उसे जनहीन वन में ले जाकर लकड़ी की तरह भूमि में दबा देना चाहिए और तीन दिनों तक आशौच रखना चाहिए । ७३ कुछ चिन्तकों का पक्ष यह है कि तीन साल तक के लड़के के मरने पर उसका दाहकर्म तथा अस्थिप्रवाह नहीं करे । दूसरे चिन्दकों का मत है कि जिस बच्चे के दांत निकल आए हों या उसका नामकरण हो चुका हो, उस बालक के मरने पर दाहसंस्कार करना चाहिए । ७४ साथ में पढ़ने वाले की मृत्यु पर एक दिन का औशौच लगता है, सपिण्डियों के यहां बच्चों के जन्म होने पर तीन दिवसों का अशौच लगता है । ७५ जिन स्त्रियों का विवाह संस्कार नहीं हुआ, उनकी मृत्यु पर सगे-सम्बंधी ही नहीं वरन् नात-रिश्तेदार भी तीन दिनों के बाद शुद्ध हो जाते हैं । इस भांति उनका अशौच तीन दिवसों तक रहता है । ७६ अशौच के तीनों दिवसों की अवधि में क्षार तथा नमक रहित भोजन करना चाहिए । नदी या तालाब आदि में नहाना चाहिए । मांसाहार का त्याग करना तथा पति-पत्नी को भिन्न-भिन्न शय्या पर सोना चाहिए । ७७ भृगु जी आगे बोले-विप्र ! पास रहने वाले बन्धुओं के जन्म होने तथा मरने के अवसरों पर बन्धु-बान्धवों को लगने वाले अशौच के बारे में मैंने आपको बताया । मैं अब उन बन्धु-बान्धवों के शौचाशौच के बारे में बताता हूं जो इतने दूर रहते हैं कि आसानी से आना-जाना नहीं हो सकता । ७८ जो व्यक्ति विदेश में मरा हो उसके बन्धु-बान्धवों को मृत्यु के दिन से दस दिन तक का अशौच रहता है । मरण तिथि तथा उसका ज्ञान होने की तिथि के बीच के दिन कम कर दिए जाते हैं (उदाहरण के लिए किसी की मृत्यु २ तारीख को हुई और उसका पता ५ तारीख को लगा उसे १२ तारीख तक का अशौच रहेगा ) । ७९ मरने के दस दिनों के बाद सूचना मिलने पर तीन दिन तक का अशौच रखना होता है । एक वर्ष बाद सूचना मिलने पर केवल स्नान करने से अशौच दूर हो जाता है । ८० जाति बन्धु की मृत्यु या पुत्र जन्म के दस दिनों के व्यतीत हो जाने के बाद पता लगने पर वस्त्र पहनकर ही स्नान करने से शुद्धि हो जाती है । ८१ अपने गोत्र के बालक की तथा दूरदेश या विदेश में रहने वाले अगोत्री बन्धु (मामा, मौसी, फूफा के परिवार से सम्बंधित) के मरण की सूचना सुनकर वस्त्रों सहित स्नान कर लेने से ही शुद्धि हो जाती है । ८२ यदि किसी अन्य का जन्म या मरण दस दिनों की अशौच अवधि में हो जाए तो सम्बंधित व्यक्ति आगामी दस दिनों तक अपवित्र रहता है । ८३ आचार्य के स्वर्गवास पर शिष्य के लिए तीन दिनों तक अशौच रहता है । आचार्य की पत्नी या पुत्र के देहान्त होने पर शिष्य के लिए के लिए केवल एक दिन का अशौच रहता है । ८४ श्रेत्रिय अथवा वेद पाठ करने वाले ब्राह्नण का स्वर्गवास होने पर यजमान के लिए तीन दिनों का अशौच रहता है । मामा, शिष्य, पुरोहित तथा दूर के सम्बंधी के देहान्त पर भाञ्जा, गुरु, यजमान एवं सम्बंधी एक दिन के लिए सूर्यास्त तक अपवित्र रहते हैं । ८५ ऐसे राजा के मरने पर जिसके राज्य में सुरक्षित कहकर व्यक्ति ने सांसारिक उन्नति और पारलौकिक श्रेय प्राप्त किया हो तथा विद्याहीन ब्राह्नण के देहान्त पर दिन भक का एवं वेद विद्या के विद्वान व गुरु की मृत्यु पर आगे बताए गए श्लोक में वर्णित दिनों का अशौच रहता है । ८६ ब्राह्नण दस दिनों में, क्षत्रिय बाहर दिनों में, वैश्य पन्द्रह दिनों में तथा शूद्र तीस दिनों में पवित्र होते हैं । ८७ किसी का देहान्त हो जाने के कारण अशौच के दिनों में (देर से जानकारी मिलने पर) किसी तरह की कोई वृद्धि नहीं करनी चाहिए तथा अग्निहोत्र आदि क्रिया का विधान भी नहीं करना चाहिए । कन्या पक्ष के लोग की दाह क्रिया में शामिल होने पर भी अपवित्र नहीं होते । ८८ चाण्डाल, रजस्वला नारी, पापी, प्रसूता स्त्री, शव और शव को छूने वाले व्यक्ति को छूने से जो अशुद्धि होती है वह स्नान करने से दूर हो जाती है । ८९ जो व्यक्ति आचमन करके शुद्ध हो गया हो, उसे चाण्डाल आदि दिख जाएं तो उसे दोबारा शुद्धि के लिए उत्साह सहित सूर्य देवता तथा पवमान देवता की स्तुति वाले मन्त्रों का जप करना चाहिए । ९० ताजी अस्थि (हड्डी) का स्पर्श करने से ब्राह्नण स्नान करके शुद्ध हो जाता है सूखी हड्डी का स्पर्श करने पर आचमन द्वारा, भूमि के स्पर्श द्वारा या सूर्य का दर्शन करने से शुद्ध हो जाता है । ९१ ब्राह्नण को ब्रह्नचर्य व्रत पूरा हो जाने तक पितरों का प्रेतकर्म एवं तर्पण आदि नहीं करने चाहिए । ब्राह्नचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में आने पर वह पितरों के और्ध्वदैहिक कर्म करके तीन दिनों में पवित्र हो जाता है । ९२, ९३ वर्ण संकर के रूप में उत्पन्न, संन्यासियों, आत्महत्या करने वालों, अपनी इच्छा से व्यभिचार करने वाली नारियों, गर्भपात कराने वाली स्त्रियों, पति हत्यारिणी स्त्रियों और मदिरापान करने वाली स्त्रियों का श्राद्ध एवं जल-तर्पण करना व्यर्थ होता है । अतः ऐसी स्त्री और पुरुषों का श्राद्ध और जल-तर्पण नहीं करें । ९४ अपने आचार्य, उपाध्याय अर्थात् शिक्षक, माता-पिता और गुरु के अंतिम संस्कार करने से ब्रह्रचारी का व्रत टूटता नहीं है । ९५ शूद्र के शव के नगर के दक्षिणी द्वार से, वैश्य के शव को नगर के पशिचमी द्वार से, क्षत्रिय के शव को नगर के उत्तरी द्वार से तथा ब्राह्नण के शव को नगर के पूर्वी द्वार से निकालना चाहिए । ९६ राजा गण, ब्रह्नचारी लोग, चान्द्रायणादि व्रत करने वाले तथा यज्ञ करने वाले, ये चारों प्रकार के लोग पृथ्वी पर इन्द्र के प्रतिनिधि होने के कारण सब प्रकार से निष्पाप माने जाते हैं, अतः इनके सम्बन्धियों आदि की मृत्यु पर तथा जातक विषयक अशौच नहीं लगता । ९७ परमात्मा का प्रतिनिधि रूप होने से राजा को उसके सम्बन्धियों एवं आचार्य आदि के जन्म-मरण से लगने वाले अशौच से उसी समय शुद्धि मिल जाती है । इसका कारण यह है कि राजा को प्रजा रक्षा हेतु सदा तत्पर रहना पड़ता है । ९८ राजा से रहित युद्ध में मारे गए, बिजली (आकाशीय विद्युत) से मरे हुए, राजा द्वारा मारे गए, गौ तथा ब्राह्नण की रक्षा के लिए मारे गए तथा राजा जिसकी तत्काल शुद्धि चाहता हो, उसकी उसी समय शुद्धि हो जाती है । ९९ चन्द्र, अग्नि, सूर्य, वायु, इन्द्र, कुबेर, वरुण तथा यम इन आठ लोकपालों का प्रतिनिधि राजा ही है । उसमें इन आठ देवताओं के दिव्य गुण रहते हैं । १०० मनुष्यों के शौच-आशौच लोकपालों द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं और राजा इन इन्द्र आदि (पूर्वोक्त श्लोक अनुसार ) आठ लोकपालों का प्रतिनिधित्व करता है । अतः वह शौच-अशौच से प्रभावित नहीं होता । १०१ क्षत्रिय धर्मानुसार जिस तरह सशस्त्र युद्ध में मृत्यु अथवा विजय प्राप्त करने के रूप में क्षत्रिय का यज्ञ तत्काल सम्पन्न हुआ माना जाता है, उसी तरह उनकी पवित्रता-अपवित्रता भी उसी समय समाप्त मानी जाती है । १०२ प्रेतक्रिया करने वाले ब्राह्नण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र क्रमशः जल, वाहन और शस्त्र, डण्डे, चाबुक तथा लगाम एवं लाठी का स्पर्श करने से पवित्र हो जाते हैं । आशय यह है कि शुद्धि वाले दिन चारों वर्णों के लोगों को उपर्युक्त निर्धारित वस्तुओं का स्पर्श करना चाहिए । १०३ भृगुजी ने कहा-ऋषियों ! मैंने आप लोगों को अब तक सपिंडियों (घनिष्ठ रक्त सम्बन्धियों ) के जन्म-मरण से होने वाली अशुद्धि और शुद्धि के बारे में बताया । मैं अब आप लोगों को दूर के सम्बन्धियों के बारे में प्रेत शुद्धि के विधान का वर्णन करता हूं । १०४ जो व्यक्ति किसी मृत ब्राह्नण का आदर और स्नेहवश अपने सम्बन्धी की तरह और माता के पक्ष के सम्बन्धियों का श्रद्धा के कारण दाहकर्म करता है तो ऐसा करने वाला व्यक्ति तीन दिनों में शुद्ध हो जाता है । १०५ दूर के सम्बन्धियों का दाह संस्कार करने वाला व्यक्ति अगर मृतक के सम्बन्धियों के यहां निवास करता तथा खाता-पीता है तो वह दस दन तक अशुद्ध रहता है लेकिन अगर वह उनके साथ खाता-पीता नहीं और रहता नहीं तो एक दिन में ही शुद्ध हो जाता है । १०६ अपनी या दूसरी जाति के शव के पीछे स्वेच्छा से जाने पर वस्त्रों सहित नहाने, आग को जरा सा छूने और घी को खाने से उसी क्षण शुद्धि हो जाती है । १०७ ब्राह्नण की मृत्यु हो जाने पर अगर उसके जाति के लोग न हों तो उसके शव को शूद्र द्वारा नहीं उठवाना चाहिए । शूद्र के छूने से दूषित हुई आहुति ब्राह्नण को स्वर्ग जाने में बाधा डालती है । १०८ ज्ञान, तप, आग, आहार, मिट्टी, मन, धरती, यज्ञ, वायु, कर्म, सूर्य तथा समय (काल) मनुष्य को शुद्ध करने वाले हैं । १०९ समस्त प्रकार की पवित्रताओं में सर्वाधिक महत्व अर्थ (धन) की पवित्रता का है जो अपनी आजीविका ईमानदारी से कमाता है वह वास्तव में सदा ही पवित्र है । इसके विपरीत अगर धनोपार्जन में पवित्रता नहीं तो मिट्टी, जल आदि से अपने को शुद्ध करना व्यर्थ है । ११० विद्वानों की शुद्धि क्षमा से होती है (अर्थात् जब वे दूसरों की गलतियों को माफ कर देते हैं तो स्वयं उनकी शुद्धि हो जाती है ) । यज्ञ आदि न करने वालों की शुद्धि दान से, छिपकर पाप करने वालों की शुद्धि जप करने से, वेद-विद्या के पंडितों की शुद्धि तप से होती है । १११ गंदी और अशुद्ध चीजों तथा जल से शुद्ध होती हैं, नदी बहते रहने से शुद्ध होती है और दूषित नारी रजोधर्म से शुद्ध हो । ब्राह्नण संन्यास से शुद्ध होता है । टिप्पणी-यदि स्त्री ने परपुरुष से संभोग किया है और वह दूषित हो गई है तो रजस्वला होने से यह स्पष्ट है कि उसने परपुरुष के वीर्य को धारण नहीं किया है । यही उसकी शुद्धि है । ११२ मानव काया (तन) पानी से, मन सच बोलने से, जीव आत्मा (सूक्ष्म लिंग शरीर) विद्या तथा तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है । ११३ महर्षि भृगु ने कहा-तपस्वी विप्रो ! आप लोगों के सामने मैंने शरीर की शुद्धि से सम्बन्ध रखने वाले सभी निर्णयों को बताया । आप अब तरह-तरह के द्रव्यों की शुद्धि से सम्बन्ध रखने वाले निर्णयों को सुनें । ११४ राख या भस्म, जल तथा मिट्टी द्वारा सोने, हीरे, मणि, रत्न और अन्य सभी चमक वाले पत्थरों की शुद्धि होती है। ११५ जूठन नहीं लगे सोने के बरतन, जल में उत्पन्न होने वाले शंख, मोती, मूंगा आदि, पत्थर से बने पात्र एवं बिना नक्काशी वाले रजत-पात्र केवल पानी द्वारा धोने से अपनी अशुद्धि से मुक्त हो जाते हैं । ११६ अग्नि और जल के संयोग से सोने और चांदी की उत्पत्ति हुई है । अतः इनकी संपूर्ण शूद्धि भी अग्नि तथा जल से होती है । ११७ क्षार, खटाई के पानी या सादे जल से तांबा, लोहा, कांसा, पीतल, लाख और सीसे के परतनों को शुद्ध करना चाहिए । जल से तांबा आदि धातुओं की भी शुद्धि हो जाती है । ११८ जमे हुए पदार्थों को पिघलाकर छान लेने से और लकड़ी के बरतनों या वस्तुओं को छीलने (अथवा रन्दा मारने ) से उनकी अशुद्धता दूर हो जाती है । ११९ जो यज्ञ पात्र यज्ञ कर्म में उपयोग किए जाते हैं उनको धोने तथा हाथ से मलने से एवं चमचों और बर्तनों को पकड़ने वाले उपकरणों (जैसे, चिमटा, संड़ासी आदि) को पानी से धोने से उनकी अशुद्धि दूरे हो जाती है । १२० चरु, स्त्रुव, स्त्रुक, स्फ्य, छलनी, छोटी गाड़ी, मूसल तथा ओखली को गर्म जल से धोने से उनकी शुद्धि हो जाती है । १२१ जल के छीटें देने से अधिक परिमाण के धान्यों की और अल्प परिमाण के धान्यों तथा वस्त्रों की शुद्धि उनको जल से धोने से हो जाती है । १२२ वस्त्रों की तरह चमड़ों और चटाइयों की शुद्धि होती है । धान्यों की तरह शाकों, कन्द-मूलों और फलों की शुद्धि होती है । १२३ रेह तथा सुनहरी मिट्टी से रेशमी और ऊनी वस्त्रों की शुद्धि होती है । नेपाली कम्बलों की शुद्धि रीठों से, सन से बने कपड़ों की शुद्धि बेल से तथा पतले कपड़ों की शुद्धि सफेद सरसों होती है । १२४ शंख श्रृंग, हड्डी तथा दांत से निर्मित पात्रों की शुद्धि के लिए शुद्धि-शास्त्र के ज्ञाता को छालटी के समान गोमूत्र या जल का उपयोग करना चाहिए । १२५ पानी के छींटे मारने से घास-फूस और लकड़ी आदि, पानी छिड़कने तथा लीपने से घर एवं मिट्टी का पात्र पुनः अग्नि में रखने से शुद्धता को प्राप्त करता है । १२६ मिट्टी से बना जो बर्तन मदिरा, मूत्र, मल, थूक, लार तथा रक्त से दूषित हो जाता है वह पुनः अग्नि में डालने से भी शुद्धि नहीं होता । १२७ भूमि की शुद्धि पांच उपायों- १. मार्जन अर्थात् साफ करके पानी छिड़कना, २. लीपना, ३. सींचना-पूरी तरह जल भर देना ४. कुरेदना (खुर्पी या फावड़े से भूमि के ऊपर की परत को कुरेदना ) और ५. उस स्थान पर गायों को बांधना-बसाना द्वारा होती है । १२८ चिड़ियों द्वारा चोंच या खाएं, गऊ द्वारा सूंघे गए, पैरों से कुचले गए, छींकने से नाक द्वारा निकले गंदे पानी से दूषित हूए, कीड़ों और बालों से गन्दे हुए पदार्थ में मिट्टी डालने से उसकी अशुद्धता दूर हो जाती है । १२९ जबकि विष्ठा आदि अमेध्य मलों से लिपे द्रव्यों में से मल आदि की बदबू तथा लेप दूर नहीं हो जाते तब तक उन्हें मिट्टी एवं जल से स्वच्छ करते रहना चाहिए । १३० ब्राह्नणों के लिए तीन पदार्थों को देवताओं ने पवित्र माना है-१. अदृष्ट जिसे बनते, पकते हुए नहीं देखा गया अर्थात् जिसकी अशुद्धि आंखों सें नहीं देखी गई । २. अशुद्धि का सन्देह होने पर उस वस्तु पर पानी छिड़क दिया गया हो । ३. जिसे ब्राह्नणों द्वारा पवित्र कह दिया गया हो । १३१ पृथ्वी पर स्वभावतः स्थित ऐसा जल शुद्ध होता है जिससे गौ की प्यास दूर हो जाए, जो किसी गंदी या अपवित्र वस्तु से दूषित न हो तथा जो वर्ण, रस और गन्ध में ठीक हो । १३२ शास्त्र की यह मर्यादा है कि कारीगर का हाथ, बाजार में विक्रय हेतु रखी गई वस्तु तथा ब्रह्नचारी को दी गई भिक्षा सदा शुद्ध हैं । १३३ स्त्रियों का मुख, फल गिराने हेतु प्रयोग में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा, शिकार पकड़ने हेतु उपयोग किया जाने वाला कुत्ता पवित्र हैं, ऐसी शास्त्र की मर्यादा है । १३४ शिकारियों के लिए महर्षि मनु ने यह विधान बनाया है कि कुत्तों द्वारा मारे गए पशु का, बाघ, सिंह आदि मांस भक्षी द्वारा मारे गए पालतू पशुओं का, चाण्डालों तथा डाकुओं द्वारा मारे गए पशुओं का मांस शुद्ध होता है । १३५ हाथ, कान, नाक, आंख तथा जीभ ये इंद्रियां जो नाभि के ऊपर स्थित हैं, पवित्र हैं । नाभि से नीचे की इन्द्रियां गुदा, लिंग तथा पैर आदि एवं शरीर से निकलने वाले मल-मूत्र, विष्ठा, पसीना, खोट आदि अपवित्र हैं । १३६ जिनके छूने से अपवित्रता नहीं लगती है, वे हैं-मक्खी, पानी के छींटे, छाया, गऊ, अश्व, सूर्य की किरणें, छूल, धरती, वायु, अग्नि । इनका स्पर्श पवित्र माना गया है । १३७ मल-मूत्र त्यागने पर और शरीर की नासिका, नेत्र, कान, त्वचा तथा जीभ आदि से निकलने वाले बारह तरह के मलों की शुद्धि हेतु आवश्यकता के अनुसार जल का उपयोग करना चाहिए । १३८ मनुष्य के बारह प्रकार के मल हैं-१. चर्बी २. वीर्य ३. खून ४. मज्जा ५. मूत्र ६. विष्ठा (मल) ७. आंखों का कीचड़, ८. नाक की गंदगी ९. कान का मैल १०. आंसू ११. कफ तथा १२. त्वचा से निकलने वाला पसीना । १३९ अपनी शुद्धता की कामना रखने वाले व्यक्ति को मूत्र करने पर लिंग पर एक बार, मल त्याग करने पर गुदा पर तीन बार, (गुदा पर मिट्टी लगाने वाले) बाएं हाथ पर दस बार एवं हाथों की हथेलियों और उनके पृष्ठ भाग पर सात बार मिट्टी लगाकर उन्हें पानी से धोना चाहिए । १४० ऊपर बतायी गई विधि केवल गृहस्थाश्रम वालों के लिए है । ब्रह्नचारियों, वानप्रस्थों तथा संन्यासियों को इसकी तुलना में क्रमशः दुगुना, तिगुना और चौगुना करना चाहिए । १४१ मल-मूत्र का त्याग करने के बाद व्यक्ति को हमेशा हाथ धोने के बद आचमन करना चाहिए और जल का स्पर्श आंखों पर करना चाहिए । वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी सदैव आचमन करना चाहिए । १४२ व्यक्ति को शरीर की शुद्धि के लिए भोजन से पहले तीन बार आचमन करना चाहिए तथा दो-बार मुंह धोना चाहिए । शूद्र तथा स्त्री को एक बार ही मुंह धोना और आचमन करना चाहिए । १४३ जो शूद्र न्याय का पालन करता हो उसका माह में एक बार मुण्डन कराना चाहिए । उनकी शौच विधि वैश्यों के समान या उनसे कुछ कम है । ब्राह्नणों के खाने से बचा भोजन ग्रहण करने से भी शूद्रों हो जाती है । १४४ शरीर पर मुख से निकले थूक के छींटे, मूंछों पर लगे तथा दांतों के अंदर घुसे अन्न के कणों के के बाहर निकल कर गिरने से शरीर अशुद्ध नहीं होता । १४५ यदि आचमन करते हुए किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के छींटे पड़ जाएं तो जिस मनुष्य पर वे छींटे पड़े हैं वह अपवित्र नहीं होता । ऐसे जल के छींटों को पृथ्वी के अन्दर रहने वाले जल के समान पवित्र मानना चाहिए । १४६ यदि जूठे मुंह वाले व्यक्ति ने हाथ से किसी द्रव्य का स्पर्श कर लिया हो तो भी उस द्रव्य को हाथ में लिए रहने पर आचमन करने से व्यक्ति की अशुद्धता दूर हो जाती है । १४७ वमन तथा रेचन (दस्त) करने वाला व्यक्ति नहा कर घी खाने से शुद्धता प्राप्त कर लेता है । भोजन ग्रहण कर वमन (कै) करने वाला आचमन करने से तथा सम्भोग करने वाला स्नान करने से शुद्धता प्राप्त कर लेता है । १४८ सोने के बाद, छींकने के बाद, खाने, थूकने और झूठ बोलने के बाद अपनी शुद्धि जल पीकर करनी चाहिए । इसके पश्चात् भी अध्ययन करने से पहले एक बार फिर आचमन करना चाहिए । १४९ भृगुजी ने कहा-आप लोगों को मैंने सभी वर्णों के लोगों की, सभी प्रकार की शौच विधि अर्थात् शुद्धता पाने की विधि बता दी है । अब मैं आप लोगों को स्त्रियों के धर्म के सम्बन्ध में बताता हूं । सावधान होकर सुनिए । १५० स्त्री चाहे बालिका हो, युवती हो या वृद्धावस्था में हो, उसे अपने घर में कभी स्वयं कोई कार्य अपनी स्वतंत्र इच्छा से नहीं करना चाहिए । १५१ स्त्री को बचपन में अपने पिताके अधीन, युवा होने पर हाथ ग्रहण करने वाले अपने पति के अधीन तथा पति की मृत्यु हो जाने के पश्चात् पुत्र के अधीन रहना चाहिए । उसे स्वतंत्र कभी नहीं रहना चाहिए । १५२ स्त्री को पिता, पति तथा पुत्र से स्वतंत्र होकर कभी नहीं रहना चाहिए । इनसे अलग होकर रहने वाली स्वतंत्र स्त्री अपने दोनों कुलों (पिता एवं पति के कुल) को कलंकित करती हैं । १५३ अपने परिवार में स्त्री को हर तरह की स्थिति में खुश रहते हुए घर के कार्यों में कुशलता और सुरुचि दिखानी चाहिए । उसे हर काम सोच-समझ कर करना चाहिए । १५४ लड़की का यह धर्म है कि उसका पिता या पिता की आज्ञा से भाई जिस भी पुरुष से उसका विवाह करे, वह उसे पति रूप में स्वीकार कर जीवन भर उसकी सेवा करे । पति की मृत्यु हो जाने पर अपने धर्म का पालन करे । १५५ स्त्री के सौभाग्य की कामना के लिए ही विवाह में स्वस्तयन तथा प्राजापत्य हवन किया जाता है । पति को कन्या का स्वामित्व देना ही कन्यादान करने का अर्थ होता है । १५६ पति स्त्री के भरण-पोषण और उसकी सम्मान रक्षा का भार विवाह द्वारा ग्रहण करता है । वह अपनी पत्नी को समय-असमय सुख प्रदान करता है । अतः उस स्त्री को पति सेवा द्वारा ही इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है । १५७ पतिव्रता नारी को चरित्रहीन, कामी तथा गुणों से रहित पति की भी सेवा करनी चाहिए । उसे अपने पति को देवता के समान मानना चाहिए । १५८ स्त्रियों के लिए किसी यज्ञ, व्रत तथा उपवास करने का अलग से विधान नहीं है । उसे तो जिस कार्य को करने से पति प्रसन्न हो वही करना चाहिए क्योंकि इसी से उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है । १५९ अगले जन्म में अच्छा पति पाने की इच्छा रखने वाली स्त्री को इस जन्म में विवाहित पिति की जीवन-अवधि में अथवा उसकी मृत्यु हो जाने पर उसे बुरा लगने वाला कोई नहीं करना चाहिए । १६० स्त्री अपने पति की मृत्यु हो जाने के बाद फल-फूल और कन्द-मूल खाकर अपना शरीर चाहे सुखा ले पर भूल कर भी दूसरे पुरुष के संग की इच्छा नहीं करे । १६१ पतिव्रता स्त्री को पति के मर जाने के बाद पूरा जीवन क्षमा, संयम तथा ब्रह्नचर्य का पालन करते हुए गुजारना चाहिए । उसे सदाचारिणी स्त्रियों द्वारा आचरण योग्य उत्तम धर्म का पालन करने पर गर्व करना चाहिए । १६२ अगर किसी स्त्री के पति की मृत्यु बिना किसी सन्तान को उत्पन्न किए हो जाए तब भी स्त्री को अपनी सदगति के लिए दूसरे पुरुष का संग नहीं करना चाहिए । जिस तरह असंख्य ब्राह्नण आजीवन ब्रह्नचारी रह कर स्वर्ग लाभ करते हैं उसी तरह विधवा भी स्वर्ग की अधिकारिणी होती है । १६३ सन्तान उत्पन्न नहीं करने वाले ब्रह्नचारियों की तरह पति की मृत्यु के बाद ब्रह्नचर्य पालन करने वाली स्त्री पुत्रवती नहीं होने पर भी स्वर्ग प्राप्त करती है । १६४ पुत्र पाने की इच्छा से जो स्त्री पतिव्रत धर्म को तोड़ कर दूसरे पुरुष के साथ संभोग करती है उसकी इस संसार में निन्दा होती है तथा परलोक में बुरी गति मिलती है । १६५ शास्त्र के अनुसार पराए पुरुष से उत्पन्न सन्तान न तो उस स्त्री की है और न पर-पुरुष की क्योंकि उसने धर्मपूर्वक विवाहिता स्त्री से सन्तान उत्पन्न नहीं की है । इसीलिए पतिव्रता स्त्रियों के लिए दूसरे विवाह का विधान नहीं है । १६६ कम गुणों वाले अपने पति का त्याग कर जो स्त्री अधिक गुणों वाले अन्य पुरुष का संग करती है वह इस संसार में निन्दा पाती है और दो पुरुषों की अंकशायिनी बनने का कलंक लगवाती है । १६७ पति के सिवाय दूसरे पुरुष से सम्भोग करने वाली विवाहित स्त्री इस संसार में निन्दा का पात्र बनती है और मरने के बाद गीदड़ की योनि में जन्म लेती है । वह कोढ़ जैसे अनेक असाध्य रोगों से पीड़ा पाती है । १६८ जो स्त्री मन, वचन, कर्म से अपने पति को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाती, उसकी इस संसार में पतिव्रता नारी के रूप में प्रशंसा होती है और मृत्यु के बाद दिव्य लोकों की प्राप्ति होती है । १६९ जो स्त्री मन, वचन और कर्म का पतिव्रत धर्म के अनुसार संयम करती है वह इस संसार में उत्तम कीर्ति तथा परलोक में सदगति को उपलब्ध होती है । १७० यदि आदर्श पतिव्रता नारी का स्वर्गवास पति के जीवित रहते ही हो जाए तो शास्त्रों में बताई विधि के अनुसार यज्ञ आदि करके उसका दाह संस्कार करें । १७१ यदि पुरुष पतिव्रता स्त्री का दाह संस्कार करने के पश्चात् संतान उत्पन्न करने के लिए दूसरा विवाह करता है तो उसे फिर से अग्निहोत्र आदि करना चाहिए । १७२ यदि पत्नी का स्वर्गवास बिना संतान को जन्म दिए हो जाए तो पुरुष को संतान उत्पन्न करने की इच्छा से दूसरा विवाह करके गृहस्थाश्रम का शेष भाग (यदि पत्नी की मृत्यु के समय पति की आयु तीस वर्ष हो तो शेष बीस वर्ष गृहस्थाश्रम में ही रहे) घर में रहकर ही व्यतीत करना चाहिए । उसे गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन तथा पञ्च महायज्ञों का अनुष्ठान करते रहना चाहिए । षष्ठ अध्याय १ अपनी विद्या पूरी करके घर लौटने वाले स्नातक द्विज को गृहस्थाश्रम में रहने (२५ से ५० वर्ष तक) के बाद वन में जाकर निवास करना चाहिए तथा अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने के नियमों का पालन करना चाहिए । २ गृहस्थ पुरुष जब अपनी त्वचा को ढीला, बालों को पका हुआ और सफेद देखे तथा अपनी सन्तान की सन्तान को देख ले तब उसे वन में चला जाना चाहिए । ३ ऊपर के श्लोक में बताई गई स्थिति को देखकर गृहस्थ पुरुष को गांव में खाए जाने वाले भोजन (पौष्टिक तथा राजसी भोजन) को, सभी तरह के राजसी वस्त्रों को (घोड़ा, रथ, शय्या, गाय, भैंस आदि) सुविधाप्रद साधनों को त्याग कर तथा अपनी पत्नी को पुत्र को सौंप कर या उसे साथ लेकर वन को चले जाना चाहिए । ४ यज्ञ-यागादि के लिए आवश्यक पात्रों को तथा वन के योग्य वस्त्रों को लेकर गांव-नगर से निकल कर जंगल में चले जाना चाहिए तथा वहां अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए निवास करना चाहिए । ५ वानप्रस्थ बने व्यक्ति को वन में जाकर ऋषि-मुनियों द्वारा यज्ञ-यागादि में उपयोग किए जाने वाले अनेक प्रकार के अन्नों, शाकों, कन्द-मूल फलों से बड़े-बड़े यज्ञों का विधि अनुसार अनुष्ठान करना चाहिए । ६ वन में रहने वाले व्यक्ति को हिरण का चर्म या वृक्षों की छाल पहनकर रहना चाहिए । उसे प्रातःकाल तथा सायंकाल स्नान करना चाहिए । उसे अपनी दाढ़ी, मूंछ, बाल तथा नाखून कटवाने नहीं चाहिए । ७ सरलता से प्राप्त भोजन सामग्री में से बलि (गाय कुत्ता, कौआ आदि पंच वैश्वदेव) और भिखारी को भिक्षा देना चाहिए । उसे आश्रम में आए अतिथियों का जल-कन्द-मूल फल और भिक्षा में प्राप्त अन्न से स्वागत करना चाहिए। ८ वानप्रस्थ धारण करने वाले व्यक्ति को नित्य स्वाध्याय, इन्द्रिय दमन, दूसरों का उपकार तथा सभी के लिए मित्रता का भाव रखना चाहिए । उसमें दानशीलता, अपरिग्रह तथा सभी जीवों के प्रति दया होनी चाहिए । ९ वानप्रस्थ को वैतानिक (गार्हपत्य कुण्ड की अग्नि को आवहनीय दक्षिणाग्नि में मिलाने वाला) बन कर विधि अनुसार अग्निहोत्र करना चाहिए तथा समय-समय पर आने वाले दर्श पौर्णमास यज्ञों को करना चाहिए । १० वानप्रस्थ बने व्यक्ति को विशेष नक्षत्रों से सम्बद्ध, चातुर्मास में किए जाने वाले, उत्तरायण और दक्षिणायन में किए जाने वाले यज्ञों का सम्पादन करना चाहिए । ११ वानप्रस्थ को अपने हाथ से लाए अन्न तथा मुनियों द्वारा सेवन किए जाने वाले अन्नों से पुरोडाश तथा चरु बनाकर उन ऋतुओं में होने वाले यज्ञों का सम्पादन करना चाहिए । १२ वन में पैदा होने वाले अत्यन्त पावन अन्न आदि की देवताओं को हवि देकर शेष अन्न में अपने द्वारा लाया लवण मिलाकर उसका सेवन करना चाहिए । १३ धरती तथा सरोवर आदि के जल में उत्पन्न होने वाले शाकों, पावन वृक्षों में लगने वाले फूलों, फलों और कन्द-मूलों से और फलों से निकलने वाले तेलों से वानप्रस्थ को अपना पालन-पोषण करना चाहिए । १४ मांस, मदिरा, भूमि पर उत्पन्न होने वाली खुम्बी, भूतृण, सोहांजना और लेसदार फल जैसे लसूड़े आदि वानप्रस्थ को नहीं खाने चाहिए । १५ आश्विन माह में, पहले से एकत्रित मुनियों के खाने योग्य अन्न को, पुराने कपड़ों को, बासी शाक, कन्द-मूल तथा फल आदि को वानप्रस्थ को त्याग देना चाहिए । १६ किसी के द्वारा हल चले खेत में छोड़े गए अन्न को और व्याकुल होने पर भी गांव-नगर में पैदा होने वाले कंद-मूल फलों का सेवन वानप्रस्थ को नहीं करना चाहिए । १७ वानप्रस्थ व्यक्ति को आग में पके हुए, उचित समय पर पके हुए, पत्थरों से पिसे हुए तथा दांतों से चबाए हुए पदार्थ ही भोजन के रूप में ग्रहण करने चाहिए । १८ वानप्रस्थ को एक समय का, एक माह का, छह माह का या एक वर्ष का (अन्न) भोजन संग्रह करना चाहिए । इस अवधि से अधिक का भोजन नहीं संग्रह करना चाहिए । १९ वानप्रस्थ यथाशक्ति अन्न को लाकर (सायंकाल) रात में या दिन में अथवा एक दिन पूरा उपवास कर दूसरे दिन सायंकाल या तीन दिन-रात उपवास कर चौथे दिन सायंकाल भोजन करे । २० वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाला चाहे तो चान्द्रायण व्रत की विधि के अनुसार शुक्ल पक्ष में भोजन के ग्रासों (कौरों) को घटाए-बढ़ाए या पक्ष के अन्त में अर्थात् पूर्णमासी और अमावस्या को एक बार जौ की लपसी खाएं । २१ वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाये व्यक्ति को चाहिए कि वह समय से पक कर गिरने वाले फलों-फूलों से अपना जीवन यापन करे । २२ वानप्रस्थ या तो भूमि पर बैठा रहे या दिन भर खड़ा रहे । उसे अपने आसन की परिधि में ही टहलना चाहिए तथा दिन में तीन बार, प्रातः, मध्याह्र तथा सायं स्नान करना चाहिए । २३ गर्मी की ऋतु में पंचाग्नि साधना करे । वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे भीगता रहे और शीतकाल में गले वस्त्र पहने । इस भांति अपनी सहनशक्ति को विकसित करे । टिप्पणी-धूप में अपने चारों ओर आग जलाकर उसके बीच में बैठा रहना पंचाग्नि साधना करना कहलाता है । २४ वानप्रस्थ को चाहिए कि वह तीनों समय सुबह, दोपहर और शाम स्नान करके पितरों तथा देवों को तर्पण करे । वह कठिन से कठिन साधना करके अपने शरीर को सुखा दे । २५ वैखानस शासत्रानुसार वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाला अग्नियों को विधिपूर्वक अपनी आत्मा में समारोपित करके फल-मूल को खाता हुआ अग्नि तथा अपने स्थान को भी पूरी तरह छोड़ दे । २६ वानप्रस्थ को सुख देने वाले साधनों को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए । उसे अपनी इन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण रखने वाला और शरणस्थलों के प्रति मोह रहित होकर वृक्ष के नीच अपना निवास रखने वाला होना चाहिए । २७ वानप्रस्थ को तपस्वियों से केवल अपने जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक भिक्षा लेना चाहिए, अधिक नहीं । वन में वास करने वाले तपस्वियों से भिक्षा नहीं मिलने पर वनवासी ब्राह्नणों से या दूसरे गृहस्थों से भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । २८ वानप्रस्थ ऐसा भी कर सकता है कि गांव से आठ ग्रास भर भिक्षा लाकर किसी पत्ते या कसोरे में रख कर उसी से अपना पेट भर कर जीवन का निर्वाह करे । २९, ३० वानप्रस्थ इस प्रकार की (ऊपर के श्लोकों में बताई) दीक्षाओं का पालन करता हुआ अपने आत्म-कल्याण हेतु अनेक ऋषियों-मुनियों, ब्राह्नणों तथा गृहस्थों द्वारा विद्या तथा तप का विकास करे एवं आत्मशुद्धि के लिए उपनिषदों का स्वाध्याय करे । ३१ वानप्रस्थाश्रम में रहने वाला देहान्त होने तक जल-वायु का सेवन करे तथा अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर सरल गति से इधर-उधर जाता रहे । ३२ महर्षियों द्वारा बताई तथा पालन की गई ऊपर लिखी चर्याओं में से किसी एक चर्या का पालन करता हुआ ब्राह्नण (विप्र) शरीर का त्याग करते समय भय तथा शोक से स्वतंत्र होकर ब्रह्न लोक में जाकर प्रतिष्ठित होता है । ३३ आयु के तीसरे भाग को (५० वर्ष से ७५ वर्ष) वन में रहते हुए व्यतीत करने के बाद चतुर्थ भाग (७५ वर्ष से १०० वर्ष) के आते ही सभी तरह के विषयों और व्यक्तियों को छोड़कर संन्यास आश्रम धारण करना चाहिए । ३४ इस तरह ब्रह्नचर्य आश्रम से गृहस्थाश्रम, गृहस्थ से वानप्रस्थ आश्रम और वानप्रस्थ से संन्यास आश्रम में जाते हुए जीवन भर यज्ञ-होम करने वाला जितेन्द्रिय एवं भिक्षा तथा बलि कर्म से थका हुआ व्यक्ति मृत्यु होने पर मोक्ष का अधिकरी बन जाता है । ३५ तीनों ऋणों (पितृ ऋण, ऋषि ऋण तथा देव ऋण) को चुकाने के बाद ही व्यक्ति को मोक्ष को पाने प्रयत्नों में लगना चाहिए । इन ऋणों (सन्तानोत्पत्ति, ज्ञान-प्रसार, यज्ञ आदि का अनुष्ठान) से उबरे बिना मोक्ष की इच्छा करने वाले का अधःपतन हो जाता है । ३६ विधि-विधान के अनुसार वेदाध्ययन करके, विवाह करके संतान को जन्म देकर और अपनी सामर्थ्यानुसार यज्ञों का संपादन करके अर्थात् तीनों ऋणों से मुक्त होने के बाद ही व्यक्ति को मोक्ष हेतु प्रयत्न करने चाहिए । ३७ वेदों का अध्ययन किए बिना, संतान को जन्म दिए बिना और ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों को किए बिना मोक्ष पाने का प्रयत्न करने वाले का अधःपतन हो जाता है । ३८ वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले को अपना सब कुछ दक्षिणा में देने, प्रजापति के परितोषक यज्ञ का अनुष्ठान करके तथा आत्मज्ञान की ज्योति को जलाकर संन्यास आश्रम में जाना चाहिए ३९ समस्त जीवों को अभयदान करके वानप्रस्थ से संन्यास आश्रम में जाने वाले ब्र्ह्नज्ञानी को तेजूपूर्ण लोकों की उपलब्धि होती है । ४० जिस द्विज के जीवनकाल में उससे अन्य प्राणियों को अणुभर भी भय नहीं होता अर्थात् जो किसी जीव को नहीं सताता, उसकी मृत्यु होने पर उसके लिए इस जगत और मार्ग में किसी तरह का भय नहीं रहता । ४१ अपना घर त्याग कर निकला पवित्र आचार-विचार का मुनि उत्तम कार्यों में भी तटस्थता दिखाता हुआ संन्यास ग्रहण करे । ४२ किसी से मित्रता की कामना नहीं करे और इस तथ्य को समझे कि जो एकाकी विचरण करता है उसे ही मोक्ष-प्राप्त होता है । उसे यह साधना करनी चाहिए कि न वह कुछ छोड़ता है और न उससे कुछ छूटता है । ४३ संन्यासी को घर, अग्नि आदि का त्याग कर भिक्षा के लिए गांव का सहारा लेना चाहिए । उसे सुख-दुख को समान समझते हुए चिन्ताओं से मुक्त होकर मुनियों के धर्म का पालन करना चाहिए ४४ मुक्त पुरुष के लक्षण ये हैं-वह खप्पर का उपयोग बर्तन के रूप में करता है, वृक्ष के नीचे ही उसका घर होता है, वस्त्रों के स्थान पर पेड़ों की छाल पहनता है, एकाकी रहते हुए जीवन व्यतीत करता है और समस्त जीवों एवं पदार्थों में समदृष्टि रखता है । ४५ संन्यासी को न जीवन का अभिनन्दन करना चाहिए, न मृत्यु का । उसे तो मृत्यु की प्रतीक्षा इस तरह करनी चाहिए जैसे कोई सेवक स्वामी के निर्देश की प्रतीक्षा करता है । ४६ संन्यासी व्यक्ति को देखकर चलना चाहिए (जिससे उसके पैरों के नीचे कोई जीव न कुचल जाए), वस्त्र से छानकर पानी चाहिए, सच बोलना चाहिए और शरीर से ही नहीं वरन् मन से भी पवित्र आचरण करना चाहिए । ४७, ४८ दसरों के कड़वे वचनों को भी संन्यासी सहन करे । गाली का उत्तर गाली से न दे और किसी का अपमान नहीं करे । इस नाशवान काया (देह) के लिए संन्यासी को किसी से शत्रुता नहीं रखनी चाहिए । संन्यासी क्रोध करने वाले के प्रति सहनशील रहते हुए क्रोध नहीं करे, निन्दक के प्रति सदभाव रखे । इन सातों द्वारों में बिखरी वाणी से कभी असत्य नहीं बोलना चाहिए । ४९ उसे (संन्यासी) अध्यात्म में प्रेम रखने वाला, किसी की अपेक्षा न रखने वाला, शाकाहारी, ऐन्द्रिय विषयों से मुक्त एवं अपनी ही सहायता से आत्मिक कल्याण और आनन्द पाने वाला होकर विचरण करना चाहिए । ५० संन्यासी को भिक्षा पाने के लिए उत्पातों की पूर्व सूचना देना, ज्योतिष विद्या द्वारा भविष्य कथन, उपदेश देना एवं वाद-विवाद करना आदि से बचना चाहिए । ५१ तपस्वियों, ब्राह्मणों, वृद्धजनों, पशुओं, पक्षियों और भिक्षुओं से घिरे हुए भवन में संन्यासी को भिक्षा लेने के लिए नहीं जाना चाहिए । ५२ संन्यासी को अपने बाल,नख और दाढ़ी-मूंछ मुड़वा कर, हाथ में खप्पर तथा दण्ड (डंडा) लेकर, जोगिए रंग के वस्त्र पहन कर, अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर एवं किसी भी जीव को दुख नहीं देते हुए इधर-उधर विचरते रहना चाहिए । ५३ संन्यासी द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले बरतन मूल्यवान धातुओं के नहीं होने चाहिए । वे टूटे-फूटे भी नहीं होने चाहिए । संन्यासी के पात्र (बरतन) यज्ञ के चमसों की भांति जल से धोए जाने पर शुद्ध हो जाते हैं । ५४ भृगु जी ने कहा-महर्षियों ! स्वाचम्भुव मनु ने बताया है कि संन्यासियों के पास तुम्बी, लकड़ी, बांस या मिट्टी के बरतन होने चाहिए । ५५ एक समय भिक्षा मांग कर संन्यासी को उसी से अपना पालन करना चाहिए । उसे एक से ज्यादा बार भिक्षा मांगने की प्रवृति से दूर रहना चाहिए । एक से अधिक बार भिक्षा मांगने के लोभ में फंसा संन्यासी विषयों में फंसने लगता है । ५६ जहां रसोई का धुआं बुझ चुका हो, उसी घर से संन्यासी को सदैव भिक्षा मांगनी चाहिए । इसके अतिरिक्त उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस घर में कूटने-पीसने के कार्य, पूरे हो चुके हों और खाने-पीने के पात्र धो-पोंछकर रख दिए गए हों । कहने का आशय यह है कि गृहस्थों के यहां जब भोजन आदि बनाने का कार्य पूरी तरह समाप्त हो जाए तभी संन्यासी को भिक्षार्थ जाना चाहिए । ५७ संन्यासी भिक्षा मिलने पर प्रसन्न और न मिलने पर अप्रसन्न न हो । उसे अपना जीवन यापन करने के लिए उदरपूर्ति से सम्बन्ध रखना चाहिए । खाए जाने वाले पदार्थ के रूप, रस तथा गन्ध पर ध्यान नहीं देना चाहिए । ५८ आदर सहित मिलने वाली स्वादिष्ट भिक्षा की संन्यासी को उपेक्षा करनी चाहिए क्योंकि उसके स्वाद में रस नहीं लेने पर भी संन्यासी को वह यजमान के स्नेह-बंधन में जकड़ती है । ५९ संन्यासी को चाहिए कि वह विषयों द्वारा सींची जाने वाली इन्द्रियों को थोड़ा भोजन देकर और जनहीन स्थान पर एकान्त में अपने नियंत्रण में करे । ६० संन्यासी इन्द्रियों पर संयम रख करके, राग-द्वेष को कम से कम करके तथा जीव हिंसा न करके अपने लिए मोक्ष लाभ का पथ बनाता है । ६१,६२ संन्यासी को कर्मदोषों से मनुष्यों की बुरी दशाओं, नरक में गिरने तथा यमलोक में अनेक प्रकार की कठोर यातनाओं को सहने, प्रियजनों से बिछुड़ने और अप्रिय लोगों से मिलेन, वृद्धावस्था के कष्टों, सोगों की पीड़ाओं, देह त्याग के बाद फिर से गर्भ में गिरने और जीवात्मा के करोड़ों योनियों में जन्म लेकर कष्ट सहने आदि पर विचार करना चाहिए । ६३ जीवों के सुख का कारण उनके द्वारा किए जाने वाले धार्मिक कर्म होते हैं । इसी प्रकार उनके पाप कर्म उनके दुखों का कारण बनते हैं । अतः सुख पाने के लिए धर्म का पालन करना आवश्यक है । ६४ संन्यासी को योग विद्या की साधना कर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परमात्मा का ध्यान करना चाहिए । उसे फल भोग की कामना के कारण निम्न कोटि की योनियों में जीव के जन्म लेने पर विचार करते हुए धार्मिक कर्मों में लगे रहना चाहिए । ६५ द्विज चाहे किसी आश्रम में हो उसे सभी प्राणियों को दोष से ग्रस्त होने पर भी समान दृष्टि से देखना चाहिए तथा ऐसा करते हुए अपने धर्म का अनुसरण करना चाहिए । धर्म का आधार शुभ कार्यों को आचरण में लाना है, उसका प्रदर्शन करना नहीं । ६६ निर्मली नामक पेड़ का फल निश्चित रूप से जल को शुद्ध करता है परन्तु जिस तरह उसकी जानकारी होने या नाम लेने से जल शुद्ध नहीं हो सकता उसी तरह धर्म की जानकारी से नहीं वरन् आचरण से जीव का कल्याण होता है । ६७ संन्यासी को रात-दिन स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरे प्राणियों की रक्षार्थ धरती पर दृष्टि डालते हुए चलना चाहिए । ६८ दिन या रात में, अनजाने में, अपने द्वारा मारे जाने वाले जीव-जन्तुओं के पाप से मुक्त होने के लिए नहाकर छह प्राणायम करने चाहिए । ६९ ब्राह्मण द्वारा प्रणव-ओ३म तथा व्याहृति (भूः भुवः स्वः) के साथ विधि उनुसार किए गए तीन प्राणायामों को भी उसका परम तप मानना चाहिए । ७० अग्नि में सोना, चांदी आदि धातुओं को डालने से जिस तरह उनकी अशुद्धता दूर हो जाती है, उसी तरह प्राणायाम की साधना करने से इन्द्रियों के समस्त दोष तथा विकार समाप्त हो जाते हैं । ७१ ब्राह्मण प्राणायाम साधना द्वारा शारीरिक दोषों पर, धारणाओं द्वारा पापों पर, प्रत्याहार द्वारा साथ में पहने से उत्पन्न होने वाले दोषों पर तथा ध्यान द्वारा मोह तथा अन्य दुर्गुणों से मुक्त हो । टिप्पणी - प्राण की स्वाभविक गति श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करना प्राणायाम है । प्रत्याहार - जब चित्त शांत हो जाता है, मन-बुद्धि भी शांत हो जाते हैं । फलस्वरूप इंद्रियां अपने आहार रूपी विषयों के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ पातीं । यही प्रत्याहार है । धारणा - किसी भी आंतरिक या बाह्य विषयों पर चित्त को पूरी तरह एकाग्र कर देना । ध्यान - जिस विषय में धारणा से चित्त वृत्ति लगाई हो, उस विषय में सजातीय वृत्ति का धारावत अखंडित प्रवाह करना ही ध्यान है । ७२ तत्ववेत्ता योगी को ध्यान योग द्वारा प्राणियों को मृत्यु के बाद मिलने वाली उत्तम या अधम योनियों को देखना चाहिए । यह कार्य अज्ञानी पुरुषों के लिए सर्वथा अज्ञात तथा असम्भव है । ७३ आत्म साक्षात्कार कर लेने वाला योगी कर्मों के बन्धनों में नहीं पड़ता । जो ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पाता वही कर्तापनके अहंकार से अच्छे-बुरे कर्मों के परिणामस्वरूप आवागमन के चक्र में पड़ता है । ७४ अहिंसा, इंद्रिय संयम, विषयों को पूरी तरह त्याग देने, वैदिक कर्मों को करने और कठोर तप से योगी ब्रह्मको प्राप्त कर लेते हैं । ७५,७६ तत्वज्ञानी संन्यासी इस लोक में ऐसे कर्म करे कि अस्थियों का ढांचा बना, स्नायुओं की रस्सियों में से बंधा, रक्त-मांस से सना, त्वचा से मढ़ा, मल-मूत्र से दुर्गन्धित, वृद्धावस्था, शोक तथा रोग का घर, क्षुधा तथा तृष्णा से ग्रस्त, मलिन, नाशवान तथा पंच भूतों का निवास रूपी यह शरीर सदैव के लिए छूट जाए और पुन जन्म न हो । टिप्पणी - यह कथन विशेष रूप से संन्यासियों के लिए है । ७७ जिस तरह नदी तट पर खड़ा वृक्ष जैसे ही गिरता है, उस पर बैठा पक्षी उसे छोड़कर उड़ जाता है, उसी तरह संन्यासी मोह रहित भाव से इस शरीर का अंत होते ही इस संसार से मुक्त हो जाता है । ७८ संन्यासी अपने प्रियजनों के सदगुणों और अप्रिय जनों के दुर्गुणों से होने वाले राग-द्वेष से स्वतंत्र होकर ध्यान योग से सदैव रहने वाले परमात्मा को प्राप्त करता है । ७९ जब संन्यासी सभी विषयों से अपनी दोष दृष्टि (अर्थात् संसार के सभी विषय दुख देने वाले हैं यह दृष्टिकोण) के कारण मुक्त हो जाता है तब वह इस संसार और परलोक में वास्तविक और अनश्वर सुख को प्राप्त करता है । ८१ संन्यासी मन तथा समग्र भाव से मोह-माया का त्याग करता है । केवल दूसरों को दिखाने के लिए किए गए त्याग से संन्यासी को कोई फल नहीं मिलता । ८२ वेदों के यज्ञ तथा देवपूजन से संबंधित, आत्मा के विषय से संबंधित तथा वेदान्त से सम्बन्धित मंत्रों का संन्यासी को सदैव जाप करते रहना चाहिए । ८३ वेद मंत्रों का जाप सभी को अभीष्ट फल प्रदान करता है, चाहे उसे ज्ञानी करे या अज्ञानी, स्वर्ग के सुखों की कामना करने वाला करे अथवा मोक्ष पाने की इच्छा करने वाला करे । ८४ संन्यासी धारण करने वाला द्विज सांसारिक मोह त्याग तथा वेदों का स्वाध्याय करके अपने सभी पापों का नाश कर देता है और परमात्मा को उपलब्ध करता है । ८५ भृग जी कहते हैं - ब्राह्मणो ! मैंने अब तक आपको आश्रम विधि के अनुसार संन्यास लेने वाले जितेन्द्रिय महात्माओं के धर्म बताए । मैं अब आपको वेद संन्यासियों के धर्म बता रहा हूं । टिप्पणी - वेद संन्यासी से आशय उन व्यक्तियों से है जो घर में ही वैराग्य धारण करके रहते हैं । वे किसी तरह के संन्यासी के चिह्न नहीं धारण करते । ८६,८७, चारों आश्रम के व्यक्ति गृहस्थ से ही जन्म लेते हैं । इसके साथ ही गृहस्थ भिक्षा देकर तीनों आश्रम में रहने वालों का भरण-पोषण करता है । शास्त्र द्वारा बताए इन चारों आश्रमों का क्रम से सेवन करने वाला और हरेक आश्रम के धर्म पर चलने वाला (अर्थात् जब जिस आश्रम हो तब उसी आश्रम का धर्म पालन करने वाला) ब्राह्मण परमगति को प्राप्त करता है । ८८,८९, चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । वेद-स्मृति का यही मत है । इसका कारण यह है कि गृहस्थाश्रम में रहने वाला ही अन्य तीन आश्रमों में रहने वालों का पालन करता है । जिस तरह सभी नदी-नद सागर में मिल कर शांत हो जाते हैं, उसी तरह समस्त आश्रमों में भटकता प्राणी गृहस्थ आश्रम में ही स्थिर होता है । ९० दस लक्षणों वाले धर्म के प्रति चारों आश्रमों के द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को नित्य सावधान होकर उनका विशेष रूप से पालन करना चाहिए । ९१ धर्म के जो दस लक्षण बताए गए हैं, वे इस प्रकार हैं - १. धीरज रखना २. क्षमा करना ३. मन पर काबू रखना ४. चोरी नहीं करना ५. मन, वाणी तथा कर्म में शुद्धता रखना ६. ज्ञानेन्द्रियों एवं कमेन्द्रियों अर्थात् सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना ७. शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना ८. ब्रह्म ज्ञान पाना ९. सत्य बोलना १०. क्रोध नहीं करना (मनुस्मृति की कुछ प्रतियों में ' धी ' की जगह ' ह्री ' का पाठ है ' ह्री ' का अर्थ है - आत्म विज्ञापन नहीं करना या संकोचशील होना) । ९२ जो ब्राह्मण दस लक्षणों वाले धर्म का ज्ञान प्राप्त कर उनका पालन करते हैं, वे परमगति को उपलब्द होते हैं । ९३ दस लक्षणों वाले धर्मका समाहित होकर पालन करते हुए, वेदांत को विधिवत् सुनकर ब्राह्मण को संन्यास धारण करना चाहिए । ९४ वेद संन्यासी (घर में रहते हुए संनयास धारण करने वाले व्यक्ति) को गृहस्थ के सभी कर्मों को त्याग कर, कर्मों को करते हुए होने वाले पापों को प्राणायाम की साधना द्वारा नष्ट करना चाहिए । उसे वेदों का स्वाध्याय करते हुए अपने पुत्र के ऐश्वर्य (पुत्र द्वारा दिए जाने वाले भोजन, वस्त्र आदि का उपयोग करते हुए) को जितेन्द्रिय बन कर भोगना चाहिए । टिप्पणी - वेद संन्यासी अग्निहोत्र यज्ञ आदि गृहस्थ के करने योग्य कर्मों का त्याग कर देता है । वह घर में रहकर भी माया-मोह से रहित होता है । ९५ संसार के समस्त कार्यों से वेद संन्यासी को विरक्त हो जाना चाहिए परन्तु उसे वेदों का पाठ करना नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि वेदों का त्याग करने से व्यक्ति शूद्र बन जाता है । ९६ इस तरह समस्त गार्हस्थ्य कर्मों का त्याग कर सब प्रकार से निस्पृह बना संन्यासी परम कार्य अर्थात् आत्मसाक्षात्कार द्वारा सभी पापों को पूरी तरह नाश करके परमगति पाता है । ९७ महर्षि भृगु जी कहते हैं - विप्रो ! मैंने लोक-परलोक में अक्ष्य पुण्य देने वाले ब्राह्मण के चार आश्रमों के धर्मों की जानकारी आप लोगों को प्रदान की है । अब मैं क्षत्रियों (राजाओं) के द्वारा पालन किए जाने योग्य धर्म बताता हूं । सप्तम अध्याय १ भृगु मुनि महर्षियों से कहते हैं कि मैं अब राजा के आचार, उत्पत्ति और उसे इस लोक एवं परलोक में सफलता मिले, ऐसे राजधर्म के बारे बताता हूं । २ वेदोक्त विधि से संस्कार किए गए राज्याभिषिक्त क्षत्रिय को अपने राज्य में रहने वाली प्रजा का न्याय के साथ पालन एवं उसकी रक्षा करनी चाहिए । ३ इस संसार में राजा के नहीं होने पर बलवानों के भय से लोग भयाक्रान्त हो इधर-उधर भागने लगते हैं । इसी कारण से भगवान ने राजा की सृष्टि की । ४ इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र तथा कुबेर के दिव्य गुणों को लेकर भगवान ने राजा की सृष्टि की है । कहने का आशय यह है कि राजा देवताओं का प्रतिदिन करता है । ५ इनद्र, अग्नि तथा वरुण आदि देवताओं के अंश से बनने के कारण ही राजा अपने तेज से सभी जीवों को पराजित कर अपने नियंत्रण में लाने योग्य शक्ति रखता है । ६ राजा की आंखों तथा मन में सूर्य के समान तेज होता है । अतः पृथ्वी पर कोई भी उसे देखने में समर्थ नहीं होता । ७ राजा अपनी शक्ति के प्रभाव से अग्नि रूप है, वायु रूप है, सूर्य रूप है, चन्द्र रूप है, यम रूप है, कुबेर रूप है, वरुण रूप है तथा इन्द्र रूप है । ८ राजा यदि बालक भी हो तो उसे सामान्य मान कर उसकी आज्ञा का विरोध नहीं करें क्योंकि वह मनुष्य रूप में इस भूमि पर एक महान देवता के रूप में है । ९ अग्नि उसी व्यक्ति को भस्म करती है जो उसकी अवज्ञा करता है परन्तु राजा के क्रोध की अग्नि व्यक्ति को, उसके कुल को, पशु को, धन तथा सम्पत्ति को भी नष्ट कर देती है । १० राजा कार्य, शक्ति, देश तथा काल को गहराई से देखकर धर्म की सिद्धि हेतु भांति-भांति के रूप अर्थात् कभी उदार तथा कभी कठोर रूप धारण करता है । ११ राजा की प्रसन्नता में लक्ष्मी, पराक्रम में विजय एवं क्रोध में मृत्यु का वास होता है । अतः वह सभी तेजों से सम्पन्न होता है । १२ जो व्यक्ति मूर्खता अथवा अहंकार के वशीभूत होकर राजा की शक्ति को नहीं समझ कर राजा से द्वेष करता है, वह निश्चित रूप से अपने नाश को आमंत्रित करता है । राजा ऐसे व्यक्ति का यथाशीघ्र नाश करने के लिए चेष्टा युक्त हो जाता है । १३ अतएव वह राजा अपेक्षित कार्यों में जिस धर्म (कानून) की व्यवस्था करता है, उसे न चाहने वालों को भी उस कानून को नहीं तोड़ना चाहिए । १४ परमात्मा ने धर्मानुसार भी जीवों की रक्षा हेतु ब्रह्मतेज से युक्त अपने प्रतिनिधि के रूप में राजा को दण्ड देने की शक्ति एवं अधिकार दिया है । १५ संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते और अपने-अपने भोग को भोगने के लिए समर्थ होते हैं । १६ अन्याय में लगे अपराधियों की शक्ति तथा विद्या एवं देश तथा काल को भली-भांति देखकर राजा उन्हें उचित दण्ड प्रदान करे । १७ सच यह है कि दण्ड ही राजा, दण्ड की पुरुष, दण्ड ही अनुशासन बनाए रखने वाला तथा चारों आश्रमों के धर्म पालन की सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला जामिन या मध्यस्थ होता है । १८ सारी प्रजा की रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है । अतः बुद्धिमान लोग दण्ड को ही धर्म कहते हैं । १९ भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोंग से प्रजा खुश होती है । इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राजा की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है । २० अगर अपराधियों को दण्ड देने में राजा सदैव सावधानी से काम नहीं लेता तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है । २१ कौआ पुरोडाश खने लगेगा और श्वान हवि खा जाएगा अगर राजा अपराधियों को दण्ड (सजा) नहीं देगा । कोई किसी को स्वामी नहीं मानेगा और समाज उत्तम स्थिति से मध्यम तत्पश्चात् अधम होकर व्यवस्थाहीन हो जाएगा । २२ संसार के लोग दण्ड के डर से ही नियमों तथा अनुशासन का पालन करते हैं । संसार में ऐसे व्यक्तियों का मिलना दुर्लभ है जो स्वभाव से ही पवित्र हों । सारे संसार के जीव दण्ड के भय से ही अपने कर्तव्य का पालन कर सुख भोगते हैं । २३ मनुष्येतर सभी जातियों के जीव जैसे - देव, दानव, गन्धर्व, राक्षस, पक्षी तथा सर्प आदि दण्ड के भय से ही कर्तव्य पालन में लगते हैं । २४ समस्त वर्णों के लोग दण्ड का डर न होने पर दुराचरण में लग सकते हैं, नियम पालन के सभी सेतु टूट सकते हैं और पूरे जगत में उपद्रव फैल सकता है । अकेला दण्ड ही निवारक तथा नियमों का पालन करवाने वाला है । २५ जहां काले रंग और लाल आंखों वाला पापनाशक दण्ड घूमता रहता है अर्थात् जिस देश में दण्ड की सुव्यवस्था होती है, राजा उचित रीति से जागरूक रहता है वहां की प्रजा सदैव सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करती रहती है । २६ सत्य का पालन करने वाले, प्रत्येक कार्य को भली प्रकार विचार कर करने वाल, अर्थ तथा काम के सच्चे स्वरूप को समझने वाले बुद्धिमान राजा को ही विद्वान पुरुष दण्ड देने का अधिकारी मानते हैं । २७ जो राजा दण्ड का न्यायपूर्वक तथा भली प्रकार उपयोग करता है, उसके धर्म, अर्थ एवं काम में वृद्धि होती है । इसकी विरुद्ध जो राजा नीच प्रकृति का होता है तथा दण्ड का दुरुपयोग करता है, वह अपने द्वारा दिए गए दण्ड से स्वयं का नाश कर लेता है । २८ दण्ड अत्यन्त तेजवान है, जिसे ऐसे राजागण धारण ही नहीं कर सकते जो संस्कार से विहीन हैं । न्याय तथा व्यवस्था पर आधारित दण्ड राररजधर्म का पालन नहीं करने वाला राजा बन्धु-बान्धवों सहित नष्ट हो जाता है । २९ अन्यास से प्रयोग किया जाने वाला दण्ड राजा का कुल विनाश करने के बाद उसके दुर्ग, राष्ट्र, जड़-चेतन संसार, अंतरिक्ष निवासी मुनियों तथा देवताओं को भी पीड़ा देने लगता है । ३० जो राजा सहायकों से रहित है, मूर्ख, लालची और बुद्धिहीन है एवं जो विषय-वासना में आसक्त है, ऐसे राजा द्वारा दण्ड का न्याय द्वारा उचित उपयोग नहीं किया जा सकता । ३१ जिसका पवित्र आचरण हो, जो सत्य तथा शास्त्रों का दृढ़ता से पालन करता हो, जिसके सहायक (मंत्री, सेनापति, अधिकारी, गुप्तचर आदि) अच्छे हों तथा जो स्वयं बुद्धिमान हो, ऐसे राजा द्वारा ही दण्ड का न्यायोंचित रूप से उपयोग सम्भव है । ३२ राजा को अपने राज्य की प्रजा को न्यायकारी तथा शत्रुओं को उग्र दण्ड देना चाहिए । उसे मित्रों से सौहार्द्रपूर्ण एवं ब्राह्मणों के प्रति उदारता भरा तथा क्षमापूर्ण व्यवहार करना चाहिए । ३३ राज्य के अभाव तथा गरीबी में जीने पर (शिलोञ्छवृत्ति के लिए अध्याय ४ के ५वें श्लोक को देखें) भी ऊपर लिखी विधि से न्यायोचित दण्ड देने वाले राजा का यश पानी में पड़ी तेल की बूदों की तरह निरंतर फैलता जाता है । ३४ इसके विपरीत दण्ड का अनुचित रीति से उपयोग करने वाले अन्द्रियों का दास बने राजा का यश इस प्रकार घटने लगता है जैसे जल में पड़ी घी की बूंदें सिकुड़ती चली जाती हैं । ३५ परमात्मा ने राजा को अपने-अपने धर्मों का पालन करने वाला समस्त वर्णों तथा आश्रमों के रक्षक के रूप में जन्म दिया है । ३६ महर्षि भृगु बोले - ऋषियो ! मैं अब प्रजा की रक्षार्थ अमात्यों-सचिवों आदि के साथ राजा द्वारा आचरण योग्य नियमों की जानकारी क्रम से विस्तारपूर्वक देता हूं । ध्यान से सुनिए । ३७ प्रातःकाल उठकर राजा तीनों वेदों में कुशल वृद्ध विद्वान ब्राह्मणों की सेवा में उपस्थित हो और उनके निर्देशों के अनुसार राज्य का कार्य संचालन करे । ३८ राजा को सदा वेदज्ञाता, पावन आचरण वाले तथा वृद्ध ब्राह्मणों की संगत में रहना तथा उनकी सेवा करनी चाहिए । ज्ञान तथा आयु में बड़े की सेवा करने वाला राजा राक्षस तक से सम्मानित किया जाता है । ३९ राजा चाहे सुशिक्षित हो तथापि वह प्रतिदिन ज्ञान में वृद्ध (अत्यधिक ज्ञानवान) तथा आयु में बड़े ब्राह्मणों से शिक्षा ले । सुशिक्षित तथा विनम्र राजा का कभी विनाश नहीं हो सकता । ४० अनेक राजा जो धन-सम्पदा और शक्ति से पूर्ण थे धृष्ट होने के कारण नष्ट हो गए । इसके विपरीत जंगली में भटकनेवाले अनेक साधनहीन राजाओं ने भी स्वतः नष्ट हुए राज्य अपनी विनम्रता के फलस्वरूप पुनः प्राप्त कर लिए । ४१,४२ वेन, नहुष, सुदास, यवन, सुमुख तथा निमि आदि राजा अपने अविनय (विनम्रता से रहित या धृष्टता) के कारण नाश को प्राप्त हुए । इसके विपरीत पृथु तथा मनु को अपनी विनम्रता के फलस्वरूप राज्य की प्राप्ति हुई । कुबेर को धन का अधिपतित्व (स्वामित्व) तथा गाधिपुत्र विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व अपनी विनम्रता के कारण प्राप्त हुए । ४३ वेद विद्या के विद्वानों से राजा को वेदों का ज्ञान, दण्ड नीति, तर्कशास्त्र एवं वेदान्त की शिक्षा लेनी चाहिए । सामान्य व्यक्तियों से लोक व्यवहार (अर्थात् किसेक साथ कब और कैसा व्यवहार किया जाए) की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए । ४४ जिस राजा ने अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली हो, वही प्रजा को अपने नियंत्रण में रख सकता है । अतः राजा को प्रतिदिन अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । ४५ कामवासना से पैदा होने वाले दस तथा क्रोध से पैदा होने वाले आठ, इस प्रकार कुल अठारह दुर्जेय विषयों पर विजय प्राप्त करने तथा उनसे मुक्त रहने का प्रयत्न राजा को करते रहना चाहिए । ४६ काम वासना या काम से पैदा होने वाले दस दोषों में आसक्त रहने वाला राजा धर्म एवं अर्थ से विहीन हो जाता है । इसी तरह क्रोध से पैदा होने वाले आठ व्यसनों में आसक्त अपने तन-मन दोनों को नष्ट कर लेता है । ४७ दस व्यसन जो काम के कारण जन्म लेते हैं, निम्नलिखित हैं - १. शिकार खेलना (मृगया) २. जुआ खेलना, ३. दिन में अर्धनिद्रित रहते हुए कपोल कल्पनाएं करना ४. पर निन्दा करना, ५. नारियों के साथ रहना, ६. शराब या सुरा पीना, ७. नृत्य करना, ८. श्रृंगारिक कविताएं, गीत आदि गाना, ९. वाद्य यंत्र बजाना, १०. बिना किसी उद्देश्य के घूमना । ४८ आठ व्यसन जो क्रोध से उत्पन्न होते हैं, वे हैं - १. चुगुली करना, २. साहस, ३. द्रोह, ४.ईर्ष्या करना, ५. दूसरों में दोष देखने की आदत, ६. दूसरों के धन को छीन लेना, ७. गालियां देना, ८. दूसरों से बुरा व्यवहार करना । ४९ समस्त विद्वानों का यह मत है कि काम तथा क्रोध से जन्म लेने वाले दोनों तरह के व्यसन लोभ से ही उत्पन्न होते हैं । अतः राजा को अपने लोभ को जीतने अर्थात् उसके वश में रखने के लिए पूर्ण प्रयत्न करने चाहिए । ५० काम से जन्म लेने वाले दोषों में चार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं - सुरापान करना, मांसाहार करना, स्त्री के संग रहना तथा शिकार करना । इन चारों को जीतने का कार्य बहुत ही कष्ट साध्य समझा गया है । ५१ क्रोध से पैदा होने वाले दोषों में से भी तीन पर काबू रखना बहुत कठिन है । यह तीन दोष हैं - शारीरिक दण्ड देना, अपनी वाणी द्वारा दूसरों की मानहानि करना एवं धन को छीनना या लूटना । ५२ राजा को ऊपर बताए सात दोषों - काम से जन्म लेने वाले चाह तथा क्रोध से पैदा होने वाले तीन व्यसनों में क्रमशः धन छीनने से कठोर वचन, कठोर वचनों से शारीरिक दण्ड इसी तरह शिकार से स्त्री संग, से मांसाहार करना और उससे भी सुरापान करना (शराब पीना) पर नियंत्रण रखने को कठिन समझना चाहिए । ५३ मृत्यु तथा व्यसन में से व्यसन कष्ट देता है । व्यसन करने वाले व्यक्ति का निरंतर पतन होता जाता है जबकि व्यसन न करने वाला मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करता है । ५४ राजा को मूल परम्परा से सेवा करते आए ऐसे सात-आठ व्यक्तियों को अपना सचिव बनाना चाहिए जो शास्त्रों का ज्ञान रखते हों, फल लक्षयभेद कर लेते हों और उत्तम कुल में जन्में हों । ५५ सरल लगने वाला कार्य भी अकेले और असहाय व्यक्ति को कठिन लगता है, फिर राज-काज के महान भार को अकेला राजा कैसे वहन कर सकता है । इसलिए उसे सचिवों की सहायता और सेवा की आवश्यकता पड़ती है । ५६ अपने सचिवों के साथ राजा को सामान्यतः युद्ध, संधि, स्थान की उत्पत्ति, धन-सम्पत्ति की बढ़ोत्तरी, जो कुछ प्राप्त हो गया हो उसकी रक्षा तथा वृद्धि आदि पर विचार विनिमय करते रहना चाहिए । ५७ अपने मंत्रियों से राजा को ऊपर के श्लोक में बताए विषयों पर अलग-अलग तथा मिले-जुले विचारों को जान कर प्रजा की भलाई हेतु कार्य करने चाहिए । ५८ राजा को चाहिए कि उसके मंत्रियों में जो सबसे अधिक बुद्धिमान तथा विशिष्ट ब्राह्मण मंत्री हो । उसके साथ संधि, विग्रह आदि विषयों पर विचार विनिमय करे । ५९ ब्राह्मण मंत्री को अपने विश्वास में लेकर और उस पर विश्वास करके राजा सभी कार्यों का भार उसी पर सौंप दे तथा उसके साथ अच्छी तरह विचार विनिमय करके निर्णय ले, तत्पश्चात् कार्य आरम्भ करे । ६० राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य के अन्य शुद्ध बुद्धि वाले ऐसे लोगों को सचिव पद पर नियुक्त करे जो धनोपार्जन करने के विशेषज्ञ हों और जनकी भली-भांति परीक्षा ली जा चुकी हो । ६१ राज्य को व्यवस्थित रीति से भली प्रकार चलाने के लिए राजा को जितने भी व्यक्तियों की जरूरत हो उतने ही योग्य, आलस्यहीन तथा कर्तव्य पालन में निपुण व्यक्तियों को सचिव या अमात्य के रूप में नियुक्त करे । ६२ राजा को चाहिए कि उसके सचिवों में जो वीर, चतुर तथा ऊंचे कुल के हों उन्हें आर्थिक विषयों का, जो पवित्र आचरण वाले हों उन्हें खनन कार्य (खानों को खुदवाने का काम) का तथा धर्म से डरने वालों को महल की व्यवस्था एवं आवश्यकताओं को पूरा करने का कार्य भार सौंपे । ६३ राजा को ऐसे व्यक्ति को अपने दूत नियुक्त करना चाहिए जो सभी शास्त्रों का ज्ञाता हो, जो दूसरों की मुख मुद्राओं, चेष्टाओं तथा संकेतों से उनके आंतरिक भाव समझने में कुशल हो, जो पवित्र अन्तःकारण का चतुर तथा अच्छे कुल का व्यक्ति हो । ६४ सफल राजदूत ऐसा व्यक्ति कहा जाता है जो राजा एवं राज्य से प्रेम रखता हो, जो अन्दर तथा बाहर से शुद्ध तथा पवित्र हो, जो राज का कार्य निकालने में चतुर हो, जिसकी स्मरण शक्ति अच्छी हो, जो देश और काल की जानकारी रखता हो, जिसका व्यक्तित्व आकर्षक हो, जो वार्तालाप करने की कला में चतुर तथा साहसी हो । ६५ सुशिक्षा दण्ड के अधीन रहती है अर्थात् दण्ड के भय से ही लोग अच्छा आचरण करते हैं । अतः राजा को दण्ड देने का भार किसी योग्य मंत्री को सौंप देना चाहिए । राज्य कोष तथा राजा की रक्षा के काम राजा को अपने पास रखने चाहिए । विदेश विभाग, पड़ोसी राजाओं से सन्धि-विग्रह आदि विषय दूत को सुपुर्द करने चाहिए । ६६ दूत दूसरे देशों से सम्बन्ध सुधारने या बिगाड़ने के कार्य भी करता है । दूत वह सब कार्य भी करता है जिनसे विरोधी देशों की प्रजा में फूट पड़ जाए । ६७ दूत का यह कार्य भी है कि वह राजा के विरोधियों के संकतों तथा चेष्टाओं से उनके राजद्रोह संबंधी षडयंत्रों को तथा उनके विश्वसनीय सेवकों की मुख मुद्राओं संकेतों एवं चेष्टाओं से उनके मन की बात जानने की चेष्टा करे । ६८ दूत को अपने राजा के विरोधी या शत्रु राजा के मन की सही जानकारी प्राप्त करके पहले से ही ऐसे प्रयत्न करने चाहिए जिससे विरोधी या शत्र राजा उसके अपने राजा की हानि नहीं कर सके । ६९ ऐसे देश में राजा को रहना चाहिए, जिसके चारों ओर वन हो । जिसकी भूमि पर हरियाली हो, जल की अधिकता हो, धन-धान्य से सम्पन्न हो, वहां के रहने वाले शिष्ट तथा आर्य हों, जहां किसी प्रकार के रोग की सम्भावना नहीं हो तथा जहां जीविका कमाने के अनेक साधन उपलब्ध हों । ७० राजा को अपना निवास स्थान किसी दुर्ग के अन्दर बनाना चाहिए, ये दुर्ग धनुषाकार, पृथ्वी के आकार के, जल की आकृति के, वृक्षों की आकृति या पर्वतों के आकार में से किसी एक के आकार के हो सकते हैं । ७१ (ऊपर के श्लोक में बताए ) इन दुर्गों में से गिरिदुर्ग अर्थात् पर्वत के आकार का दुर्ग (किला) सबसे अधिक सुरक्षित होता है । अतः वही उत्कृष्ट है । अतः गिरिदुर्ग में ही रहने का प्रयत्न राजा को करना चाहिए । ७२ ऊपर बताए छह तरह के दुर्गों में छह तरह के जीव अपनी रक्षा के लिए रहते हैं धनुर्दुर्ग में हिरण रहते हैं, महीदुर्ग (पृथ्वी के आकार का दुर्ग) में मूसे, जलदुर्ग में जल में रहने वाले जीव, वृक्षदुर्ग में बन्दर, नृदुर्ग में सामान्य मनुष्य एवं पर्वत जैसे दुर्ग में पर्वत के लोग निवास करते हुए अपनी रक्षा करते हैं । ७३ जिस तरह छह तरह के दुर्गों में रहने वाले, छह प्रजापतियों के प्राणियों को शत्रु पीड़ा नहीं दे सकते, उसी तरह दुर्ग का आश्रय लेने वाले राजा का वध उसके (शत्रु) बैरी लोग नहीं कर सकते । ७४ दुर्ग का निर्माण इसलिए किया जाता है कि उसकी चारदीवारी के अन्दर रहने वाला एक धनुर्धर किले के बाहर रहने वाले सौ योद्धाओं का तथा सौ धनुर्धर बाहर के हजार योद्धाओं का सामना कर सकें । ७५ उस दुर्ग में अस्त्र-शस्त्रों, घोड़ों-हाथियों एवं वाहनों आदि का बहुत विशाल भण्डार होना चाहिए। दुर्ग में ब्राह्नणों, शिल्पों तथा यन्त्रकारों हेतु निवास भी होने चाहिए । ७६ उसके बीच में अपने रहने के लिए पर्याप्त विस्तार वाला घर बनाना चाहिए । यह आवास सब प्रकार से गुप्त अर्थात् सुरक्षित होना चाहिए । इस जल तथा वृक्षों से युक्त तथा सभी ऋतुओं के अनुकूल निवास योग्य होना चाहिए । ७७ राजा को उसमें निवास करते हुए अपने ही वर्ण की, अच्छे लक्षणों वाली, बड़े कुल वाली, मन को प्रसन्नता देने वाली, रूप तथा गुणों से युक्त सुन्दर नारी से विवाह करना करना चाहिए। ७८ पुरोहित, आचार्य एवं ऋत्विज का राजा को वरण करना चाहिए ताकि ये सब राजा के गृह कर्म, अग्निहोत्र आदि को पूरा कर सकें । ७९ वहां (दुर्ग में) रहते हुए राजा को अनेक प्रकार के यज्ञ करने चाहिए और उनमें बड़ी-बड़ी दक्षिणा देनी चाहिए । इसके अलावा राजा को धर्म के लिए ब्राह्नणों को धन एवं मूल्यवान चीजें देते रहना चाहिए । ८० कृषि कर की उगाही राजा को ऐसे व्यक्तियों द्वारा करवानी चाहिए जिनकी ईमानदारी की पहले से परीक्षा ली जा चुकी हो । राजा को वेद-शास्त्रों द्वारा बताए मार्ग का पालन करना चाहिए तथा प्रजा के साथ अपनी सन्तान की भांति व्यवहार करना चाहिए । ८१ प्रजा की भलाई से संबंधित कार्यों को करने वालों पर दृष्टि रखने के लिए राजा को अनेक विद्वानों को अध्यक्ष नियुक्त करना चाहिए तथा उन्हें आदेश देने चाहिए कि वे उन व्यक्तियों के सभी तरह के कामों पर कठोर दृष्टि रखें । ८२ गुरुकूल से लौटे विप्रों की राजा को श्रद्धा सहित सेवा -पूजा करनी चाहिए । स्नातकों को दिया जाने वाला दान राजा का अक्षय ब्राह्मकोष कहलाता है । इससे उसके यश में वृद्धि होती है । ८३ राजा द्वारा जो धन दान स्वरूप स्नातकों को दिया जाता है उसे चोर तथा शत्रु नहीं छीन सकते हैं और न ही वह नष्ट होता है । इसलिए राजा को उन ब्राह्मणों के पास अपनी अक्षय निधि का संचय करते रहना चाहिए । ८४ स्नातक ब्राह्मणों को दिया जाने वाला दान तथा भोजन, यज्ञ आदि कराने से कहीं श्रेष्ठ है क्योंकि अग्नि में डाली जाने वाली हवि कभी गिरकर या सूखकर नष्ट हो सकती है पर ब्राह्मण के अग्नि स्वरूप मुख में गया भोजन इन दोषों से मुक्त है । ८५ स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले को दान देने से पदार्थ का दुगुना पुण्य मिलता है परन्तु जो ब्राह्मण सुशिक्षित है उसको जो दान दिया जाता है उसका लाख गुना पुण्य प्राप्त होता है । परन्तु जो दानकर्ता ऐसे ब्राह्मण को दान करता है जो वेद ज्ञान में पारंगत है उसका दानकर्ता को अनन्त पुण्य लाभ मिलता है । टिप्पणी - स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले ' से अर्थ ऐसे ब्राह्मण से है जो शिक्षित नहीं है । वह केवल जन्म से ब्राह्मण है । ८६ यजमान जिसको जिस श्रद्धा भाव से दान देता है तथा दान ग्रहण करने वाले में जो पात्रता होती है उसी के अनुसार उसे परलोक में लाभ प्राप्त होता है । ८७ यदि प्रजा पालक राजा को कोई समान, उत्तम या अधिक शक्ति वाला राजा युद्ध के लिए चुनौती देता है तो उसका यह क्षत्रिय धर्म है कि वह उस चुनौती को स्वीकार करे । ८८ राजाओं के कल्याणकारी धर्म हैं - युद्ध में पीठ दिखाकर नहीं भागना, प्रजा का पालन करना तथा धन-सम्पत्ति से ब्राह्मणों की सेवा करना । ८९ युद्ध में एक दूसरे की हत्या करने की इच्छा से अपनी पूर्ण शक्ति से युद्ध करने वाले तथा प्राण जाने की सम्भावना होने पर भी पीठ नहीं दिखाने वाले राजा युद्ध में मृत्यु पाने पर स्वर्गलोक के अधिकारी हो जाते हैं । ९० युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं को गुप्त आयुधों से या ऐसे अस्त्रों से जो शरीर में प्रवेश करने के बाद कठिनाई से निकलते हैं अथवा विषाक्त या अग्नि वर्षा करने वाले शस्त्रों से नहीं मारना चाहिए । ९१,९२ वीर क्षत्रिय राजा को ऐसे शत्रु को नहीं मारना चाहिए जो वाहन से उतरकर खड़ा हो जाए, जो नपुंसक हो, जो हाथ जोड़ कर अथवा सिर के बाल खोलकर खड़ा हो, जो धरती पर बैठा हो, जो कहे कि ' मैं तुम्हरी शरण में हूं ' क्षत्रिय राजा को इसी प्रकार सोए हुए, कवच उतारे हुए, नंगे, बिना शस्त्र धारण किए, लड़ने के अनिच्छुक, दूसरे से वार्तालाप करते या लड़ाई देखने वाले शत्रु का वध नहीं करना चाहिए । ९३ धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय राजा को ऐसे शत्रु को भी नहीं मारना चाहिए जिसके शस्त्र टूट गए हों, जो व्यसन ग्रस्त हो, जिसका इष्ट नाश हो गया हो, जो विपत्ति में पड़ा हो, दुखी हो, बहुत अधिक घायल हो या भयभीत हो अथवा युद्ध छोड़कर भाग रहा हो । ९४ जो राजा भयभीत या युद्ध से वापस आते शत्रु का वध करता है, उसे मारे गए शत्रु के सभी पापों का दण्ड भोगना पड़ता है । ९५ जो पीछे भागने वाले शत्रु की हत्या करता है उसके सभी संचित पुण्य फल मरने वाले को मिल जाते हैं । ९६ राजा युद्ध में शत्रुओं के रथ, घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, पशु, स्त्रियां तथा घी-तेल आदि जो भी जीतता है, वह सब राजा को उसे ही दे देना चाहिए जिसने इन्हें जीता है । ९७ वेदों में ऐसा कहा गया है कि योद्धाओं द्वारा लूटा हुआ माल अपने राजा को दे देना चाहिए लेकिन उचित यह है कि राजा यह माल योद्धाओं को ही वापिस कर दे और जिस धन-सम्पत्ति को सबने मिलकर लूटा हो वह सभी योद्धाओं में वितरित कर दे । ९८ यही योद्धओं का प्रारम्भ से चला आया धर्म है । युद्ध में शत्रुओं को संहार करते हुए इस धर्म को तोड़ना नहीं चाहिए । ९९ राजा का यह कर्तव्य है कि जो प्राप्त नहीं हो सका है उसको पाने का प्रयत्न करे, जो प्राप्त हो गया है उसकी यत्नपूर्वक रक्षा करे, रक्षा किए गए धन-सम्पत्ति की वृद्धि करे और जितनी धन-सम्पत्ति बढ़ चुकी हो उसको अधिकारियों ( सतपात्रों ) में विशेष रूप से वितरित करता रहे । १०० राजा को राजा होने का प्रयोजन ऊपर बताए गए चार पुरुषार्थों की सिद्धि करता है । उसे आलस्य रहित होकर सदैव इनका पालन करना चाहिए । १०१ अप्रास को शक्ति से प्राप्त करने, जो प्राप्त हो गया है, उसकी देखभाल तथा रक्षा करने, रक्षित की निवेश द्वारा वृद्धि करने तथा बढ़ी हुई धन-सम्पत्ति को दान देने में राजा को सदैव तत्पर रहना चाहिए । १०२ राजा को शक्ति का प्रयोक्ता एवं पुरुषार्थ का प्रकाशक होना चाहिए । उसे अपनी धन-सम्पत्ति को गुह्य रखते हुए शत्रु के अवगुणों पर सदैव दृष्टि रखनी चाहिए । १०३ ऐसे राजा से सम्पूर्ण संसार डरता है जो सदैव दण्ड देने के लिए उद्यत रहता है । इसलिए राजा को दण्ड द्वारा ही सबको सही मार्ग पर चालाना चाहिए । १०४ अपनी प्रजा के साथ राजा को पूरी तरह कपट रहित भाव से व्यवहार करना चाहिए । उसे गुप्त रूप से शत्रुओं के छल-कपट से होशियार रहना चाहिए । १०५ राजा को इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि उसकी कमजोरियों या दोषों को शत्रु नहीं जान पाए परन्तु वह शत्रु की कमजोरियों को जान ले । राजा को कछुवे की तरह अपने अंगों को गुप्त रखना एवं दोषों को छिपाए रखना चाहिए । टिप्पणी - राजा की सेना, विशेष प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और उसका राज्यकोश ही उसके अंग माने गए हैं । १०६ राजा को बगुले की भांति धन की चिन्ता, सिंह के समान पराक्रम करने वाला, भेड़िए के समान क्रूर, हत्यारा तथा खरगोश की तरह भागने वाला होना चाहिए । टिप्पणी - राजा को अपने पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए जो राजनीति अपनानी चाहिए उसमें बगुले द्वारा मछलियां पकड़ने में जो एकाग्रता होती है, सिंह में जो पराक्रम होता है, भेड़िए में जो निर्ममता होती है तथा खरगोश में जो तीव्रता होती है, उन्हें अपनाना चाहिए । १०७ इस भांति जो राजा विजय की कामना करता है उसे साम-दाम आदि उपायों को अपना कर अपने विरोधियों को वश में बनाए रखना चाहिए । १०८ राजा को चाहिए कि यदि उसके शत्रु साम ( समझाना ), दाम ( धन आदि देना ) तथा भेद ( शत्रु में फूट डाल देना ), इन तीनों उपायों से भी वश में नहीं आए तो धीरे-धीरे दण्ड के प्रयोग से उनको अपने काबू में करे । १०९ राजनीति के चार उपायों - साम, दाम, भेद तथा दण्ड में विद्वान लोग राष्ट्र की प्रगति के लिए साम एवं दाम के उपयोग का ही अधिक समर्थन करते हैं । ११० जिस तरह खेती करने वाला किसान धान्य की रक्षा हेतु खर-पतवार को उखाड़ कर फेंक देता है, उसी तरह राजा को राष्ट्र की रक्षा हेतु विरोधियों का समूल नाश कर देना चाहिए । १११ अज्ञान के वश में होकर अपनी प्रजा को दुःख देने वाला राजा विवेकहीन होता है और शीघ्र ही अपने परिवार सहित राज्य तथा अपने जीवन को नष्ट कर लेता है । ११२ जिस तरह शरीर का शोषण करने ( भोजन-जल आदि कम देना तथा उससे कार्य ज्यादा से ज्यादा लेना ) से जीवों के प्राण कमजोर पड़ जाते हैं उसी तरह राष्ट्र ( प्रजा ) का शोषण करने से राजाओं की प्राणशक्ति भी कमजोर हो जाती है । ११३ राजा को प्रजा की उन्नति तथा समृद्धि के लिए आगे बताए जाने वाले उपायों को अपनना चाहिए । राष्ट्र ( प्रजा ) के समृद्ध तथा सन्तुष्ट होने पर ही राजा सुख से रहता तथा उन्नति करता है । ११४ राज्य की सुव्यवस्थापूर्वक उन्नति करने के लिए राजा को दो-दो, तीन-तीन तथा पांच-पांच गांवों के वर्ग बनाने चाहिए फिर सौ गांवों का एक समुदाय बनाकर विकास की योजना चलानी चाहिए । ११५ हरेक गांव की उन्नति को देखने के लिए जैसे एक मुखिया नियुक्त किया जाए वैसे ही दल ग्रामों ( गांवों ) का, दस-दस ग्रामों को मिलाकर बीस गांवों का तत्पश्चात् बीस-बीस ग्रामों के पांच वह्गों को मिलाकर सौ ग्रामों का तथा सौ-सौ के दस वर्गों से हजार ग्रामों का एक समुदाय बनाए और उसकी देखभाल हेतु एक-एक मुखिया । ११६,११७ एक गांव का मुखिया अपने गांव में पैदा होने वाले और सुधारे नहीं जा सकने वाले दोष का प्रतिवेदन ( रिपोर्ट ) दस गांवों के अधिपति को दे । दस गांवों का स्वामी असमर्थ होने पर उसकी सूचना बीस गांवों के अधिपति को, बीस गांवों का अधिपति गांवों के स्वामी को तथा सौ गांवों का स्वामी अपने से उच्च हजार गांवों के स्वामी को अपनी सम्मत्ति सहित सूचना दे । ११८ गांव के मुखिया का यह कर्तव्य भी है कि वह ग्रामवासियों द्वारा राजा को कर (टैक्स ) के रूप में दिए जाने वाले अन्न, पान ( जल ) तथा ईंधन आदि की उगाही करे । ११९ दस गांवों के मुखिया को एक कुल ( छह-छह बैलों वाले हलों से जोती जाने वाली धरती ' कुल ' कहलाती है ) और बीस गांवों के मुखिया को पांच कुलों की धरती से लगान वसूल करना चाहिए । सौ गांवों के मुखिया को पूरे गांव से तथा हजार गांवों के मुखिया को नगर से कर वसूलने का अधिकार होता है । १२० राजा के एक विश्वसनीय सचिव के पास इन सभी गांवों के अधिपतियों के कार्य क्षेत्रों तथा कार्यों की देखभाल की जिम्मेवारी होनी चाहिए । उसे हमेशा आलस्य रहित होकर इन ग्राम अधिपतियों पर दृष्टि रखनी चाहिए । १२१ हरेक नगर में राजा को सभी नागरिकों के हित की चिन्ता करने वाले, अच्छे कुल के और तेजस्वी पुरुष को नगराधिपति नियुक्त करना चाहिए । यह व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जो शुक्र के समान तेजस्वी तथा किसी से भी भयभीत नहीं होने वाला हो । १२२ नगर के अधिपति को गांवों में जाकर वहां के मुखियाओं के कार्यों का निरीक्षण करना चाहिए । मुखियाओं की सूचनाओं को देने वाले दूतों से भी उन्हें घनिष्ठ सम्पर्क बनाए रखना चाहिए । १२३ राजा द्वारा प्रजा की रक्षा हेतु जो कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं वे अधिकतर दुष्ट प्रकृति के होते हैं और प्रजा से उसके धन का हरण करने लगते हैं । अतः इन राजकर्मचारियों से प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है । १२४ प्रजा के किसी कार्य को करने के बदले घूस ( रिश्वत ) लेने वाले अपवित्र बुद्धि वाले अधिकारियों की सम्पति छीनकर उन्हें देश निकाला दे देना चाहिए । १२५ भिन्न-भिन्न कार्यों में नियुक्त स्त्रियों तथा पुरुष के पद एवं कार्य के अनुसार राजा को उनका वेतन निश्चित करना चाहिए तथा समय-समय पर उसकी समीक्षा करते रहना चाहिए । १२६ साधारण प्रकार का काम करने वाले कर्मचारी को प्रति माह एक पण वेतन तथा एक द्रोण धान्य एवं छह माह में वर्दी ( युनीफार्म ) देनी चाहिए । इसी आधार पर उच्च स्तर का काम करने वाले कर्मचारी को स्थिति के अनुसार छह गुना वेतन देना चाहिए । १२७ राजा को कराधान ( टैक्स ) निश्चित करते समय व्यापारियों द्वारा माल खरीदने तथा बेचने, परिवहन पर होने वाले खर्चों तथा माल की देखभाल करने पर होने वाले खर्चों आदि को ध्यान में रखना चाहिए । १२८ राजा को कर इस प्रकार लगाना चाहिए जिससे राज्य में उद्योगों तथा व्यापार की वृद्धि होने के साथ-साथ उसका अर्थात् राजा का भी लाभ हो । १२९ राजा को प्रजा से उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके वार्षिक कर वसूलना चाहिए, जिस प्रकार जोंक, बछड़ा तथा भ्रमर धीरे-धीरे अपना आहार खींचते हैं । टिप्पणी - कहने का आशय यह कि राजा इस प्रकार टैक्स लगाए और इतना कम लगाए कि प्रजा को जरा भी पीड़ा नहीं हो । १३० राजा को पशुओं और सोने की खरीदारी और बेचने से होने वाले लाभ का दो प्रतिशत, धान्य का छठा, आठवां या बारहवां भाग ( भूमि की उर्वरता तथा स्थिति के अनुसार ) कर के रूप में वसूल करना चाहिए । १३१,१३२ पेड़ों, मांस, घी, शहद, सुगन्धित वस्तुओं, दवाओं, रसों, फूलों, कन्द-मूलों तथा फलों पर सोलह प्रतिशत ( छठा भाग ) कर स्वरूप लेना चाहिए । इसी तरह पत्तों, शाकों, तृणों, चमड़े, मिट्टी तथा पाषण ( पत्थर ) से निर्मित बरतनों और अन्य चीजों के लाभ का छठा भाग ( सोलह प्रतिशत ) कर स्वरूप लेना चाहिए । १३३ मृत्यु की अवस्था में और धन के अभाव में भी राजा किसी वेदज्ञ विद्वान से कर नहीं ले । राजा का यह कर्तव्य है कि वह इसका ध्यान रखे कि उसके राज्य का निवासी कोई ब्राह्मण भूख से पीड़ित न रहे । १३४ जिस राज्य में श्रोत्रिय ब्राह्मण भूख से व्याकुल रहता है, वह राज्य थोड़े ही काल में ब्राह्मण की भूख के कारण नष्ट हो जाता है । १३५ राजा का यह कर्तव्य है कि वह श्रोत्रिय ब्राह्मण के वेद ज्ञान तथा कर्मानुष्ठान की जानकारी प्राप्त कर उसकी धर्मयुक्त जीविका निश्चित करे । जिस तरह पिता अपने धर्मानुसार जन्मे ( औरस ) पुत्र की रक्षा करता है उसी तरह राजा को श्रोत्रिय ब्राह्मण की आजीविका का ध्यान रखना चाहिए । १३६ जब राजा द्वारा संरक्षण पाकर श्रोत्रिय ब्राह्मण प्रतिदिन धर्म के अनुष्ठान करता है, तो उसके फलस्वरूप राजा की आयु, धन तथा यश की बढ़ोत्तरी होती है । १३७ व्यापार तथा उद्योग आदि से राष्ट्र के जो प्रजाजन अपना जीवन चलाते हैं उनसे भिन्न व्यक्तियों ( जैसे विदेशी ) से भी राजा को थोड़ा कर लेना चाहिए । १३८ राजा को ऐसे लोगों से जो जीविका के साधन निश्चित नहीं होने के कारण कर देने में असमर्थ हैं, जैसे - बढ़ई, लोहार, राजगीर, मजदूर, शूद्र आदि उनसे महीनेदो महीने काम ले लेना चाहिए । १३९ लोभ के वश में आकर प्रजा से अधिकाधिक कर लेना प्रजा की जड़ काटना है ( जब प्रजा अधिक कर देगी तो अपना जीवन यापन कैसे करेगी । इससे उसमें राजा के प्रति विद्रोह की भावना फैलेगी ) तथा प्रजा से अनुराग के वशीभूत होकर कोई कर नहीं लेना राजा के लिए आत्मघात करने के समान है क्योंकि वह अपना और राज्य का कार्य कैसे चलाएगा । अतः राजा को दोनों प्रकार की अतियों से बचना चाहिए । १४० राजा को अवसर एवं कार्य के अनुसार ही कठोर अथवा कोमल रूप धारण करना चाहिए क्योंकि समयानुकूल चलने वाला राजा ही सबको प्रिय होता है । १४१ राजा को चाहिए कि अगर रोग आदि किसी भी कारण से वह राज्य के सभी विषयों का निरीक्षण-निर्देशन करने में समर्थ नहीं है तो वह अपनी जगह किसी धर्मत्मा, बुद्धिमानस जितेन्द्रिय तथा कुलीन पुरुष को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त कर दे । १४२ ऊपर बताई विधि से सम्पूर्ण व्यवस्था करके अपने कर्तव्य का पालन करने वाले राजा को अपनी प्रजा की रक्षा के लिए सदा सावधान तथा संलग्न रहना चाहिए । १४३ उस राजा को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिए जिस राजा तथा राज्य के अधिकारियों के सामने सहायता के लिए चीखती-चिल्लाती प्रजा डाकुओं द्वारा लूटी जाती है । १४४ प्रजा का पालन करना ही क्षत्रिय का सबसे महान धर्म है । जो राजा अपने इस धर्म का उचित रूप से पालन करता है वही राज्य के सुखों को भोगने का अधकारी होता है । १४५ एक पहर रात्रि के रहते ह राजा को उठ जाना चाहिए फिर शौच आदि से निवृत्त होकर अग्निहोम आदि यज्ञों तथा ब्राह्मणों का पूजन करने के पश्चात् अपनी सुन्दर सभा में प्रवेश करना चाहिए । १४६ राजा को सभा में उपस्थित हुए प्रजाजनों के मामले निपटाने चाहिए । इसके बाद सन्तुष्ट प्ररजाजनों को विदा देकर अपने मंत्रियों के साथ सलाह करनी चाहिए । १४७ राजा को अपन मंत्रियों के साथ किसी ऐसे स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिए जो एकान्त में हो, पर्वत की चोटी पर हो या महल के गुप्त कमरे का कोना हो या पूरी तरह निर्जन वन हो जहां ( शत्रुओं के ) भेदिए किसी प्रकार पहुंच नहीं सकें । १४८ जिस राजा के गोपनिय रहस्यों को शत्रु मिलकर या अलग-अलग रहकर भी नहीं ज्ञात कर पाते, ऐसा राजा कोशहिन होने पर भी सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन करने की सामर्थ्य रखता है । १४९ अपने मंत्रियों के साथ परामर्श करते समय राजा को मूर्ख, अशिक्षित, गूंगे, बहरे, अंधे, लगड़े, बहुत वृद्ध, म्लेच्छ, स्त्री, रोगी, अंग वाले एवं पालतू पक्षी ( जैसे तोता-मैना आदि ) को उस स्थान से हटा देना चाहिए क्योंकि ऐसे लोग अपने संकेतों ( इशारों ) द्वारा राजा की मंत्रणा को प्रकट कर सकते हैं । १५० मूर्ख, अशिक्षित ( जड़ व्यक्ति ) गूंगे-बहरे आदि हीन भावना की ग्रंथि से पीड़ित होने के कारण, पक्षी स्वभाव से ही ( सुनी बात को रटने वाले ) अभ्यास होने के कारण ( मंत्रणा ) को प्रकट कर देते हैं । स्त्रियां स्वभाव वश ( अस्थिर बुद्धि के कारण ) मंत्रणा को प्रकट कर देती हैं । अतः राजा इन सभी को परामर्श स्थल से यत्नपूर्वक हटा दे । १५१ राजा को शारीरिक और मानसिक थकावट से रहित होकर दिन के मध्य में या अर्धरात्रि में अकेले अथवा मंत्रियों के साथ धर्म, अर्थ तथा काम से सम्बन्धित विषयों पर चिन्तन करना चाहिए । १५२ यदि मन्त्रियों के धर्म, अर्थ, काम आदि विषयों पर अलग-अलग विचार हों तो राजा को उन विषयों के स्थान पर कन्याओं के विवाह एवं राजकुमारों की सुरक्षा से संबंधित विषयों पर विचार करना चाहिए । १५३,१५४ राजा को मन्त्रियों के साथ दूसरे राज्यों में भेजने, अधूरे कामों को पूरा करने, रनिवास की गतिविधियों, प्रजा के प्रतिनिधियों के व्यवहार तथा मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की निष्ठा तथा विरक्ति जैसे आठ प्रकार के कामों तथा तत्व की दृष्टि से पंच वर्गों पर विचार विनिमय करते रहना चाहिए । टिप्पणी - आठ तथा पांच प्रकृतियों का उल्लेख मनु जी ने नहीं किया है परन्तु अन्यत्र मिले वाले नाम निम्नलिखित हैं - आठ कर्मः (१) उपहरों और करों को वसूलना (२) वेतन तथा पुरस्कार बांटना (३) दुष्टों की संगत छोड़ देना (४) अधिकारियों के मतभेदों को दूर करना ( ५) किसी प्रकार की बुराई को पनपने से पहले ही नष्ट कर देना । (६) लोकव्यवहार द्वारा जानता के मन को समझना (७) अपराध करने वालों को सजा देना (८) पराजित हो चुके व्यक्तियों, राजाओं, शत्रुओं आदि को प्रायश्चित करने अवसर देना । पंच वर्ग - (१) कार्य का प्रारम्भ करने का उपाय (२) पुरुष की सम्पति (३) हानि को दूर करना या पूरा करना (४) देश तथा काल का विभाग करना (५) कार्य सिद्ध होना । १५५,१५६ पड़ोसी राजाओं से राजा के चार प्रकार के सम्बन्ध हो सकते हैं - १. अवसरानुकूल व्यवहार करने वाला पड़ोसी राजा अर्थात् मध्यम स्तर के सम्बन्ध २. मन ही मन विजय की कामना रखने वाला पर ऊपर से मित्र ३. उदासीन अर्थात् न मित्र की तरह व्यवहार करे, न शत्रु की तरह ४. प्रकट रूप से शत्रु जैसा व्यवहार करने वाला पड़ोसी राजा । मण्डल की ये चार प्रमुख मूल प्रकृतियां हैं । आठ अन्य हैं । राजा का कर्तव्य है कि वह इन पर भी विचार करे । १५७ उपरोक्त के अतिरिक्त पांच प्रकृतियां और हैं - अमात्य ( मंत्री या मंत्रिपरिषद ), राष्ट्र, दुर्ग, कोश तथा दण्ड । इनमें से हरेक के संक्षेप में ७२ उपभेद किए गए हैं । १५८ राजा अपने शत्रु तथा के मित्र को सदैव अपने सामने समझते हुए व्यवहार करे । उन्हें अपने से कमजोर अथवा दूर नहीं माने । इसके बाद ही अपने मित्र को अपने निकट समझना चाहिए । इसके पश्चात् उदासीन या तटस्थ ( राजा या अधिकारी को समझना चाहिए । १५९ राजा अपने शत्रु, मित्र और उदासीन आदि को साम-दाम आदि द्वारा वश में करे । राजा को यह स्वतंत्रता है कि वह दूसरों ( विरोधियों या शत्रु राजाओं ) को अपने नियंत्रण में करने के लिए एक या एक से ज्यादा उपयोग करे या नहीं करे । १६० राजा को निम्नलिखित छह गुणों पर सदैव विचार करते रहना चाहिए - (१) दूसरे राजाओं से सन्धि करना (२) विग्रह करना (३) शत्रु पर आक्रमण का अभियान करना । (४) सही समय की प्रतिक्षा में बैठे रहना (५) भीतर से शत्रुता रखते हुए बाहर से मित्रता बनाए रखना । (६) अपने से अधिक शक्तिशाली का सहारा लेकर शत्रु दमन करना । १६१ राजा को छह गुणों -आसन, यान, सन्धि, विग्रह, द्वैधीभाव तथा अन्य का सहारा लेना - का उपयोग अवसर के अनुरूप ही करते रहना चाहिए । १६२ सन्धि-विग्रह छह गुणों में द्वैधीभाव को छोड़कर बाकी पांचों के दो-दो भेद किए जाते हैं । १६३ सन्धि के दो भेद हैं - समानयानकर्मा सन्धि तथा असमानयानकर्मा सन्धि । तत्काल लाभ पाने के लिए अथवा भविष्य में लाभ पाने के उद्देश्य से किसी दूसरे राजा से मिलकर यान करना ( शत्रु पर आक्रमण करना ) समानयानकर्मा सन्धि है । जब दो राजा भिन्न-भिन्न राजाओं पर एक ही समय या आगे-पीछे से आक्रमण करते हैं तो वह असमानयानकर्मा सन्धि कहलाती है । १६४ विग्रह के दो प्रकार हैं । पहले प्रकार का विग्रह वह है जिसमें अपना प्रतिशोध लेने के लिए शत्रु के व्यसन आदि को जानकर उपयुक्त या अनुपयुक्त काल में युद्ध करना । दूसरे प्रकार का विग्रह वह है जिसमें अपने मित्र के अपमान का बदला लेने के लिए या उसके द्वारा किए गए उपकार को चुकाने के लिए अथवा उस पर हुए आक्रमण से उसकी रक्षा के लिए शत्रु से युद्ध किया जाता है । १६५ यान ( शत्रु पर चढ़ाई करना ) के दो भेद हैं । प्रथम, संयोगवश या आवश्यकता के वश अकेले ही शत्रु पर आक्रमण कर देना । द्वितीय, मित्र के साथ मिलकर योजना बनाना और उसके अनुसार शत्रु पर आक्रमण कर देना । १६६ आसन ( अर्थात् शांत बैठे रहना ) के दो प्रकार हैं । पहला इस जन्म में की गई गलतियों या पूर्व जन्म के पापों के कारण अथवा दुर्भाग्य के कारण शक्ति कमजोर हो जाने से चुप बैठे रहना । द्वितीय, मित्र की बात या वचन का आदर करने के कारण युद्ध न कर शांत रहना । १६७ राजनीति के विद्वान जो षटगुणों के जानकर हैं, द्वैध के दो प्रकार बताते हैं । अपनी कार्य सिद्धि हेतु सेना के एक भाग को एक स्थान पर रखना प्रथम द्वैध तथा शेष सेना के दूसरे भाग के साथ राजा का स्वयं दुर्ग में रहना दूसरा द्वैध कहलाता है । १६८ संश्रय ( किसी का आश्रम लेना ) दो प्रकार का होता है - (१) शत्रु से पीड़ित राजा द्वारा विशेष प्रयोजन को पूरा करने हेतु किसी बलवान की शरण में जाना । (२) भविष्य में शत्रु से पीड़ा मिलने की आशंका से आत्मरक्षार्थ बलवान राजा का आश्रय लेना । १६९ भविष्य में निश्चित रूप से होने वाली अपनी बढ़ोत्तरी को देख कर वर्तमान में थोड़ी-बहुत पीड़ा सहने पर भी सन्धि कर लेनी चाहिए । १७० राजा अपने अमात्य, कोश एवं प्रजा आदि को सन्तुष्ट तथा पूर्णतः अपने अनुकूल देखने पर तथा सभी प्रकार से अपनी उन्नति को देखने पर ही शत्रु पर आक्रमण करने के लिए चल दे । १७१ जब राजा अपनी सेना आदि को बलवती तथा शत्रु की सेना आदि इसके विपरीत अर्थात् कमजोर समझे तो उस पर चढ़ाई कर दे । १७२ अपनी सेना तथा वाहन को कमजोर अनुभव करने पर राजा को अपने शत्रुओं को बहकाते रहना तथा शांत करते रहना चाहिए और सही अवसर की प्रतीक्षा में शांत बैठे रहना चाहिए । १७३ राजा जब शत्रु को अपने से अधिक शक्तिशाली देखे तब द्विया भाव को अपनाए । अपनी सेना के एक भाग को गुप्त रूप से युद्ध की तैयरियां करने में लगा दे तथा दूसरे भाग को प्रदर्शन हेतु सामान्य कार्यों को करनेमें लगाए । १७४ आक्रममकारी शत्रु राजा की शक्ति अगर प्रचण्ड तथा दुर्जेय हो तो उससे भी अधिक शक्तिशाली एवं धर्मात्मा राजा का संश्रय अर्थात् आश्रय लेना चाहिए । १७५ राजा का जो मित्र उसके शत्रु पर अंकुश रखने वाला तथा प्रजा को संतुष्ट करने वाला हो, उसका गुरु के कुल्य आदर-सत्कार करना चाहिए । १७६ यदि आश्रय लेने वाले राजा के मन में दुर्भाव आया देखे तो उसके साथ बिना किसी शंका के युद्ध छेड़ देना चाहिए । १७७ नीति में निपुण राजा को साम-दाम आदि उपायों का उपयोग इस भांति करना चाहिए कि उसके शत्रु, मित्र तथा उदासीन राजा के प्रभावों में वृद्धि नहीं हो सके । १७८ भूतकाल में और वर्तमान में किए जाने वाले समस्त कार्यों को तात्विक दृष्टि से देखकर राजा को उनके गुण-दोषों पर विचार करना चाहिए । उसे अपनी असफलता से शिक्षा ग्रहण कर दोषों को दूर करना चाहिए । १७९ जो कुशल राजा भविष्य में किए जाने वाले कार्यों के गुण-दोषों को ज्ञात कर दोषों को दूर करने वाला तथा गुणों को शीघ्र ग्रहण करने का निश्चय करता है और पिछली असफलताओं से शिक्षा लेने वाला होता है वह शत्रुओं से कभी पराजित नहीं होता । १८० निपुण राजा की राजनीति की सफलता का सार में है कि वह ऐसे काम करे जिससे मित्र, शत्रु तथा उदासीन राजा उसे दबाने में सफल नहीं हों । १८१ जो राजा शत्रु राष्ट्र पर आक्रमण करने की कामना रखता है उसे शत्रु के नगर में आगे बताए विधान के अनुसार ही धैर्य धारण कर धीरे-धीरे आगे जाना चाहिए । १८२ अगहन,फाल्गुन या चैत्र इन महीनों में से जिस माह अपनी सेना की युद्ध करने की शक्ति बढ़ जाती हो, राजा को उसी माह शुभ मुहूर्त निकलवा कर शत्रु राजा के विरुद्ध अभियान शुरू कर देना चाहिए । १८३ इन तीन-चार महों के अलावा भी जिस समय अपनी विजय निश्चित मालूम पड़ती हो या शत्रु द्वारा छेड़खानी की जा रही हो या अपना मन युद्ध के लिए उतावला हो रहा हो तो ऐसी स्थितियों में भी राजा को युद्ध शुरू कर देना चाहिए । १८४,१८५ राज्य तथा दुर्ग की रक्षा करने की व्यवस्था करने के बाद राजा को यात्रा की ठीक-ठीक तथा पूरी तैयारी करके अपने दूतों को शत्रुपक्ष की जानकारी के लिए नियुक्त करना चाहिए । इसके बाद तीनों प्रकार की सेनाओं - जल, स्थल तथा आकाश के मार्गों की सही जानकारी प्राप्त करके अपने छह प्रकार के आगे बताए बलों को लेकर युद्ध करने के लिए ( विधि व्यूह आदि की रचना से ) शत्रु के नगर की प्रस्थान करना चाहिए । टिप्पणी - कुछ विद्वानों के अनुसार छह प्रकार के बल निम्नलिखित हैंः - १. हाथियों की सेना - ऐसी सेना जो हाथियों पर बैठकर युद्ध करती है ( गजारोही ) । २. घोड़ों पर बैठकर युद्ध करने वाली सेना ( अश्वारोही ) । ३. रथों पर बैठकर युद्ध में आगे बढ़कर लड़ने वाली सेना ( रथारोही ) । ४. पैदल चलकर या दौड़कर युद्ध करने वाली सेना ( पदाति ) । ५. कोश अर्थात् धन का खजाना जिससे सैनिकों को वेतन, पुरस्कार आदि तथा आवश्यक अस्त्र-शस्त्र खरीदकर तत्काल दिए जा सकें । ६.सेवकों का दल जो आवश्यक सामग्री ले जा सके ( सेवक ) । १८६ ऐसे मित्र से जो गुप्त रूप से शत्रुका हित करने के बारे में विचार करता हो तथा ऐसे सेवक या अधिकारी से जिसे एक बार सेवा से निकाल कर पुनः नियुक्त किया हो, बहुत अधिक सावधान रहना चाहिए क्योंकि ये दोनों गुप्त रूप से शत्रु बन जाने पर अत्यधिक हानि करने तथा कष्ट देने वाले होते हैं । १८७,१८८ राजा को युद्ध के लिए जाते समय अपनी सेना को आवश्यकतानुसार दण्ड व्यूह, शकट व्यूह, पट्न व्यूह, वराह व्यूह, मकर व्यूह, सूची व्यूह, तथा गरुड़ व्यूह के रूप में बनाकर आगे बढ़ना चाहिए । जहां से भय की अधिक आशंका हो, उसी ओर ही अपनी सेना को फैला देना चाहिए । अपने को पूर्ण सुरक्षित रखने के लिए राजा सदा पट्न व्यूह में रहे । टिप्पणी - सेना का संगठन और आकर जिस वस्तु या जीव के आकार का होता है उसी के नाम पर व्यूह का नाम रखा जाता है । १८९ राजा को चाहिए कि वह अपने चारों ओर सेनापति और सेना के नायकों को रखे । जिस दिशा से सबसे अधिक भय की आशंका हो, उसे पूर्व दिशा माने । टिप्पणी - कहने का आशय यह है कि जिस तरह सभी धार्मिक कार्य पूर्व की ओर मुख करके किए जाते हैं, उसी तरह सबसे अधिक डर की शंका जिस दिशा से हो राजा अपना समस्त ध्यान उसी दिशा की ओर केन्द्रित करे । १९० राजा को युद्धस्थल में अपने चारों ओर ऐसे सहायकों को नियुक्त करना चाहिए जो सेना के स्तम्भ रूप ( सेना के सर्वश्रेष्ठ योद्धा ), प्रामाणिक ( युद्ध का अनुभव रखने वाले ), युद्ध में कुशल तथा कभी धोखा नहीं देने वाला हो । १९१ राजा को थोड़ी संख्या के युद्धा सैनिकों को संगठित करके या उन्हें अलग-अलग फैलाकर युद्ध करना चाहिए । इसके अलावा राजा आवश्यकतानुसार सूची ( सुई ) या वज्र के आकर का व्यूह बनाकर भी सैनिकों से युद्ध करवा सकता है । १९२ रथों तथा घोड़ों पर सवार होकर समतल धरती पर, जल पर हाथियों तथा नावों पर सवार होकर, पेड़ों तथा लताओं से ढकी धरती पर धनुष बाणों द्वारा एवं कांटों आदि से हीन पृथ्वी पर खङ्गों-चमड़ों के शस्त्रों ( जैसे चाबुक आदि ) से युद्ध करना चाहिए । १९३ सेना के सामने वाले अर्थात् अग्र भाग में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल तथा शूरसेन देशों के सैनिकों तथा आवश्यकता से अधिक लंबे और नाटे सैनिकों को रखना चाहिए ये रण कर्कश वीर होने के कारण शत्रु को पराजित कर सकते हैं । १९४ सेना की व्यूह रचना करने के बाद राजा को उसे खूब उत्साहित करना चाहिए । राजा को चाहिए कि वह सैनिकों के मनोभावों पर तथा शत्रु से लड़ते समय उनकी चेष्टओं पर पैनी दृष्टि रखे । १९५,१९६ आक्रमण करने वाले राजा को चाहिए कि वह शत्रु को घेर कर उसके राज्य को नष्ट कर दे और उसके पशुओं के भोजन ( घास, भूसा, आदि ), अन्न-जल तथा ईंधन के स्रोतों को तोड़ दे । शत्रु राज्य के सरोवरों, दुर्ग की प्राचीरों एवं खाइयों को छिन्न-भिन्न कर दे । शत्रु को रात्रि में ही घेरकर उसे कमजोर करके उसका मनोबल गिरा देना चाहिए । १९७ शत्रु पक्ष के जो मंत्री आदि फोड़े जा सकते हैं, उन्हें राजा को उनकी दुर्बलताओं का लाभ उठा कर अपनी ओर कर लेना चाहिए और उनके द्वारा शत्रु की योजना का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । इसके पश्चात् विजय की कामना से भाग्य को अनुकूल देख युद्ध प्रारम्भ कर देना चाहिए । १९८ विजय कामना रखने वाले राजा को साम, दाम तथा भेद इन तीनों के द्वारा अथवा इनमें से किसी एक के द्वारा शत्रु को अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करनी चाहिए । इन तीनों के असफल होने पर ही युद्ध करना चाहिए, अचानक नहीं । १९९ युद्ध करने वाले दोनों पक्षों के राजाओं की जीत-हार सदा अनिश्चित तथा अनित्य रहती है । अतः राजा को जहां तक सम्भव हो युद्ध का पूरी तरह त्याग करना चाहिए । २०० पहले बताए तीनों उपायों ( साम, दाम तथा भेद ) के सफल नहीं होने पर ही राजा को पूरी तैयारी करके शत्रु पर इस आक्रमण करना चाहिए कि उसे निश्चित रूप से विजय प्राप्त हो । २०१ राजा द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद उसे देवताओं तथा धर्मात्मा ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए । युद्ध से प्रजा के जिन लोगों की अन्न-धन एवं जल की हानि हुई हो, उसकी पूर्ति करनी चाहिए तथा प्रजा को अभय का विश्वास देना चाहिए । २०२ विजयी राजा को चाहिए कि वह पराजित राजा तथा उसके मंत्रियों के मनोरथ को जानकर, पराजित हुए राजा या उसके वंश में जन्मे योग्य पुरुष को राजगद्दि पर बैठा दे । वह पराजित राज्य में जो नियम, कानून,निषेध आदि प्रचलित हों उन पर स्वीकृति की घोषणा करवा दे । २०३ विजेता राजा को चाहिए कि वह युद्ध में हारे हुए राजा के राज्य में जो धर्माचार प्रचलित हों उनकी मान्यता की घोषणा करवा दे । राजा अपने प्रमुख मंत्रियों के साथ पराजित राजा को राज्य पर अभिषिक्त कर उसे रत्न आदि भेंट में प्रदान करे । २०४ अपनी अभिलाषा के पदार्थों को जब कोई दूसरा व्यक्ति लेता है तो वह अच्छा नहीं लगता जबकि किसी के द्वारा ऐसे पदार्थों का दिया जाना रुचिकर प्रतीत होता है तथापि विशेष अवसर पर प्रिय-अप्रिय के बारे में विचार किए बिना ऐसा लेन-देन करने को विवश होना पड़ता है । २०५ इस जगत में समस्त कार्य दैव तथा मनुष्य के अधीन हैं । दैव पर किसी का वश नहीं चलता परन्तु मनष्य तो कर्म करने में स्वतंत्र है । टिप्पणी - आशय यह है कि मनुष्य को फल की चिन्ता किए बिना अपने विवेक के अनुसार कर्म अवश्य करना चाहिए । २०६ विजेता राजा को चाहिए कि वह हारे हुए राजा से ऊपरी मित्रता करके या उसके राज्य की कुछ भूमि पर अधिताक करके अथवा उससे सोना आदि मूल्यवान वस्तुएं लेकर उससे सन्धि कर ले और प्रयत्न करके वहां से चल दे क्योंकि शत्रु पर आक्रमण करने के यही तीन लक्ष्य होते हैं । २०७ शत्रु राजा को जीतकर विजेता राजा तथा उसके सहायक को पराजित राजा से यात्रा का फल ( मित्रता, सोना, बहुमूल्य वस्तुएं तथा भूमि ) प्राप्त करना चाहिए । २०८ किसी से सोना अथवा भूमि लेकर राजा उतना शक्तिशाली नहीं बनता, जितना किसी की मित्रता प्राप्त कर बनता है । दुर्बल राजा भी मित्रता से बलवान बन जाता है । २०९ मित्तर वह अच्छा होता है जो धर्मात्मा हो, कृतज्ञता अनुभव करने वाला हो, संतोषी स्वभाव का हो, स्थिर कार्य का आरम्भ करने वाला हो तथा अपने से छोटा हो । २१० विद्वान लोगों के अनुसार ऐसे शत्रु पर विजय पाना कठिन होता है जो बुद्धिमान, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दान देने वाला, धैर्य रखने वाला तथा कृतज्ञता अनुभव करने वाला हो । आशय यह कि ऐसे शत्रु से मित्रता कर लेनी चाहिए । २११ उदालीनता के गुण उदय होने के लक्षण हैं - सभ्यता, मनुष्यत्व की पहचान, वीरता, कृपालुता, स्थूल बातों पर ऊपरी रूप से लक्ष्य रखना । २१२ राजा को आत्मकल्याण के लिए बिना अधिक विचार किए कल्याणकारी, धन-धान्य से संपन्न, हरी-भरी तथा पशुओं की वृद्धि करने वाली भूमि तक त्याग देनी चाहिए । २१३ आपात्ति या संकट से अपनी रक्षा करने के लिए धन का संचय करना चाहिए लेकिन स्त्रियों की रक्षा करने के लिए उस धन का व्यय करने में भी हिचकिचाना नहीं चाहिए लेकिन जब अपने पर संकट या आपत्ति आए तो धन और स्त्रियों दोनों का उपयोग अपनी रक्षा हेतु करना चाहिए । २१४ एक साथ अनेक आपत्तियों को उत्पन्न देखकर बुद्धिमान राजा को साम, दाम आदि उपायों को अलग-अलग अथवा सभी उपायों का एक साथ उपयोग करना चाहिए । २१५ राजा को अपने तथा उपाय करने योग्य एवं परिपूर्ण साम-दाम आदि सभी उपायों, इन तीनों का अवलम्बन लेकर प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु प्रयास करना चाहिए । २१६ इस तरह मंत्रियों से सभी विषयों पर विचार विनिमय करने के बाद राजा को स्नान करके व्यायाम करना चाहिए तथा मध्याह्न के समय भोजन करने हेतु अन्तःपुर में जाना चाहिए । २१७ राजा को अपने अन्तःपुर ( रनिवास ) में पूरी तरह विश्वसनीय, समय की जानकारी रखने वाले, पूरी तरह परीक्षा लिए गए ( कि वह किसी भी प्रकार राजा के साथ विश्वासघात नहीं करेंगे ) सेवकों की उपस्थितित में, सभी तरह के विषों का शमन करने वाले मंत्रों से शुद्ध किए हुए भोजन को ग्रहण करना चाहिए । २१८ विष का नाश करने वाली औषधियों को राजा द्वारा खाए जाने वाले खाद्य पदार्थों में डालते रहना चाहिए । इसके साथ ही राजा को विष का नाश करने वाले रत्नों को भी सावधानीपूर्वक पहने रहना चाहिए । २१९ राजा को अन्तःपुर में पंखा झलने वाली, जल देने वाली तथा धूप-गन्ध आदि देकर सेवा करने वाली स्त्रियां जहां देखने में सुन्दर हों वहीं सुन्दर वेशभूषा वाली, चतुर, ईमानदार तथा भली-भांति परीक्षित होनी चाहिए । २२० राजा को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करे कि उसके द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले यान ( सवारी ), शय्या, आसन, भोजन, प्रसाधन, अलंकरण अर्थात् उसके द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली समस्त वस्तुएं इसी प्रकार परीक्षित हों । इस कार्य के लिए भी राजा विश्वसनीय तथा भली प्रकार परीक्षित कर्मचारी नियुक्त करे । २२१ भोजन करने के बाद राजा अन्तःपुर में ही विश्वास्त तथा सुन्दर स्त्रियों के साथ विहार ( मनोरंजन आदि ) करे और पुनः राजसभा में आकर विचार करने योग्य विषयों पर विचार करे । २२२ वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित होकर राजा राजसभा आकर शत्रु से जीते गए शस्त्रों, सैनिकों, समस्त वाहनों, अस्त्र-शस्त्रों तथा आभूषणों का निरीक्षण करे । २२३ सायं की संध्योपासना करने के बाद महल के गुप्त कक्ष में शस्त्र धारण किए हुए राजा गुप्तचरों की बातों तथा सूचनाओं आदि को सुने । २२४ राजा गुप्तचरों को विदा देकर दूसरे कक्ष ( कमरे ) में चला जाए तथा वहां से अंतःपुर की स्त्रियों के साथ भोजन करने के लिए अंतःपुर में जाए । २२५ अंतःपुर में भोजन ग्रहण करने के पश्चात् कुछ समय गाना-बजाना सुने और फिर थकान दूर कर शयनकक्षमें चला जाए । २२६ स्वस्थ होने पर राजा को ऊपर बताए सभी कार्य स्वयं करने चाहिए तथा अस्वस्थ होने पर इन कार्यों को विश्वस्त सेवकों से करवाना चाहिए । अष्टम अध्याय १ व्यवहार ( मुकदमों ) को दखने का इच्छुक राजा विद्वान ब्राह्मणों तथा राजनीति एवं व्यवहार में कुशल मंत्रियों के साथ विनीत भाव से राजसभा ( राज-न्यायालय ) में प्रवेश करे । २ सुन्दर वेशभूषा धारण किए हुए राजा सभा में खड़े होकर या बैठकर दाएं हाथ को उठाकर सभी कर्मचाहियों के कार्यों का निरीक्षण करे । ३ राजा को प्रतिदिन अठारह तरह के अलग-अलग विभागों में बंटे हुए कार्यों की प्रत्येक दिन शास्त्रीय दृष्टि तथा स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार समीक्षा करनी चाहिए । टिप्पणी - १८ प्रकार के ये विभाग मुकदमों से संबंधित हैं । ४,५,६,७, ये १८ प्रकार के कार्य है - १.उधार लेकर नहीं देना या बिना उधार दिए ही मांगना २. धरोहर सम्बन्धित विवाद ३. किसी वस्तु, भूमि आदि का स्वामी नहीं होने पर भी उसे बेच देना ४. साझे के व्यापार से संबंधित विवाद ५. दान में दी हुई वसुत वापस ले लेना ६. कर्मचारियों को वेतन नहीं देना ७. प्रतिज्ञापत्र में लिखी बात का पालन नहीं करना ८. विक्रय या क्रय संबंधी विवाद ९. पशु पालने वाले तथा पशु के स्वामी के मध्य विवाद १०. सीमा सम्बन्धी विवाद ११. गाली-गलौच करना १२. मारपीट से संबंधित विवाद १३. चोरी करने से संबंधित विवाद १४. बलात् किसी से उसकी वस्तु छीन लेना १५. दूसरे की स्त्री का हरण कर लेना १६. स्त्रियों तथा पुरुषों के अलग-अलग धर्माचार १७. धन के विभाजन संबंधी विवाद १८. जुआ खेलने तथा पशु युद्ध में बाजी लगाने संबंधी विवाद राजा को इन अट्ठारह प्रकार के विषयों पर विचार करना होता है । ८ राजा को इन १८ विषयों में होने वाले विवाद को लेकर उपस्थित लोगों के पक्षों को सुनकर सनातन धर्म-न्याय के अनुसार अपना निर्णय देना चाहिए । ९ इन १८ विषयों में से किसी विषय पर, किसी कारणवश जब राजा स्वयं विचार नहीं कर सके तो उसे निपटाने के लिए किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण को नियुक्त करे । १० तीन सभ्य पुरुषों को साथ लेकर राजा द्वारा नियुक्त ब्राह्मण सभा में प्रवेश करे तथा खड़े होकर एकाग्रता से राजा द्वारा देखे-सुने जाने वाले विषयों को सुने । ११ जिस देश के राजा की सभा में उसके द्वारा दिए गए अधकार प्राप्त तीन वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा एक विद्वान रहते हों उस राजा की सभा को ब्रह्मा की सभा के समान समझना चाहिए । १२ जिस सभा में अधर्म द्वारा धर्म को बींधा जाता है अर्थात् उसकी हत्या की जाती है और सभा के सदस्य इस अन्याय को दूर नहीं करते वहां जिस अधर्मपूर्ण कांटे से धर्म को बींधा जाता है, वही सभासदों को पीड़ित करता है । १३ जो ब्राह्मण राजा द्वारा नियुक्त किया जाए वह चाहे सभा में नहीं जाए लेकिन जब वहां जाए तो उसे सच ही बोलना चाहिए । झूठ बोलने या चुप रहने से मनुष्य पर पाप पड़ता है । १४ ऐसी सभा में जहां सभासदों के सम्मुख ही अनृत ( झूठ ) सत्य को तथा अधर्म धर्म को दबाता है, उस सभा के सभासद इस पाप के कारण शीघ्र ही नाश को प्राप्त होते हैं । १५ जो धर्म की हत्या करता है, धर्म उसका पूरी तरह नाश कर देता है । जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है । इसलिए धर्म का नाश कभी नहीं करें ताकि सुरक्षित धर्म हमारी रक्षा कर सके । १६ भागवान धर्म को वृष रूप कहते हैं । जो मनुष्य उसका नाश करता है उसे देवतागण ' वृषल ' अर्थात् धर्म को काटने वाला या शूद्र करते हैं । अताएव धर्म का नाश नहीं करें । १७ एकमात्र धर्म ही ऐसा मित्र है जो मरने के बाद भी साथ चलता है अन्यथा शरीर का नाश हो जाने के बाद सब कुछ इसी लोक में नष्ट हो जाता है । १८ न्यायाधीश द्वारा उचित न्याय नहीं करने पर, अधर्म का पहला चौथाई भाग अधर्म करने वाले को, द्वितीय चौथाई भाग गवाह ( द्रष्टा ) को, तीसरा चौथाई भाग राजा द्वारा नियुक्त सभा के सदस्यों को तथा चतुर्थ चौथाई भाग राजा को मिलता है । टिप्पणी - अभिप्राय यह है कि राजा न्याय की व्यवस्था इस प्रकार करे कि अधर्म द्वारा अन्याय हो ही नहीं सके । १९ जब निन्दा योग्य पापी व्यक्ति की निन्दा की जाती है और उसे दण्ड दिया जाता है तो पाप उसके करने वाले ( पापी ) को ही लगता है । राजा और दण्डाधिकारी पाप भोग से मुक्त हो जाते हैं । २० जो ब्राह्मण केवल जाति से ही ब्राह्मण हो परन्तु वेदवेत्ता नहीं हो तथा राजा को भी धर्म का ज्ञान देने की सामर्थ्य नहीं रखता हो, ऐसा ब्राह्मण पूजा के योग्य नहीं फिर भी उसे शूद्र नहीं समझना चाहिए । २१ जिस राजा के राज्य का धर्माधिकारी शूद्रर होता है, उस राजा का राज्य देखते-देखते कीचड़ में फंसी गाय के समान दुखग्रस्त हो जाता है । २२ जिस राज्य में आस्तिकों एवं ब्राह्मणों की जगह शूद्र तथा नास्तिकों की अधिकता और प्रभुत्व होता है, वह सम्पूर्ण राज्य शीघ्र ही अकाल तथा रोग आदि प्राकृतिक विपदाओं से पीड़ित होकर नष्ट हो जाता है । २३ राजा को धर्मासन पर आसीन होकर, अपना शरीर आवृत करके तथा सावधानी से लोकपालों को प्रणाम कर विवादों की सुनवाई शुरू करनी चाहिए । टिप्पणी - यहां धर्मासन से आशय न्याय करते समय जिस आसन या कुर्सी का उपयोग किया जाता है उससे है, शरीर को ढकने से अभिप्राय उस विशेष वस्त्र को धारण करने से है जिसे न्यायाधीश पहनते हैं २४ राजा को अर्थ तथा अनर्थ, धर्म एवं अधर्म को अपने ध्यान में रखते हुए वर्ण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) के क्रम से लोगों के विवादों को निपटाना चाहिए । २५ विवादों को निपटाते समय राजा को अपराधियों के बाहरी चिन्हों-स्वर, मुख का रंग, आंखों से ऊपर-नीचे देखना ( पसीना आना, घबड़ाना या रोमांचित होना ) से उनके मन के भावों को जानने तथा समझने का प्रयत्न करना चाहिए । २६ व्यक्ति की मुख-मुद्रा, अंगों द्वारा किए जाने वाले संकेतों, चेष्टाओं, बोलने के ढंग, आंखों और चेहरे पर आने वाले विकारों द्वारा उसके मन के भावों का पता लग जाता है । कहने का आशय यह कि न्याय देने वाले को वादी तथा प्रतिवादी की इन क्रियाओं पर अपन ध्यान एकाग्र करना चाहिए । २७ बालक की सम्पत्ति का संरक्षण राजा को उस समय तक करना चाहिए जब तक वह गुरुकुल से विद्या पूरी करके नहीं लौटता अथवा ( गुरुकुल नहीं जाने पर ) उसकी बाल्यावस्था नहीं बीत जाती । २८ राजा को आवश्यकता के अनुसार बन्धया, पुत्रहीन, कुल के बाहर की, पतिव्रता, विधवा और रोगी स्त्री की सम्पत्ति की भी रक्षा करनी चाहिए । २९ ऊपर के श्लोक में बताई स्त्रियों की सम्पत्ति अगर उनकी जीवन अवधि में उनके सम्बन्धी बलात् लेते हैं तो धर्मानुयायी राजा द्वारा उन्हें चोरों को दिया जाने वाला दण्ड प्रदान करना चाहिए । ३० राजा को ऐसी लावारिस सम्पत्ति की जिसका मालिक मर गया हो तीन वर्ष तक देखभाल करनी चाहिए । इस तीतन वर्ष की अवधि में यदि कोई उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार सिद्ध नहीं कर पाता तो वह सम्पत्ति राजा की हो जाती है । ३१ राजा को चाहिए कि राज्य द्वारा अधिगृहीत सम्पत्ति पर अपना अधिकार बताने वाले से वह सम्पत्ति का स्वरूप, संख्या और सोना आदि होने पर उसके मूल्य आदि के सम्बन्ध में आवश्यक प्रश्न पूछे तथा सही उत्तर प्राप्त होने पर उसका स्वामित्व स्वीकार कर ले । ३२ राज्य द्वारा अधिगृहीत सम्पत्ति पर अपना अधिकार बतलाने वाला व्यक्ति अगर उस सम्पत्ति के रूप, वर्ण, संख्या, परिमाण आदि की सही जानकारी नहीं दे पाता अर्थात् झूठा अधिकार प्रस्तुत करता है तो राजा को उस पर सम्पत्ति के बराबर अर्थ दण्ड ( जर्माना ) लगाना चाहिए । ३३ राजा को सज्जनों के धर्म का पालन करते हुए राज्य द्वारा अधिगृहीत धन को वास्तविक अधिकारी को वापिस करते हुए ( प्रचलित प्रथा अनुसार ) उसका छठा, दसवां या बारहवां भाग अपने पास रखना चाहिए । ३४ राजा ऐसे व्यक्ति को जो किसी के नष्ट, गिरे, खोए और राजपुरुषों की देखभाल में रखे हुए धन को चुराता या छिपाता है, हाथी के पैरों तले कुचलवा डाले । ३५ जो व्यक्ति खोयी हुई सम्पत्ति पर अपना वास्तविक अधिकार सिद्ध कर देता है, राजा को उस सम्पत्ति का छठा या बारहवां भाग अपने पास रखकर शेष राशि उसे वापिस कर देनी चाहिए । ३६ जो व्यक्ति खोयी हुई सम्पत्ति पर अपना झूठा अधिकार बतलाता है उस पर सम्पत्ति या धन के आठवें भाग के बराबर अथवा उस व्यक्ति की सामर्थ्य के अनुसार अर्थ दण्ड ( रुपयों का जुर्माना ) लगाना चाहिए । ३७ अगर नष्ट निधि का वास्तविक दावेदार विद्वान ब्राह्मण हो तो बिना कोई कटौती किए राजा को सारी सम्पत्ति उसे लौटा देनी चाहिए । टिप्पणी - कुछ टीकाकारों ने नष्ट विधि को पूर्व स्थापित धन कहा है । कुछ इसे धरती में गड़े खजाने या सम्पत्ति के अर्थ में लेते हैं । ३८ यदि भूमि में गड़ा हुआ कोई पुराना खजाना राजा या राजकर्मचारियों को मिल जाए तो उसमें से आधा भाग ब्राह्मणों को दान में देकर शेष भाग राजा अपने कोश में रख ले । ३९ भूमि का स्वामी होने से धरती में पायी जाने वाली सभी निधियों, वस्तुओं तथा धातुओं के आधे भाग का स्वामी राजा होता है । ४० राजकर्मचारियों द्वारा खोजे गए तथा चोरों द्वारा चुराए गए धन को उसके स्वामी को लौटा देना चाहिए चाहे वह किसी भी वर्ण का हो । ऐसे धन को न लौटाकर उसका स्वयं सेवन करने वाले राजा पर चोरी का पाप लगता है । ४१ धर्मज्ञ राजा को जाति धर्मों, जनपद के धर्मों, श्रेणी धर्मों ( व्यापारी आदि के नियत धर्म ) तथा कुल धर्मों को अच्छी तरह समझ कर अपने धर्म का अनुसरण करना चाहिए । ४२ जाति, देश, कुल के धर्मानुसार अपने-अपने कामों को करने वाले तथा अपने-अपने कार्य में स्थित होकर, दूर रहते हुए भी मनुष्य लोक में प्रिय हो जाते हैं । ४३ राजपुरुष अथवा राजा को न तो स्वयं किसी विवाद को पैदा करना चाहिए तथा न ही किसी के द्वारा प्रस्तुत किए गए विवाद की अनदेखी करनी चाहिए । ४४ जिस तरह शिकारी घायल हिरन के शरीर से बहते रक्त का अनुसरण करता हुआ छिपे हिरन को खोज लेता है, उसी तरह राजा को विवाद सम्बन्धी तथ्य के सूत्र द्वारा सही जानकारी पाने का प्रयत्न करना चाहिए । ४५ विवाद का निर्णय करने के लिए उद्यत राजा को या उसके प्रिनिधि को सत्य से युक्त व्यवहार को, अपने को ( अपना मन कोई पक्षपात तो नहीं कर रहा ), गवाहियों को देश, काल तथा रूप को देखकर निर्णय करना चाहिए । ४६ राजा को धर्म का अनुसरण करने वाली तथा सदाचरण करने वाली द्विजातियों द्वारा प्रमाणित एवं देश, कुल तथा जाति के अनुकूल ही विवाद का निर्णय करना चाहिए । ४७ धन के लेन-देन सम्बन्धी व्यवसाय को चालू रखने के उद्देश्य से राजा को ऋण लेने वाले से ऋण दाता का धन लौटवाना चाहिए । ४८ कर्जा देने वाला जिन-जिन तरीकों से अपना धन वापस पा सके, राजा को उन-उन उपायों द्वारा धन की व्यवस्था करनी चाहिए । ४९ राजा को पहले धर्म अनुसार अर्थात् सीधी-सरल रीति से, किसी अन्य से लिए जाने वाले धन से, छल से, मान-हानि और लोकनिन्दा का भय दिखाकर तथा इन चारों साधनों के असफल हो जाने पर बल प्रयोग द्वारा ऋण लेने वालेसे महाजन ( कर्जा देने वाले ) की धनराशि लौटवानी चाहिए । ५० अपने ऋणकर्ता से जो महाजन स्वयं ही कर्जे की वसूली कर रहा हो और जिसने राजा से सहायता नहीं मांगी हो तो राजा को इस बारे में किसी तरह का ह्स्तक्षेप नहीं करना चाहिए । ५१ जो उधार लेने वाला उधार लेकर मुकर जाए लेकिन लिखा-पढ़ी और मौखिक गवाहियों से यह सिद्ध हो कि उसने महाजन से कर्जा लिया था तो राजा को चाहिए कि वह महाजन का कर्जा वापिस करवाए और बेईमान व्यक्ति सेमहाजन को हर्जाना भी दिलवाए । ५२ कर्जा देने वाले महाजन द्वारा अभियोग लगाए जाने पर जब राजा और उसका प्रितनिधि, राजसभा में ऋणकर्ता से पूछता है तथा कर्जा लेने वाला ( ऋणकर्ता ) कर्जा लेने से मुकरता है तो न्यायकर्ता महाजन को आज्ञा दे कि वह अपने पक्ष में लिखित या मौखिक साक्ष्य दे । ५३,५४,५५,५६, ग्यारह दोषों से ग्रस्त व्यक्ति अपना मुकदमा हार जाता है । ये ग्यारह दोष हैं - १. झूठी साक्षी या जाली कागज-पत्र दिखाने वाला, २. अपने प्रथम बयान से मुकर जाने वाला, ३. अपने बयान में बताई बातों में संगति का ध्यान नहीं रखने वाला, ४. अपनी ही बात के विरुद्ध बोलने वाला, ५. न्यायाधिश के पूछने पर अपने बदले हुए बयान को बदला हुआ नहीं मानने वाला, ६. न्यायालय में ही गवाहों के साथ सलाह करने वाला । ७. विवाद की सुनवाई के समय बेकार की बातें करने तथा इधर-उधर घूमने वाला, ८. न्यायाधिश द्वारा पूछे गए प्रश्नों की उपेक्षा करने वाला, ९. न्यायाधीश द्वारा पूछे गए प्रश्नों पर चुप रहने वाला, १०. अपने पक्ष को दृढ़तापूर्वक नहीं कहने वाला, ११. विवाद के आगे-पीछे के सभी पहलुओं को नहीं जानने वाला । ५७ न्यायाधीश को ऐसे व्यक्ति को पराजित घोषित कर देना चाहिए जो पहले अपना साक्षी प्रस्तुत करने की अनुमति चाहता है परन्तु अनुमति मिलने के बाद उसे नहीं ला पाता । ५८ न्यायाधीश को उस विवाद करने वालेको भी पराजित घोषित कर देना चाहिए जो किसी व्यक्ति पर कोई दण्डनीय अभीयोग लगाता है परन्तु न्यायालय द्वारा बुलाए जाने पर डेढ़ माह तक स्वयं उपस्थित नहीं होता । ५९ जो ऋण लेने वाल मूल धन में से जितना नहीं दे और विवाद लाने वाला मूलधन से जितना अधिक धन की मांग करे, न्यायाधीश को चाहिए कि वह उन दोनों को अपने-अपने हिसाब से दूने धन का भुगतान करने का दण्ड दे । ६० राजा तथा ब्राह्मण के सम्मुख पूछे जाने पर कोई अपराधी किसी सत्य से इन्कार करता है तो उसे झूठा सिद्ध करने के लिए कम से कम कीन साक्षियों के बयान सुने । अपराधी के विरुद्ध तीन गवाह नहीं मिलने पर अपराधी की बात को ही सच्चा मानें । ६१ महर्षि भृगु कहते हैं - विद्वान ब्राह्मणों ! धनवानों को विवादों में जिस तरह के गवाह ( साक्षी ) बनाने चाहिए तथा उन गवाहों को जिस प्रकार से सच्ची गवाही देनी चाहिए, मैं उन सबकी जानकारी आप सभी को देता हूं । ६२ घर-गृहस्थी वाले, सन्तान वाले, देश के मूल निवासी, किसी विपत्तिप से ग्रस्त नहीं हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति के लोग गवाह ( साक्षी ) बन सकते हैं ६३ साक्षी उन्हीं को बनाना चाहिए जो चारों वर्णों में प्रामाणिक माने जाते हों, जो धर्मात्मा हो तथा जो प्रलोभन में नहीं आने वाले व्यक्ति हों । इसके विपरीत लोगों को साक्षी नहीं बनाएं । ६४ ऐसे व्यक्तियों को साक्षी नहीं बनाना चाहिए जो धन के लोभी हों, असत्य बोलने वाले हों, दूसरों पर आश्रित शत्रु हों, दुष्ट प्रकृति के अर्थात् अपनी बात बदल जाने वाले हों । ६५,६६,६७ इन व्यक्तियों को साक्षी नहीं बनाएं - १. राजा,२. कारीगर, ३. नट, ४. वेदपाठी ब्राह्मण, ५. समाज से सम्बन्ध नहीं रखने वाले व्यक्ति या संन्यासी, ६. जो दूसरों के अधीन हों, ७. जो समाज में बदनाम हो, ८. डाकू, ९. निषिद्ध कार्य करने वाले, १०. बालक, ११. बुड्ढे, १२. चाण्डाल, १३. जिनकी इन्द्रियां विकार ग्रस्त हों, १४. रोगी, १५. शराब पीने वाले, १६. पागल, १७. भूख-प्यास से ग्रस्त, १८. थकामंदा रहने वाला, १९. काम में आसक्त, २०. क्रोध करने वाला, २१. चोरी करने वाला । ६८ नारियों का साक्ष्य नरियों को, द्विजों का साक्ष्य उनके ही समान द्विजों को, शूद्रों का अच्छे आचरण वाले शूद्रों को तथा चाण्डालों को करना चाहिए । ६९ घर के अन्दर होने वाले, अरण्य ( वन ) में होने वाले या जिन लोगों के बीच शारीरिक रक्त सम्बन्ध हों, उनके मध्य होने वाले विवादों में किसी भी अनुभव प्राप्त व्यक्ति को साक्षी बनाया जा सकता है । ७० यदि अनुभवी व्यक्ति की साक्षी नहीं मिले तो स्त्रियों, बच्चों, वृद्धों, शिष्यों, सम्बन्धियों तथा भृत्यों-सेवकों को साक्षी बनाया जा सकता है । ७१ बालकों, वृद्धों तथा रोगग्रस्त व्यक्तियों के साक्ष्य में असत्य बोलने पर उनकी बातों पर विश्वास नहीं करें क्योंकि उनका मन अस्थिर होता है । ७२ साहस से किए जाने वाले अपराध जैसे चोरी-डाका, आग से जलाना, बलात्कार, अपहरण तथा परस्त्री संग के विषयों में और मार-पीट के मामलों मे साक्षी देने वालों के कथन की ज्यादा परीक्षा नहीं करनी चाहिए और ऐसे अपराधियों को शीघ्रातिशीघ्र दण्ड देना चाहिए । ७३ आपस में विरोधी-साक्षीयों में अधिक संख्या वालों को ही राजा को प्रमाण मानना चाहिए । अगर परस्पर विरोधी साक्षय समान संख्या में हों तो गुणी लोगों की संख्या के अनुपात को तथा इस अनुपात के बी बराबर होने पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साक्ष्य को प्रमाण माने । ७४ ऐसा साक्ष्य सब प्रकार से प्रामाणिक होता है जिसने अपने सामने देखा तथा अपने कानों से सुना हो । ऐसे साक्षियों में भी उस साक्षी का कथन सबसे प्रामाणिक होता है जो सर्वदा सत्य बोलता है तथा जो कभी धर्म एवं अर्थ से हीन नहीं होता । ७५ वह व्यक्ति इस जन्म में अपमान और बदनामी से पीड़ित रहता है जो आर्यों की सभा में नेत्रों से देखते तथा कानों से सुने सत्य के विरुद्ध साक्षी देता है । वह मृत्यु के बाद अगर अपने अच्छे कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग में भी चला जाए तो वहां से पतित हो जाता है । ७६ अगर किसी ऐसे व्यक्ति से जिसे विवाद में गवाह नहीं बनाया गया है, उससे ( विवाद से ) संबंधित कुछ पूछा जाए तो उसे वही बताना चाहिए जो उसने वास्तव में देखा तथा सुना हो । वास्तविकता से अलग उसे कुछ नहीं बताना चाहिए । ७७ मात्र एक ही लोभ रहित व्यक्ति की गवाही ( साक्षी ) पर्याप्त होती है । इसके विपरीत अनेक पवित्र नारियों की साक्षी भी विश्वास योग्य नहीं होती क्योंकि नारियों की बुद्धि सदा अस्थिर रहती है । इसी तरह अस्थिर बुद्धि वाले पुरुषों की साक्षी ( गवाही ) को भी प्रमाण नहीं मानना चाहिए । ७८ उसी साक्ष्य को निर्णय करने के लिए उपयोगी समझना चाहिए जो बिना किसी डर या लालच के, सहज भाव से दी गई हो । इसके विपरीत डर अथवा लालच से प्रेरित बनावटी गवाही को व्यर्थ समझना चाहिए । ७९ पक्षी और विपक्ष के साक्षियों के वकील को न्यायसभा में आने के बाद अत्यन्त धैर्यपूर्वक आगे बताई विधि से दोनें से प्रश्न करने चाहिए । ८० उसे साक्षियों से कहना चाहिए - वादी-प्रतिवादी के इस मुकदमे के बारे में आप लोग जो कुछ जानकारी रखते हैं वह सब सत्य-सत्य बतलाएं क्योकि आपकी ८१ वकील कहे - गवाही में सच बोलने वाला व्यक्ति इस संसार में उत्तम यश को तथा परलोक में सदगति पाता है, क्योंकि सच बोलने वाणी की शक्ति बढ़ती है । ८२ झूठी गवाही देने वाली वरुण देव के पाशों से बांधा जाकर सौ-सौ जन्मों तक जलोदर आदि बीमारियों से ग्रस्त रहता है । अतः साक्षी को हमेशा सच बोलना चाहिए । ८३ सत्य से धर्म का विकास होता है । इस भांति सच बोलने से साक्षी का मान-सम्मान बढ़ता है । अतः सभी वर्णों के साक्षियों को सच बोलना चाहिए । ८४ मनुष्य की आत्मा स्वयं ही साक्षी और स्वयं की ही शरण में है अर्थात् व्यक्ति स्वयं यह जानता है कि वह सच बोल रहा है या झूठ । अतः मनुष्य को झूठी साक्षी ८५ जो व्यक्ति पाप करते हुए यह समझता है कि हमें कौन देखता है, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि देवता तथा उनके शरीर के भीतर का पुरुष ( आत्मा ) उन्हें देखता रहता है । ८६ सभी प्राणियों के सत्-असत् कर्मों को आकाश,पृथ्वी, जल, हृदय, चन्द्र, सूर्य, आग यम, वायु, रात, सन्ध्या और धर्म देखते हैं । अभिप्राय यह है कि इन देवताओं को सदैव प्रत्यक्ष समझकर व्यक्ति को पाप कर्म नहीं करना चाहिए । ८७ शुद्ध हृदय न्यायकर्ता साक्षियों को देवता की मूर्ति तथा ब्राह्मणों के पास ले जाकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके खड़ा करे और दोपहर के पहले उनकी गवाही लेते हुए उनसे सच बोलने को कहे । ८८ चारों वर्णों के गवाही से सत्य बुलवाने हेतु क्रमशः आगे बताए भिन्न-भिन्न वाक्यों का उपयोग करें - ब्राह्मण से कहें - महाराज ! बोलिए । क्षत्रिय से कहें - राजन् ! सच बोलिए । वैश्य से कहें - महाजन ! तुम्हें पशु, धन तथा कृषि की शपथ ! सच बोलिए । शूद्र से कहें - सच नहीं बोलोगे तो तुम अन्याय के लिए जिम्मेवार होगे और सारे पाप के भागीदार बनोगे । ८९ जो व्यक्ति झूठी गवाही देता है उसे वही नरक लोक प्राप्त होता है जो कि ब्रह्म हत्या, स्त्री हत्या, बाल हत्या करने वाले, मित्र से विश्वासघात करने वाले तथा कृतघ्न व्यक्ति को मिलता है । ९० वकील को चाहिए कि वह साक्षियों से कहे कि सारे जीवन में आपने अच्छे कर्मों द्वारा जो पुण्य कमाया है, झूठी गवाही देते ही वह समस्त पुण्य कुत्तों को चला जाएगा अर्थात् समाप्त हो जाएगा । ९१ अगर तुम यह समझ कर झूठी गवाही दे रहे हो कि तुम अकेले हो और तुम्हारी सच्चाई कोई नहीं जानता तो तुम गलती कर रहे हो क्योंकि तुम्हारे पाप-पुण्य को देखने वाला परमात्मा तुम्हारे हृदय में रहता है । ९२ तुम्हारे हृदय में भागवान विवस्वान यम साक्षी रूप में रहते हैं । यदि तुम्हें उनसे विवाद नहीं करना है तथा गाङ्ग प्रदेश या कुरु प्रदेश में प्रायश्चित करने हेतु नहीं जाना है तो तुम्हें झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए । ९३ झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति के शरीर पर कपड़े तथा सिर पर बाल नहीं रह जाते । वह नंगा तथा गंजा हो जाता है । वह हाथ में खप्पर लेकर भीख मांगकर अपना जीवन चलाता है और भूख-प्यास से व्याकुल रहता है तथा नेत्रहीन होकर शत्रुओं द्वारा पीड़ित किया जाता है । ९४ धर्म निर्णय हेतु प्रश्न पूछे जाने पर उसेक उत्तर में झूठ बोलने वाला भयानक अंधेरे से भरे नरक में मुंह के बल गिरता है । ९५ न्याय सभा में जाकर अनदेखी बात को आंखों दखी हुई बताने अर्थात् झूठी गवाही देने वाला अन्धा बनता है और मछली के मांस को कांटों सहित खाने के लिए मजबूर होता है । ९६ गवाही में बोलते हुए जिस मनुष्य की अन्तरात्मा में कोई भय या शंका नहीं रहती ( क्योंकि वह सत्य बोलता है ) इस लोक में देवता उससे अधिक श्रेष्ठ किसी दूसरे को नही मानते । ९७ भृगु जी कहते हैं - हे सौम्य ! गवाही में झूठ बोलने वाला जितने बान्धवों की हत्या करने का फल पाता है, उनकी संख्या क्रमशः मुझसे सुनिए । ९८ गऊ, घोड़ा, ऊंट, आदि साधारण पशुओं और पुरुष के बारे में झूठी गवाही देने वाला क्रमशः पांच, दस, सौ तथा हजार बान्धवों की हत्या करने का पाप प्राप्त करता है । ९९ जो व्यक्ति स्वर्ण धातु के बारे में झूठ बोलता है वह जन्में और अजन्मे पुत्रों की हत्या करने का पाप भोगता है । भूमि के लिए झूठ बोलने वाला समस्त लोकों की हत्या करने का पाप प्राप्त करता है । इसलिए भूमि के लिए कभी किसी तरह का असत्य नहीं बोलना चाहिए । १०० तालाब, बावड़ी आदि जलाशयों तथा स्त्रियों के साथ मैथुन करने और जल में उत्पन्न मोती, मूंगा आदि रत्नों के बारे में असत्य भाषण करने वाला उसी पाप का भागीदार होता है जो भूमि के विषय में झूठ बोलने वाला होता है । १०१ इस तरह सभी विषयों के बारे में झूठ बोलने से मिलने वाले भयानक पापों को ध्यान में रखकर व्यक्ति को अपनी आंखों से देखे और कानों से सुने को ही जैसे का तैसा ( अर्थात् सच्चा ) तथा उसी समय बता देना चाहिए । १०२ किसी विवाद की पूछताछ में गउओं की रक्षा करने वालो, बनियों, लोहार, बढ़ई आदि का कार्य करने वालों, गाने-बजाने वालों, डाक बांटने का कार्य करने वालों और सूदखोरी से अपनी जीविका चलाने वाले ब्राह्मणों से शूद्रों की तरह व्यवहार करना चाहिए । १०३ जो मनुष्य सत्य की जानकारी होते हुए भी धर्म के अनुरोध ( समाज तथा धर्म रक्षा हेतु ) से सत्य नहीं बोलता वह स्वर्गलोक से नहीं गिरता क्योंकि वह असत्य तो लोक कल्याण करने वाला होने से देवता की वाणी की भांति है । १०४ जिस विवाद में सच बोलने से शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मणों की हत्या निश्चित हो वहां झूठ भी बोलना चाहिए । वास्तव में वह झूठ, सच से अधिक महत्व रखता है । १०५,१०६ मनुष्य की रक्षा के हेतु बोले गए असत्य के लिए आगे बतायी गई विधि से प्रायश्चित करना चाहिए - सरस्वती जी का यजन-पूजन वाग्देवता सम्बन्धी चरु से करे ( यद्देवादेवहेडनम ) आदि यजुर्वेद के मंत्रों से विधिपूर्वक घी आग में हवन करे या ' उदुत्तम वरुण पाशमस्मदबाधम् ' मंत्रों से वरुण देव से अपराध की क्षमायाचना करे या ' आपो हिष्ठाः मयोभुवः ' तीन ऋचाओं से जल से मार्जन करता हुआ वरुण देवता की पूजा करे । टिप्पणी - मनु महाराज ने सामान्य परिस्थितियों में विवाद होने पर असत्य बोलने को पाप माना है परन्तु जहां व्यर्थ में किसी का वध होता हो अथवा कोई ऐसा सत्य हो जिस बोलने से समाज का अहित होता हो उसे भी नहीं बोलना चाहिए । स्पष्ट है कि मनु जी ने सत्य भाषण के विषय पर समाज उपयोगी दृष्टि अपनाई है । उनके कथनों में वदतो-व्याघात दोष नहीं है । १०७ अगर कर्ज की उगाही के विवाद में कोई नीरोग तथा निरापद पुरुष तीन पक्ष अर्थात् ४५ दिन तक गवाही देने के लिए न्याय सभा मे उपस्थित नहीं होता तो उसे महाजन द्वारा लिए ऋण की सारी राशि का भूगतान करना चाहिए तथा इस राशि के दसवें भाग के बराबर धन दण्ड के रूप में राजा को देना चाहिए । १०८ गवाही देने के सात दिन के अन्दर जिस गवाह के घर में रोग, अग्निदाह, पुत्र आदि की मृत्यु जैसे दैवी उत्पात होने लगें तो गवाह को झूठा मानते हुए उसे महाजन के सारे धन का और राजा को दण्ड रूप में धन के दसवें भाव का भुगतान करने की आज्ञा देनी चाहिए । १०९ जिन विषयों में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हो तथा वादी-प्रतिवादी की बातों ( बयानों ) से सत्य का ज्ञान नहीं होता हो वहां राजा को चाहिए कि दोनों से शपथ उठवा कर निर्णय करने का प्रयत्न करे । ११० महर्षियों तथा देवताओं ने भी प्राचीनकाल में न्याय निर्णय हेतु शपथ का सहारा लिया था । यवन नरेश के सम्मुख महर्षि वसिष्ठ ने सत्य को स्थापित करने के लिए शपथ का आश्रय लिया था । १११ बुद्धिमान व्यक्ति को साधारण बातों के लिए शपथ नहीं उठानी चाहिए क्योंकि जो बेकार में शपथ खाता है वह इस संसार में तथा परलोक में नाश को प्राप्त होता है । ११२ स्त्रियों के साथ विवाह करने अथवा उनके साथ भोग-विलास करने, गायों के चारे के बारे में, लड़की तथा ब्राह्मण की रक्षा करने के लिए झूठी शपथ खाने से कोई पाप नहीं लगता । ११३ ब्राह्मण से सत्य की शपथ ले,क्षत्रिय से उसके रथादि वाहन और धनुष आदि आयुध की शपथ ले, वैश्य से पशु, कृषि तथा व्यापार की शपथ ले एवं शूद्र से सभी पापों के लगने की शपथ करानी चाहिए । ११४ अपनी शपथ की सच्चाई सिद्ध करने के लिए शूद्र को जलती अग्नि को हाथ से उठाना तथा पानी में डुबो देना चाहिए और उसे अपने बेटे और पत्नी के सिर पर अलग-अलग हाथ रखना चाहिए । ११५ जिस शूद्र को जलती अग्नि जलाती नहीं, जल डुबोता नहीं तथा पुत्र आदि की मृत्यु रूपी पीड़ा दुःखी नहीं करती उसे सत्यपूर्ण शपथ लेने वाला समझना चाहिए । टिप्पणी - महर्षि मनु जैसे महान विद्वान एवं चिन्तक द्वारा शूद्रों के प्रति इस प्रकार का अप्राकृतिक विचार बहुत अस्वाभाविक लगता है । ऐसे गुण तो महान योगी अथवा आध्यात्मिक ज्ञान युक्त कर्मयोगी में ही पाए जा सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह के पक्षपातपूर्ण विचार बाद में मिलाए गए हैं । ११६ प्राचीनकाल में वत्स ऋषि को जब उनके लघु भ्राता ने ब्राह्मण-पुत्र न होकर शूद्र पुत्र होने का उपालम्भ दिया तो उसने सत्य की साक्षी अग्नि में प्रवेश किया और अग्नि ने उसके एक रोम को भी नहीं जलाया । टिप्पणी - यह प्रतीकों से पूर्ण काव्यात्मक वर्णन है । इसका शाब्दिक नहीं वरन् भावार्थ समझना चाहिए । इसका वास्कविक अर्थ इस प्रकार होगा - वत्स ऋषि को अपने छोटे भाई के उपालम्भ से इतनी पीड़ा हो सकती थी जितनी किसी को अग्नि में जलने से होती है परन्तु उनको कुछ नहीं हुआ अर्थात् उन्होंने उस उपालम्भ को शांतिपूर्वक सहते हुए यह सिद्ध करने में सफलता पाई कि वह ब्राह्मण-पुत्र हैं । ११७ जिस-जिस विवाद में, झूठी गवाही दी गई है, ऐसा संदेह न्यायकर्ता को हो तो उसे चाहिए कि वह उस-उस विवाद को फिर से सुने और उस संदर्भ में दिए निर्णय को निरस्त कर दे । ११८ ऐसी गवाही झूठी मानी जाती है जो लालच, मोह-ममता, डर, मित्रता, काम, क्रोध, अज्ञान अथवा बचपने में दी गई हो । ११९ महर्षि भृगु ने कहा - ब्राह्मणों ! लालच और मोह में आकर असत्य साक्ष्य देने वालों को विशेष दण्ड देने के बारे में क्रमशः बताता हूं । १२० लोभ के वश में झूठी गवाही देने पर हजार पणों का, मोह के वशीभीत हो असत्य बोलने वाले साक्षी को ढाई सौ पणों का, भय के वश में आकर झूठी गवाही देने वालों को पांच सौ पणों का और मित्रता के कारण असत्य बोलने वाले को दो हजार पणों का दण्ड देना चाहिए । टिप्पणी - पण का अर्थ तत्कालीन सिक्के से है । १२१ काम के वश में झूठी गवाही देने पर दस पणों का, क्रोध वश झूठी गवही देने वाले को तीस पणों का, अज्ञानवश झूठी साक्षी देने वाले को दो सौ पणों का तथा मूर्खतावश झूठी गवाही देने वाले को एक सौ पणों का अर्थ दण्ड देना चाहिए । १२२ महर्षि भृगु बोले - ब्राह्मणो ! सत्य के रूप धर्म की व्यवस्था को बनाए रखने तथा अधर्म पर नियंत्रण रखने के लिए ही विद्वानों ने इस तरह की असत्य साक्षियों के लिए उपर्युक्त अर्थ दण्डों का विधान किया है । १२३ क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र - तीनों वर्णों के लोगों द्वारा असत्य साक्ष्य देने पर उन्हें दण्ड देकर देश से निकाल देना चाहिए । ब्राह्मण वर्ण के लोगों को दण्ड न देकर देश से निकाल देना चाहिए । १२४ भृगु जी कहते हैं - विप्रो ! महाराज स्वायम्भव मनु ने दण्ड के जो दस भेद बताए हैं, वे सब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीन वर्णों के लिए हैं । शारीरिक और आर्थिक आदि दण्ड ब्राह्मण को देना मना है । उसे केवल देश-निकाले का दण्ड दिया जा सकता है । १२५,१२६, दण्ड देने के दस स्थान हैं - उपस्थ ( लिंग ), पेट, जीभ, हाथ, पैर, आंखें, नाक, कान, शरीर तथा धन । इन्हें विकृत करना अर्थात् इन्हें पीड़ा देना ही दण्डित करना है । विवाद, देश तथा काल को भली प्रकार देख, सुन तथा समझ कर जिनको दण्ड दिया जाए उनके साथ ही अपराधी के अपराध तथा उसकी सामर्थ्य को दण्ड देना चाहिए । १२७ दण्ड देने में अधर्म करने से (अन्यायापूर्ण दण्ड देने से) इस लोक में अपयश मिलता है तथा मृत्यु के बाद भी अपकीर्ति मिलती है और नरक प्राप्त होता है । अतएव अन्याय से किसी को दण्डित नहीं करना चाहिए । १२८ जो व्यक्ति ऐसे लोगों को दण्ड देता है, जिन्हें दण्ड नहीं देना चाहिए तथा जिनको दण्ड देना चाहिए, उन्हें दण्ड नहीं देता, उसे संसार में बहुत अधिक अपयश मिलता है और मरने के बाद वह नरक जाता है । १२९,१३० सबसे पहले अपराध करने वाले को समझाना चाहिए । जब इसका असर नहीं पड़े, उसकी भर्त्सना करनी चाहिए । जब इससे भी वह न समझे तो उसे पर अर्थ दण्ड लगाना चाहिए । जब इसका भी अनुकूल असर नहीं पड़े तो उसे शारीरिक दण्ड देना चाहिए । शारीरिक दण्ड देने पर उसका अभीष्ट प्रभाव नहीं पड़ने पर चारों प्रकार के दण्डों का उपयोग एक साथ करना चाहिए । १३१ महर्षि भृगु जी ने कहा-तांबा, चांदी तथा स्वर्ण से बने पणें के जो नाम संसार में व्यवहार के लिए प्रसिद्ध हैं, मैं आप लोगों को उन सबके बारे में जानकारी देता हूं जिससे आपको इनकी चोरी करने पर दिए जाने वाले दण्ड आदि का ज्ञान हो जाए । १३२ खिड़की या रोशनदान की जाली के छिद्रों में गुजरती सूर्य किरणों में जो छोटे-छोटे धूल-कण दिखाई देते हैं उन्हें 'त्रसरेणु' कहते हैं । १३३ ऐसै आठ त्रसरेणु के समूह का नाम लिक्षा हैं । तीन लिक्षाओं से मिलकर एक राई ( राजसर्षप ) तथा तीन राइयों को मिलाकर एक सफेद सरसों बनती है । १३४ छह श्वेत सरसों के दानों से एक मझोला जौ, तीन जौ से एक कृष्णल ( रत्ती ), पांच कृष्णल या रत्ती से एक माशा ( माष ) तथा सोलह माशों का एक तोला ( सुवर्ण ) होता है । १३५ चार सुवर्णों ( तोलों ) का एक पल ( छटांक ), दश पलों का एक ' धरण ' और दो रत्तियों ( कृष्णल ) को तरारजू पर रखने से उसके बराबर एक ' रौप्य माषक ' जानना चाहिए है । १३६ उन १६ रौप्य माषकों का एक रौप्यवरण ( धरण ) तथा चांदी का पुराण भी होता है । तांबे के पैसे को ' कर्ष ' तथा ' पण ' भी कहते हैं । १३७, १३८ चांदी की दश धरण का एक ' शतमान ', चार सुवर्णों के परिमाण का एक निष्क ( अशर्फी ), २५० पणों का ' प्रथम साहस ', ५०० पणों का 'मध्यम साहस ' तथा एक हजार पणों का ' उत्तम साहस ' होता है । १३९,१४० मनु महाराज ने यह विधान किया है कि यदि ऋण लेने वाला न्यायालय में महाजन से ऋण लेने की बात मान लेता है तो उस पर ५ प्रतिशत के हिसाब से और नहीं मानने पर ( लेकिन बाद में झूठा सिद्ध होने पर ) दस प्रतिशत पणों का दण्ड लगाना चाहिए । वसिष्ठ जी का मत इसके विपरीत है । उनके अनुसार ऋण लेना अस्वीकार करने ( पर बाद में झूठा सिद्ध होने पर ) वाले व्यक्ति से एक रुपया बीस पैसे प्रतिशत के हिसाब से दण्ड वसूलना चाहिए । १४१ सज्जनों की परम्परा के अनुसार दो प्रतिशत ब्याज लेना चाहिए । दो प्रतिशत ब्याज लेने वाला किसी भी प्रकार से पाप का भागी नहीं होता । १४२ ब्रह्मण से दो प्रतिशत, क्षत्रिय से तीन प्रतिशत, वैश्य से चार प्रतिशत तथा शूद्र से पांच प्रतिशत प्रतिमाह ब्याज लेना चाहिए । १४३ ऋण में दी गई राशि जब भोगयुक्त पदार्थों ( जैसे भूमि, पशु आदि ) को रेहन ( बन्दक ) रख कर दी जाती है तब उस पर ब्याज लेना अनुचित होता है । उन्हें निशिचत समय पर नहीं छुड़ाए जाने पर भी कर्जा देने वाले को उन्हें बेचने या किसी और को देने का अधिकार नहीं होता । १४४ बन्दक ( रेहन ) के रूप में रखे पदार्थ का अनुचित उपभोग नहीं करे । उसका उपभोग करने पर ऋण में दी गई राशि पर ब्याज लेने का अधिकार समाप्त हो जाता है । यदि ऋण देने वाले द्वारा पदार्थ का उपभोग किया जाता है तो आधि ( रेहन रूप में आई ) में आई किसी भी तरह की क्षति को उसे पूरा करना चाहिए । १४५ अमानत में रखे पदार्थों की निशिचत अवधि व्यतीत हो जाने पर भी स्वामी का स्वामित्व समाप्त नहीं होता । बहुत दिनों के बाद भी स्वामी अपनी सुविधा के अनुसार गिरवि और अमानत रखे पदार्थों को छुड़ा सकता है । १४६ गाय, ऊंट, घोड़ा आदि पशुओं का दूसरों द्वारा प्रेम सहित उपभोग करते रहने पर भी उनके मूल स्वामी का अधिकार खत्म नहीं होता । १४७ अगर गिरवि रखी या किसी ( विधि सम्मत ) और प्रकार से अधिकार में आई वस्तु या पदार्थ को कोई अन्य व्यक्ति स्वामी की जानकारी में दस वर्षों तक बराबर अपने उपयोग में लाता रहता है और स्वामी चुप रहता है ( कोई विवाद नहीं करता ) तो उस वस्तु पर उसका उपयोग करने वाले का ही अधिकार हो जाता है । १४८ अगर बंधक ( गिरवि ) या धरोहर रखने वाला बालक या पागल नहीं है और उसके सम्मुख ही दूसरा व्यक्ति उस वस्तु का उपभोग करता रहता है तो न्यायालय उपभोग करने वाले को ही उस वस्तु का स्वामी बना देता है । टिप्पणी - इस श्लोक के अर्थ को श्लोक संख्या १४७ के संदर्भ में ही लेना चाहिए । १४९ बन्दक, बालधन, धरोहर की राशि, नारियां, राजा का धन तथा श्रेत्रिय-धन आदि का दूसरे द्वारा भोग किए जाने पर भी भोगने वाले के नहीं होते और अपने स्वामी के ही बने रहते हैं । १५० यदि कोई चालाक व्यक्ति किसी भी बन्धक को उसकी आज्ञा लिए बिना ही उपयोग में लाता है तो उसे भोग करने के बदले में निशिचत ब्याज की राशि का आधा हिस्सा ही वसूलने का अधिकार होता है । १५१ एक बार नकद मूलधन का ब्याज लेने पर, ब्याज पुनः मूलधन से दो गुना नहीं हो सकता । धान्य, पड़े-मूल,फल, ऊन तथा वाहन आदि के मूलधन पर ब्याज उससे ( मूलधन से ) पांच गुने से ज्यादा नहीं हो सकता । १५२ ब्याज की जो दर निर्धारित की गई है, शास्त्र उससे अधिक वसूली करने की आज्ञा नहीं दे सकता । किसी भी रूप में ब्याज दर पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए । १५३ मासिक दर से निशिचत किए गए ब्याज को एक वर्ष के बाद वसूल कर लेना चाहिए । इस बारे में न तो ज्यादा बढ़ाना चाहिए और न ही सूद-पर-सूद लेना चाहिए तथा सूद के बदले शारीरिक परिश्रम भी नहीं कराना चाहिए । १५४ जो व्यक्ति कर्ज चुकाने में असमर्थ हो, वह ब्याज की धनराशि चुकता करने के बाद नए ढंग से लिखा-पढ़ी करे । १५५ जो व्यक्ति ब्याज की राशि देने में समर्थ नहीं हो उसके मूलधन में ब्याज को जोड़ देना चाहिए और कुल राशि पर उससे आगे का ब्याज वसूलना चाहिए । १५६ उस धनवान व्यक्ति को जो चक्रवृद्धि ब्याज (सूद पर सूद ) लेता है, देश तथा काल में प्रचलित नियमों का पालन करना चाहिए । ऐसा नहीं करने वाला व्यापारी फल को प्राप्त नहीं कर पाता । १५७ देश, काल तथा अर्थ के उपयोग की जानकारी रखने वाले तथा समुद्री जहाज से यात्रा करने में कुशल व्यापारी जिस तरह अपने धन को बढ़ाते हैं, वही इस तथ्य का प्रमाण है कि धन का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए । १५८ जो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की जमानत या उसको प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व लेता है, लेकिन वह उसे प्रस्तुत नहीं कर पाता तो उसे उस दूसरे व्यक्ति का कर्जा स्वंय चुकाना चाहिए । १५९ पिता की मृत्यु होने पर उसके जमानती होने, बेकार मेंवाए ( शराब पीने या वेश्यागमन करने के उद्देश्य से लिए उधार ) धन का, जुए में हारी धनराशि का, शराब बेचने वाले के उधार का और आथिर्क दण्ड की बची राशि का उत्तरदायित्व पुत्र पर नहीं होता । १६० कर देने के विवाद में भी पिता का दाय पुत्र पर नहीं होता । इसमें भी पहले बताई विधि ही अपनाई जाती है । जमानत देने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारियों की सहमति से, उनसे जमानत दिलायी जा सकती है । १६१ केवल कर्जा लेने वाले को न्यायायल में पेश करने की जमानत लेने वाला ( उसके कर्जे को चुकाने की नहीं ) जमानती ( प्रतिभू ) अगर मर जाता है और कर्जा देने वाले को यह सब ज्ञात है तो जमानती के पुत्र-पौत्र आदि किसी भी तरह जिम्मेवार नहीं होते । १६२ पूर्व श्लोक में कहे गए प्रितभू ( जमानती ) को अगर कर्जा लेने वाले ने कर्जे की राशि दे दी है लेकिन कर्जा देने वाले ने धन वापिस करने के लिए नहीं कहा और ऐसी स्थिति में प्रतिभू ( जमानती ) की मृत्यु हो जाए तथा उसका पुत्र उस कर्जे के धन को अपनी सम्पत्ति में से चुकाने में समर्थ हो तो वह कर्जा देने वाले का कर्ज चुका दे, यही शास्त्र मर्यादा है । १६३ ऐसे व्यक्तयों के साथ किया गया लेन-देन जो शराब आदि नशों के वश में पड़ा हो, पागल, रोगग्रस्त या पीड़ित हो अथवा धन नहीं कमाता हो या बालक अथवा वृद्ध हो तथा किया गया लेने-दन असम्बद्ध हो उसे प्रमाणिक नहीं माना जाता । १६४ ऐसे प्रतिज्ञा-पत्र जो कानून या परम्परा के विरुद्ध हो प्रामाणिक नहीं माना जाता चाहे वह आपस में निशिचत करके मौखिक या लिखित रूप में प्राप्त हो । १६५ बन्धक में रखी वस्तु का जो विक्रय-पत्र छल-कपट से बनाया गया हो या छल से बंधक रखी वस्तु का दान करने या वापस करने क लीखा-पढ़ी की गई हो उसे रद्द कर देना चाहिए । बन्धक तथा धरोहर को वापस कर देना चाहिए । १६६ परिवार का पालन-पोषण करने के लिए कर्ज लेने वाले की मृत्यु हो जाने पर परिवार के सदस्यों पर संपत्ति का बंटवारा होने पर उस कर्जे को चुकाने की पूरी जिम्मेवारी है । १६७ अपने परिवार की ओर से परिवार का कोई अधीन वयस्क सद्स्य ( जैसे पत्नी, पुत्र आदि ) अपने या दूसरे देश में कोई लेन-देन करता है तो परिवार के मुखिया को उसे अमान्य ( न मानने योग्य ) नहीं करना चाहिए । १६८ भृगु महाराज कहते हैं - ऋषियो ! भगवान मनु का स्पष्ट आदेश है कि बल प्रयोग द्वारा लिखाया गया या कराया गया कार्य अथवा भोगी गयी वस्तु को अप्रामाणिक मानना चाहिए ( अर्थात् बल दिखाकर भोगी गई या ली गई वस्तु धन,स्त्रि आदि पर उसके स्वामी का ही अधिकार है ) । १६९ साक्षी ( गवाही देने वाला ), जमानती तथा परिवार ये तीनों दूसरों के लिए दुख सहते हैं और ब्रह्मण, वैश्य, साहूकार तथा राजा ये चारों दूसरों के कारण बढ़ते हैं अर्थात् उन्नति करते हैं । १७० रारजा द्वारा जो देने योग्य नहीं उसे देने तथा देने योग्य को नहीं देने से उसकी दुर्बलता सिद्ध होती है और इससे वह इहलोक एवं परलोक में नष्ट हो जाता है । १७१ राजा की शक्ति न्याय के अनुसार उचित तथा ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करने, सभी वर्णों के लोगों को अपने-अपने नियमों का पालन करने में स्थिर रखने तथा कमजोरों की रक्षा करने से बढ़ती है । वह इस संसार में तथा परलोक में यश प्राप्त करता है । १७२ राजा तथा यम को इसलिए समान माना गया है क्योंकि राजा को यम की भांति अपने क्रोध तथा इन्द्रियों पर विजय पाकर, अपने प्रिय तथा अप्रिय को बिना महत्व दिए सब लोगों के साथ उनके कर्मों के अनुसार व्यवहार करना होता है । १७३ मोह के वश में आकर या अधर्म में पड़कर व्यवहार करने वाले दुरात्मा राजा को उसके शत्रु जल्दी ही अपने वश में कर लेते हैं । १७४ जो राजा काम तथा क्रोध को त्याग कर धर्मानुसार आर्थिक विवादों को निपटाता है उसकी प्रजा इस तरह उसके अनुकूल रहती है जैसे नदियां सागर की ओर बहती हैं । १७५ कर्जा लेने वाला जो व्यक्ति कर्जा देने वाले द्वारा मनमानी रीति से अधिक धन वसूल करने की शिकायत करे तो राजा को चाहिए कि न्याय द्वारा उचित रीति से उसको रुपया वापस दिलवाते हुए, कर्जा देने वाले पर मूलधन का चतुर्थांश आर्थिक दण्ड लगाए । १७६ यदि ऋणी ( कर्जा लेने वाला ) ऋण देने की सामर्थ्य नहीं रखता तथा वह ऋण दाता की समान या उससे छोटी जाति वाला हो तो वह ऋणी कर्जा देने वाले ( ऋणदाता ) के यहां कार्य करके अपने कर्जे को चुकता करे । अगर ऋण लेने वाला, ऋण देने वाले से ऊंची जाति का हो तो अपना कर्जा किश्तों में चुकता करे । १७७ राजा को चाहिए कि वह प्रजाजनों के पारस्परिक विवादों को गवाहों, दस्तावेजों और अन्य प्रमाणों के अनुसार न्यायपूर्वक निपटाए । १७८ बुद्धिमान पुरुष को अच्छे कुल वाले, आचारवान, धर्मात्मा, सत्य बोलने वाले, प्रसिद्ध और आर्य समझे जाने वाले धनवान व्यक्ति के यहां ही अपनी चीज ( वस्तु आदि ) धरोहर रखनी चाहिए । १७९ जो व्यक्ति अपनी वस्तु को जिस हालत में किसी व्यक्ति के यहां रखता है, उस व्यक्ति को चाहिए कि दूसरे को वह वस्तु उसी रूप या स्थिति में वापिस करे । लेन-देन में एकरूपता का होना जरूरी है । १८० अगर धरोहर रखने वाले से धरोहर का स्वामी अपना धरोहर वापस मांगे और वह उसे नहीं दे तो न्यायधीश धरोहर रखने वाले की अनुपस्थिति में उससे पूछताछ करे १८१ किसी भी साक्षी के नहीं होने पर न्यायकर्ता को अपने वृद्ध तथा आचारवान ( गुप्त ) दूतों द्वारा उस व्यक्ति के पास मूल्यवान पदार्थ किसी बहाने से धरोहर रूप में रखवा देने चाहिए । १८२ यदि गुप्त दूत के मांगने वह व्यक्ति उसकी धरोहर सुरक्षित दशा में वापिस कर देता है तो न्यायकर्ता को शिकायत करने वाले व्यक्ति को झूठा समझना चाहिए । १८३ यदि धरोहर रखने वाला गुप्त दूतों को भी उनकी धरोहर रखी वस्तु नहीं वापस करता तो उसे ताड़न आदि दण्ड से वश में करके दोनों ( शिकायतकर्ता तथा गुप्त दूत ) की धरोहर वापिस निकलवानी चाहिए । १८४ बन्धक तथा धरोहर की वस्तुओं को उनके सच्चे स्वामी के अतिरिक्त उनके उत्तराधिकारियों को नहीं देना चाहिए । अगर इन चीजों के स्वामी की मृत्यु हो जाती है और वह अपने उत्तराधिकारियों को आवश्यक तथ्य बताए बिना मर गया है तो वे वस्तुएं धरोहर रखने वाले की ही हो जाती हैं । १८५ धरोहर को रखने वाला व्यक्ति अगर धरोहर के वास्तविक आधिकारी की मृत्यु के पश्चात् अपनी इच्छा से उस धरोहर की वस्तु को उसके उत्तराधिकारियों को वापस कर देता है तो राजा को उसमें दखलंदाजी नहीं करी चाहिए । १८६ जो व्यक्ति अपने स्वर्गीय पिता द्वारा किसी के यहां रखी धरोहर या बन्धक को वापस लेना चाहता है उसे निश्च्छलता तथा प्रेमपूर्वक इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । उसे अपनी कमजोर स्थिति का ध्यान रखते हुए अपने कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए । १८७ सभी तरह की धरोहर की वस्तुओं की सत्यता को बनाए रखने की एक विधि उन पर गोपनीय रूप से अपनी मोहर लगाना या विशेष चिह्न बनाना है । इससे किसी तरह के छल-कपट की आशंका नहीं रहती । १८८,१८९ अगर धरोहर रखने वाले व्यक्ति के यहां रखी धरोहर की चोरी हो जाए अथवा वह जल द्वारा बह जाए या आग द्वारा जल जाए तो उस धरोहर के विषय में उस पर कोई मुकदमा अथवा अभियोग नहीं चलाया जा सकता । न्यायाधिश साम ( समझाने-बुझाने ) आदि उपायों और वैदिक शपथों से धरोहर का हरण करने वाले तथा धरोहर रखे बिना ही उसकी झूठी मांग करने वाले से पूछताछ कर सच्चाई जानने का प्रयत्न करे । १९० धरोहर को नहीं लौटाने वाले तथा धरोहर रखे बिना ही उसको मांगने वाले दोनों को ही चोर के समान दण्ड देना चाहिए । धरोहर की राशि के बराबर ही उन दोनों पर अर्थदण्ड ( जुर्माना ) लगाना चाहिए । १९१ धरोहर रखकर फिर उसे न देने वाले को राजा धरोहर राशि के बराबर अर्थ दण्ड दे । इसी तरह बन्धक को नहीं लौटाने वाले को भी यही अर्थदण्ड देना चाहिए । १९२ राजा का जो करमचारी अपने को राजा कका प्रिय बताकर तथा राजकृपा का आश्वासन देकर प्रजा से घूस ग्रहण करता है उसे सबके सामने तरह-तरह की यातनाएं देकर जान से मार देना चाहिए । १९३ यदि कोई व्यक्ति गवाहों की उपस्थिति में स्वर्णादि को धरोहर स्वरूप रखवाता है और उसे वापिस लेते समय वह बहुमूल्य वस्तु वजन में कुछ कम हो, तो धरोहर रखने वाले को साक्षी लोगों के वचन को प्रमाण मानते हुए उस वस्तु के वजन को पूरा करना चाहिए । १९४ यदि धरोहर देने व रखने वाले ने परस्पर विश्वास के आधार पर ही धरोहर दी-सी हो, तो ऐसी स्थिति में धरोहर की वापसी भी परस्पर विश्वास पर ही होनी चाहिए और लेन-देन के दौरान इस भरोंसे को बनाए रखना चाहिए । १९५ धरोहर स्वरूप रखे हुए धन तथा स्वेच्छा व प्रेम से दूसरे को इस्तेमाल के लिए दी गई वस्तुओं को वापिस लेने के लिए ऐसे व्यवहार अथवा बर्ताव का पालन करना चाहिए कि धरोहर रखने वाले व्यक्ति को कष्ट न हो और उसे बुरा न लगे । १९६ जो व्यतक्ति धरोहर के स्वामी की अनुमति लिए बिना उसे बेच देता है और स्वयं को सज्जन व सच्चरित्र कहता है, उसे चोर समझें तथा उसके कथ्य अथवा गवाही पर भरोसा न करें । १९७ दूसरे की वस्तु को उसकी आज्ञा बिना ही बेचने वाला व्यक्ति यदि धन के स्वामी का कर्मचारी हो तो उसे छः गुना दण्ड देना चाहिए । अगर वह धन के स्वामी का न तो सम्बन्धी है न ही कर्मचारी तो वह निश्चित ही चोर है, अतः इसी रूप में उसे दण्ड मिलना चाहिए । १९८ वस्तु के मालिक की अनुमति के बगैर उसकी खरीद-बेच को मर्यादानुसार किया गया क्रय-विक्रय नहीं समझना चाहिए । १९९ यदि वस्तु की खरीद का कोई सबूत न हो लेकिन उसका उपभोग सर्वविदित हो, इसके उलट वस्तु के क्रय का प्रमाण तो हो किंतु वह उसका उपभोक्ता न हो- ऐसी स्थिति में जिस व्याक्ति ने वस्तु खरीदी है - उसे ही वास्तविक स्वामी समझना चाहिए । २०० यदि व्यक्ति अपने परिवार के सान्निध्य के माध्यम से विक्रय में धन प्राप्त करता है तो क्रय से विशुद्ध उस धन को न्यायोचित रूप से प्राप्त समझना चाहिए । २०१ स्वयं को वस्तु का स्वामी कहने वाला या स्वामी के स्थान पर किसी व्यक्ति से सार्वजनिक रूप से वस्तु खरीदने वाला व्यक्ति यदि विक्रोता को न भी ला सके, तो भी वह दण्ड योग्य नहीं है । २०२ मनुष्य वस्तु विशेष के स्थान पर किसी और वस्तु को, सड़ी-गली, वजन में कम, केवल दूर से ही ठीक दिखने वाली तथा ढकी हुई वस्तु को न बेचे । ब्रिक्री के समय ग्राहक को वस्तु की ठीक-ठीक स्थिति बता देनी चाहिए । २०३ माता-पिता किसी दूसरी कन्या को दिखलाकर विवाह किसी और कन्या से करवा दें तो मनु जी के मतानुसार दोनों कन्याओं का समान शुल्क होता है । २०४ विवाह के समय कन्या के पागलपन, कोढादि रोग एवं अन्य से सहवासादि दोषों को छिपाने वाले कन्या के माता-पिता, भाई इत्यादि दण्डनीय होते हैं । २०५ रोगादि अपरिहार्य कारणवश यदि यक्ष में वरण किया गया ऋत्विज काम को बीच में ही छोड़ देता है तो उसे उसके द्वारा किए गए कर्म के आधार पर दक्षिणा मिलनी चाहिए । २०६ ऋत्विज अगर दक्षणा लेने के पश्चात् अपने कार्य को किसी कारणवश पूर्ण न कर पाए तो उससे दक्षिणा वापिस लेकर उस व्यक्ति को दे देना चाहिए जो यह कार्य पूरा करे । २०७ वह कर्म जिसमें हर भाग के लिए भीन्न दक्षिणा का विधान है, उसमें जो व्यक्ति जितने भाग को सम्पन्न करे,उसे उतने अंश की दक्षिणा देनी चाहिए । २०८ यज्ञ में अध्वर्यु रथ को, अश्व को ब्रह्मा एवं होता और उदगाता सोमक्रय को धारण करने के लिए शकट को ग्रहण करें । २०९ चार मुख्य ऋत्विज सभी यज्ञों में दक्षिणा का आधा भाग लेते हैं । उनसे आधा भाग लेने वाले अन्य चार, उनसे तीसरा भाग लेने वाले दूसरे चार और उनसे चौथा भाग लेने वाले और चार ऋत्विज होते हैं । अतः कुल सोलह ऋत्विज होते हैं । २१० इस प्रकार मिलकर कार्य करने वाले लोगों को अपने-अपने भाग को लेना चाहिए । २११ यदि कोई व्यक्ति धर्म-कार्य हेतु धन देता है तो उस पर उसका अधिकार खत्म हो जाता है । उसी धन को वह दूसरी बार किसी अन्य को नहीं दे सकता । २१२ एक बार लोभवश या अहंकार से दिए गए दान को वापस लेना पाप है । राजार द्वारा ऐसे व्यक्ति को इस पाप से मुक्त करने के लिए सुवर्ण का दण्ड देना चाहिए । २१३ भृगु जी ने कहा - जिस दण्ड विधान की जानकारी मैंने अभी तक आपको दी, उसके अंतर्गत धरोहर, बंधक दानादि के देने-लेने एवं रखने के नियम आते हैं । अब मैं आपको वेतन देने अथवा न देने के संदर्भ में क्या विधान है - इसके बारे में बतलाता हूं । २१४ यदि भृत्य अर्थात् नौकर स्वस्थ होने के बावजूद अपने मालिक के द्वारा निर्दिष्ट कार्य को नहीं करता तो उसे आठ बेंतों का दण्ड मिलना चाहिए तथा उसे वेतना भी नहीं मिलना चाहिए । २१५ किन्तु जो नौकार स्वस्थ अवस्था में ईमानदरी व निष्ठा से मालिक के आदेश का पालन करता है, वह रोगादि के कारण यदि लंबे समय तक अनुपस्थित भी रहे, तो भी उसे वेतन मिलना चाहिए । २१६ पूर्व निशिचत कार्य को स्वस्थ अथवा बीमार व्यक्ति यदि पूरा नहीं करता, तो थोड़ा सा कार्य बचे रहने पर भी उसे पूरे काम का वेतन नहीं देना चाहिए । २१७ वेतन सम्बन्धी इन नियमों के पशचात् अब मैं आपसे प्रतिज्ञा भंग करने वालों के लिए नियत दण्ड विधान के बारे में कहता हूं । २१८ वेतन ग्राम, देश और संघों के साथ किसी वस्तु को देने का वचन देकर लोभवश वह व्यक्ति अपने वायदे से मुकर जाता है तो उसे देश से निर्वासित कर देना चाहिए । २१९ जो व्यक्ति काम पूरा करने की प्रतिज्ञा करके समय पर कार्य पूरा न करे उस व्यभिचारी को राजा द्वारा पकड़ लेना चाहिए और उसे चार सुवर्ण, छः निष्क और चांदी के शतमान को देने का दण्ड मिलना चाहिए । २२० पूर्व निश्चित समय पर कार्य पूरा न करने वाले व्यक्ति को ग्राम, जाति व समुदायों में राजा द्वारा इसी प्रकार दण्ड मिलना चाहिए । २२१ जो वस्तु खरीद अथवा बेच दी जाने के बाद पसंद न आए उसे दस दिन के भीतर वापिस कर दिया जाना चाहिए । विक्रेता को भी चाहिए कि उस वस्तु को वापिस ले । २२२ खरीदा-बेचा हुआ सामान दस दिन के बाद वापिस लिया-दिया नहीं जा सकता । जो क्रेता-विक्रेता इस प्रकार का कार्य करते हैं, राजा द्वारा उन्हें छः सौ पणों का दण्ड देना चाहिए । २२३ अपनी कन्या के दोषों, कमजोरियों को छिपाकर उसका विवाह कर देने वाले व्यक्ति पर आठ सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । २२४ यदि कोई मनुष्य द्वेष पूर्वक दोष रहित कन्या पर भी दोषारोपण करता है और उसके दोष को दिखा नहीं पाता अर्थात् सिद्ध नहीं कर पाता तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति पर सौ पणों का दण्ड लगाने का विधान है । २२५ चूंकि विवाह सम्बन्धी मंत्र कन्याओं के विषय में कहे गए हैं अतः उपरिवर्णित दण्ड का विधान है, ताकि किसी पर झूठा आरोप न लग सके । ये आचारहीन कन्याओं के लिए नहीं है । ऐसी कन्याओं के लिए धर्म-कार्य सम्पन्न नहीं किए जाते । २२६ विवाह सम्बन्धी मंत्र निश्चित रूप से कन्या के स्त्री हो जाने के सूचक होते हैं । सप्तपदी के सप्तम पद के समय पढ़े जाने वाले मंत्र के साथ ही इन मंत्रों को पूर्ण हुआ जानें । २२७ राजा को यदि किसी भी कार्य में दोष का संशय हो,तो वह उसे विधिपूर्वक धर्मानुकूल बनाने का प्रयास करे । २२८ भृगुजी ने कहा - ब्राह्मणो अब पशुओं, पशुपालकों व पशु के स्वामी के बीच होने वाले मतभेदों के विषय में धर्मशास्त्रानुकूल जो विधान है, वह मैं आपको बतलाता हूं । २२९ दिन में पशुओं की सुरक्षा पशुपालक करें और रात्रि में पशुओं का मालिक उनकी रक्षा करे चूंकि रात में पशु अपने स्वामी के घर में ही रहते हैं अतः चारे व पानी की कमी की स्थिति में भी दिन में पशुओं की सुरक्षा व कल्याण का दायित्व पशुपालक पर ही होता है । २३० वेतन के रूप में दूध निश्चित किए जाने पर ग्वाला गायों के स्वामी की अनुपस्थिति में श्रेष्ठ दस गायों में से एक गाय को दुह ले । वही दूध उसका वेतन होगा । २३१ पशु के नष्ट होने, नकारा हो जाने, कीड़ों द्वारा खा लिए जाने, कूत्तों द्वारा फाड़ दिए जाने, वन में खो जाने या वनचरों द्वारा वध किए जाने की स्थिति में पशु के स्वामी को ग्वाले द्वारा ही क्षतिपूर्ति करवानी चाहिए । २३२ यदि ग्वाले से बलपूर्वक पशु को हर लिया जाता है और वह समय पर अर्थात् तत्काल इसकी सूचना पशु के स्वामी को दे देता है तो पशु की चोरी का पाप उसे नहीं लगता । २३३ किसी पशु की मृत्यु हो जाने पर ग्वाले को उसके अंग पशु के स्वामी को दिखला देना चाहिए । मृत पशु के विभिन्न अंगो पर भी पशु के स्वामी का ही अधिकार होता है । २३४ यदि भेड़-बकरियों को कोई भेड़िया पकड़ लेका है और चरवाहा उन्हें भेड़िये के शिकंजे से छुड़ाने का कोई प्रयास नहीं करता तो ऐसी स्थिति में पशु की मृत्यु का अपराधि ग्वाला होता है और उसकी मौत के पाप का भागीदार भी । २३५ चरवाहे की देखरेख में चरती भेड़-बकरियों पर अचानक भेड़िया धावा बोलकर एकाध भेड़-बकरी को ले जाता है तो इसके लिए चरवाहे को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता । २३६ पशुओं के चारागाह के लिए गांव के चारों ओर चार सौ हाथ परिमाण में या तीन बार लाठी फेंकने से घिरने वाली जमीन तथा नगर में तिगुनी धरती छोड़ देनी चाहिए । २३७ यदि पशुओं द्वारा चारगाह नष्ट किया जाता है तो उसके लिए राजा पशुओं की देखभाल करनरे वाले पशुपालक को दण्डित न करे । २३८ राजा को चाहिए कि वह चाहागाह की सुरक्षा के लिए इतनी ऊंची दीवार बनवाए कि ऊंट भी भीतर न देख सके और दीवार के छिद्रों को इस प्रकार बंद करवाए कि व सुअर भीतर मुख न डाल सकें । २३९ यदि चरवाहे की उपस्थिति में चारागाह की चारदीवारी से बाहर उसके निकट स्थित गांव के खेतों में पशु घुसते हैं तो चरवाहे पर सौ पण का दण्ड लगाना चाहिए और यदि चरवाहा उपस्थित नहीं है तो खेत का स्वामी पशु को अपने अधिकार में रख ले । २४० यदि किसी पशुपालक के पशु दूसरे के खेतों में चरने चले जाते हैं तो उस पर सवा पण का दण्ड लगाना चाहिए और पशुपालक के द्वारा ही खेतों में हुए नुकसान की भकपाई करवाना चाहिए । २४१ मनु जी के अनुसार यदि दस दिन की ब्यायी गाय द्वारा वृषभ एवं यज्ञ पशु चरवाहे की देखरेख में अथवा अकेले ही किसी के खेत में प्रवेश कर जाते हैं तो इसके लिए पशु, पशु का स्वामी व पशुपालक द्ण्ड योग्य नहीं हैं । २४२ यदि कोई खेत की स्वामी अपने पशुओं को किसी अन्य के खेत में चरने देता है तो उसे निश्चित दण्ड से दस गुना अधिक दण्ड मिलना चाहिए और यदि ऐसा मालिक के बिना जाने ही पशुपालक की देखरेख में होता है तो स्वामी आधा ही दण्ड देने के लिए उत्तरदायी है । २४३ पशु स्वमियों व पशुपालकों के बीच उठने वाले मतभेदों का धार्मिक राजा द्वारा इसी प्रकार निर्धारण होना चाहिए । २४४ यदि दो गांवो में सीमा-सम्बन्धी विवाद हो तो जेठ मास में जब घास-फूस सूख जाए और भूमि सीमा के चिह्न स्पष्ट हो जाएं तभी कोई निर्णय करें । २४५ भूमि सीमा के चिह्न के रूप में वट, पलाश, शाल व अन्य दूध वाले वृक्ष रोपने चाहिए । २४६ सीमा पर विभिन्न प्रकार के गुल्मों, बांसों के झाड़, शमी व अन्य लताएं लगाने से सीमा नष्ट नहीं होती । २४७ दो गांवों के बीच सीमा-स्थल पर तालाब, जलपान गृह, कुओं, बावली, झरनों तथा मंदिरों का निर्माण करवाना चाहिए । इससे लोगों का वहां आना-जाना लगा रहेगा और सीमा सुरक्षित व स्पष्ट रहेगी । २४८ लोगों में प्रायःसीमा को लेकर होने वाले विवादों को देखते हुए राजार द्वारा निम्नलिखित गूढ़ सीमा चिह्न बनवाने चाहिए । २४९, २५० जो वस्तुएं धरती में दबा दी जाने पर नष्ट नहीं होतीं अर्थात हड्डी, पत्थर, भस्म, तुष, गोबाल, खप्पर, शीशा, ईंट, कोयला शक्कल इत्यादि - ऐसी ही वस्तुओं को सीमा-संधि स्थल पर गुप्त रूप से गड़वा देनी चाहिए । २५१ यदि सीमा-सम्बन्धी मतभेद पैदा होता है तो राजा को इन्हीं चिह्नों की सहायता से, पहले से भोगी जाने वाली जगह तथा नदी के जलप्रवाह के मार्ग से ही तत्सम्बन्धी निर्णय करना चाहिए। २५२ यदि सीमा के निश्चय में उपरिसिखित प्रमाणों द्वारा भी संशय की स्खिति बनी रहती है तो साक्षी अर्थात् गवाह के सबूत से ही निर्णय करना चाहिए । २५३ साक्षयों से सीमा-सम्बन्धी पूछताछ गांव के मुखिया समूह एंव संशय रखनेवाले लोगों - अर्थात् दोनों पक्षों के सामने ही करनी चाहिए । २५४ साक्षी अर्थात् गवाह सीमा निर्धारण के संदर्भ में पूछे गए सवालों का जो-जो उत्तर दें - वैसे ही सीमा निश्चत कर देनी चाहिए तथा साथ ही साथियों के नामों का भी उल्लेख कर देना चाहिए । २५५ जो भी व्यक्ति सीमा निर्धारण में साक्षी बने उन्हें शरीर परलाल वस्त्र, गले में फूलों की माला और सिर पर मिट्टी को धारण कर यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि यदि हम झूठ बोलें तो हमारे सारे पुण्यों का नाश हो जाए । २५६ गवाही देने वाले व्यक्तियों के सत्य भाषण पर उन्हें सम्मानित करना चाहिए तथा इसके विपरीत गलत बोलने अथवा पथभ्रष्ट करने वालों पर सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । २५७ यदि साक्षी भी उपस्थित न हों तो आसपास के चार गांवों के निवासी तथा भूपति राजा के सामने गांव की सीमा निश्चित करें । २५८ यदि निकटवर्ती भूपति भी न हों तो वन में विचरने वाले, मूल निवासियों को सीमा-मतभेद का साक्षी मान लेना चाहिए । २५९ शिकारी, चिड़ीमार, चरवाहे, मल्लाह, खान खोदने वाले,सांप पकड़ने वाले तथा दाने बीन कर जीवन यापन करने वाले कुछ ऐसे वनचर हैं जिन्हें सीमा निर्धारण में साक्षी बनाया जा सकता है । २६० पूछे जाने पर ये वनचर राजा के समक्ष सीमा संधि के जो लक्षण बताएं उन्हीं के अनुसार दो ग्रामों की सीमा निश्चित करनी चाहिए । २६१ यदि खेत, कुएं, तालाब, बाग-घरों तथा सेतुओं की सीमा का निर्णय करना है तो आस-पास रहने वाले प्रामाणिक पुरुषों के कथन को ही सत्य मानें । २६२ सेतु सम्पन्धी विवाद में आस-पास रहने वाले सज्जन यदि किसी कारणवश झूठ का आश्रय लें तो उनमें से प्रत्येक को मध्यम स्तर का आर्थिक दण्ड मिलना चाहिए । २६३ यदि कोई व्यक्ति डरा-धमका कर दूसरे के घर, तालाब, बाग अथवा खेत को हथियार ले तो उस पर पांच सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए तथा अनजाने में दूसरे की सम्पत्ति पर अधिकार कर लेने वाले को दण्ड स्वरूप दो सौ पण देने चाहिए । २६४ यदि सीमा के संदर्भ में पर्याप्त सबूत उपलब्ध न हों तो धर्मज्ञ राजा को चाहिए कि वह स्वयं ही उस भूमि को परोपकार हेतु बने किसी न्यास को दे दे । ऐसी स्थिति में यही सबसे उचित निर्णय है । २६५ उपरिलिखित मर्यादा सीमा-सम्बन्धी मतभेदों के विषय में निर्धारित की गई है । विप्रो, अब मैं आपको कठोर व रूक्ष वाणी सम्बंधित दण्ड विधान के बारे में सविस्तार बतलाता हूं । २६६,२६७ यदि क्षत्रिय ब्रह्मण को अपशब्द कहे तो उस पर सौ पणों का, वैश्य पर डेढ़ सौ पणों का अर्थदण्ड लगाना चाहिए तथा शूद्र को मृत्युदण्ड देना चाहिए । इसके उलट यदि ब्रह्मण क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को अपशब्द कहे तो ब्रह्मण को क्रमशः पचास, पच्चीस तथा बारह पण दण्डस्वरूप देना चाहिए । २६८ समान वर्ण वाला व्यक्ति यदि अपने ही वर्ण के व्यक्ति को अपशब्द कहे तो उस पर बारह पण दण्डस्वरूप देने का विधान है । यदि कोई बहुत भद्दी गाली देता है तो उसे बारह पण से दुगुने अर्थात् चौबीस पणों का दण्ड मिलना चाहिए । २६९ ब्रह्मण, क्षत्रिय व वैश्य को यदि शूद्र द्वारा अपशब्द बोले जाएं तो उस शूद्र की दण्डस्वरूप जिह्वा काट लेनी चाहिए । तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए । २७० यदि कोई शूद्र अहंकारवश, ब्रह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के नाम और जाति का उच्चारण करता है तो उसके मुंह पर लोहे की दस अंगुल जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए । २७१ जो शूद्र अहंकार के वशीभीत होकर ब्राह्मणको धर्णोपदेश देता है। राजा द्वारा उसके मुंह व कान में गर्म तेल डलवा देना चाहिए । २७२ यदि कोई शिक्षा, देश, जाति, व्यवसायादि के बारे में झूठ व बढ़ा-चढ़ा कर बोलता है, उसे दो सौ पणों का दण्ड मिलना चाहिए । २७३ किसी विकलांग व्यक्ति को अर्थात् काने, लंगड़े आदि को सत्य होने पर भी यदि उसे कोई अपमानजनक भाषा में पुकारे तो उसे एक काषार्पण तक का दण्ड देना चाहिए । २७४ जो व्यक्ति माता-पिता, स्त्रि, भाई, पुत्र व गुरु को अपशब्द कहता है अपने गुरु को सामने आने पर भी विनम्रतापूर्वक मार्ग नहीं देता उसे सौ पणों का दण्ड देना चाहिए । २७५ यदि ब्रह्मण व क्षत्रिय के बीच गाली-गलौच होती है तो उन दोनों में ब्रह्मण को प्रथम साहस तथा क्षत्रिय को द्वितीय साहस का मिलना चाहिए । २७६ वैश्य व शूद्र में परस्पर कठोर संवाद होने की स्थितति में राजा द्वारा उन्हें उनकी जाति में मान्य दण्ड दिया जाना चाहिए । यही विधान है । २७७ विप्रो, उपर्युक्त वर्णन कठोर मैं आपको मार-पीट अर्थात् हिंसा के प्रयोग के लिए निश्चत दण्ड नियमों बारे में बतलाता हूं । २७८ शूद्र अपने सरीर के जिस भी अंग से द्विजातियों अर्थात् ब्रह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य पर प्रहार करे, उसका वही अंग काट देना चाहिए । मनु जी द्वारा दी गई यही व्यवस्था है । २७९ द्विजाति अर्थात् ब्रह्मण, क्षत्रिय व वैश्य जाति के व्यक्ति को यदी कोई शूद्र हाथ से चांटा अथवा घूंसा मारता है या लाठी उठाकर हमला करता है तो उसका हाथ काट देना चाहिए और यदि वह क्रोधवश पैर से चोट करता है तो उसका पैर काट देना चाहिए । २८० जो शूद्र उच्च वर्ण के लोगों के साथ बैठने की आकांक्षा रखता है उसकी कमर को दाग कर उसे वहां से भगा देना चाहिए या फिर उसके नितम्ब को इस प्रकार कटवा देना चाहिए कि वह न जीवित रह सके न मृत्यु को प्राप्त हो । २८१ यदि नीच जाति का व्यक्ति उच्च वर्ग के व्यक्ति पर थूकता है, पेशाब करता है अथवा पादता है तो क्रमशः उसके दोनों होंठ, लिंग और गुदा कटवा देनी चाहिए । २८२,२८३ यदि कोई शूद्र जान से मारने के लिए किसी द्विजाति के व्यक्ति के बालों, दाढ़ी, गरदन तथा अण्डकोश को पकड़े तो उसके हाथों को बीना विचार किए तत्काल कटवा देना चाहिए । यदि वह उच्च जाति के किसी सदस्य की त्वचा काटता है । जिससे उसका खून निकल आता है तो उस पर सौ पण और मांस काटने के लिए छः निष्कों का दण्ड लगाना चाहिए । द्विजाति के किसी भी व्यक्ति की हड्डी तोड़ने के अपराध पर शूद्र को देशनिकाला दे देना चाहिए । २८४ यदि हिंसा के कारण वृक्ष, लता अथवा पौधे आदि वनस्पतियों की क्षति होती है तो उसी क्षति के अनुपात में ही अपराधी को दण्ड मिलना चाहिए । २८५ अपराधी व्यक्ति मनुष्य व पशुओं को जितने अनुपात में दुःख व कष्ट देता है उसी अनुपात में उसको दण्ड मिलना चाहिए । २८६ लिंग अथवा योनी को पीड़ा पहुंचाने तथा रक्तपात करने पर अपराधी द्वारा प्रभावित व्यक्ति के इलाज का सारा व्यय अपराधी को दण्डस्वरूप देना चाहिए । २८७ जो व्यक्ति अपने स्वामी को जाने-अनजाने हानि पहुंचाता है, उसे हर प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए कि उसका स्वामी संतुष्ट हो जाए और क्षति-पूर्ति के रूप में दिए गए धन जितना धन ही राजा को भी देना चाहिए । २८८ यदि कोई व्यक्ति चमड़े व चमड़े से बने मशकादि, लकड़ी तथा मिट्टी की बनी वस्तुओं को क्षति पहुंचाए, तो अपराधी को नष्ट हुई वस्तुओं के मूल्य से पांच गुना अधिक धन दण्ड स्वरूप देना चाहिए । २८९ अग्र वर्णित दस अवस्थाओं को छोड़कर, सवारी चालक व यान के स्वामी को अन्य अवस्थाओं में अपराध करने पर अवश्य दण्ड देना चाहिए । २९०,२९१ (१) नाथ का टूटना (२) जुए का टूटना (३) मार्ग के टेढ़ा-मेढ़ा ऊंचा-नीचा होने के कारण अश्वादि का टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना (४)रुक-रुक कर चलना (५) रथ की धुरी का टूटना (६) पहिए का टूटना (७) रथ में जुड़े यंत्रों का टूटना (८) अश्वादि के गले में पड़ी रस्सी का टूटना (९) लगाम का टूटना (१०)अश्वादि के काबू से बाहर हो जाने पर चालक द्वारा ' बचो-बचो ' चिल्लाना - आदि इन दस अवस्थाओं में यान के चालक को जान-माल के नुकसान के लिए अपराधी नहीं ठहराया जा सकता । ऐसा मनु जी का कथन है । २९२ यान का चालक यदि अकुशल है और इसी कारणवश वाहन के बेकाबू होकर इधर-उधर चलने से हुई क्षति-पूर्ति के लिए वाहन के स्वामि पर दो सौ पणों का दण्ड लगाने का विधान है । २९३ किन्तु यदि चालक कुशल व स्वस्थ है और तब दुर्घटना घटती है तो चालक पर ही सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । यह जानते हुए भी कि चालक अकुशल अथवा अस्वस्थ है, जो लोग वाहन पर सवार होते हैं तो दुर्घटना हो जाने पर वे सभी सौ-सौ पण दण्डस्वरूप देने के उत्तरदायी हैं । २९४ जो कुशल वाहन चालक पशुओं अथवा अन्य वाहनों से मार्ग रुका होने पर भी वाहन उसी मार्ग पर चलाता है - तो ऐसी स्थिति में दुर्घटना होने पर चालक को बिना विचार किए ही दण्डित करना चाहिए । २९५ कुशल चालक द्वारा वाहन चलाने पर यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है या किसी गाय, हाथी, घोड़ा आदि पशु की मौत हो जाती है तो चालक पर क्रमशः हजार पणों एवं पांच सौ पणों का दण्ड लगाने का विधान है । २९६ यदि किसी क्षुद्र पशु अर्थात् पालतू कुत्ते, बिल्ली, खरगोश या बछड़े आदि की हत्या हो जाती है तो दोषी व्यक्ति से दौ सौ पण और बुलबुल, तोता,मैना व कबूतर इत्यादि की हत्या के अपराध में पचास पणों का दण्ड लेना चाहिए । २९७ पांच माषक दण्ड गधे, बकरी और भेड़ादि की हत्या के अपराध में लगाने का विधान है तथा जंगली कुत्ते व सुअर की हत्या पर एक माषक दण्ड का । माषक - तत्कालीन प्रचलित सिक्का । २९८ जो स्त्री, पुत्र, दास, पत्रवाहक एवं छोटा सगा भाई किसी प्रकार का अपराध करते हैं तो उनकी रस्सी या बेंत से पिटाई करनी चाहिए । २९९ किंतु इन अपराधियों के शरीर पर केवल पीठ पर ही प्रहार करना चाहिए सिर आदि उत्तम अंगों पर नहीं । ऐसा करने पर प्रहार करने वाले व्यक्ति की वही दण्ड मिलना चाहिए जो एक चोर को मिलता है । ३०० विप्रो ! मार-पीट सम्बन्धी दण्ड-विधान का यही वर्णन है । अब मैं आपको चोरी के अपराध पर मिलने वाले दण्ड के बारे में बतलाता हूं । ३०१ चोरों को पकड़ने के लिए राजा को पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए क्योंकिचोरों के पकड़े जाने पर अर्थात् चोरों के कम होने पर राजा की यश वृद्धि होती है तथा राष्ट्र समृद्ध बनता है । ३०२ जोराजा अपनी प्रजा को अभयदान देता है, वह सदैव पूजनीय रहता है । अभय की दक्षणा उसके यश को निरंतर बढ़ाती है । ३०३ जो राजा अपनी प्रजा की चोरों से रक्षा करता है उसे अपनी प्रजा के समग्र पुण्य फल का छठा भाग प्राप्त होता है । इसके विपरीत करने वाले राजा को प्रजा के समग्र पाप के फल छठा भाग होता है । ३०४ जो राजा प्रजा को अभय दान देता है अर्थात् भय से उनकी रक्षा करता है वह प्रजा के उन लोगों के पुण्य के छठे भाग का अधिकारी होता है जो वेदाध्ययन करते हैं यज्ञ-याग करते हैं, दान-दक्षिणा देते हैं तथा पूजा-अर्चना करते हैं । ३०५ वह राजा जो धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करता है और वध योग्य दुष्टों को मौत के घाट उतारता है वह नृप मानो सहस्रों रुपया दक्षिणा में दिए जाने वाले यज्ञों का सम्पादन करता है । ३०६ यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता लेकिन बलि, कर व शुल्क स्वरूप प्रजा से आय का छठा हिस्सा वसूल करता है वह राजा दण्ड पाने योग्य है तथा उसे जल्द ही नरक प्राप्त होता है । ३०७ जो राजा प्रजा से कर आदि तो वसूल लेता है किन्तु प्रजा की रक्षा नहीं करता, वह सभी प्रजाजनों के सम्पूर्ण पापों को ढोता है । ३०८ वह राजा, जो लोक मर्यादा का उल्लंघन करता है, ईश्वर में आस्था नहीं रखता, अनुचित रूप से धन जमा करता है, अभक्ष्य का भक्षण करता है और प्रजा की रक्षा नहीं करता वह भ्रष्ट व अधोगामी है, ऐसा जानें । ३०९ १. कारावास, २. बंधन, ३. एवं अनेक प्रकार के आर्थिक अथवा शारीरिक दण्ड जिनमें मृत्यु भी एक है - इन तीन उपायों द्वारा राजा को अधार्मिक पुरुषों का निग्रह करना चाहिए । ३१० जिस प्रकार यज्ञों से ब्रह्मण नित्य पवित्र बने रहते हैं, उसी प्रकार पापियों के निग्रह व साधुओं की रक्षा करने से राजा निरंतर पवित्र रहता है । ३११ जो राजा अपना हित व कल्याण चाहते हैं उन्हें बहुत यत्न से करने वालों अर्थात् बच्चों, बूढ़ों व रोगियों के छोटे-मोटे अपराध माफ कर देने चाहिए । ३१२ दुखियों द्वारा आक्षेप किए जाने पर जो राजा उत्तेजित नहीं होता बल्कि संयत होकर सहन कर लेता है वह स्वर्गलोक में अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त करता है किंतु जो राजा ऐश्वर्य में चूर हो उन्हेंं क्षमा नहीं करता, वह नरक लोक को प्राप्त होता है । ३१३ जो चोर क्षमा प्रार्थी है उसे अपने केश खोलकर दौड़ते हुए राजा के पास जाना चाहिए, चोरी को स्विकार कर राजा से दण्ड के रूप में सुधने का अवसर पाने की याचना करनी चाहिए । ३१४ क्षमाप्रार्थी चोर को राजा के पास जाकर मूसल अथवा खदिर की लकड़ी से बने मजबूत डण्डे को अथवा दोनों ओर से तीखी धार वाली बरछी या लोहे के कुण्डे को कंधे पर रखकर कहना चाहिए कि वे इससे उसे दण्ड दें । ३१५ चोर को दण्डित किया जाए या क्षमा किया जाए, उसके बाद वह चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है किंतु चोर को दण्ड न देने से राजा भी चोरी के अपराध का भागी हो जाता है । ३१६ स्त्री द्वारा भ्रूण हत्या के पाप की उपेक्षा कर उसका अन्न ग्रहण करने वाला तथा उसके द्वारा किए गए व्यभिचार को अनदेखा कर उसे छूट देने वाला पति, शिष्य के अपराधों को अनदेखा करने वाला गुरु तथा यजमान के अपराध की उपेक्षा करने वाला ऋत्विज इन सभी पापों के उत्तरदायी बनते हैं, ठीक इसी प्रकार चोर के अपराध की उपेक्षा करने वाला राजा भी उसके पाप का भागीदार होता है । ३१७ राजा द्वारा अपने दुष्कर्म का उचित दण्ड पा लेने के पश्चात् मनुष्य संतों के समान निष्पाप हो जाता है तथा स्वर्ग प्राप्त करता है । ३१८ जो व्यक्ति कुएं से पानी निकालने वाली रस्सी और मटके को चुराता है तथा प्याऊ को तोड़ देता है उस पर एक ग्राम स्वर्ण का दण्ड लगाने के साथ-साथ उसे रस्सी-मटका पुनः रखने और प्याऊ की मरम्मत करवाने का आदेश देना चाहिए । ३१९ जो व्यक्ति दस कुम्भों से अधिक धान्य चुराता है उसकी पिटाई होनी चाहिए और धान्य के स्वामी को उससे ग्यारह कुम्भ धान्य वापिस लेना चाहिए । ३२० इसी प्रकार तुला द्वारा तौली जाने वाली बहुमूल्य धातुओं तथा वस्त्रों के चोर को भी सौ गुना दण्ड मिलना चाहिए । ३२१ यदि कोई चोर पचास पल से अधिक मूल्यावान् धातु चुराता है तो उसके हाथ काट देने चाहिए । एक से उनचास पल तक का वजन चराने पर चोर पर मूल्य का ग्यारह गुना धन देने का दण्ड लगाना चाहिए । ३२२ कुलीन व सम्मानित परिवार के पुरुषों विशेषकर कुलीन स्त्रियों द्वारा बहुमूल्य रत्नों के चुराए जाने पर उन्हें मृत्युदण्ड देने का विधान है । ३२३ गाय, बैल, घोड़ा, बकरी व ऊंट आदि बड़े पशुओं, पुस्तकों एवं औषधियों के चोर पर समय व परिस्थिति अनुसार दण्ड लगाना चाहिए । ३२४ जो व्यक्ति ब्रह्मण परिवार व गायों का हरण तथा नाक छेदन करता है तथा अन्य विविध पशुओं का हरण करता है वह अर्ध-पाप के दण्ड का भागी होता है । ३२५,३२६,३२७,३२८ जो व्यक्ति सूत, कपास, मदिरा की गाद, गुड़, दही, खीर, छाछ, जल व घास चुराता है, बांस की नली, बांस के बर्तन, नमक, मिट्टी के बर्तन, मिट्टी व राख, मछली, पक्षी, तेल, घी, मांस, शहद, पशु से प्राप्त होने वाले अन्य पदार्थों को चुराता है तथा चावल ( पका ) व अन्य विविध पकवानों को चुराता है, उसे चुराई गई वस्तु क् मूल्य का दुगुना धन देने का दण्ड देना चाहिए । ३२९ फूलों, हरे अन्न, गुल्म, वल्ली, वृक्षों व अन्न की वल्लियों के चोर को पांच कृष्णल का दण्ड मिलना चाहिए । ३३० शुद्ध किए गए व पवित्र अन्नों, सब्जियों, कंद-मूल व फलों का चोर यदि निर्वंश हो तो उस पर सौ पणों का और यदि वंश वाला होतो पचास पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ३३१ यदि धन-धान्य को बलपूर्वक छीना जाए तो वह भी चोरी ही है । स्वामी से आज्ञा लिए बिना कुछ ले लेना या वस्तु लेकर मुकर जाना भी चोरी के समान ही अपराध है । ३३२ जो उपर्युक्त वस्तुओं व घर से अग्नि चुराता है उसे ' प्रथम साहस ' अर्थात् सौ पण का दण्ड मिलना चाहिए । ३३३ जिस प्रकार व जिस-जिस अंग से चोर चोरी करता है - राजा उसके वही अंग कटवा दे ताकि वह भविष्य में चोरी न कर सके । ३३४ वह पिता, आचार्य, मित्र, माता, पत्नी, पुत्र व पुरोहित आदि जो अपने धर्म में स्थिर नहीं रह पाते, वे भी राजा से दण्ड पाने योग्य हैं । ३३५ प्रजाजनों पर जिस अपराध के लिए कार्षापण दण्ड लगना चाहिए, उसी अपराध के लिए राजा को सहस्रों पणों का दण्ड देना चाहिए । ३३६,३३७ चोरी के अपराध का शूद्र, वैश्य व क्षत्रिय पर क्रमशः आठ, सोलह तथा बत्तीस गुना पाप लगता है किंतु ब्रह्मण को उसी अपराध का चौंसठ या एक सौ अट्ठाईस गुना पाप लगता है चूंकी ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोषों की जानकारी होती है । ३३८ मनु जी ने कहा है कि वनस्पति, कन्द-मूल, फल, ईंधन की लकड़ी व गायों के लिए घास की चोरी - चोरी नहीं कहलाती । ३३९ जो ब्रह्मण चोर के हाथ से यज्ञ करा या उसे वेद पढ़ा कर उससे धन लेने की इच्छा रखता है, उसे भी चोर ही मानना चाहिए । ३४० अपनि क्षीण वृत्ति अर्थात् आय की कमी से परेशान होकर जो ब्रह्मण मार्ग में पड़ने वाले खेत से कुछ कन्द-मूल अथवा गन्ना ले लेता है, उस पर दण्ड नहीं लगना चाहिए । ३४१ जो व्यक्ति दूसरें के पशुओं को बांधता है और बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, अश्वों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दण्डनिय है । ३४२ इस प्रकार जो राजा चोरों को दण्डित करके चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों का आनंद उठाता है । ३४३ जो राजा इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के पश्चात् दिव्यलोक को पाने की कामना रखता है उसे चोरी-डाका डालने वाले व्यक्ति को एक क्षण के लिए भी अनदेखा नहीं करना चाहिए । ३४४ वह व्यक्ति जो अपशब्द भाषण करता है, चोरी करता है, दूसरों के साथ हिंसा व हत्या करता है, उसे बहुत पापी मानें । ३४५ यदि राजा दुससाहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है, तो उसका शीघ्र विनाश हो जाता है - क्योंकि लोगों में उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है । ३४६ राजा को चाहिए कि वह स्नेहवश अथवा भारी धनराशि पाने पर भी प्रजाजन में भय पैदा करने वाले चोरों को बंधनमुक्त न करे । ३४७ यदि धर्म के अनुष्ठान में रुकावट उपस्थित होती है और द्विजातियों में राजद्रोह फूट पड़ता है तो इन तीनों वर्णों को राष्ट्र रक्षा हेतु शस्त्र धारण करने चाहिए । ३४८ जो व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा, बलपूर्वक छीनी जा रही दक्षिण की सुरक्षा, स्त्री व ब्रह्मण पर आयी विपत्ति में उनकी रक्षा के लिए धर्म का पालन करते हुए दुष्ट को मौत के घाट उतारता है, वह पापी नहीं होता । ३४९ यदि गुरु, बालक, वृद्ध या विद्वान ब्रह्मण अत्याचारी बनकर आए तो बिना कोई विचार किए उसका वध कर देना चाहिए । ३५० जो व्यक्ति प्रकट रूप से या गुप्त रूप से हत्या के लिए आए मनुष्य का वध कर देता है उस पर किसी प्रकार का पाप नहीं लगता । अत्याचारी के दोष से हिंसा व क्रोध का पाप खत्म हो जाता है । ३५१ वह पुरुष जिसमें परस्त्रीगमन की प्रवृत्ति हो उसे हृदय विदारक दण्ड देकर तथा उसका लिंग काटकर उसे देश निकाला दे देना चाहिए । ३५२ संसार में परस्त्रीगमन से वर्णसंकर संतान का जन्म होता है, क्योंकि मूल को नष्ट करने के साथ ही अधर्म सर्वस्व विनाश कर देता है । ३५३ जो व्यक्ति पहले से ही बदनाम है, वह यदि परायी स्त्री से एकांत में मिलने एवं वार्तालाप करने का प्रायस करता है तो उसे ' प्रथम साहसिक ' का दण्ड मिलना चाहिए । ३५४ किंतु जो पुरुष पहले से निष्कलुष है, वह यदि परिस्थितवश पराई स्त्री से बातचीत करता है तो उसे अपराध न समझें । ३५५ यदि पुरुष तीर्थ, वन व नदियों के संगम पर परस्त्री से सम्भोग करता है तो वह परस्त्रीहरण अपराध के लिए दण्डनीय है । ३५६ परसपर उपहारों का लेन-देन, हास्य-विनोद, आलिंगन, वस्त्रों व आभूषणों को छूकर उसकी प्रशंसा करना साथ-साथ शय्या पर बैठना या लेटना इत्यादि परस्त्री से सम्भोग के समान ही है । ३५७ पराई महिला के गुप्तागों का स्पर्श करना अथवा अपने अंगों पर उसके स्पर्श से सुख उठाना भी स्त्री भोग ही मानें । ३५८ सभी वर्णों की स्त्रियां रक्षा योग्य होती हैं अर्थात् उनकी पवित्रता बलात् कलंकित नहीं करनी चाहिए । ब्रह्मण के अतिरिक्त अन्य तीन वर्णों के लोगों को परस्त्रीगमन के लिए मृत्यु दण्ड मिलना चाहिए । ३५९ उन भिक्षुओं, बन्दियों, स्नातकों व रसोइए को स्त्री से वार्तालाप करने का पूर्ण अधिकार है जिन पर इस प्रकार का प्रतिबंध न लगाया गया हो । ३६० यदी ऐसा प्रतिबंध लगाया गया है, तो पुरुष को परस्त्रियों के साथ संवाद नहीं करना चाहिए । इस प्रतिबंध का सम्मान न करने वाले व्यक्ति पर सुवर्ण के एक सिक्के का दण्ड लगाना चाहिए । ३६१ नट व चारण आदि की स्त्रियों व आजीविका के मद्देनजर अपने अधीन पुत्रादि की स्त्रीयों से बातचीत करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है । भाट व चारण तो स्वयं ही अपनी स्त्रियों का श्रृंगार कर उन्हें पर पुरुषों के पास भोजा करतो हैं । ३६२ इस तरह की स्त्रियों से एकांत में संवाद करने वाले तथा भक्त एवं वैरागी स्त्रियों से प्रेमक्रीड़ा करने वाले पुरुष करने वाले पुरुष दण्डनीय होते हैं । ३६३ जो कन्या सम्भोग की इच्छुक नहीं उससे बलात् सम्भोग करने वाले पुरुष को तुरंत मृत्युदण्ड देना चाहिए । सम्भोग के लिए सवयं इच्छुक कन्या से सहवासकरने वाला व्यक्ति मृत्युदण्ड का अधिकारी नहीं होता । उसे कोई दूसरा दण्ड मिलना चाहिए । ३६४ जो कन्या अपने से उच्च वर्ग के पुरुष के साथ सम्भोग करती है वह दण्डनीय नहीं । यदि उसका सम्बन्ध अपने से हीन वर्ण वाले पुरुष के साथ हो जाता है तो उसे समझा- बुझा कर घर में ही रखना चाहिए । ३६५ यदि नीच वर्ण का पुरुष उच्च वर्ण की कन्या के साथ व्यभिचार करता है तो उसे मृत्युदण्ड मिलना चाहिए और समान वर्ण वाला पुरुष अपने ही वर्ण की कन्या से सहवास करता है तो कन्या के पिता की सहमति से उस पुरुष द्वारा कन्या के पिता को शुल्क देना चाहिए । ३६६ जो पुरुष अपने पौरुष के घमंड में कन्याओं से बलात्कार कर उन्हें अपवित्र करता है, उसकी तत्काल दो उंगलियां काट डालनी चाहिए तथा उसे छः सौ पणों का दण्ड देना चाहिए । ३६७ यदि पुरुष कन्या की सहमति से उसके साथ संम्भोग करता है तो उसकी उंगलियां नहीं काटनी चाहिए किंतु इस पाप के लिए उस पर दो सौ पणों का दण्ड लिश्चय ही लगाना चाहिए । ३६८ कन्या ही यदि कन्या से संभोग करे और इस दौरान एक कन्या की योनी आहत हो जाए तो ऐसी स्थिति में स्वस्थ लड़की को आहत कन्या के विवाह न हो पाने की क्षतिपूर्ति करनी चाहिए, उसके इलाज का व्यय वहन करना चाहिए तथा दस बेंतों के प्रहार का दण्ड भुगतना चाहिए । ३६९ यदि कोई स्त्री कन्या की योनी को अपनी उंगली से क्षत-विक्षत कर देती है तो उसकी उंगलियां कटवा देनी चाहिए तथा उसका सिर मुंजवा कर उसे गधे पर चढ़ाकर सारे नगर में घुमाना चाहिए । ३७० जो स्त्री अपने माता-पिता की ऊंची जाति, उच्च शिक्षादि गुणों अथवा धनादि के अहंकारवश अपने पति को छोड़कर परपुरुष से संबन्ध रखती है, राजा द्वारा उस स्त्री को सार्वजनिक स्थान पर जन समूह के समक्ष कुत्ते से नुचवाया जाना चाहिए । ३७१ यदि पुरुष अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाली स्त्री से सम्बन्ध रखता है उसे जलते हुए लोहे की चारपाई पर सुलाना चाहिए । वहां उपस्थित लोगों को उस अग्नि में लकड़ियां डालनी चाहिए ताकि वह पापी उसी अग्नि में जल कर मर जाए । ३७२ यदि पुरुष एक वर्ष से अधिक अवधि से परस्त्रीगमन कर रहा हो तो उसे उपर्युक्त दण्ड से दुगुना दण्ड देना चाहिए । जो पुरुष पतित व चाण्डाल स्त्री से सम्बन्ध स्थापित करे उसे भी इतना ही दण्ड मिलना चाहिए । ३७३ द्विजाति वर्ण एकाकी व अरक्षित स्त्री से बलात् सहवास करने वाले शूद्र को अंगच्छेदन का दण्ड देना चाहिए । यदि शूद्र रक्षित स्त्री की इच्छा से उसके साथ संभोग करे तो उसकी सभी सम्पत्ति पर कब्जा कर लेने की सजा तथा शारीरिक दण्ड भी देना चाहिए । ३७४ जो वैश्य परस्त्री को एक वर्ष तक अपने घर रखे, उसे सर्वस्व हरण का दण्ड मिलना चाहिए । क्षत्रिय द्वारा ऐसा किए जाने पर सहस्र पणों का और शूद्र को मूत्र से उसका सिर मुंडवाने की सजा मिलनी चाहिए । ३७५ यदि वैश्य एवं क्षत्रिय पुरुष अरक्षित ब्रह्मणी से सहवास करते हैं तो वे दण्डस्वरूप क्रमशः पांच सौ व एक हजार पण देने के अधिकारी बनते हैं । ३७६ जो वैश्य और क्षत्रिय रक्षित ब्रह्मणी से संभोग करते हैं उन्हें वही दण्ड देना चाहिए जो इस कृत्य के लिए शूद्र को मिलता है या फिर उन दोनों को चटाई में लपेटकर अग्नि के सुपुर्द कर देना चाहिए । ३७७ यदि ब्रह्मण पुरुष रक्षित ब्रह्मणी से बलात् सम्भोग करे तो उस पर हजार पणों का और ब्रह्मणी की स्वेच्छा से सम्भोग करे तो पांच सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ३७८ जहां अन्य वर्णों का वास्तविक वध ही मृत्यु दण्ड होता है, वहीं ब्रह्मण का सिर मुंडवाना ही उसके लिए मृत्युदण्ड तुल्य है । ३७९ ब्राह्मण चाहे कितने ही और कितने महान पाप क्यों करे, उसका वध अथवा पिटाई कभी न करें । ज्यादा से ज्यादा उसे राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए और निष्कासन के समय उसकी सारी सम्पत्ति उसे दे देना चाहिए । ३८० ब्राह्मण हत्या से बढ़कर इस दुनिया में अन्य और कोई पाप नहीं । अतः राजा को अपने मन में ब्राह्मण वध का विचार भी नहीं लाना चाहिए । ३८१ यदि वैश्य पुरुष रक्षित क्षत्रिय स्त्री से और क्षत्रिय पुरुष रक्षित वैश्य स्त्री से सहवास करे तो दोनों पर क्रमशः हजार व पांच सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ३८२ जो ब्रह्मण रक्षित क्षत्रिय व वैश्य स्त्री से व जो क्षत्रिय तथा वैश्य शूद्र स्त्री से सहवास करता है उस पर हजार-हजार पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ३८३ यदि क्षत्रिय या वैश्य पुरुष अरक्षित क्षत्रिय स्त्री से संभोग करता है तो उन पर पांच सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए या फिर मूत्र से उनका मुंडन करवाना चाहिए । ३८४ जो ब्राह्मण पुरुष क्षत्रिय व वैश्य जाति की अरक्षित स्त्री से गमन करता है, उस पर पांच सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ब्राह्मण द्वारा शूद्र स्त्री से सहवास करने पर उसे हजार पणों का दण्ड देना चाहिए । ३८५ वही राजा इन्द्र पद का अधिकारी है जिसके राज्य में चोर, परस्त्रीगामी पुरुष, अपशब्द भाषण व झगड़ा करने वाले और लूटमार तथा हत्या करने वाले लोग नहीं होते । ३८६ राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य में चोर, परस्त्रीगामी, गाली बकने वाले, डाकू, हिंसा करने वाले तथा हत्यारों का निग्रह करे । तभी वह अपने राज्य के विस्तार व यशोपलब्धि में सफल हो सकता है । ३८७ यदि यजमान धार्मिक कर्म करने-कराने में समर्थ व सच्चरित्र पुरोहित का और यदि पुरोहित एकनिष्ठ यजमान का परित्याग करे तो उन दोनों को सौ-सौ पणों का दण्ड मिलना चाहिए । ३८८ माता-पिता व पुत्र अत्याज्य हैं । जो व्यक्ति बिना पतित हुए इनको त्यागता है, राजा द्वारा उस पर छः सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ३८९ वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले द्विजातियों के बीच मतभेद अथवा विवाह उत्पन्न होने की स्थिति में राजा तब तक हस्तक्षेप न करे जब तक कि उससे ऐसा निवेदन न किया जाए । ३९० यदि वानप्रस्थ आश्रम के जन राजा के पास आवेदक बनकर आते हैं तो सर्वप्रथम राजा को पुरोहितों समेत उनका यथायोग्य पूजन करना चाहिए फिर उन्हें समझाकर उनके कर्तव्य क्या हैं - यह बताना चाहिए । ३९१ यदि किसी व्यक्ति को बीस ब्राह्मणों को भोजन कराना है और वह इस उद्देश्य के लिए अपने घर में रहने वाले तथा घर में प्रायः आते रहने वाले ब्राह्मणों को भोजन का निमन्त्रण देता है तो उस पर एक मासा चांदी देने का दण्ड लगाना चाहिए । ३९२ यदि कोई विद्वान ब्राह्मण विवाह, गृह प्रवेश तथा अन्य अनेक शुभ समारोहों पर किसी साधु ब्राह्मण को भोजन नहीं कराता है तो उस पर दुगुना अन्न और एक मासा स्वर्ण देने का दण्ड लगना चाहिए । ३९३ जो सज्जन अंधों,बहरों, लंगड़ों, सत्तर वर्षीय बूढ़ों तथा वेदपाठी ब्राह्मणों के कल्याण में व्यस्त हैं उनसे न ही किसी प्रकार का कर लेना चाहिए और न ही उन्हें किसी प्रकार के कर वसूली के कार्य में लगाना चाहिए । ३९४ श्रोत्रिय ब्राह्मण,रोगी, दुखी, बालक, वृद्ध, गरीब व उच्चकुल में जन्में आर्य पुरुष का राजा को सदा सम्मान करना चाहिए । उसे इन लोगों का मजाक नहीं बनाना चाहिए । ३९५ धोबी द्वारा सेमर लकड़ी के चिकने पट्टे पर कपड़े पटके जाने चाहिए । वह इस बात का ख्याल रखे कि उसके ग्राहक के वस्त्रों में अदला-बदली न हो, न ही वे वस्त्र उसके यहां काफी दिनों तक पड़े रहें । ३९६ यदि जुलाहा दस पल सूत लेता है तो उसे ग्यारह पल सूत लौटाना चाहिए । यदि वह ऐसा नहीं करता तो राजा को उस पर बारह दमड़ी का दण्ड लगाना चाहिए । ३९७ कर आदि के कार्यों में तथा हर प्रकार के लेन-देन सम्बन्धी कार्यों में राजा द्वारा कुशल व्यक्तियों को रखना चाहिए और इन कार्यों से होने वाले लाभ का बीसवां भाग उन्हें देना चाहिए । ३९८ जो दुष्ट व्यापारी राजा के निजी पात्रों व बिक्री से रोके गए पात्रों को लोभवश दूसरे स्थान पर ले जाकर बेच दे तो राजा को उसकी सारी सम्पत्ति कब्जे में ले लेनी चाहिए । ३९९ यदि कोई व्यक्ति शुल्क के स्थान से धन बचाता है, छिपा कर चोरी की वस्तुएं खरीदता-बेचता है, मोल-भाव में झूठ बोलता है और वस्तुएं कम तौलता है, उससे बचाए धन का छः गुना और झूठ बोलकर बचाए धन का आठ गुना दण्ड रूप में वसूलना चाहिए । ४०० किसी भी वस्तु के खरीदने के लिए आवागमन, उसके संग्रह, भाव के घटनेबढ़ने का अनुमान लगाकर ही उस वसतु का भाव निर्धारित करना चाहिए । ४०१ राजा को चाहिए कि एक सप्ताह अथवा एक पखवाड़ा बीतने के बाद वह व्यापारियों को वसतुओं की नई दर निर्धारित करने का आदेश दे । ४०२ राजा द्वारा हर छः माह बाद तुला की, तौल की व अन्य नापों की भली-भांति जांच करवानी चाहिए । ४०३ किसी सेतु से गुजरने वाली गाड़ी पर एक पण, सामान लादे हरेक व्यक्ति पर आधा पण, पशुओं पर चौथाई पण व खाली हाथ जाते स्त्री पुरुषों पर १/८ पणों का शुल्क निश्चित करना चाहिए । ४०४ सामान से लदी गाड़ी द्वारा पुल पार करने पर उसका शुल्क गाड़ी में लदे वजन के अनुसार निश्चित करना चाहिए । खाली वाहनों, सवारियों व गरीबों के शुल्क में छूट बरतनी चाहिए । ४०५ यदि पुल लंबा हो तो उस पर से गुजरने का शुल्क देश व काल के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए । पुलों पर शुल्क लगाने का यह नियम समुद्र पर नहीं केवल नदियों पर लागू होता है । ४०६ यदि दो माह की गर्भवती स्त्री, संन्यसी, ब्राह्मण, वानप्रस्थ व ब्रह्मचारी नदी पारकर रहे तो नाविक को उनसे कोई शुल्क नहीं वसूलना चाहिए । ४०७ नाव पर सवार यात्रियों का नौकर की गलती से कोई नुकसान हो जाने की स्थिति में सभी को मिलकर उनकी क्षति-पूर्ति करनी चाहिए । इसमें केवट का योगदान भी वांछनीय है । ४०८ जल की जो हानि नाविकों व मल्लाहों के अपराध के परिणामस्वरूप होती है उसकी भरपाई तो उन्हीं से करवानी चाहिए किंतु दैवी प्रकोपों, आंधी-तूफान, ओलावृष्टि आदि के लिए उन्हें दोषी न मानें । ४०९ राजा का कर्तव्य है कि वह वैश्या द्वारा व्यापार, गिरवी वस्तुओं, खेतों व पशुओं की रक्षा करवाए तथा शूद्रों द्वारा द्विजातियों की रक्षा करवाए । ४१० क्षत्रिय व वैश्य के किसी कारणवश कारोबार व चल पाने से अभावग्रस्त होने पर, ब्राह्मण को चाहिए कि अपना कर्तव्य-पालन करते हुए वह दयावश क्षत्रिय व वैश्य का पालन-पोषण करे । ४११ जो ब्राह्मण लोभ एवं क्रूरता के वशीभूत हो विद्वान ब्राह्मणों से बलात् दासता करवाता है, राजा द्वारा उस पर छः सौ पणों का दण्ड लगाना चाहिए । ४१२ चाहे वह खरीदा गया हो अथवा नहीं लेकिन शूद्र से ही सेवा करवानी चाहिए । शूद्रों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों की सेवा के उद्देश्य से ही की है । ४१३ शूद्र को यदि उसके स्वामी से मुक्त करा भी लिया जाए तो भी वह सेवा कर्म से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि सेवा उसका स्वाभाविक धर्म है जिससे कोई भी उसे मुक्त नहीं कर सकता । ४१४ युद्ध में विजय करके लाया हुआ बंदी, वेतन पाने वाला व्यक्ति, घर में काम करने वाले की संतान, क्रीत व्यक्ति, सम्बन्धी अथवा मित्र द्वारा सेवा हेतु दिया गया, वंश परंपरा से ही सेवा कार्य में रत तथा दण्ड के भुगतान के लिए सेवा कार्य अपनाने वाला व्यक्ति - उपर्युक्त सात प्रकार के व्यक्ति दास होते हैं । ४१५ स्त्री, पुत्र व दास इन्हें निर्धन माना जाता है क्योंकि इनकी आय उस व्यक्ति के अधिकार में मानी जाती है जो इनका स्वामी होता है । ४१६ शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक हो ले सकता है क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है । उसका धन उसके स्वामी के अधीन ही होता है । ४१७ राजा को चाहिए कि वह वैश्यों व शूद्रों को यत्नपूर्वक उनके नियत कर्मों में लगाए रखे । वैश्यों व शूद्रों द्वारा अपने कर्म के परित्याग से संसार में अव्यवस्था फैलने का अंदेशा रहता है । ४१८ राजा का कर्तव्य है कि वह नित्य कर्मचारियों के काम, वाहनों, आय, व्यय, खदानों व कोश का निरीक्षण करता रहे । ४१९ इस प्रकार सभी प्रकार के कार्यों को ठीक-ठीक धर्मानुसार सम्पन्न करके ही राजा सभी पापों व दोषों से मुक्त हो जाता है उसे परमगति प्राप्त होती है । नवम अध्याय १ भृगु जी ने कहा, विप्रो, मैं अब आपको धर्म का पालन करने वाले स्त्रियों व पुरुषों के साथ-साथ एवं अलग-अलग रहने के सनातन धर्मों के विषय में बतलाता हूं । एकाग्रचित्त होकर सुनों । २ जो स्त्रियां विषयों में आसक्त रहती हैं, उनके पतियों द्वारा उन्हें सदैव अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए । ३ बाल्यावस्था में स्त्री की रक्षा पिता करता है, यौवनावस्था में पति तथा वृद्धवास्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है । वह सदा ( किसी न किसी के ) अधीन रहती है क्योंकि वह स्वतंत्रता के योग्य नहीं । ४ वह पिता जो उचित समय आने पर कन्या का विवाह नहीं करता, वह पति जो ऋतुकाल में अपनी पत्नी से सहवास नहीं करता तथा वह पुत्र जो पिता ती मृत्यु के पश्चात् मां का भरण-पोषण नहीं करता ये सब निश्चित रूप से निन्दा योग्य हैं । ५ स्त्रियों को बिगड़ने के छोटे से मौके से भी यत्न एवं कठोरतापूर्वक बचाना चाहिए क्योंकि न बचाने से पतित स्त्रियां पिता व पति दोनों के कुल पर कलंक तुल्य होती हैं । ६ स्त्री पर नियंत्रण रखना सभी वर्णों में उत्तम धर्म के रूप में देखा जाता है । अतः दुर्बल पतियों का भी कर्तव्य है कि वे अपनी पत्नी को वश में रखने का भरसक प्रयत्न करें । ७ जो पुरुष यत्नपूर्वक अपनी स्त्री की रक्षा करता है वही अपनी संतान, चरित्र, कुल,स्वयं अपनी तथा अपने धर्म की रक्षा करने में समर्थ हो पाता है । ८ पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट होकर पति ही समय आने पर इस संसार में जन्म लेता है । पुनः जनने के कारण ही पत्नी को ' जाया ' की संज्ञा दी जाती है । ९ जिस प्रकार के पुरुष से स्त्री सहवास करती है, उसी तरह के ( उत्तम, मध्यम अथवा अधम ) पुत्र को जन्म देती है । अतः स्त्री की रक्षा व उत्तम संतानोत्पत्ति के लिए पति को सदैव प्रयत्नरत रहना चाहिए । १० बल व शाक्ति से अथवा जबरदस्ती कोई भी पुरुष स्त्रियों की दुराचरण से रक्षा नहीं कर सकता । केवल समझाने-बुझाने तथा आगे बताए गए उपायों का पालन करने से ही ऐसा संभव हो सकता है । ११ धन को जमा एवं खर्च करना, घर की स्वच्छता, भोजन बनाना तथा घर की सभी वस्तुओं की देखरेख का काम स्त्रियों के सुपुर्द कर देना चाहिए । इस प्रकार स्त्रियों घर से बाहर भ्रमण नहीं कर पातीं । १२ जो स्त्रियों सच्चरित्र के संरक्षण में ही रहती हैं वे भी सुराक्षित रहती हैं । वही स्त्रियों सर्वाधिक सुरक्षित हैं जो स्वयं अपनी रक्षा करती हैं । १३ मदिरापान, दुष्ट पुरुष का संसर्ग, पति से अलग वास, व्यर्थ इधर-उधर भ्रमण करना, असमय एवं देर तक सोते रहना व दूसरे के घर में रहना - ये छः दोष स्त्रियों को दूषित कर देते हैं । १४ ऐसा करने वाली स्त्रियांं पुरुष के रूप अथवा आयु का कोई विचार नहीं करतीं । इन्हें तो केवल पुरुष के पुरुष होने से ही मतलब है और वे किसी भी पुरुष के समक्ष संसर्ग के लिए उपस्थित हो जाती हैं । १५ स्त्रियां चूंकि स्वभाव से ही पर पुरुषों पर रीझने वाली, चंचल व अस्थिर अनुराग वाली होती हैं अतः यत्नपूर्वक रक्षित होने पर भी वे पति को धोखा दे देती हैं । १६ जब से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तब से लेकर आज तक स्त्रियों के स्वभाव को ऐसा ही जानकार पुरुषों का कर्तव्य है कि वे स्त्रियों की रक्षा के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें । १७ मनु महाराज के विचार में ब्रह्मा जी ने स्त्रियों में कुछ प्रवृत्तियां सहज ही पायी हैं जैसे -उत्तम शय्या व आभूषणों का मोह, काम, क्रोध, जटिल स्वभाव, ईर्ष्या, द्रोह भाव के कुचर्या । १८ शास्त्र की यह मर्यादा है कि स्त्रियों के जातकर्म व नामकर्म संस्कारों में वेदमंत्रों का उच्चारण न हो । निरेन्द्रिय व अमंत्रा होने के कारण स्त्रियों की स्थिति ही असत्य रूप होती है । १९ वोदों में स्त्रियों के सहज दुराचरण के बारे में बहुत कुछ कहा गया है । उन दोषों से स्त्रियों को किस प्रकार पवित्र किया जाए - इस संदर्भ में कुछ बातें यहां वर्णित हैं । २० वेदों का एक प्रसंग है - मां के बुरे विचारों से खिन्न पुत्र कहता है - परपुरुष की आकांक्षा से अपवित्र हुई मेरी मां की योनि का मेरे पिता के वीर्य द्वारा शोधन होना चाहिए । २१ यदि विवाहिता स्त्री के हृदय में परपुरुष से सहवास की कामना उठती है तो वैचारिक व्यभिचार के पाप के शुद्धीकरण का मंत्र इस प्रकार है । २२ स्त्रियां पति के अनुरूप ही समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाती हैं ठीक जिस प्रकार नदियां समुद्र में विलीन होकर समुद्र का ही रूप ले लेती हैं । २३ नीच कुल में जन्मी अक्षमाला ने महर्षि वशिष्ठ से विवाह करके तथा सामान्य कुल की शारंगी ने मन्दपाल से विवाह कर समाज में अति प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया । २४ अधम योनि में जन्म लेकरभी अपने पतियों के सदाचरण व कल्याणकारी गुणों से समाज में प्रतिष्ठा पाने वाली अनेक स्त्रियां हुई हैं । २५ भृगु जी ने कहा - ब्राह्मणों ! यह उपर्युक्त स्त्री-पुरुषों के नित्य लोक-व्यवहार का वर्णन था । अब मैं आपसे इस लोक एवं परलोक में सुख देने वाली संतान का धर्म कहता हूं । २६ स्त्रियां चूंकि संतान को जन्म देती हैं अतः वे शुभ, पूजनीय व घर की आभा हैं । घर में स्त्री व लक्षमी के बीच कोई विशेष अंतर नहीं । २७ स्त्री ही संतान को जन्म देने, उसका पालन-पोषण करने, प्रतिदिन के लोक व्यवहार, वृद्धों की सेवा व अतिथि सत्कार तथा धर्मानुष्ठानादि इन सभी कार्यों का आधार स्तम्भ है । २८ गृहस्थ जीवन के सभी कार्य अर्थात् संतानोत्पत्ति, धर्मकार्य, सेवा, उत्तम रत्ति, पितरों का उद्धार व स्वर्ग के दिव्य सुखों की प्राप्ति - ये सब स्त्री के ही अधीन हैं अर्थात् स्त्री के माध्यम से ही संभव हैं । २९ जो स्त्री अपने मन, वचन व शरीर को संयत रखती है तथा पति से इतर पुरुष की इच्छा भी नहीं करती वह स्त्री इस लोक में ' पतिव्रता ' अर्थात् साध्वी कही जाती है तथा मृत्यु उपरांत पतिलोक को प्राप्त करती है । ३० यदि विवाहित स्त्री परपुरुष का संग करती है तो वह इस लोक में निन्दित होती है, अनेक योनि सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त हो जाती है तथा मृत्यु के बाद गीदड़ी के रूप में जन्म लेती है । ३१ भृगु जी ने कहा - विप्रो ! प्राचीन श्रेष्ठ मुनियों ने पुत्र के सम्बन्ध में जो शुभ, पवित्र व लोकहितकारी मत रखे हैं - अब आप उनको सुनें । ३२ लोग जानते ही हैं कि पुत्र, पति का ही रूप होता है किंतु संतान को उत्पन्न करने वाला या स्त्री का स्वामी - इन दोनों में से किसकी संतान को मान्यता देनी चाहिए - इस विषय में मतभेद हो सकते हैं । ३३ स्त्री को क्षेत्ररूप तथा पुरुष को बीजरूप समझा जाता है । क्षेत्र व बीज के समायोग से ही सभी देहधारियों की उत्पत्ति संभव होती है । ३४ कुछ परिस्थितियों में बीज-विशिष्ट होता है तो कुछ में स्त्री का योनिरूप क्षेत्र । जहां दोनों की समान स्थिति हो वहीं श्रेष्ठ संतान का जन्म होता है । ३५ बीज व क्षेत्र में बीज को ही श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि सभी जीवों के जन्म को बीज के लक्षणों के अनुरूप ही देखा ही देखा जाता है । ३६ जिस प्रकार का बीज उचित ऋतु में क्षेत्र में रोपा जाता है उसी प्रकार के गुणों से युक्त होकर ही वह क्षेत्र में जन्म लेता है । ३७ इस धरती को प्राणियों की उत्पत्ति करने वाली सनातन योनि माना गया है । बीज योनि के गुणों को संवर्द्धित नहीं करता बल्कि अपने ही गुणों को प्रकाशित करता है । ३८ जिस प्रकार किसान एक ही खेत में समयानुसार भिन्न-भिन्न बीज रोपते हैं तथा उन्हीं बीजों के अनुरूप फसल प्राप्त करते हैं - यह इस बात की पुष्टि करता है कि फसल में क्षेत्र के नहीं बीज के गुण आते हैं । ३९ जिस प्रकार के बीज बोए जाते हैं - धान, मूंग, तिल, उड़द, जौ, लहसुन तथा ईखादि - वैसी ही फसल पैदा होती है । ४० बोया कुछ और जाए लेकिन पैदा कुछ और हो - ऐसा कदापि नहीं होता । जिस वस्तु का बीज बोया जाता है वही वस्तु पैदा होती है । ४१ जो पुरुष बुद्धिमान, शिष्ट, विज्ञानवेत्ता और दीर्घायु आकांक्षी है उसे कभी भी पराए क्षेत्र में ( परायी स्त्री ) में बीजारोपण नहीं करना चाहिए । ४२ जिस प्रकार पहले से ही बिंधे मृग को बींधने के लिए छोड़ा गया बाण व्यर्थ होता है - ठीक उसी प्रकार दूसरे क्षेत्र में रोपा गया गया बीज भी निष्फल हो जाता है । ४३ इस विषम धरातल वाली पृथ्वी को राजा पृथु ने समतल किया था - इसलिए इस धरती का नाम हुआ - पृथ्वी । ४४ वेदवेत्ता ब्राह्मणों के अनुसार स्त्री, स्वयं पुरुष व संतान - इन तीनों को संयुक्त रूप से पुरुष कहा जाता है । इस प्रकार पति ही पत्नी है और पति ही पुत्र है । ४५ पति चाहे स्त्री को बेच दे या उसका परित्याग कर दे, किन्तु वह उसकी पत्नी ही कहलाती है - प्रजापति द्वारा स्थापित यही सनातन धर्म है । ४६ इस संसार में धन का बंटवारा, कन्या दान व वचन एक बार ही किया जाता है, सत्पुरुष इन विषयों में बदलते नहीं । ४७ दूसरे की स्त्री में बीजारोपण करने वाला व्यक्ति संतान का स्वामी उसी प्रकार नहीं कहलाता जिस प्रकार गाय, अश्व, ऊंटनी, दासी, भैंस व बकरी में संतानोत्पत्ति करने वाले पशु एवं उसके स्वामी संतान के मालिक नहीं बन सकते । ४८ दूसरों के खेत में बीज बोने वाले जन उस खेत में होने वाले अन्न-धान्यादि के अधिकारी नहीं होते, ठीक उसी प्रकार दूसरे की पत्नी से संतान उत्पन्न करने वाले का संतान पर कोई अधिकार नहीं बनता । ४९ दूसरे की गायों से सौ बछड़ों को जन्म देने वाले सांड या उसके मालिक का उन पर कोई अधिकार नहीं होता बल्कि गाय के स्वामी का उन पर अधिकार होता है । अतः सांड द्वारा वीर्य का आरोपण व्यर्थ जाता है । ५० इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अपना खेत नहीं, वह यदि दूसरे के खेत में बीजारोपण करता है तो वह खेत के स्वामी के लिए ही लाभप्रद होता है । बीज वाले व्यक्ति का फल पर कोई अधिकार नहीं बनता । ५१ बीज वाला व्यक्ति यदि फल का विभाजन किए बिना दूसरे के खेत में बीज रोपता है तो प्रत्यक्षतः उससे खेत के स्वामी को ही लाभ मिलता है । इसलिए योनि को बीज से अधिक शक्तिशाली समझा जाता है । ५२ यदि फल के विभाजन का निर्णय करके ही दूसरे के खेत में बीज बोया जाता है तो पूर्व निश्चित निर्णय के अनुसार ही खेत का स्वामी फल का अधिकारी होता है ५३ यदि बीज हवा के तेज झोंके से दूसरे खेत में जा गिरता है तो उस बीज के फल पर बीज वाले का नहीं वरन् खेत के स्वामी का अधिकार होता है । ५४ पशुओं अर्थात् गाय, घोड़ी, ऊंटनी,बकरी, भेड़, पक्षी और भैंसादि तथा दासी के संदर्भ में भी संतान विषयी यही नियम सर्वमान्य है । ५५ महर्षियो ! बीज व योनि की प्रधानता-अप्रधानता का मैनें विस्तार से विवरण दिया । अब मैं आपातकाल में स्त्रियों के धर्म के सम्बन्ध में आपको बतलाता हूं । ५६ छोटे भाई के लिए बड़े भाई की पत्नी गुरु पत्नी तुल्य है और छोटे भाई की पत्नी बड़े भाई के लिए पुत्रवधू जैसी होती है । ५७ यदि बड़ा भाई छोटे भाई की पत्नी तथा छोटे भाई बड़े भाई की पत्नी से संकट की परिस्थिति ( संतान के अभाव ) के अलावा नियोग विधि से भी सम्भोग करता है तो वे दोनों धर्मभ्रष्ट हो जाते हैं । ५८ जो स्त्री संतान न होने के कारण संतान की इच्छा से नियोग के लिए प्रस्तुत होती है, उससे स्त्री के देवर आथवा सजातीय पुरुष को सहवास कर लेना चाहिए । ५९ जो पुरुष छोटे अथवा बड़े भाई की विधवा स्त्री से नियोग करता है उसे रात्रि में शरीर पर घी मलकर तथा मौन रहकर सहवास करना चाहिए और ऐसा केवल एक पुत्र उत्पन्न करने के उद्देश्य से करना चाहिए । ६० जो विद्वान नियोग से संतानोत्पत्ति के नियमों की गहन जानकारी रखते हैं उनका यह भी विचार है कि नियोग के उद्देश्य की पूर्ति न होने पर ( अर्थात् प्रथम पुत्र के रोगी होने पर दूसरा पुत्र उत्पन्न करना धर्मोचित ही है । ६१ जब विधवा स्त्री से नियोग द्वारा पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति हो जाता है तो छोटे भाई बड़े भाई की पत्नी से गुरु पत्नी तुल्य व बड़ा भाई छोटे भाई की पत्नी से पुत्रवधु जैसा ही व्यवहार करे । ६२ यदि नियोग के उद्देश्य से नियुक्त छोटे व बड़े भाई अपनी भाभियों से विधि को त्याग कर सुख-भोग के लिए सहवास करने लगते हैं तो वे धर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं । बड़ा भाई पुत्रवधु से तथा छोटे भाई गुरु पत्नी से सहवास करने के लिए दण्डनीय हो जाता हैं । ६३ द्विजातीय अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण की विधवा स्त्री को अपने वर्ण से भिन्न पुरुष से नियोग नहीं करना चाहिए । ऐसे नियोग से उत्पन्न संतान धर्म का विनाश करने वाली होती है । ६४ जो वेद मंत्र विवाह के सम्बन्ध में कहे गए हैं, उनमें न तो नियोग का वर्णन है और न ही विधवा विवाह का । ६५ नियोग का प्रयोग राजा वेन के शासनकाल में अवश्य हुआ था लेकिन तब भी विद्वज्जनों ने इसे पशुधर्म कहा था और मनुष्यों के लिए निषिद्ध बताया था । ६६ जो राजा वेन सम्पूर्ण धरती को भोगने वाला तथा श्रेष्ठ राजर्षि के रूप में सम्मानित तथा आदरणीय था, कामवासना के वशीभूत हो उसी राजा ने वर्णसंकर संतान उत्पन्न करने के दुष्चक्र का आरंभ किया । ६७ साधु व विद्वान तभी से राजा वेन के इस दुष्कर्म को देखकर संतान के मोह के वशीभूत हो विधवा से नियोग करने की भी भर्त्सना करते हैं । ६८ यदि कन्या के विवाह के पश्चात् उसके पति की मृत्यु हो जाए तो कन्या के देवर द्वारा विधि-पूर्वक उसे ग्रहण किया जाना चाहिए । ६९ पवित्र व्रत वाली तथा शुक्ल वस्त्रधारी भाभी से देवर संतानोत्पत्ति के उद्देश्य की पूर्ति हो जाने तक संसर्ग करे तथा स्त्री के गर्भवती होते ही वे दोनों अलग हो जाएं । ७० विवेकशील पुरुष को चाहिए कि एक बार अपनी कन्या का ( विवाह में ) दान कर पुनः उसका विवाह न करे । जो व्यक्ति एक बार कन्यादान करके फिर उससे इन्कार कर देता है और अपनी कन्या किसी दूसरे को दे देता है वह झूठ बोलने का अपराध करता है । ७१ यदि विधिपूर्वक विवाह में ग्रहण की गई कन्या निन्दित, रोगग्रस्त या छलपूर्वक दी गई सिद्ध होती है तो वह परित्याग के योग्य ही होता है । ७२ जो कन्या दोषपूर्ण है - उसके दोषों को बिना बताए उसका सम्बन्ध विवाह में स्थापित करने वाले दुष्ट व्यक्ति के इस काम को निष्फल कर देना चाहिए अर्थात् विवाह सम्बन्ध विच्छेद कर देना चाहिए । ७३ यदि व्यक्ति को कार्य कार्यवश विदेश जाना पड़ता है तो उसे अपने पीछे पत्नी के भरण-पोषण का समुचित प्रबंध करके चाहिए क्योंकि भूख से पीड़ित स्त्री शील व सदाचार युक्त हो, तो भी पतित हो सकती है । ७४ पुरुष यदि पत्नी के भरण-पोषण का उचित प्रबन्ध करके ही विदेश जाता है तो पत्नी को संयम व नियम अनुसार ही आचरण करना चाहिए । ७५ पति धर्म कार्य के लिए विदेश जाता है तो पत्नी आठ वर्ष, विद्या-यशोपलब्धि के लिए पति के विदेश जाने पर छः वर्ष तथा व्यापार के उद्देश्य से पति द्वारा विदेश गमन पर पत्नी को तीन वर्ष तक उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए । ७६ पति का कर्त्तव्य है कि वह द्वेष करने वाली पत्नी ( में परिवर्तन ) की एक वर्ष तक प्रतीक्षा करे । यदि वह इस अवधि में स्वयं को न बदल पाए तो पति को उसके सारे आभूषण छीनकर उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिए । ७७ जो स्त्री अपने आलसी, नशा करने वाले अथवा रोगग्रस्त पति की आज्ञा का उल्लंघन करती है उसे तीन माह के लिए वस्त्राभीषण उतार कर अलग कर देना चाहिए । ७८ यदि पत्नी पागल, पतित, नपुंसक, क्षीणवीर्य, रोगग्रसत, पाप कर्मों में रत तथा पति से घृणा करने वाली हो तो भी पति उसका परित्याग न करे न ही उसका धन छीने । ७९ किंतु यदि पत्नी मदिरापान करने वाली, व्यभिचारिणी, पति के विरुद्ध चलने वाली, रोगग्रस्त, भूताविष्ट व उत्पात मचाने वाली हो तो पति द्वारा दूसरा विवाह करने का विधान है । ८० पत्नी यदि वन्ध्या हो, मृत बच्चों को अथवा केवल कन्याओं को ही जन्म दे तो विवाह के क्रमशः आठवें, दसवें व ग्यारहवें वर्ष में पति दूसरा विवाह करने का अधिकारी है । कटुभाषिणी स्त्री का पति तत्काल दूसरा विवाह कर सकता है । ८१ स्त्री के बहुत दिनों से रोगी होने पर किन्तु चरित्र की धनी तथा पति का हित चाहने वाली होने पर पति को चाहिए कि वह पत्नी की अनुमति लेकर ही दूसरा विवाह करे । ८२ यदि दूसरी स्त्री के आने से पहली पत्नी रूठ कर घर छोड़कर जाने लगे तो उसे या तो समझा कर घर पर रोक लेना चाहिए या उसे शांतिपूर्वक उसके मायके पहुंचा देना चाहिए । ८३ जो स्त्री विवाहादि समारोहों में रोके जाने पर भी मदिरापान करे या नाचतमाशे में जाए तो उस पर छः कृष्णल राजदण्ड लगाने का विधान है । ८४ जो द्विजातीय पुरुष अपनी जाति की स्त्रियों से या अन्य जाति की स्त्रियों से विवाह करते हैं उनकी कुलीनता वर्णक्रम से ही मानी जानी चाहिए अर्थात् वह ब्राह्मण जो क्षत्रिय स्त्री से विवाह करता है उस ब्राह्मण की अपेक्षा हीन है जो ब्राह्मणी से विवाह करे । ८५ पति की सेवा-शुश्रूषा करना तथा प्रतिदिन के धर्म कार्य सजातीय स्त्री को करने चाहिए, विजातीय स्त्री को नहीं । उदाहरण के लिए यदि क्षत्रिय पुरुष ने क्षत्रिय तथा वैश्य कन्या से विवाह किया है तो पुरुष की सेवा तथा यज्ञादि में उसके साथ बैठने का अधिकार केवल क्षत्रिय कन्या को ही होता है । ८६ यदि एक व्यक्ति सजाती य को छोड़कर मोहवश अन्य जाति वालों से सेवादि कार्य कराए तो वह ब्राह्मण के चाण्डाल रूप में पतित होने जितना ही भ्रष्ट हो जाता है । ८७ यदि सभी तरह से श्रेष्ठ गुण सम्पन्न, सुन्दर, सदाचारी व समान कुल गौरव वाला वर उपलब्ध हो तो उससे अपनी उस कन्या का भी विवाह कर देना चाहिए जो अभी युवा न हुई हो । ८८ चाहे कन्या ऋतुमती होकर जीवन पर्यंत पिता के घर कुंआरी ही रहती रहे किंतु उसका विवाह गुणहीन अयोग्य पुरुष से नहीं करना चाहिए । ८९ ऋतुमती होने के पश्चात् कन्या तीन वर्षों तक पिता द्वारा वर चुने जाने की प्रतीक्षा करे । यदी इस समय में पिता ऐसा न कर पाए तो कन्या को स्वयं किसी योग्य व्यक्ति के साथ विवाह कर लेना चाहिए । ९० उपर्युक्त अवधि के पश्चात् पिता द्वारा विवाह में न दी गई कन्या स्वयं अपने लिए वर चुन ले तो न तो वह स्वयं पाप करती हा न ही उससे विवाह करने वाला कोई पाप करता है । ९१ जो कन्या स्वयं अपने लिए वर निश्चित करती है उसे माता, पिता व भाई द्वारा दिए गए आभूषणों को ले जाने का अधिकार नहीं है । उनके दिए गए अलंकारों को न लौटाना चोरी के समान है । ९२ जो पुरुष ऋतुमती कन्या का हरण करता है उसे कन्या के पिता को शुल्क देने की जरूरत नहीं, क्योंकि कन्या के लिए उचित वर न खोज पाने के कारण पिता शुल्क के अधिकार से वंचित हो जाता है । ९३ यदि तत्काल कर्म न करने से धर्म रक्षा में रुकावट उत्पन्न होती हो तो तीस व चौबीस वर्ष के पुरुष को क्रमशः बारह व आठ वर्ष की कन्या का पाणिग्रहण कर लेना चाहिए । ९४ वास्तविकता यह है कि पुरुष स्वेच्छा से नहीं, वरन् देवों द्वारा पूर्व-निर्धारित स्त्री को ही पत्नी रूप में पाता है । देवों के प्रति अपनी श्रद्धा दर्शाने के लिए पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपने पर निर्भर पत्नी का भरण-पोषण करे । ९५ पुरुषों को गर्भ आरोपण व स्त्रियों को गर्भधारण करना संतान उत्पन्न करने के उद्देश्य से ही ईश्वर द्वारा निर्धारित किया गया है । इसी कारण से वेदों में भी स्त्री व पुरुष के सहधर्म का विवरण है । ९६ यदि कन्या का शुल्क देने वाला संयोगवश मृत्यु को प्राप्त होता है तो कन्या की सहमति प्राप्त कर उसका विवाह मृत पुरुष के भाई के साथ कर दिया जाना चाहिए । ९७ द्विजातियों को ही नहीं वरन् शूद्र को भी अपनी कन्या के विवाह के दौरान वर पक्ष से कोई शुल्क नहीं लेना चाहिए । कन्या के बदले शुल्क लेना तो एक प्रकार उसका विक्रय करना है जो गंभीर पाप कर्म है । ९८ प्रचीनकाल में तथा वर्तमान में भी सज्जन पुरुष यदि एक बार कन्या दान कर देते हैं तो फिर दूसरे को नहीं देते । ९९ ब्राह्मणो ! शुल्क के रूप में मूल्य लेकर प्रच्छन्न रूप से कन्या को बेचने का प्रचलन हमने अपने पूर्वजों से कभी नहीं सुना । १०० परस्पर विवाह होने के बाद भी विषय- भोग में लिप्त न होने को ही स्त्री-पुरुष का उत्तम धर्म मानना चाहिए । १०१ एक बार यदि स्त्री-पुरुष दम्पति बन जाते हैं तो उनका निरंतर प्रयास रहना चाहिए कि वे पति-पत्नी बने रहें, कभी एक -दूसरे से अलग न हों । १०२ भृगु जी ने कहा - हे ऋषियो ! स्त्री व पुरुष के पारस्परिक प्रेमयुक्त धर्म व आपातकाल में संतान प्राप्ति के नियमों के सम्बन्ध में मैंने आपको जानकारी दी । अब मैं आपको सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी विधान का विवरण देता हूं । १०३ माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् सभी भाइयों को उनकी सम्पत्ति समान रूप से विभाजित कर लेनी चाहिए । किंतु यदि माता-पिता जीवित हैं तो पुत्रों को ऐसा कोई अधिकार नहीं कि वे उनकी सम्पत्ति आपस में बांटें । १०४ दूसरा विधान यह है कि माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी सारी सम्पत्ति बड़े पुत्र के अधिकार में चली जाए तथा सभी छोटे पुत्र बड़े भाई के संरक्षण में वैसे ही रहें जैसे पिता के संरक्षण में रहते थे । १०५ ज्येष्ठ पुत्र महत्वपूर्ण इसलिए होता है क्योंकि उसके जन्मते ही मनुष्य पुत्र वाला हो जाता है तथा पितृऋण से मुक्त भी । अतः बड़ा पुत्र ही पिता की सम्पूर्ण सम्पत्ति का अधिकार माना गया है । १०६ धर्म से उत्पन्न सच्चा पुत्र वही है जिसके जन्म से मनुष्य पितृऋण से मुक्त हो जाए व मोक्ष-प्राप्ति का अधिकारी बने अन्यथा शेष तो कामवासना की तृप्ति में रत माता-पिता के ' कामज पुत्र ' होते हैं । १०७ बड़े भाई का कर्तव्य है कि वह पिता की भांति अपने छोटे भाइयों का पालनपोषण करे तथा छोटे भाइयों का कर्तव्य है कि वे बड़े भाई से पिता तुल्य व्यवहार करें । १०८ बड़े पुत्र से कुल बढ़ता है और वही कुल का विनाश करता है । इसी कारण संसार में ज्येष्ठ पुत्र को पूजनीय माना गया है तथा सत्पुरुष द्वारा उसकी कदापि निंदा नहीं की जाती । १०९ ज्येष्ठ भाई को सदा ज्येष्ठ वृत्ति अर्थात् बड़प्पन दिखलाना चाहिए । उसे माता-पिता के समान ही छोटे भाइओं की देखभाल करनी चाहिए । यदि ज्येष्ठ भ्राता बड़प्पन नहीं दिखलाता, तो वह साधारण रिश्तेदारों जितना भी आदरणीय नहीं रहता । ११० इस तरह ( माता-पिता की मृत्यु के बाद ) सभी भाई सम्पत्ति का विभाजन किए बिना साथ-साथ रहें या फिर धर्मानसार सम्पत्ति का बंटवारा करके अलग-अलग रहें । १११ उद्धार भाग के अतिरिक्त सभी द्रव्यों से उत्तम सम्पत्ति का एक भाग बड़े भाई को मिलना चाहिए । शेष सम्पत्ति का बंटवारा इस प्रकार करें । ज्येष्ठ को बीसवां भाग, मंझले को चालीसवां भाग, छोटे को अस्सीवां और उसके बाद के शेष भाइयों को एक सौ आठवां भाग मिलना चाहिए । ११२ जैसा कि बताया गया है, ज्येष्ठ व कनिष्ठ भ्राता अपना-अपना भाग लें तथा दोनों के बीच मंझले भाइयों को धन का मध्यम भाग प्रदान करें । ११३ ज्येष्ठ भ्राता ही ( सम्पत्ति में ) सभी धनों में सर्वश्रेष्ठ, सर्वाधिक व दुर्लभ द्रव्य का अधिकारी होता है । ११४ सम्पत्ति की दस श्रेष्ठ वस्तुओं का एकमात्र अधिकारी बड़ा भाई होता है । ऐसा नियम पिता की सम्पत्ति के सम्बन्ध में है । माता-पिता के जीवनकाल में यदि भाइयों ने स्वयं कुछ अर्जित अथवा संगृहीत किया है तो बड़े भाई को दोना या न देना उनकी इच्छा पर निर्भर करता है । दरअसल ज्येष्ठ भ्राता को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसके प्रति सम्मान सूचक होता है । ११५ बड़े भाई को देने के लिए उद्धार भाग निकालने के बाद शेष सम्पत्ति के समान भाग कर लें । यदि उद्धार भाग नहीं निकाला जाता तो आगे बताई रीति से बंटवारा करें । ११६ बड़ा भाई दो भाग, उससे छोटे भाई डेढ़ भाग तथा शेष सभी भाइयों को एक-एक भाग ग्रहण करना चाहिए । ११७ सभी भाइयों का कर्तव्य है कि वे अपने-अपने सम्पत्ति भाग का चौथी भाग बहिनों को प्रदान करें । ऐसा न करने वाले भाइयों को पतित कहा जाता है । ११८ यदि भाई चार हों तथा पशुओं अर्थात् बकरी, भेड़, घोड़ा आदि की संख्या विषम हो - तो उनका विभाजन नहीं करना चाहिए बल्कि वे सभी पशु बड़े भाई को समर्पित कर देने चाहिए । ११९ अगर ज्येष्ठ भाई की पत्नी से छोटे भाई नियोग द्वारा पुत्र को जन्म देता है तो उस सम्पत्ति का विभाजन दोनों में समान रूप से करना चाहिए । यही विधान है । १२० धर्मानुसार ज्येष्ठ पुत्र की प्रधानता सिद्ध नहीं है । वास्तव में सम्पत्ति के संवर्द्धन में पिता ही प्रधान होता है । अतः धर्म यही कहता है कि पिता ही सेवा योग्य है । १२१ यदि पहली पत्नी से छोटे पुत्र और दूसरी पत्नी से बड़ा पुत्र पैदा हुआ हो तो सम्पत्ति के विभाजन में उत्पन्न दुविधा को कैसे दूर किया जाए उसकी विधि आगे वर्णित है । १२२ प्रथम विवाहिता पत्नी से जन्मा छोटा पुत्र एक अतिरिक्त बैल पाने का अधिकारी है । शेष सम्पत्ति में से माताओं के विवाह के क्रमानुसार ही पुत्र अपना-अपना भाग लें । १२३ प्रथम पत्नी से जन्मे बड़े पुत्र को सोलह अतिरिक्त बैल मिलने चाहिए । तत्पश्चात् शेष भाई अपनी माताओं के विवाह के क्रमानुसार अपना-अपना भाग लें - यही नियम है । १२४ सजातीय स्त्रियों से ( अर्थात् सभी पत्नीयां यदि एक ही जाती की हों ) जन्में पुत्रों में माता के विवाह के क्रमानुसार ज्येष्ठता नहीं माननी चाहिए । ऐसी स्थिति में जन्म से ही जो ज्येष्ठ है उसे बड़ा पुत्र मानना चाहिए । १२५ जिन वेद मंत्रों में बड़े पुत्र द्वारा देवों के आह्वान का वर्णन है या जुड़वां पुत्रों में कौन बड़ा है - यह निर्णय करने के नियम वर्णित हैं - उनमें जन्म को ही ज्येष्ठ व कनिष्ठ के निर्णय का आधार समझा गया है । १२६ जिस पुरुष के पुत्र न हो वह अपनी कन्या को पुत्रिका बनाए और उसके विवाह के समय घोषणा करे कि उसके गर्भ से जन्मा पुत्र ही मेरा श्रद्ध-तर्पण करने का अधिकारी होगा । १२७ प्राचीनकाल में प्रजापति दक्ष ने भी इसी प्रकार अपनी पुत्रियों से जन्मे पुत्रों से वंश का संवर्द्धन किया था । १२८ प्रसन्नतापूर्वक व सतकार करके प्रजापति दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म से, तेरह का कश्यप से और सत्ताईस पुत्रियों का विवाह चन्द्रमा से इसी प्रकार किया था अर्थात् उनके गर्भ से उत्पन्न पुत्रों को ग्रहण किया था । १२९ मनुष्य भी पुत्र रूप मेंं जन्म लेता है और कन्या भी पुत्र तुल्य होती है तो फिर कन्या के रहते पुत्र का धन पराए लोग कैसे ले सकते हैं ? १३० जो धन माता के द्वारा जोड़ा जाता है वह पुत्री का ही होता है । इस प्रकार जो पुरुष पुत्रहीन है उसकी सारी सम्पत्ति का अधिकारी उसका नाती होता है । १३१ यदि कोई व्यक्ति पुत्रहीन है तो उसकी सारी सम्पत्ति पर उसके नाती का ही अधिकार होता है । वही अपने पिता व नाना को पिण्डदान करता है । १३२ वस्तुतः पौत्र व नाती में कोई फर्क नहीं है । एक का पिता और एक की माता - समान माता-पिता से ही उतपन्न होते हैं । १३३ नाती अर्थात् पुत्री के पुत्र को यदि गोद लिया जाता है और तब पुत्र का जन्म होता है तो दोनों में सम्पत्ति को समान रूप से बांट देना चाहिए । नाती को ज्येष्ठ नहीं माना जाता । १३४ यदि पुत्री को पुत्रिका बना लेने के पश्चात् कन्या का पुत्रवती हुए बिना ही देहान्त हो जाता है तो कन्या का पति ही कन्या के पिता की सारी सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है । १३५ चाहे कन्या को पुत्रिका बनाएं या न बनाएं, सजातीय दामाद से पुत्र पाने पर पुरुष पुत्रवान् कहलाता है । वही बालक नाना को पिण्ड दान करता है । इसलिए नाना की सम्पत्ति भी उसे ही मिलनी चाहिए । १३६ व्यक्ति के जब पुत्र होता है तो वह लोक विजयी बन जाता है, पौत्र के जन्म से वह अनंतकाल तक सुखानंद उठाने का अधिकारी बनता है और प्रपौत्र का जन्म उसे आदित्य लोक में वास करने का अधिकारी बनाता है । १३७ ' पु ' शब्द से अभिप्राया है ' नरक ' तथा ' त्र ' का अर्थ है ' रक्षक ' । अतः पितरों की नरक से रक्षा करने वाले कोही ब्रह्मा जी ने ' पुत्र ' कहा है । १३८ मनुष्य को चाहिए कि वह पौत्र तथा दौहित्र में कोई फर्क न समझे क्योकि दौहित्र भी पौत्र के समान ही नाना के कल्याणकारके होता है । १३९ दौहित्र द्वारा प्रथम पिण्ड अपनी मां को, दूसरा नाना को तथा तीसरा नाना के पिता को दिया जाना चाहिए । १४० यदि दत्तक पुत्र दुसरे गोत्र का हो तो भी शिक्षा, विनय व शीलादि गुणों से युक्त होने पर वह अपने धर्मपिता की सम्पूर्ण सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बन जाता है । १४१ जो पुत्र दूसरे को दे दिया जाए वह अपने पिता व गोत्र को पुनः वहीं अपना सकता । वह जिसका पिण्डदान करता है, उसी का धन व गोत्र उसे प्राप्त होता है । वह अपने पिता का पिण्डदान नहीं करता । फलस्वरीप पिण्डदान से ही उत्तराधिकार का निर्णय हो जाता है । १४२ नियोग विधि के बगैर जन्मा पुत्र तथा लड़की के देवर से नियोग विधि द्वारा जन्मा दौहित्र - दाय भाग के अधिकारी नहीं माने जाते । इन्हें जार से उत्पन्न व कामज ही समझना चाहिए । १४३ बिना विधान के नियुक्ता स्त्री से जन्मा पुत्र भी अपने पिता का उत्तराधिकारी नहीं होता क्योंकि धर्म्भ्रष्ट रूप से उत्पन्न ऐसा बालक तो परित्याग योग्य ही होता है । १४४ नियुक्त स्त्री तथा नियम पालन करने वाले पुरुष के विधान पूर्वक संसर्ग से जन्मा औरस पुत्र ही अपने पिता की सम्पत्ति पर अधिकार रखता है । चूंकि उसका जन्म धर्मानुकूल विधि से होता है । अतः वह क्षेत्र वाले के बीज से ही जन्मा माना जाता है । १४५ जो पुरुष अपने मृत भाई की पत्नी व उसके धन पर अधिकार कर लेता है उसे भाभी से संतान उत्पन्न करके भाई का धन भतीजे को सौंप देना चाहिए । १४६ जो पुत्र नियोग बगैर ही देवर से या अन्य किसी पुरुष से उत्पन्न हो उसे कामज व व्यर्थ ही समझा जाता है । ऐसे पुत्र का पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता । १४७ भृगु जी ने कहा - विप्रो ! समाज में सजातीय स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्रों में धन के विभाजन का यही विधान है । अब मैं आपको उस परिस्थिति के लिए निर्धारित नियमों के बारे में बतलाता हूं जिसमें एक ही पति द्वारा अनेक स्त्रियों के गर्भ से पुत्र प्राप्ति हुई हो । १४८ यदि एक ब्राह्मण का चार विभिन्न वर्णों की स्त्रियों से विवाह हुआ है तो उन चारों से उत्पन्न पुत्रों के बीच धन का विभाजन इस प्रकार करना चाहिए । १४९ ब्राह्मण पत्नी के गर्भ से जन्मे पुत्र को कृषि योग्य बैल, गाय, अश्वादि, वाहन, आभूषण, घर व विशिष्ट दुर्लभ दे देने चाहिए । १५० पिता द्वारा अर्जित धन का तीन, दो, डेढ़ व दशम भाग के अधिकारी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य व शूद्र पत्नियों के पुत्र होते हैं । १५१ धर्मात्मा पुरुष ब्राह्मणी के पुत्र के लिए विशेष रूप से कुछ निकाले बिना ही सम्पूर्ण धन के दस भाग करे और आगे बताई जा रही विधि द्वारा इसका बंटवारा करे । १५२ उन दस भागों में से ब्रह्मणी, क्षत्रिय, वैश्या पत्नी व शूद्र स्त्री से उत्पन्न पुत्रों को क्रमशः चार, तीन, दो और एक भाग ग्रहण करना चाहिए । १५३ जो ब्रह्मण पुत्र शूद्र पत्नी के गर्भ से जन्मा है, वह चाहे कितना भी योग्य अथवा अयोग्य हो, पिता की सम्पत्ति के दसवें भाग से ज्यादा सम्पत्ति पाने का अधिकारी नहीं होता । १५४ शूद्र स्त्री के गर्भ से ब्रह्मण, क्षत्रिय व वैश्य पुरुषों द्वारा उत्पन्न पुत्र का अपने पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता । पिता द्वारा अपनी इच्छा से दिया गया धन ही उसका भाग होता है । १५५ सजातीय पत्नियों से उतपन्न सभी पुत्रों को ज्येष्ठ भ्राता के लिए विशिष्ट भाग निकाल कर पिता की शेष सम्पत्ति को समान रूप से विभाजित कर लेना चाहिए । १५६ शूद्र पुरुष के लिए यह विधान है कि वह केवल शूद्र स्त्री से ही विवाह कर सकता है, अन्य से नहीं । उस शूद्र के यदि सौ पुत्र हुए हों तो वे सभी पिता की सम्पत्ति में समान भाग से अधिकारी हैं । १५७ सवायम्भुव मनु ने जो वर्णन किया है उसके अनुसार मनुष्य के बारह पुत्रों में छः भाई पिता की सम्पत्ति के अधिकारी है और छः नहीं । १५८ पिता के दाय भाग के अधिकारी छः पुत्र इस प्रकार हैं, (१) अपनी धर्मपत्नी से औरस पुत्र (२) नियोग से उत्पन्न पुत्र (३) दत्तक पुत्र (४) दूसरे की सहमति से अपनाया हुआ उसका पुत्र (५) गुप्त रूप सेजन्मा पुत्र (६) तथा माता-पिता द्वारा परित्यक्त तथा किसी अन्य द्वारा अपनाया गया पुत्र । १५९ पिता की सम्पत्ति के अधिकारी जो पुत्र नहीं होते वे इस प्रकार हैं, (१)अविवाहित कन्या का पुत्र (२) विवाह के साथ ही स्त्री द्वारा लाया गया पुत्र (३) खरिदा हुआ (४) स्त्री के द्वितीय विवाह से जन्मा पुत्र (५) बिना मांगे ही किसी के द्वारा दिया गया तथा (६) शूद्र स्त्री से जन्मा पुत्र । १६० कुपुत्रों से सदगति चाहने वाले उसी प्रकार नरक जाते हैं जिस प्रकार टूटी हुई नाव से समुद्र पार करने की चाह रखने वाला डूब जाता है । १६१ नियोग विधि से प्राप्त किए गए पुत्र के बाद यदि औरस पुत्र भी उत्पन्न हो जाता है तो दोनों अपने-अपने पिता की सम्पत्ति का भाग ही ग्रहण करें । उन्हें एक-दूसरे का भाग हड़पने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए । १६२ वास्तविकता तो ये है कि एक औरस पुत्र ही पिता की सम्पत्ति का अधिकारी होता है । शेष पुत्रों को दयावश इतना दे देना चाहिए कि वे जिवन यापन कर सकें । १६३ औरस पुत्र द्वारा क्षेत्रय पुत्र को पैतृक कुल सम्पत्ति का पांचवां एवं छठा भाग प्रदान करना चाहिए । १६४ इसी प्रकार पैतृक धन क्षेत्रज व औरस पुत्रों में बांटना चाहिए । यदि पिता के अन्य दस प्रकार के पुत्र भी हों तो वे केवल गोत्रधन के ही अधिकारी हैं । १६५ वह पुत्र जो विवाहिता स्त्री से अपने वीर्य का आधान करके प्राप्त किया जाता है, वही औरस पुत्र है - उसे ही अपनी प्रथम संतान मानना चाहिए । १६६ यदि पुरुष मृत, क्लीव ( नपुंसक ) अथवा गंभीर रोग से ग्रस्त हो तो उसकी स्त्री से नियोग विधि द्वारा उत्पन्न पुत्र ही ' क्षेत्रज ' कहा जाता है । १६७ कोई विपत्ति आ पड़ने पर माता-पिता जिस सजाती य व्यक्ति को संकाल्प करके अपना पुत्र बिना कुछ लेए-दिये हैं - वही ' दत्तक ' पुत्र समझा जाता है । १६८ गुणदोष के पार जिस सजातीय बालक को ' पुत्र ' मान लिया जाता है वह ' कृत्रिम ' पुत्र कहलाता है । १६९ जिस बालक के जन्म पर घर में उसके माता-पिता का निश्चय न हो, उसे ' गूढ़ उत्पन्न ' पुत्र कहा जाता है और जो कोई भी उसे स्वीकार कर लेता है, वही उसका संरक्षक हो जाता है । १७० माता-पिता द्वारा अथवा उनमें से किसी एक द्वारा त्यक्त अथवा किसी आवश्यकता वाले व्यक्ति द्वारा परिगृहीत पुत्र को ' अपविद्ध ' समझें । १७१ कन्या यदि पिता के घर में गुप्त रूप से बालक को जन्म देती है और उसके बाद बालक का पिता कन्या का से विवाह करके उसे अपना लेता है तो वह बालक ' कानीन ' पुत्र कहा जाता है । १७२ अनजाने में अथवा जान-बूझकर यदि गर्भवती कन्या से विवाह किया जाता है तो उसके गर्भ से जन्मा बालक उसी का होता है जिसने कन्या से विवाह किया है इस बालक को ' सहोढ ' कहा जाता है । १७३ माता-पिता से मूल्य देकर खरीदा गया अथवा लगभग वैसा ही ( अर्थात् माता-पिता को कीमत ने देकर उनकी इच्छा से ) लिया गया बालक ' क्रीतक पुत्र ' कहा जाता है । १७४ पति द्वारा परित्यक्त अथवा विधवा स्त्री अपनी इच्छा से किसी दूसरे व्यक्ति से साथ विवाह करके पुत्र को जन्म देती है तो ऐसे पुत्र को ' पौनर्भव ' कहा जाता है । १७५ ऐसी स्त्री का यदि अपने पूर्व पति से सम्बन्ध ही न हुआ हो या एकाध बार पति के पास जाकर लौट आई हो तो वह जिससे संतान उत्पन्न करती है, उसके साथ उसका विवाह संभव है । १७६ माता-पिता द्वारा निरपराध बालक को यदि छोड़ दिया जाता है अथवा माता-पिता विहीन बालक स्वेच्छा से जिस किसी को अपना संरक्षन मान लेता है वह उसका ' स्वयंदत्त ' पुत्र कहा जाता है । १७७ शूद्र स्त्री के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न बालक ' पारशव ' अथवा ' शौद्र ' कहलाता है क्योंकि वह जीवित होते हुए भी शव के समान ही है । १७८ वह शूद्र पुत्र जो दासी अर्थात् दास की स्त्री से जन्मा है, अपने पिता की सम्पत्ति में भाग रखता है - यही शास्त्रों का विधान है । १७९ उपर्युक्त क्षेत्रजादि ग्यारह प्रकार के पुत्रों को ' पुत्र ' इसलिए कहा गया है ताकि माता-पिता के पिण्डदान की क्रिया लुप्त न हो । १८० जिन अन्य क्षेत्रज पुत्रों का औरस के प्रसंग से वर्णन किया गया है, वस्तुतः वे जिनके वीर्य से जन्म लेते हैं, उन्हीं के पुत्र होते हैं । १८१ मनु महाराज का मत है कि सगे भाईयों में से यदि एक भाई के भी पुत्र हों तो सभी भाइयों को पुत्र वाला ही मानना चाहिए तथा उन्हें क्षेत्रजादि पुत्रों की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करना चाहिए । १८२ इसी प्रकार एक पुरुष की अनेक पत्नियों में से यदि एक भी पुत्रवती हो जाती है तो सभी स्त्रियों को पुत्रवती ही समझना चाहिए - ऐसा ही मनु जी का मत है । १८३ यदि औरसादि पुत्र न हों तो अन्य प्रकार के पुत्र पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं । समान स्थिति वाले अनेक पुत्र होने की परिस्थिति में, सम्पत्ति का बराबर विभाजन कर देना चाहिए । १८४ जो व्यक्ति पुत्रवान् है उसकी सम्पत्ति के अधिकारी केवल पुत्र ही होते हैं पिता व भाई नहीं । सभी प्रकार के पुत्रों से विहीन व्यक्तित की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी निश्चित रूप से पिता तथा भाई ही होते हैं । १८५ पहले तीन प्रकार के पुत्रों को पिण्ड व उदक तर्पण का तथा चौथे प्रकार के पुत्र को केवल पिण्डदान का अधिकार होता है । पांचवें प्रकार के पुत्र को ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता । १८६ जो पुरुष पुत्रहीन है उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी उसके निकट सम्बन्धी ( सपिण्डी ) होते हैं । यदि वे भी न हों तो दूर के सम्बन्धी, उनके अभाव में आचार्य तथा आचार्य के भी न होने पर शिष्य उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं । १८७ यदि पूर्व वर्णित - तीनों प्रकार के लोग अनुपस्थित हों तो सम्पत्ति के उत्तराधिकारी तीनों वेदों के ज्ञाता, सदाचारी व संयमी ब्राह्मम ही होते हैं । इस प्रकार धर्म की हानि नहीं होती । १८८ यदि ब्राह्मण संतानहीन हो तो उसकी सम्पत्ति ब्राह्मणों में ही विभाजित कर देनी चाहिए । राजा उसे अपने अधिकार में न ले किंतु अन्य वर्णों के पूर्व वर्णित उत्तराधिकारियों में योग्य ब्राह्मण भी उपलब्ध न हो तो राजा सम्पत्ति पर अधिकार कर ले । शास्त्रों का यही विधान है । १८९ यदि कोई ब्राह्मण संतानविहीन ही मर जाता है तो राजा को चाहिए कि वह किसी समान गोत्र वाले व्यक्ति को समझाकर उसके पुत्र को मृत ब्राह्मण का पुत्र घोषित कर दे तथा उसी बालक को उत्तराधिकार में ब्राह्मण की सारी सम्पत्ति दे दे । १९० यदि दो पिताओं व एक माता से जन्मे पुत्रों में पिता की सम्पत्ति के बंटवारे को लेकर मतभेद हो तो दोनों पिताओं के पुत्रों को अपने-अपने पिता का धन दिलवाया जाए - एक को दूसरे का धन कदापि नहीं । १९१ सभी भाई तथा बहिनें मां की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति अपने बीच समान रूप से विभाजित कर लें । १९२ पुत्रियों की अविवाहित कन्याओं को भी नानी के धन से प्रेम-पूर्वक थोड़ा-बहुत धन प्रदान करना चाहिए । १९३ विवाद के समय अग्नि के समक्ष माता-पिता द्वारा दिया गया धन, गृहन-प्रवेश, पुत्र-जन्मादि समारोहों में बुलाकर दिया गया धन, प्रीतिकर्म एवं समयान्तर में पति द्वारा दिया गया धन, पिता, माता तथा भाई द्वारा दिया गया धन - ये छः प्रकार के स्त्री धन हैं । १९४ विवाह में तथा उसके बाद पति के परिवार वालों द्वारा तथा पति द्वारा प्रेमपूर्वक स्त्री को दिए गए धन पर संतान का अधिकार तो होता है पर पति का अधिकार नहीं होता । १९५ ब्राह्म, दैव, आर्ष, गान्धर्व तथा प्राजापत्य - इन पांच प्रकार के विवाहों में पति के जीवित रहते यदि स्त्री पुत्रविहीन ही मृत्यु को प्राप्त हो, तो पूर्व वर्णित छः प्रकार के स्त्री धन पर पति का अधिकार माना जाता है । १९६ यदि विवाह असुरादि रीति से हुआ है तो पति के जीवित रहते संतानविहीन स्त्री की मृत्यु के बाद स्त्री धन पर माता-पिता का अधिकार होता है पति का नहीं । १९७ यदि ब्राह्मणी की कन्या है तो पिता द्वारा किसी भी रूप में दिए गए अथवा स्त्री द्वारा स्वयं अर्जित धन पर उसी का अधिकार समझा जाता है । १९८ परिवार के अथवा पति की आज्ञा बिना अपने धन से स्त्री को लोभवश व्यापार नहीं करना चाहिए । १९९ स्त्री ने पति के जीवनकाल में जो भी आभूषण पहने हों उसका बंटवारा नहीं करना चाहिए । ऐसा करने पर उत्तराधिकारी धर्मभ्रष्ट हो जाते हैं । २०० जो पुत्र नपुंसक, धर्मभ्रष्ट जाति से निष्कासित, जन्मान्ध, बहरा,पागल, मूर्ख, गूंगा, निरिन्द्रीय हो - वह अपने पिता का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता । २०१ विवेकशील व्यक्ति को चाहिए कि उपर्युक्त बन्धुओं को सामर्थ्यानुसार जीवन भर भोजन वस्त्रादि दे । ऐसा न करने वाला धर्मभ्रष्ट हो जाता है । २०२ जैसा कि सम्पत्ति के अनधिकारी पहले बताए गए हैं, यदि उनमें से कोई विवाह कर लेता है, तो उसकी संतान को उनका भाग मिलना चाहिए । २०३ ज्येष्ठ भाई को पिता की मृत्यु के पश्चात् जो मिलता है उसमें छोटे भाई यदि गुणी हों तो उन्हें भी उनका भाग देना चाहिए । २०४ सभी विवेकशील भाइयों द्वारा पैतृक धन के अतिरिक्त जो कुछ उन्होंने श्रम से अर्जित किया है आपस में बराबर बांट लेना चाहिए । २०५ जो धन विद्या से, मित्रों से तथा विवाह में कन्या पक्ष से मिले तथा मधुपर्क दान में मिलता है उस पर केवल उसी व्यक्ति विशेष का अधिकार होता है । २०६ यदि भाइयों में से एक अपने श्रम से धनार्जन करना चाहता हो और अपने भाइयों के भाग से कुछ भी नहीं लेना चाहता, उसको उसके अंश का निर्वाह योग्य धन देकर अलग कर दें । २०७ जो भाई पिता के धन को व्यय नहीं करता और अपने परिश्रम से ही धनार्जन करता है यदि उसकी इच्छा न हो तो वह अपने भाइयों में धन बांटने को बाध्य नहीं होता । २०८ यदि पहले न पाए धन को पिता अपने परिश्रम से प्राप्त करने में सफल हो जाए तो इच्छा न होने पर उस धन को तथा अर्जित धन को अपने पुत्रों में विभाजित न करे । २०९ यदि एक बार सम्पत्ति विभाजन हो जाता है, उसके बाद फिर सभी भाई संयुक्त रूप व्यापार करने लगते हैं, तो फिर से बंटवारा होने पर सभी भाइयों को समान भाग मिलना चाहिए । बड़ा भाई कुछ भी अतिरिक्त पाने का अधिकारी नहीं होता । २१० यदि कोई छोटा अथवा बड़ा भाई अपना भाग किसी कारणवश लेने से वंचित रह जाए या मर जाए तो भी उसके भाग का लोप नहीं होता । २११ यदि कोई भाई संन्यास ले लेता है या मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसके शेष सगे भाई व सगी बहिनों को मिलकर पैतृक सम्पत्तिका समान भाग कर लेना चाहिए । २१२ राजा का कर्तव्य है कि छोटे भाइयों को ठगने वाले ज्येष्ठ भाई को उसके अधिकार से वंचित करके उसे दण्ड दे । २१३ जो भाई शास्त्र विरोधि आचरण करते हैं वे पैतृक धन के उत्तराधिकारी होने के योग्य नहीं । ज्येष्ठ भाई द्वारा अपने छोटे भाइयों को उनका भाग दिए बिना पैतृक धन को व्यापार में नहीं लगाना चाहिए । २१४ यदि सभी भाई मिल-जुलकर रहते हैं तथा संयुक्त रूप से धनार्जन करते हैं उन्हें बंटवारे में विषमता नहीं बरतनी चाहिए अर्थात् समान रूप से विभाजन करना चाहिए । २१५ पिता अपने जिवनकाल में ही अपने धन का पुत्रों में बंटवारा कर दे और इसके बाद यदि उसके पुत्र उत्पन्न हो जाए तो वह अपने पिता की बची हुई सम्पत्ति का ही अधिकारी होता है । जो भाई पिता के साथ रहते हों, उनके साथ भी विभाजन सम्भव है । २१६ पुत्र यदि संतान रहित है तो उसका दाय भाग मां को लेना चाहिए और माता की मृत्यु पर उसकी दादी को । २१७ यदि ऋण व धन का सभी भाइयों में उचित विभाजन हो गया हो और उसके बाद कुछ नया पता चले तो उसे भी समान रूप से विभाजित कर लेना चाहिए । २१८ वस्त्र, वाहन, आभूषण, पका हुआ अन्न व जल, स्त्रियां और निर्वाह की अन्य विविध आवश्यक वस्तुएं विभाजन योग्य नहीं होतीं । २१९ भृगु जी बोले - विप्रो ! औरस - क्षेत्रज आदि पुत्रों के बीच पिता की सम्पत्ति विभाजन संबंधी विधान के बारे में मैंने आपको बताया । अब मैं आपको द्यूत के विषय में निश्चित नियमों के बारे में बतलाता हूं । २२० अपने राज्य में राजा द्वारा द्यूत व समाह्वय को निषेध कर देना चाहिए । ये दोनों ही राज्य के लिए विनाशकारी तत्व हैं । २२१ द्यूत व लमाह्वय दोनों ही खुलेआम डकैती के बराबर हैं और देवों, मनुष्यों व असुरों का सर्वस्व विनाश कर देते हैं । अतः इन दोनों दोषों को दूर करने में राजा सदा प्रयत्नशील रहे - यही विधान है । २२२ जिस खेल में कौड़ी, रुपया, पैसा - इन निर्जीव वस्तुओं से हार-जीत का निश्चय हो - वह खेल जुआ कहलाता है । पशु-पक्षी, स्त्री व पुरुषादि सजीव प्राणियों को दांव पर रखकर खेले जाने वाले का नाम समाह्वय है । २२३ जो लोग द्यूत व लमाह्वय खेलों का आयोजन करवाते हैं या जो शूद्र ब्राह्मण के चिह्न धारण करते हैं, उनको राजा द्वारा मृत्युदण्ड देना चाहिए अथवा कठोर शारीरिक दण्ड देना चाहिए । २२४ राजा को उन मनुष्यों को नगर से निर्वासित कर देना चाहिए जो जुआ खेलते हैं, धूर्त, क्रूर, पाखण्डी होते हैं तथा घृणित कार्य करते हैं । २२५ वास्तविकता तो ये है कि ऐसे लोग राज्य में प्रच्छन्न डाकू होते हैं और वे हमेशा अपने कुकर्मों से भोली-भाली प्रजा को कष्ट देते रहते हैं । २२६ इतिहास साक्षी है कि द्यूत वह घृणित कृत्य है जो खिलाडियों में शत्रुता पैदा कर देता है । अतः विवेकशील पुरुष को मनोरंजन के लिए भी द्यूत-क्रीड़ा में भाग नहीं लेना चाहिए । २२७ राजा उन लोगों को यथोचित एवं यथेष्ट दण्ड दे जो प्रच्छन्न अथवा प्रकट रूप से जुआ खेलते हैं । २२८ द्यूत खेलने के अपराध में जो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दरिद्रतावश राजदण्ड देने में असमर्थ हों, उन्हें राजा की सेवा करके राजदण्ड से उऋण होना चाहिए । किन्तु ब्राह्मण को चाहिए कि वह धीरे-धीरे भुगतान करने की सुविधा जुटाए । २२९ जो स्त्री, बालक, पागल, वृद्ध, गरीब व रुग्ण जुआ खेलें उन्हें राजा को बेंतों, चाबुकों व रस्सियों से पिटवाना चाहिए और उन्हें बांध कर रखना चाहिए । २३० राजा को चाहिए कि वह उन लोगों का सब कुछ छीनकर उन्हें सेवा निवृत्त कर दे जो द्यूत आदि कार्यों को रोकने के लिए नियुक्त होने पर भी रिश्वत आदि लेकर इसके निवारण की बजाया इसके प्रसारण में लगे हों । २३१ राजा के चिह्न की नकल से अपना मतलब निकालने वालों, प्रजा को भ्रष्ट करने में रत लोगों, स्त्रियों, बालकों व ब्राह्मणों की हत्या करने वाले और शत्रु से सांठ-गांठ करने वाले लोगों को राजा द्वारा शीघ्र अति शीघ्र मरवा डालना चाहिए । २३२ जिस विवाद का अंतिम मिर्णय हो चुका हो और अपराधी दण्ड भी भोग चुका हो, उस विवाद को किसी भी प्रकार पुनः नहीं उठने देना चाहिए । २३३ उस सुलझे हुए विवाद को जो वादी या प्रतिवादी मंत्री अथवा वकील के माध्यम से फिर उठाना चाहें, तो राजा को इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए और उन पर एक हजार रुपाए का दण्ड लगाना चाहिए । २३४ जो व्यक्ति ब्राह्मण को मारे, मदिरापान करे, चोरी व गुरु पत्नी से व्यभिचार करे - उसे महापापी मनुष्य मानें । २३५ इन चार प्रकार के पापों का प्रायश्चित न करने पर राजा द्वारा अपराधी को धर्मानुसार शारीरिक व आर्थिक दण्ड देना चाहिए । २३६ जो पापी गुरु पत्नी से व्यभिचार करे, मदिरापान करे तथा चोर हो उसके मस्तक पर तपे हुए लोहे से क्रमशः भग, सुरापात्र तथा कुत्ते के पैर का चिह्न अंकित कर देना चाहिए । २३७ ये तीन प्रकार के व्यक्ति पंक्ति में बैठा कर भोजन कराने, स्वाध्याय, यज्ञयागादि करने के अधिकारी नहीं होते । न ही इनके साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित करने चाहिए । सभी धर्मों से बहिष्कृत लोग धरती पर दीन-हीन रूप में ही विचरण करते हैं । २३८ भग, सुरापात्र तथा कुत्ते के पैर के चिह्न से अंकित लोगों को सम्बन्धियों व बिरादरी वालों द्वारा त्यज देना चाहिए । ये दया के योग्य नहीं होते, न ही इन्हें नमस्कार करना चाहिए । मनु महाराज द्वारा उक्त यही नियम है । २३९ सभी वर्णें के वे लोग जो शास्त्रोक्त रीति से प्रायश्चित करते हैं, उन पर ये चिह्न अंकित नहीं करने चाहिए । उन पर केवल ' उत्तम साहस ' का दण्ड ही लगाना चाहिए । २४० यदि ब्राह्मण इस प्रकार का अपारध करे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड देना चाहिए या उसे उसके धनादि सहित देश से निष्कासित कर देना चाहिए । २४१ अन्य वर्णों के लोगों द्वारा यदि विवशता में ये कुकर्म किए गए हों तो राजा को उनका सर्वस्व छीन लेना चाहिए और यदि स्वेच्छा से ये कर्म किए गए हों तो उस व्यक्ति को देश से निर्वासित कर देना चाहिए । २४२ महापापी के धन को राजा कदापि ग्रहण न करे । जो राजा लोभवश इस धन को स्वीकारता है वह भ्रष्ट व पापी हो जाता है । २४३ यदि राजा इन महापापियों का दण्ड स्वीकार भी कर लेता है, तो उसे जल से धोकर वरुण के यज्ञ में लगा देना चाहिए या वेद-विद्या में लगे विद्वानों को दान कर देना चाहिए । २४४ वेद विद्या में निपुण विद्वान ब्राह्मण उसी प्रकार इस सारे संसार का स्वामी होता है जिस प्रकार दण्ड के स्वामी वरुण का प्रतिनिधि तुलय राजा दण्ड देने का अधिकारी होता है । २४५ उस देश के प्रजाजन दीर्घायु होते हैं, जिस देश का राजा इन पापियों के धन को स्वीकार नहीं करता । २४६ जो राजा पापियों के धन को ग्रहण नहीं करता,उसके राज्य में धान्य प्रचुर मात्रा में पैदा होते हैं, बालक नहीं मरते और अन्य प्रकार के विकार भी नहीं होते । २४७ जो व्यक्ति जानबूझ कर ब्राह्मणों को कष्ट दे, निरर्थक मार-पीट करे उसको तथा शूद्रादि को राजा द्वारा कठोर उपायों से नियंत्रित करना चाहिए । २४८ जो वध करने योग्य है उसको राजा द्वारा छोड़े जाने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा कि अवध्यों के वध पर । ऐसा धर्मशास्त्रों में कहा गया है । दोनों ही स्थितियों में धर्म की अवज्ञा पाप है । २४९ भृगु जी ने कहा - महर्षियों ! इस प्रकार मैंने आपको अट्ठारह तरह के विवादों को सुलझाने की विधि बतलाई । २५० इस प्रकार धर्मकार्यों की भली-भांति देख-रेख करते हुए राजा को अप्राप्त देशों को विजित करने का तथा प्राप्त देशों की रक्षा का प्रयास करना चाहिए । २५१ जो राज्य भली-भांति बसा हुआ हो उसे राजा को शास्त्रोक्त रीति से दुर्गादि बनवा कर सुरक्षित कर लेना चाहिए तथा शत्रुओं व डाकुओं के नाश के लिए निरंतर श्रेष्ठ प्रयत्न करते रहना चाहिए । २५२ वही राजा स्वर्ग की प्राप्ति करता है जो सज्जनों की रक्षा और चोर-डाकुओं से प्रजा की रक्षा करते हुए प्रजा के पालन मे उद्यत रहता हो । २५३ जो राजा प्रजा से केवल कर वसुलता रहे और चोर-डाकुओं को दण्ड न देता हो - उसकी प्रजा में क्षोभ फैलता है और वह राजा नरक को प्राप्त होता है । २५४ जिस राज्य की प्रजा अपने राजा के बाहुबल से सुरक्षित रहती है, वह राज्य ठीक उसी प्रकार बढ़ती है जिस प्रकार नियमित रूप से सींचा गया वृक्ष फलता-फूलता है । २५५ जो राजा की देख-रेख करता है उसे गुप्त रूप से गुप्तचरों द्वारा तथा प्रकट रूप में दूसरों का धन छिनने वाले चोरों पर नजर रखनी चाहिए । २५६ जो व्यापारी अनेक प्रकार के कारोबार करते हैं वे प्रकट अर्थात् प्रत्यक्ष चोर होते हैं तथा चोर व जंगलों में रहने वाले लुटेरे प्रच्छन्न चोर होते हैं । २५७,२५८,२५९ राजा को चाहिए कि वह गुप्तचरों के माध्यम से प्रकट चोरों की खबर भी रखे । ये प्रकट चोर इस प्रकार के होते हैं - रिश्वतखोर, धमका कर धन ऐंठने वाले, धोखेबाज, जुआरी, राजा के नाम पर भलाई होने की सूचना देकर धन लूटने वाले, भद्र उपायों से लूटने वाले, ज्योतिष के नाम पर धोखा देने वाले, उच्च कर्मचारी, चिकित्सक, धूर्त व्यक्ति तथा वेश्याएं । प्रत्यक्ष रूप से प्रजा को ठगने वाले और आर्य वेश में विचरण करते अनार्यों की सूचना राजा के पास होनी चाहिए । २६० पूर्वोक्त ठगों जैसा ही काम करने वाले तथा अनेक विविध सूचनाएं देने वाले गुप्तचरों द्वारा राजा को चोरों को पकड़वा कर अपने नियंत्रण में कर लेना चाहिए । २६१ इस प्रकार के प्रत्यक्ष व प्रच्छन्न चोरों को पकड़वा कर राजा को उन्हें अनेक दोषों से अवगत कराना चाहिए तत्पश्चात् उनके अपराध व सामर्थ्य के अनुसार शारीरिक तथा आर्थिक दण्ड निश्चित करना चाहिए । २६२ यह सम्भव नहीं कि साधु वेश में विचरने वाले चोर-डाकुओं व पापकर्म करने वालों को दण्डित किए बगैर ही पाप पर अंकुश लगाया जा सके । २६३,२६४,२६५ निम्रलिखित स्थानों पर तस्करी रोकने के लिए राजा द्वारा सथिर व चलती-फिरती चौकसी टुकड़ियां रखवानी चाहिए तथा गुप्तचरों की नियुक्ति भी आवश्यक हैं, लोगों के एकत्रित होने का स्थान, प्याऊ, हलवाई की दुकान, वेश्यालय, मदिरालय, अनाज मण्डी, चौराहा, विशाल व सुप्रसिद्ध वृक्ष, लोगों के मेले का स्थान, तमाशे के स्थान, उजड़ी वाटिका, घने वन, शिल्पगृह, बाग-बगीचे, उजड़े हुए घर, वनउपवनादि । २६६ चोरों के सहायकों और उनके कार्यों का जानने वाले तथा पहले चोर रहे किन्तु अब राजा की सेवा में नियुक्त गुप्तचरों द्वारा राजा को डाकुओं की सूचना एकत्रित कर उन्हें पकड़ कर दण्ड देना चाहिए । इस प्रकार राजा तस्करी जैसे कृत्य को जड़ से समाप्त कर दे । २६७ जासूसों द्वारा तस्करों को उत्तम भोजन खिलाने, ब्राह्मण के दर्शन के बहाने तथा चोरों को चोरी आदि कार्य करने के बहाने पूर्व निर्धारित स्थान पर लाकर पकड़वा देना चाहिए । २६८ यदि पकड़े जाने के भय से तस्कर जासूसों के जाल में न आएं तथा गुप्तचरों के साथ रहते हुए भी चतुराई से बच निकलें तो राजा द्वारा उन्हें सैनिक भेजकर बलपूर्वक पकड़वा लेना चाहिए और मित्रों तथा सम्बन्धियों समेत उनका वध कर देना चाहिए । २६९ यदि चोरी का अपराध सिद्ध नहीं होता है तो धर्म का पालन करने वाले राजा का कर्तव्य है कि वह चोर को मृत्यु न दे किन्तु प्रत्यक्ष में चोरी का प्रमाण देखते ही राजा तत्काल चोर का वध करवा दे । २७० जो लोग तस्करों को गांव में भोजन, पात्र, शरण व आश्रय देते हैं राजा को उन सभी लोगों का वध करवा देना चाहिए । २७१ जो लोग राज्य की रक्षा में और सीमा की सुरक्षा के लिए नियुक्त किए गए हों यदि वे भी गुप्त रूप से तस्करी के कर्म में संलग्न पाए जाते हैं तो राजा को उन्हें भी तत्काल मरवा देना चाहिए । २७२ जो व्यक्ति न्याय के आसन पर बैठकर चरित्र से भ्रष्ट हो जाता है उस पतित व्यक्ति को राजा द्वारा दण्ड मिलना चाहिए । २७३ गांव के आसपास रहने वाले लोग यदि गांव लूटने वालों, आगजनी करने वालों और राह चलती स्त्रियों को छोड़ने वाले लोगों को पकड़ने में मदद नहीं करते, राजा को उन्हें सपरिवार राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए । २७४ जो लोग राजा के खजाने में चोरी करते हैं, राजा की अवज्ञा करते हैं तथा शत्रुओं से मिले होते हैं उन्हें राजा द्वारा प्राणघातक दण्ड दिया जाना चाहिए । २७५ जो डाकु रात में घरों में सेंध लगाकर चोरी करते हैं, राजा को उनके हाथ कटवा देने चाहिए और उन्हें सूली पर चढ़ा देना चाहिए । २७६ यदि कोई जेबकतरा पहली बार चोरी करते हुए पकड़ा जाए तो उसकी उंगलियां कटवा देनी चाहिए, दूसरी बार पकड़े जाने पर हाथ-पैर काट देने चाहिए तथा तीसरी बार पकड़े जाने पर उसको मृत्युदण्ड देना ही उचित है । २७७ जो भी लोग इस प्रकार के चोरों को अग्नि, भोजन, शस्त्र, वस्त्र व आसरा देते हैं, राजा को उन्हें भी चोरों के समान मृत्युदण्ड ही देना चाहिए । २७८ जो व्यक्ति तालाब तोड़ डाले उसे पानी में डुबा देना चाहिए अथवा प्राणदण्ड देना चाहिए । यदि तालाब तोड़ने वाला उसकी मरम्मत कराने के लिए सहर्ष तैयार हो तो उस पर उत्तम साहसिक का दण्ड लगाना चाहिए । २७९ उन चोरों को तत्काल मृत्युदण्ड दे देना चाहिए जो राजा के धान्यागार, शस्त्र भण्डार तथा मंदिरों को तोड़ते हैं तथा हाथी-घोड़े व रथों को चुराते हैं । २८० जो चोर पहले से बने हुए तालाब के पानी को चुराते हैं, जल के स्रोत में तोड़-फोड़ करते हैं और तड़ागों को सुखा देते हैं, राजा उन पर एक सहस्र पण का दण्ड लगाए । २८१ सड़क पर कूड़ा फेंकने वाले लोगों को रोग-दुख की स्थिति को छोड़कर दो कार्षाय का दण्ड देना चाहिए और गंदगी को तुरंत साफ करवा देना चाहिए । २८२ यदि कोई विपत्तिग्रस्त, वृद्ध, गर्भवती महिला तथा बच्चा सड़क पर कचरा फेंके तो उन्हें सिर्फ धमकाना चाहिए और गंदगी को साफ करवा लेना चाहिए - शास्त्रों द्वारा यही नियम निर्धारित किया गया है । २८३ जो चिकित्सक गलत-सलत इलाज करते है उन्हें भी दण्ड देना चाहिए । पशु-पक्षियों का गलत इलाज करने वाले पर ' प्रथम ' तथा मनुष्यों की गलत चिकित्सा करने वाले पर ' मध्यम ' दण्ड लगाना चाहिए । २८४ लकड़ी के पुल, ध्वज की लकड़ी व प्रतिमा को तोड़ने वाले व्यक्ति पर पांच सौ पणों का दण्ड लगाने का विधान है और उन्हें फिर से बनवाने का निर्देश भी देने का नियम है । २८५ उन लोगों पर हजार पणों रा दण्ड लगाया जाए जो सद् पदार्थों को दूषित करते हैं और मणियों को गलत ढंग से बींधते हैं । २८६ जो व्यापारी उचित मूल्य पर घटिया या कम परिमाण की वस्तु बेचे उसे ' पूर्व साहस ' या ' मध्यम साहस ' दण्ड मिलना चाहिए । २८७ ऐसे मार्गों पर राजा द्वारा बन्दी गृह बनवाने चाहिए जहां से चोर-डाकुओं व लुटेरों से सताए गए लोग उन लोलगों को सड़ता हुआ देखें जिन्होंने उन्हें कष्ट दिया । २८८ उन लोगों को जल्द ही राज्य से देना चाहिए जो दीवार को तोड़कर खाइयों को भर तथा द्वारों को तोड़ कर दुश्मन के रास्ता बनाते हैं । २८९ जो व्यक्ति सभी प्रकार के अभी चारों के प्रयोक्ता हों उनका कर्तव्य है कि उन्हें दो सौ पणों का दण्ड दे । दस प्रकार के विविध दुष्ट प्रयोगों के कर्ता को दो सौ पणों का दण्ड देना चाहिए चाहे मूल कर्म से अभीष्ट मनुष्य की मौत न हुई हो । २९० अच्छे बीजों में घटिया बीज मिलाकर बेचने वाले तथा परम्परागत नियमों की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले मनुष्य को मृत्युदण्ड देना ही उचित है । २९१ सनार, जो सभी पापियों का शिरोमणि है, यदि अन्याय करता है तो राजा को चाहिए कि वह चाकु से उसके टुकड़े-टुकड़े करवा डाले । २९२ अपराधी द्वारा हल, कुदाल आदि शस्त्रों, धन व औषधियों को चुराते हुए क्या स्थिति थी व चोरी की क्या मात्रा थी - इसके अनुसार ही राजा अपराधी के लिए दण्ड निर्धारित करे । २९३ राज्य के सात अंग या सात प्रकृतियां इस प्रकार हैं - राजा, मंत्री, नगर, राष्ट्र, राजकोश, दण्डाधिकारी व मित्र । २९४ इन सात प्रकृतियों में से क्रमशः पूर्व-पूर्व पर आई विपत्ति को अपेक्षाकृत अधिक वृहद् व गंभीर मानना चाहिए । २९५ राज्य की सात प्रकृतियां एक-दूसरे के सहारे ठीक उसी प्रकार टिकी होती हैं जिस प्रकार तीन डण्डे एक-दूसरे के सहारे खड़े रहते हैं । यह न समझना चाहिए कि इन सातों में से किसी की अहमियत कम है । वास्तविकता तो यह है कि इन सातों की समग्र स्थिति में ही राज्य सुरक्षित व स्थिर रहकर समृद्ध बनता है । २९६ जिस समय जिस अंग का प्रयोग होता है उस समय उसकी विशेषता अधिक हो जाती है । प्रजा का कार्य जिस समय जिससे सिद्ध हो, उस समय वही उत्तम होता है । २९७ गुप्तचरों, उत्साह की परीक्षा करने वाले कर्मों तथा अन्य विशेष कार्यों के सहयोग से राजा निरंतर अपनी तथा अपने शत्रु की सामर्थ्य को तौलता रहे । २९८ किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले राजा को भविष्य में सम्भावित सभी प्रकार की व्यथाओं, कष्टों, बाधा, महत्व व हीनता के बारे में भली -भांति सोच लेना चाहिए । २९९ राजा का कर्तव्य है कि एक कार्य को सम्पन्न करके कुछ विश्राम करे और फिर दूसरे-तीसरे कार्य को प्रारम्भ कर दे क्योंकि लक्ष्मी उसी को प्राप्त होती है जो कर्मों में उद्यत रहता है । ३०० राजा की ही चेष्टाओं के नाम हैं - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग । राजा को ही युग कहा गया है अर्थात् वह राज्य की जैसी व्यवस्था करता है, युग को उसी प्रकार का नाम दे दिया जाता है । ३०१ कलियुग,द्वापर, त्रेता व सत्ययुग क्रमशः राजा के निरुद्यम होने, जागने, कर्म में तत्पर होने तथा शास्त्रोंक्त कर्मानुष्ठान करने का ही नाम है । ३०२ राजा को इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्र, अग्नि व पृथ्वी के सामर्थ्य रूप कर्मों का वहन करना चाहिए । ३०३ राजा को अपने राज्य में अभीष्ट पदार्थों की वर्षा ठीक उसी प्रकार करनी चाहिए जिस प्रकार इंद्र देव चार मास वर्षा करते हैं । ३०४ राजा को प्रजा से वैसे ही कर वसुली करनी चाहिए जिस प्रकार सूर्य आठ माह तक अपनी किरणों से धरती से जल ग्रहण कर लेता है । ३०५ राजा को दूतों के माध्यम से सभी प्रजाजनों की मनोवृत्ति की खबर उसी प्रकार रखनी चाहिए जिस प्रकार वायु सभी जिवों में प्रविष्ट होकर घूमता रहता है । ३०६ अपराध करने वाले मित्रों व शत्रुओं दोनों को राजा द्वारा समान रूप से दण्ड मिलना चाहिए ठीक उसी प्रकार जैसे यमराज समय आने पर प्रिया अथवा अप्रिय सभी को एक ही तरह से अपना ग्रास बनाता है । ३०७ राजा को पापियों को उसी प्रकार बंदी बनाकर रखना चाहिए जिस प्रकार वरुणदेव धर्मभ्रष्ट जनों को अपने पाश में बांध कर रखते हैं । ३०८ राजा के दर्शन से प्रजा का प्रसन्न होना ही राजा का चंद्रव्रत निभाना है, जिस प्रकार लोग पूर्ण चन्द्र को देख कर हर्षित होते हैं । ३०९ राजा का आग्नेय व्रत यही है कि वह पापियों के लिए सदैव प्रताप युक्त व तेजस्वी रहे तथा दुष्ट सामंतों के लिए हिंसक ३१० राजा का पृथ्वी धर्म यही है कि जिस प्रकार पृथ्वी सभी प्राणियों को समान रूप से धारण करती है उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा का समान रूप से पालन करना चाहिए । ३११ इन्हीं तथा अन्य विविध उपायों द्वारा राजा को सदा उत्साहपूर्वक अपने राज्य के चोरों व दूसरे राज्य मे शरणागत विद्रोहियों को बंदी को बनाना चाहिए । ३१२ राजा यदि परम संकट की परिस्थिति में हो तो भी उसे ब्राह्मणों को कुपित नहीं करना चाहिए क्योकि कुपित ब्राह्मण सेना व वाहन सहित राजा का विनाश कर डालते हैं । ३१३ उन ब्राह्मणों को रुष्ट करने से भला कौन कुपित न होगा जिन्होनें आग को सर्वभक्षी, समुद्र को अपेय और क्षय होने वाले चंद्र को अमृतमय बना दिया । ३१४ कुपित होने पर जिन्होंने दूसरे लोक व लोकपालों का सृजन कर दिया तथा देवों को अपूज्य बना दिया उन उत्तम ब्राह्मणों को कष्ट देकर कौन समृद्ध हो सकता है अर्थात् कोई नहीं । ३१५ जिन ब्राह्मणों का आश्रय लेकर देवता व लोक स्थित हैं तथा वेद ही जिनका धन हैं, उन्हें त्रास देने का साहस कौन जिजीविषा रखने वाला मूर्ख करेगा ? ३१६ ब्राह्मण चाहे विद्वान हो अथवा मूर्ख निस्संदेह महत्वपूर्ण व पूजनीय होता है जिस प्रकार प्रणीत तथा अप्रणीत दोनों ही प्रकार की अग्नि पवित्र व महान होती है । ३१७ श्मशान में प्रज्वलित अग्नि दूषित नहीं होती । वही अग्नि यज्ञ व हवनादि में पुनः अभीवृद्धि को प्राप्त होती है । ३१८ ठीक इसी प्रकार ब्राह्मण चाहे सभी प्रकार के अनिष्ट कर्म करता हुआ क्यों न विचरे, फिर भी परमदेव होने के कारण वह पूजनीय होता है । ३१९ प्रबुद्ध ब्राह्मणों को चाहिए कि वे ब्राह्मणों को सताने वाले क्षत्रियों को वश में रखें चूंकि ब्राह्मण जिनका पथ-प्रदर्शन करते हैं, वही क्षत्रिय प्रगति कर पाते हैं । ३२० अग्नि, क्षत्रिय व लोहे का तेज क्रमशः जल, ब्राह्मण व पत्थर से उत्पन्न होते हैं और सभी स्थानों पर अपनी तीव्रता का प्रदर्शन करते हैं किंतु जो कारण उन्हें उत्पन्न करते हैं, उन्हीं से वे शांत भी हो सकते हैं । ३२१ ब्राह्मण के बिना क्षत्रिय और क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण उन्नति नहीं कर सकता । दोनों मिलकर ही इस लोक एवं परलोक संवर्द्धित होते हैं । ३२२ दण्ड से प्राप्त धन को तथा अपना राज्य पुत्र को प्रदान कर राजा रण में प्रस्थान करे । ३२३ इस प्रकार राजधर्म का पालन करते हुए राजा द्वारा प्रजाजनों के हित में सभी भृत्यों का प्रबन्ध करना चाहिए । ३२४ महर्षियो ! राजा के सभी सनातन कर्तव्य व कर्मों के बारे में मैंने आपको बतलाया । इन्हें ही आप वैश्य व शूद्रों की कर्म विधि जानें । ३२५ वैश्य यज्ञोपवीत संस्कार के बाद विवाह करे तथा पशुपालन एवं व्यापार का कार्य करे । ३२६ वैश्य की सृष्टि कर स्वयं ब्रह्मा जी ने उसे पशु सौंपे हैं । ब्रह्मा जी ने ही ब्राह्मण एवं राजा को प्रजा की सुरक्षा का उत्तरदायित्व दिया है । ३२७ पशु रक्षा के अपने कर्तव्य को न करने के बारे में वैश्य को सोचना भी नहीं चाहिए और यदि वैश्य ऐसा करता है ( अर्थात् पशु रक्षा नहीं करता ) तो अन्य वर्ण के व्यक्ति को यह कार्य नहीं करना चाहिए । ३२८ मणि मुक्ता, प्रवाल ( मूंगा ), लोहा, वस्त्र और कपूर आदि गंध व रसों के गुण-दोषों, भाव में उतार-चढ़ाव का पूरा ज्ञान रखना भी वैश्यों का कर्तव्य है । ३२९ बीजों को किस प्रकार बोया जाए, खेत के क्या गुण-दोष हैं तथा सभी प्रकार के नाप-तोलों की जानकारी रखना भी वैश्यों का कर्तव्य कर्म है । ३३०,३३१ विभिन्न अन्नों के अच्छे-बुरे होने की जानकारी, विविध देशों में उसके गुण-दोष, सस्ते भाव, बिकने वाली वस्तुओं की लाभ-हानि, पशुओं के परिवर्धन के तरीके, नौकरों के भुगतान का तरीका, एनेक भाषाएं, विविध वस्तुओं के भण्डारण तथा क्रय-विक्रय की विधि वैश्य को आनी चाहिए । ३३२ उसे कर्मानुसार अपने धन के संवर्द्धन एवं सभी प्राणियों तक अन्न पहुंचाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए । ३३३ वदों के ज्ञाता विद्वान, यशस्वी एवं गृहस्थ ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्र का धर्म है । ३३४ जो शूद्र नित्य ब्राह्मणों की सेवा करता है, पवित्र, सदाचारी, परिश्रमी, विनम्र व अहंकार रहित होता है - वह उच्च जाति को प्राप्त कर लेता है । ३३५ भृगु जी ने कहा, विद्वज्जनो ! यह मैंने चारों वर्णों के सामान्य धर्म बतलाए । अब मैं आपको उनके आपातकालीन धर्म के बारे में बतलाऊंगा । दशम अध्याय १ ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य - इन तीन वर्णों के लोग अपने कर्मों को करते हुए वेद का अध्ययन करें । वेदों की शिक्षा का कार्य केवल ब्राह्मण को ही करना चाहिए - यही शास्त्रों में निश्चित किया है। २ सभी वर्णों के लोगों का जीवन किस विधि से चले - इस विषय में ब्राह्मण स्वयं जाने तथा अन्य वर्णों को बतलाए । साथ-साथ ब्राह्मण को अपने कर्तव्य कर्मों का पालन भी निरंतर करते रहना चाहिए । ३ ब्राह्मण विशेषकर अपनी प्रकृति की श्रेष्ठता, नियमों का पालन करने व उच्च संस्कारों के बाहुल्य के कारण सभी वर्णों का स्वामी होता है । ४ तीन वर्ण द्विजाति होते हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य । चौथी जाति शूद्र होती है । इनकी अतिरिक्त पांचवां कोई वर्ण नहीं होता । ५ इन चारों वर्णों की सजातीय व सर्वथा पवित्र पत्नियों से उत्पन्न संतान ही अपनी-अपनी जाति को धारण करती है । ६ अपने क्रम से हीन जाति की स्त्रियों द्वारा उत्पन्न द्विजातियों की संतान माता के दोष के कारण पतित मानी जाति है । ७ यदि ब्राह्मण वैश्य स्त्री से बालक प्राप्त करे तो वह ' अम्बष्ठ ' तथा शूद्र स्त्री से संतान पाए तो उसे ' निषाद ' तथा ' पारशव ' कहते हैं । ८ जो बालक क्षत्रिय द्वारा शूद्र स्त्री से जन्म लेता है वह क्रूर आचार-विचार का होता है । शारीरिक रूप से क्षत्रिय व शूद्र का मिश्रित रूप धारण करने वाला वह बालक उग्र स्वभाव होने के कारण ' उग्र बालक ' कहलाता है । ९ क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र स्त्रियों से ब्राह्मण द्वारा, अन्य दो वर्णों की स्त्रियों से क्षत्रिय द्वारा तथा वैश्य द्वारा एक वर्ण की स्त्री से उतपन्न इन छः प्रकार के बालकों को ' अपसद ' कहा जाता है । १० जो पुत्र क्षत्रिय द्वारा ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न हों उन्हें ' सूत ' तथा जो वैश्य द्वारा क्षत्रिय तथा ब्राह्मण स्त्री से जन्मा हो उन्हें क्रमशः ' मागध ' तथा ' वैदेह ' कहा जाता है । ११ वैश्य क्षत्रिय तथा ब्राह्मण स्त्री से शूद्र द्वारा जन्मे पुत्रों को क्रमशः ' आयोगव ', ' क्षत्ता ' व ' चाण्डाल ' कहा जाता है । ये मनुष्यों में वर्णसंकर समझे जाते हैं । १२ जिस प्रकार अनुलोम ( अर्थात् ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय व वैश्य आदि स्त्री से ) से जन्मे बालक ' अम्बष्ठ ' व 'उग्र ' कहलाते हैं उसी प्रकार प्रतिलोम ( अर्थात् क्षत्रिय द्वारा ब्राह्मण स्त्री से ) से उत्पन्न बालक को ' क्षतृ ' व ' वैदेह ' कहा जाता है । १३ क्रम से एक वर्ण नीचे की स्त्री से उत्पन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के पुत्र को माता दोष के कारण ' अनन्तर ' कहा जाता है । १४ ' उग्र ' कन्या से ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न पुत्र को ' आवृत्त ' अम्बष्ठ कन्या से जन्मे बालक को ' आभीर ' तथा आयोगव स्त्री से जन्मे बालक को ' धिग्वम ' कहा जाता है । १५ अधर्म से उत्पन्न आयोगव, क्षत्ता व चाण्डाल नामक तीन संतानें प्रतिलोम से जन्मे शूद्र से भी नीच मानी जाती हैं । १६ जैसा कि पहले वर्णन किया गया, वैश्य द्वारा उत्पन्न ' मागध ' और ' वैदेह ' तथा क्षत्रिय द्वारा जन्मे ' सूत ' को भी प्रतिलोम संतान होने के कारण अत्यन्त तुच्छ माना जाता है । १७ शूद्र स्त्री से निषाद द्वारा जन्मी संतान की जाति ' पुक्कस ' व निषाद स्त्री से शूद्र द्वारा जन्मी संतान की जाति ' कुक्कुटक ' मानी जाती है । १८ उग्र कन्या से क्षत्ता द्वारा जन्मी संतान ' श्वपाक ' तथा अम्बष्ठ कन्या से वैदेह द्वारा जन्मी संतान ' वेण ' जाति की समझी गई है । १९ अपनी सवर्णा स्त्रियों से भी द्विजाति पुरुषों द्वारा जिन असंस्कारी पुत्रों का जन्म होता है, उपनयन संस्कार व गायत्री मंत्र से भ्रष्ट उन पुत्रों को ' व्रात्य ' कहा जाना चाहिए । २० जो पापात्मा व्रात्य ब्राह्मण से उत्पन्न होता है उसे ' भूर्जकण्टक ' कहा जाता है । देश भेद से इसी प्रकार की संतान का नाम ' आवन्त्य ', ' वाटधान ', ' पुष्पध ' और ' शैख ' भी हैं । २१ जो पुत्र व्रात्य क्षत्रिय से उत्पन्न होता है उसे ' झल्ल ', ' मल्ल ', 'निच्छिवि ', ' नट ', ' करण ', ' खस ' व द्रविड़ कहा जाता है । २२ जो व्रात्य वैश्य से उत्पन्न हो उसे सुधन्वा, आचार्य, कारूष, विजन्मा, मैत्र व सत्वत भी कहा गया है । २३ सभी वर्णों के पुरुषों द्वारा व्यभिचार करने तथा अगम्या स्त्री से सम्बन्ध स्थापित करने तथा स्वकर्म का त्याग करने के फलस्वरूप वर्णसंकर संतान का जन्म होता है । २४ महर्षियों, अब मैं प्रतिलोम व अनुलोम जातियों के परस्पर सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली संकीर्ण योनियों का विस्तार से वर्णन करता हूं । २५,२६ यदि सूत, वैदेह, अधम, चाण्डाल, मागध, क्षतृ तथा आयोगव - ये छः अपनी ही जाति की स्त्री से संतानोत्पत्ति करते हैं तो वह संतान इन्हीं की जाति को धारण करती है किंतु इनके द्वारा यदि उच्च जाति क स्त्री से संतान जन्मे तो वह अपनी माता की जाति में गिनी जाएगी । २७ ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य - इन तीन वर्णों के लोगों द्वारा जिस प्रकार समर्णा से उत्पन्न संतान में ही उनकी आत्मा होती है किन्तु विजातीय से उत्पन्न संतान भिन्न जाति की मानी जाति है - उसी प्रकार इन बाह्म वर्ण संकरों के क्रम को भी मानें । २८ यदि आयोगव आदि नीच जातियों के लोग एक-दूसरे की स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो उनसे भी अधिक दुष्ट व निन्दनीय संतान उत्पन्न होती है । २९ जिस तरह ब्राह्मण स्त्री से शूद्र द्वारा उत्पन्न संतान अधम मानी जाती है उसी तरह यह अधम संतान यदि अपने से इतर जाति में सम्बन्ध स्थापित करती है तो और भी निकृष्ट संतान को उत्पन्न करती है । इस तरह से वर्ण संकरता में निकृष्टता स्तर बढ़ता जाता है । ३० अधम, सूत, वैदेह व चाण्डाल प्रतिकूल आचरण करने के फलस्वरूप चारों वर्णों की स्त्रियों से निकृष्टतर संतान को जन्म देते हैं जो कुल मिलाकर पन्द्रह कही गई हैं । ३१ सौंदर्य प्रसाधन लगाने, चरणादि धोने, स्नानादि करवाने जैसे दास कर्म करने वाले तथा जाल में बांधकर आजीविका चलाने वाले सैरिन्ध्र दस्यु से आयोगव संतान का जन्म होता है । ३२ वैदेह पुरुष के द्वारा आयोगव स्त्री से मधुभाषी ' मैत्रेयक ' का जन्म होता है, जिसका कार्य है - प्रातःकाल घंटा यदि बनाकर राजा की स्तुति करना । ३३ निषाद के द्वारा आयोगव स्त्री से ' भार्गव ' दास का जन्म होता है जो नौका कर्म से जीवन यापन करता है । आर्यावर्त में इसी को ' कैवर्त ' कहा जाता है । ३४ जो आयोगव स्त्री मृतक के वस्त्र पहने, गन्दा व त्याज्य भोजन खाए, वह निम्नोक्त तीन प्रकार की जातियों की संतान को जन्म देती है । ३५ ' करावर ' नाम वाले निषाद से, ' अन्ध्र ' व ' भेद ' नामक जाति के लोग वैदेह से उत्पन्न होते हैं - ये प्रायः ग्राम सीमा से बाहर रहते हैं । ३६ वैदेह स्त्री चाण्डाल द्वारा ' पाण्डु सोपाक ' जाति को उत्पन्न करती है । इस जाति के लोग बांस के सूप व पंखे बनाकर जीविकोपार्जन करते हैं । निषाद से वह ' आहिण्डक ' जाति को पैदा करती है । ३७ चाण्डाल द्वारा पुक्कसी ' सोपाक ' को उत्पन्न करती है, जिसका जल्लाद कर्म होता है । वह पापात्मा सज्जनों द्वारा सदा ही निन्दनीय रहता है । ३८ चाण्डाल द्वारा निषाद स्त्री अत्यंत निन्दनीय व चाण्डाल में भी सर्वथा निकृष्ट तथा श्मशान में रहकर उसी वृत्ति को स्वीकारने वाले पुत्र को जन्म देती है । ३९ ब्राह्मणों ! मैंने आपको माता-पिता के भेद से उत्पन्न वर्णसंकर जातियों के बारे में बतलाया । शेष प्रच्छन्न अथवा प्रकट वर्णसंकर जातियों को उनेक कर्मों द्वारा जानना चाहिए । ४० जो छः पुत्र द्वजातियों द्वारा अनुलोम से उत्पन्न होते हैं वे तो द्विजधर्मी हैं किंतु प्रतिलोम से उत्पन्न उनके सभी पुत्र शूद्र तुल्य होते हैं । ४१ तप व बीज के प्रभाव से ही हर युग में उत्पन्न मनुष्य अपने जन्म के उत्कर्ष व अपकर्ष को प्राप्त करते रहते हैं । ४२ अपने कर्तव्य-कर्मों के परित्याग से निम्नलिखित क्षत्रिय जातियों ब्राह्मणों द्वारा तिरस्कृत होने पर धिरे-धिरे शूद्र तुल्य हो गई । ४३ ये जातियां हैं - पौंड्रक, औंड्र, द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद, अपह्लव, चीन, किरात, दरद तथा खश । ४४ मुंह, बाहु, उरु तथा पद ( क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ) वर्ण के लोगों द्वारा अपने कर्तव्यों का त्याग करने से जन्मी अधर्म जातियां दस्यु कहलाती हैं - चाहे वे म्लेच्छ भाषा के बोलने वाले हों या आर्य भाषी । ४५ जो लोग द्विजों द्वारा अनुलोम से उत्पन्न अपसद व प्रतिलोम से जन्मे अपध्वंस पुत्र हों उन्हें द्विजों के निन्दित कर्मों अर्थात् सफाई, वस्त्र प्रक्षालन आदि सेवा कार्यों से ही जीविकोपार्जन करना चाहिए । ४६ सूत, अम्बष्ठ, वैदेह व मागध जाति के लोग क्रमशः सारथि, चिकित्सा, अंतःपूर की देखभाल तथा व्यापार करें । ४७ मछली पकड़ना तथा लकड़ी चीरना क्रमशः निषादों व आयोगवों का कार्य है मेदों, अन्ध्रों, चुंचुओं व मदगुओं का काम जंगली पशुओं का वध करना कहा गया है । ४८ बिल में रहने वाले पशुओं को बींधना तथा मारना क्षत्ता, उग्र व पुक्कस जाति के लोगों का कार्य है । चमड़े का सामान बनाना धिग्वणों का तथा बाजा बजाना, वेणों का कार्य है । ४९ इन सभी निकृष्ट जाति वालों को अपने निर्धारित कार्यों को करते हुए गांवों के निकट ( अर्थात् सीमा पर ) स्थित देवस्थानों में, वृक्षों के नीचे, श्मशान में, पर्वतों पर तथा उपवनों में रहना चाहिए । ५०,५१ चाण्डाल व श्वपच को ग्राम के बाहर रहना चाहिए, निषिद्ध पात्रों का प्रयोग करना चाहिए तथा अपने धन तुल्य कुत्तों व गधों को पालना चाहिए । इन्हें शवों से उतारे तथा फटे-पुराने पहनने चाहिए । इन दो जाति के लोगों के बर्तन मिट्टी के व आभूषण लोहे के होने चाहिए । इन्हें एक स्थान पर न ठहरकर भ्रमण करते रहना चाहिए । ५२ इन पतितों के साथ धर्मानुष्ठान करते समय किसी प्रकार का सम्पर्क व व्यवहार नहीं रखना चाहिए । पतित जातियों का व्यवहार व विवाह परस्पर ही होना चाहिए । ५३ अपने प्रयोग में न आने वाले पात्रों में इन लोगों को भोजन देना चाहिए व रात्रि में इन्हें नगर व ग्राम में विचरने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए । ५४ किसी विशेष कार्य के लिए ही ये लोग दिन में राजा की अनुमति से ही नगर व गांव में घूम सकते हैं । लावारिस शव ले जाने का अधिकार इनको है - शास्त्रों में यही कहा गया है । ५५ राजा की आज्ञा से मृत्युदण्ड प्राप्त लोगों का इन्हीं लोगों द्वारा शास्त्रानुसार वध करना चाहिए तथा मृतक के वस्त्र, श्यया और आभूषण ले लेना चाहिए । ५६ जो लोग परिवर्तित रूप-रंग के हों, वर्णसंकर होने पर भी वास्तविक रूप में पहचान न आते हों, आर्य दिखते हों किंतु अनार्य - ऐसे निकृष्ट लोगों की परख उनके कार्य व व्यवहार से होनी चाहिए । ५७ व्यक्ति के नीच कुल का परिचय उसका उसभ्य आचरण, वाणी की कठोरता, व्यवहार की निर्दयता व कर्मानुष्ठान का अभाव देते हैं । ५८ जो बालक वर्णसंकर से उत्पन्न होता है वह अपने माता-पिता दोनों की प्रकृति को ग्रहण करता है लेकिन वह अपनी असलियत को गुप्त नहीं रख पाता । ५९ प्रच्छन्न वर्णसंकर यदि बड़े कुल में जन्मा हो तो भी अपनी माता के स्वभाव को थोड़ा-बहुत अवश्य ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सच्चाई भी गुप्त नहीं रह पाती । ६० वह राज्य जहां वर्णसंकरों का बाहुल्य हो शीघ्र नष्ट हो जाता है । वहां के निवासियों का भी शीघ्र ही पतन हो जाता है । ६१ यदि ये पतित लोग ब्राह्मण, गौ, स्त्री तथा बालक की रक्षा हेतु प्राण त्याग दें तो वे उच्च पद प्राप्त करते हैं । ६२ चारों वर्णों के लिए मनु जी के अनुसार आचरण भी योग्य धर्म हैं - हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्रता व इंद्रियों पर संयम । ६३ ब्राह्मण द्वारा स्त्री से उत्पन्न कन्या भी कभी-कभी कल्याण का माध्यम बन जाती है । जब उसकी सात पीढ़ियां निरन्तर ब्राह्मण से विवाह् करती रहें तो सातवीं पीढ़ी में जन्मी संतान ब्राह्मणत्व को प्राप्त होती है । ६४ जिस प्रकार शूद्र ब्राह्मणत्व को व ब्राह्मण शूद्रता को पा लेता है । उसी तरह क्षत्रिय तथा वैश्य से जन्मे बालक भी अपने जन्म से इतर वर्ण को पा लेते हैं । ६५ यदि ब्राह्मण द्वारा स्त्री से और शूद्र द्वारा ब्राह्मण स्त्री के गर्भ से संयोगवश बालक जन्म लेते हैं, तो उसमें श्रेष्ठता का निष्कर्ष इस प्रकार निकाल सकते हैं । ६६ आर्य द्वारा अर्नाय स्त्री के गर्भ से उतपन्न बालक आर्य गुणों से युक्त हो सकता है व होता है जबकि अनार्य द्वारा आर्य स्त्री के गर्भ से जन्मा बालक गुण-युक्त नहीं हो सकता - यह निश्चित है । ६७ धर्म मर्यादा के अनुसार ये दोनों ही उपनयन के अयोग्य हैं, क्योंकि एक जाति से हीन है तथा दूसरा प्रतिलोम द्वारा जन्मा है । ६८ आर्य द्वारा आर्य स्त्री के गर्भ से जन्मा बालक उपनयनादि संस्कार के योग्य होता है जिस प्रकार अच्छे क्षेत्र में बीज का संवर्द्धन ( फलना-फूलना ) अपेक्षित ही होता है । ६९ कुछ विद्वज्जन बीज को, कुछ क्षेत्र को और अन्य दोनों अर्थात् बीज व क्षेत्र को श्रेष्ठ मानते हैं । वास्तविकता यह है - ७०,७१ जो बीज ऊसर क्षेत्र में डाला गया हो वह धरती के नीचे ही नष्ट हो जाता है और यदि बीज घटिया हो तो उपजाऊ क्षेत्र भी व्यर्थ हो जाता है । इस तरह क्षेत्र व बीज दोनों का समान महत्व है । फिर भी बीज के प्रभाव पक्षी योनि में उत्पन्न प्राणी ( ऋष्य ऋंग ऋषि ) पूजनीय व सम्मनीय ऋषि बने -इससे बीज की श्रेष्ठता सिद्ध होती है । ७२ श्रेष्ठ कर्म करने वाले अनार्य व नीच कर्म करने वाले आर्य को न तो समान कह सकते हैं न ही असमान - ब्रह्मा जी का यही मत है । ७३ जो ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मण स्त्री के गर्भ से जन्मा हो तथा अपने लिए निश्चित कर्मों में उद्यत हो उसे आगे कहे गए छः कर्मों को विधिपूर्वक करना चाहिए । ७४ वेद विद्याध्ययन व वेद पढ़ाना, यज्ञ करना तथा कराना और दान लेना व देना - ये ब्राह्मण के छः कर्तव्य कर्म हैं । ७५ इन छः में से पढ़ाना, यज्ञ कराना और शुद्ध व्यक्तियों से दान लेना -इन तीन कर्मों से ब्राह्मण की आजीविका चलती है । ७६ जो छः धर्म के लिए बताए गए हैं उनमें से तीन - वेद पढ़ना, यज्ञ करना व दान देना - कर्म क्षत्रिय के लिए छोड़े गए हैं । ७७ प्रजापति मनु का मत है कि वैश्य के भी यही तीन कर्म हैं - पढ़ाना, यज्ञ करना व दान देना । ७८ जिस प्रकार क्षत्रिय के लिए जीविकोपार्जन के कर्म हैं - शस्त्र-अस्त्र धारण करना और वैश्यों के लिए पशुपालन व कृषि करना, उसी प्रकार दान देना, वेद पढ़ना व यज्ञ करना इन दोनों वर्णों का धर्म माना जाता है । ७९ इन तीनों वर्णों के विविध कर्मों में क्रमशः ब्राह्मण का वेदाभ्यास, क्षत्रिय का रक्षा करना व वैश्य का व्यापार करना - विशिष्ट कर्म हैं । ८०,८१ यदि अपने यथोक्त कर्म - अध्यापन, याजन तथा प्रतिग्रह द्वारा ब्राह्मण अपनी जीविका नहीं चला पाता तो उसे आपातकालीन धर्म के अनुसार क्षत्रिय धर्म से जीविकोपार्जन करना चाहिए । यदि वह ब्राह्मण कर्म व क्षत्रिय कर्म से भी जीविका न चला पाए तो वैश्य के कृषि व पशुपालन कर्म का पालन करे । ८२ आपातकाल में भी ब्राह्मण व क्षत्रिय द्वारा वैश्य कर्म को अपनाने पर उनके लिए हिंसा व दूसरे के अधीन कृषि वर्जित है । ८३ कुछ लोग कृषि को अच्छा व्यवसाय मानते हैं किन्तु सज्जन इसे दोषपूर्ण व निन्दित समझते हैं क्योंकि लकड़ी के हत्थे वाले लोहे के यंत्रों से धरती व धरती के भीतर रहने वाले जीवों की हत्या हो जाती है । ८४ यदि ब्राह्मण व क्षत्रिय अपने निर्धारित कर्मों से जीविका न चला पाएं तो वे कुछ द्रव्यों को छोड़कर धन वृद्धि करने वाले व्यापार कर सकते हैं । ८५ वणिक कर्म करते हुए ब्राह्मण व क्षत्रिय को आपातकाल में सम्पूर्ण रसों, पके अन्न, तिल, सेंधा नमक तथा पालतू पशुओं का व्यापार नहीं करना चाहिए । ८६,८७,८८ ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मण व क्षत्रिय सभी रंगों के तथा सन के वस्त्र, रंगे या बिना रंग के ऊनी वस्त्र, फल, कन्दमूल, औषधियां, जल, शस्त्र, विष, मांस, सोमलता, सब तरह के इत्र, दूध, शहद, दही, घी, तेल, गुड़ व कुशाओं को न बेचें । ८९ किसान या वैश्य द्वारा कृषि से उत्पादित व बहुत दिनों से शुद्ध पड़े तिल को किसी धार्मिक कार्य की पूर्ति के लिए चाहे, तो शूद्र को बेच देना चाहिए । ९० जो व्यक्ति तिलों को भोजन, अभ्यंजन व दान के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य के लिए बेचता है वह स्वयं तो कुत्ते की विष्ठा का कीड़ा बनता है, अनपे पितरों को भी अपने साथ पतित कर देता है । ९१ वह ब्राह्मण तुरंत भ्रष्ट हो जाता है जो मांस, लाख और नमक का व्यापार करे । दूध बेचने वाला ब्रह्मण तो तीन दिन में ही शूद्र तुल्य हो जाता है । ९२ इन पदार्थों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की स्वेच्छा से खरीद-बेच करने वाला ब्राह्मण सात दिनों में वैश्य हो जाता है । ९३ तरल पदार्थों - तेल, घी आदि को रसमय पदार्थों - गुड़ दुग्धादि से विनिमय कर लेना चाहिए, किन्तु नमक का रसों से विनिमय न करना चाहिए । पके अन्न का कच्चे अन्नसे तथा तिल का धान्य से विनिमय हो सकता है । ९४ क्षत्रिय संकट की स्थिति में वैश्य वृत्ति को तो अपना सकता है किंतु वह किसी भी आपत्तिवश अपने से ऊंचे वर्ण के ब्राह्मम के कर्म को न अपनाए । ९५ यदि कोई निकृष्ट जाति का व्यक्ति लोभवश उच्च जाति के कर्म को अपना ले तो राजा को उसका सब कुछ छीन कर उसे देश से निर्वासित कर देना चाहिए । ९६ स्वधर्म चाहे कितना ही तुच्छ व निस्सार क्यों न हो वह श्रेष्ठ व आचरण योग्य होता है । दूसरे के धर्म को अपनाना अनुचित है । ऐसा करने वाला अपनी जाति से भी भ्रष्ट हो जाता है । ९७ वह वैश्य जो अपने निर्धारित कर्म से जीविकोपार्जन नहीं कर पाता, भले ही शूद्र के कर्म को अपना ले लेकिन उसे अपने से उच्चे वर्ण की वृत्ति को न करने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए । ९८ वह शूद्र जो द्विजातीय की सेवा से अपने पुत्र व पत्नी का भरण-पोषण न कर पाए उसे कारुक ( लकड़ी की मूर्तियां बनाने का ) कर्म से जीविकोपार्जन करना चाहिए । ९९ उन विविध प्रकार के शिल्प को कारुक कर्म कहा जाता है, जिनके प्रचार से द्विजातियों का उपकार होता है । १०० जो ब्राह्मण जीविका के संकट को सहते हुए स्वधर्म पर दृढ़ रहे तथा वैश्य वृत्ति को न अपनाए - उसे पात्र-कुपात्र सभी से दान ले लेना चाहिए क्योंकि पवित्र कभी कलुषित नहीं होता । यह धर्म का विधान है । १०१ संकट की स्थिति में ब्राह्मण द्वारा निन्दित व्यक्ति को पढ़ाने, उसका यज्ञ कराने व उससे दान लेने में उसे दोष नहीं लगता क्योंकि ब्राह्मण तो अग्नि व जल की भांति सदैव पवित्र होते हैं । १०२ अजीगर्त नाम के ऋषि ने भूख से त्रस्त होने पर अपने पुत्र को मारकर खाने का निश्चय किया था किंतु वे भूख का यह उपचार करने पर भी पाप ग्रस्त न हुए । १०३ विपत्ति में फंसे तथा धर्म-अधर्म के विवेक में समर्थ महर्षि वामदेव ने प्राणों की रक्षा के लिए कुत्ते का मांस खाने का निश्चय किया किन्तु वे भी किसी पाप के भागी न हुए । १०४ निर्जन वन में अपने पुत्र के साथ भूख से अत्यंत पीड़ित होने पर महातपी महर्षि भारद्वाज ने वृधु नामक तरखान की अनेक गायों का भक्षण किया । उन्हें भी इसका कोई दोष न लगा । १०५ महर्षि विश्वामित्र, जो धर्म-अधर्म के विवेक में विलक्षण थे, भूख से पीड़ित होने पर चाण्डाल के हाथ से कुत्ते की जांघ का मांस खाने को तैयार हो गए थे । वे भी पाप से कलंकित न हुए । १०६ कुपात्र को पढ़ाना, उससे यज्ञ कराना तथा उससे दान लेना - इनमें से दान लेना सबसे निकृष्ट कार्य है तथा परलोक को बिगाड़ता है । इसलिए पतित व्यक्ति के दान से ब्राह्मण को बचना चाहिए । अध्यापन व याजन से प्राप्त धन से ही जीविका अर्जित कर लेनी चाहिए । १०७ अध्यापन व याजन तो संस्कारी व्यक्ति को ही कराया जाता है । पतित होने पर भी ऐसे व्यक्ति द्विज तो होते ही हैं किंतु दान अंत्यज शूद्र से भी ग्रहण किया जा सकता है - अतः ऐसा दान लेने से यथासम्भव बचना चाहिए । १०८ पतित व्यक्ति को पढ़ाने व याजन कराने से लगने वाले पाप का परिहार ब्राह्मण को जप व होम से करना चाहिए तथा दान लेने से लगे पाप का प्रायश्चित त्याग व तप से होना चाहिए । १०९ सदवृत्ति से जीविकोपार्जन न कर पाने की स्थिति में ब्राह्मण को चाहिए कि कुपात्र को पढ़ाने व याजन कराने की अपेक्षा शिलोञ्छ का आश्रय ले । शिल ( खेत में बिखरे अन्न को चुनना ) कुपात्र के दान से श्रेष्ठ होता है तथा उंछ ( खेत स् घर ले जाते हुए मार्ग में जा बिखरे अन्न को चुनना ) शिल की तुलना में उत्तम होता है । ११० जो स्नातक ब्राह्मण धन-धान्य के अभाव से ग्रस्त हों तथा परिवार के पोषण की चिंता से व्याकुल हों, उन्हें राजा से निवेदन करनी चाहिए । वह राजा सर्वथा त्याज्य है जो स्नातक ब्राह्मणों को निराश करे । १११ अकृत खेत से कृत खेत, गाय, बकरी, भेड़, सोना, धान्य व अन्न में से पूर्व-पूर्व में अपेक्षाकृत कम दोष होता है । अज से धान्य से स्वर्ण में, स्वर्ण की अपेक्षा भेड़, बकरी, गाय तथा अकृत खेत को ग्रहण करने में कम दोष लगता है । ११२ इन सात प्रकार के धनों की प्राप्त धर्म व शास्त्र के अनुकूल होती है - १. उत्तराधिकार से प्राप्त धन २. भूमि आदि में पूर्वजों के गड़े हुए धन की प्राप्ति ३. सस्ती वस्तु के क्रय से हुआ धन-लाभ ४. युद्ध में विजय से प्राप्त धन ५. ब्याज व कृषि से मिला हुआ धन ६.नैकरी आदि से वेतन के रूप में मिला धन तथा ७. सज्जन व्यक्ति से मिला हुआ दान । ११३ विद्याध्ययन, शिल्प, नौकरी, चाकरी, पशुपालन, वयापार, कृषि, संतोष ( सम्पत्ति से होने वाली आय से ही संतुष्ट हो जाना ) भीख मांगना तथा ब्याज लेना - जीविकोपार्जन के ये दस साधन माने गए हैं । ११४ ब्याज से धन कमाने के बारे में ब्राह्मण व क्षत्रिय को सोचना भी न चाहिए । किंतु विपत्ति के समय धर्मकार्य को करने के लिए किसी निकृष्ट व्यक्ति को थोड़ा सा धन देकर उससे थोड़ा सा ब्याज अवश्य लिया जा सकता है । ११५ जो राजा आपत्ति काल में नीच को दिए गए धन का चौथा भाग ब्याज के रूप में प्राप्त करता है वह पूरी सामर्थ्य से प्रजा की रक्षा करने में तत्पर होकर इस दोष से मुक्ति पा लेता है । ११६ राजा का धर्म है कि वह युद्ध में विजय प्राप्त करे । पीठ दिखा कर पलायन करना उसके लिए सर्वथा अनुचित है । शास्त्र के अनुसार वही राजा प्रजा से कर लेने का अधिकारी है जो प्रजा की रक्षा करता है । ११७ संकट काल में राजा को वैश्यों से धान्य के लाभ का आठवां भाग, स्वर्णादि के लाभ का बीसवां भाग कर के रूप में वसूलना चाहिए । किन्तु शूद्र, शिल्पकारों व बढ़ाई आदि से कोई कर नहीं लेना चाहिए क्योंकि वे तो अपना ही निर्वाह कठिनाई से कर पाते हैं । ११८ जो शूद्र जीविकोपार्जन करना चाहता है उसे क्षत्रिय की सेवा करनी चाहिए अथवा वह किसी धनिक वैश्य की सेवा में नियुक्त हो जाए । ११९ वह शूद्र जो जीवन में जीविकोपार्जन की तथा मृत्यु उपरांत स्वर्ग लाभ की इच्छा करता है, उसे ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए । ब्राह्मण का सेवक बन शूद्र का जीवन सार्थक हो जाता है । १२० शूद्र के सभी कर्मों में ब्राह्मण की सेवा ही अति विशिष्ट कर्म है । इसके अतिरिक्त वह जो भी करता है, वह सब निष्फल अर्थात् व्यर्थ ही होता है । १२१ शूद्र को परिचारक नियुक्त करते समय द्विजों को उसकी कार्यक्षमता, कार्य रुचि, विश्वसनीयता, उसके परिवार, अपने घर की स्थिति तथा कार्य का स्वरूप देखकर ही उसका वेतन निश्चित करना चाहिए । १२२ भोजन के पश्चात् शेष अन्न, पुराने वस्त्र, धान्य की छूटन तथा पुराने बर्तनसे सब शूद्र सेवक को दे देने चाहिए । १२३ जो शूद्र द्विजों के घर सेवा में नियुक्त होता है उसे कोई पाप नहीं लगता न ही उसके लिए किसी प्रकार की शुद्धि का कोई नियम है । द्विजों के धर्मकार्य में शामिल होने का उसे कोई अधिकार नहीं । इसलिए उसके विषय में निषेध का कोई नियम नहीं है । १२४ वे शूद्र जो धर्मकार्यों में रुचि रखते हैं तथा धर्म के तत्व को जानते हैं - मंत्रों में निषिद्ध कार्यों को करते हुए भी पापग्रस्त न होकर प्रशंसा पाते हैं । १२५ जैसे-जैसे शूद्र सदवृत्ति का पालन करते हुए द्विजातियों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष त्यागकर शास्त्रोक्त विधान को ईश्वरीय विधान मानकर सहज रूप से स्वीकारता चलता है - वैसे-वैसे उसे इस लोक तथा परलोक में उच्चता प्राप्त होने लगती है । १२६ शूद्र यदि समर्थ है तो भी उसे धन संचय नहीं करना चाहिए क्योंकि धनवान बनने के बाद शूद्र ब्राह्मणको पीड़ित करने लगता है । परिणामस्वरूप और भी अधिक पतित हो जाता है । १२७ भृगु जी ने कहा - विप्रो ! मैंने आप लोगों को चारों वर्णों के आपातकालीन धर्म के विषय में बतलाया । इनका पालन करने से वे मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं । १२८ जो मैंने अभी आपको बतलाई वही चारों वर्णों की सम्पूर्ण धर्म विधि है । अब मैं आपको इन धर्मों के अनुष्ठान में आए दोषों के प्रायश्चित के नियम बताऊंगा । एकादश अध्याय १,२ सन्तान हेतु विवाह के इच्छुक, यज्ञ-यागादि के इच्छुक, मार्ग चलने वाले, सभी वदों के ज्ञाता, गुरु, माता, पिता के लिए धनाकांक्षी, स्वाध्याय करने वाला विद्यार्थी तथा रोगी - इन नौ प्रकार के स्नातकों को इनकी आवश्यकतानुसार दान-दक्षिण देनी चाहिए । ३ इन द्विजाग्रो को दक्षणा के साथ अन्न भी देना चाहिए । शेष अन्य को वेदी के बाहर पके हुए अन्न को देने का नियम है । ४ वेद-विद्या के विद्वान ब्राह्मणों को यज्ञ के लिए तथा पुरोहितों को दान-दक्षिणा देने के लिए राजा द्वारा रत्न व धन दिए जाने चाहिए । ५ पूर्व विवाहित पुरुष यदि भिक्षा मांग कर पुनर्विवाह करता है तो उसको दूसरी पत्नी से केवल रतिभोग का सुख हकी प्राप्त होता है । उसके गर्भ से उत्पन्न संतान पर विवाह के लिए धन देने वाले का अधिकार होता है । ६ जो ब्राह्मण वेदों के ज्ञाता हैं तथा निसंग हैं - उन्हें जितना सम्भव हो, उतना दान देना चाहिए । इससे दान देने वाले को स्वर्ग की प्राप्त होती है । ७ जिस व्यक्ति के पास तीन अथवा तीन वर्षों से अधिक परिवार सहित अपने भरण-पोषण के लिए धन है, वह सोमयज्ञ करने का अधिकारी होता है । ८ इस निश्चित मात्रा से कम धन होने पर जो सोमयज्ञ करता है उसका प्रथम सोमयज्ञ ही व्यर्थ हो जाता है फिर दूसरे की तो क्या कहें । ९ जो व्यक्ति स्वजनों द्वारा कष्ट से पीड़ित होने पर भी अपरिचितों को दान देता है वह मानो मधु को तज कर विष ग्रहण करता है । १० वह व्यक्ति जो खुद पर आश्रित स्त्री-पुरुषों को वंचित रखकर परलोक सुधारने के लिए दान-पुण्यादि करता है उसके लिए यह दान जीवन में व परलोक में दुखदायक ही सिद्ध होता है । ११,१२ धार्मिक राजा के शासन में द्विजातियों के -विशेषकर ब्राह्मण के यज्ञ का यदि कोई एक अंग सम्पन्न नहीं हो पाता तो उसके लिए अपेक्षित धन साधन-सम्पन्न किन्तु यज्ञ न करने वाले विशेषकर सोमयज्ञ रहित वैश्य से ग्रहण करना चाहिए । १३ यदि यज्ञ के दो या तीन अंग किसी कारणवश पूरे न हुए हों तो शूद्र के घर से भी द्रव्य ले लेना चाहिए क्योंकि वैसे भी यज्ञ में शूद्र का कुछ खर्च नहीं होता है । १४ सौ गायों का स्वामी यदि अग्नहोत्र न हो तथा अन्य धनपति हजार गायों के परिमित धन का स्वामी होने पर भी यजनशील न हो तो राजा को यज्ञ पूर्ति के लिए इन दोनों परिवारों से बिना सोच-विचार के धन ले लेना चाहिए । १५ यदि एक व्यक्ति नित्य दान के रूप में धन लेता तो है किंतु देता कभी नहीं तो ऐसे व्यक्ति के घर से उसकी अनिच्छा के बावजूद धन ले लेना चाहिए । इससे उसी व्यक्ति का यश व धन संवर्द्धन होता है । १६ ऐसे हीन कर्मी व्यक्ति से, चाहे वह तीन दिन से भूखा ही क्यों न हो, उसके पास अगले भोजन लायक धन छोड़कर शेष धन यज्ञ कार्य के लिए ले लेना चाहिए । धन होते हुए भी उसका उपयोग न करने वाले कंजूस धनी के लिए यही विधान नियत किया गया है । १७ इस प्रकार के व्यक्ति का धन खेत से, घर से अथवा जहां से भी मिले तत्काल ले लेना चाहिए । यदि धनपति पूछे तो उसे बता देना चाहिए कि छः समय के भोजन जितना ही धन लिया गया है । १८ ऊपर वर्णित परिस्थिति में भी क्षत्रिय द्वारा ब्राह्मण की वस्तु कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए । आवश्यकता पड़ने पर क्षत्रिय दस्यु व निष्क्रय व्यक्ति का धन ही छीने । १९ जो व्यक्ति असाधुओं से धन लेकर साधुओं को देता है वह मानो स्वयं को नाव बनाकर उन दोनों का ही उद्धार करता है । २० विद्वज्जनों के अनुसार यजन करने वालों के धन को ' देवधन ' व यजन न करने वालों के धन को ' असुरधन ' माना गया है । २१ धार्मिक राजा को छः समय के भूखे ब्राह्मण को आर्थिक दण्ड नहीं देना चाहिए । क्षत्रिय राजा की मूर्खता से ही ब्राह्मण भूख से पीड़ित होता है । २२ इसके विपरित उस ब्राह्मण पर निर्भर परिवार के सदस्यों, उसकी विद्या व चरित्र को जानकर राजा द्वारा उस ब्राह्मण के अनुकूल जीविकोपार्जन की व्यवस्था होनी चाहिए । २३ जो राजा ऐसे ब्राह्मण की आजीविका की व्यवस्था करके उसे सब प्रकार की सुरक्षा प्रदान करता है, वह उस ब्राह्मण द्वारा आचारित धर्म के छठे भाग अधिकारी होता है । २४ यज्ञ के लिए ब्राह्मण को शूद्र से धन की याचना कभी नहीं करनी चाहिए । शूद्र से धन लेने वाला यजनशील ब्राह्मण भी मृत्यु उपरांत चाण्डाल योनि में जन्म पाता है । २५ यज्ञ के लिए भिक्षा मांग कर उस सारे धन को यज्ञ में ने लगाने वाला व्यक्ति सौ वर्षों तक चिड़िया या कौए की योनि में जन्म लेता है । २६ देवधन व ब्राह्मण के धन का लोभवश हरण करने वाला दुरात्मा अगले जन्म में गीध की जूठन ग्रहण करके जीवन चलाता है । २७ यदि किसी ब्राह्मण ने अब्दपर्यय - एक वर्ष की समाप्ति व दूसरे वर्ष के आरम्भ के अवसर पर सोमयज्ञ करने के उद्देश्य से शूद्रादि से धन लिया हो तो इस दोष के निवारण के लिए उसे प्रायश्चित के रूप में वैश्वानरी यज्ञ करना चाहिए । २८ आपतकाल में मृत्यु से भयभीत होकर सभी देवों, साध्यगणों, ब्राह्मणों व महर्षियों ने विधि के प्रतिनिधि के रूप में आपद धर्म निर्धारित किया है । २९ विद्वानों का मत है कि यदि ब्राह्मण द्वारा आपातकालीन धर्म का आचरण सामान्य परिस्थिति में किया जाता है, तो उसका कर्म परलोक में निष्फल हो जाता है । ३० वेदों के अनुसार सामान्य स्थिति में अनुष्ठान के विधान में समर्थ व्यक्ति यदि आपातकालीन अनुष्ठानों का आसरा लेता है तो उसे पारलौकिक फल प्राप्त नहीं होते । ३१ यदि ब्राह्मण को किसी से थोड़ी-बहुत हानि होती है तो उसे इसकी शिकायत राजा से न करके अपने ही सामर्थ्य से उन अपकारी लोगों को समझाने का प्रयास करना चाहिए । ३२ स्वयं अपनी क्षति पूर्ति का प्रयास करने का कारण बताते हुए महर्षि भृगु कहते हैं - ब्राह्मण की अपनी शक्ति राजा व उसकी शक्ति से निश्चित रूप से अधिक महत्वपूर्ण है । अतः ब्राह्मण को चाहिए कि वह अपने विरोधियों को अपनी ही सामर्थ्य से वश में करने का प्रयत्न करे । ३३ अपने अपकारियों को अनुशासित करने के लिए ब्राह्मण को बिना विचारे ही अथर्ववेद के अभीचार परक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए । ब्राह्मण की वाणी ही उसका बहुत बड़ा शस्त्र है । अपने शत्रुओं को ब्राह्मण इसी शस्त्र से परास्त करे । ३४ क्षत्रिय अपने बाहुबल से, वैश्य व शूद्र धन से तथा ब्राह्मण जय एवं यज्ञहवनादि से अपने ऊपर आए संकट से अपना उद्धार करें । ३५ सब कर्मों का अनुष्ठान कराने वाला होने के कारण ब्राह्मण विधाता, वेद-विद्या का शिक्षण करने व अधर्म को वश में रखने वाला होने से शास्ता व सत्य का व्याख्याता होने से वक्ता है । इन रूपों में ब्राह्मण सभी वर्णों का मित्र होता है । अतः मनुष्य को चाहिए कि उनके प्रति अनुचित व रूखी वाणी कभी न बोले । ३६ कन्या अथवा युवती, अल्पशिक्षित, मूर्ख, रोगी और पापाचारी को अग्निहोत्र का होता कदापि न बनाएं । ३७ यदि कन्या या रोगी को होता बनाया जाए तो वे स्वयं को और यजमान को नरक धकेलते हैं । अतः वेद के ज्ञाता तथा श्रौत्र कर्म में कुशल विद्वान व्यक्ति को ही होता कर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए । ३८ अश्वमेध यज्ञ में प्रजापति हेतु अशव व अग्नयाधेय की दक्षिणा धन होने पर भी न देने से ब्राह्मण अनाहिताग्नि हो जाता है जिससे यजमान को यज्ञादि का फल प्राप्त नहीं होता । ३९ जो श्रद्धलु व जितेन्द्रिय यजमान प्रचुर मात्रा में दक्षिणा देने में असमर्थ है, उसे अन्य पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए किंतु किसी भी परिस्थिति में वह कम दक्षीणा वाला यज्ञ न करे । ४० कम दक्षिणा वाला यज्ञ इन्द्रियों, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, संतान व पशुओं का विनाश करता है । अतः यजमान को चाहिए कि कभी कम दक्षिणा वाला यज्ञ न करे । ४१ स्वस्थ सकुशल होने पर यदि अग्निहोत्र ब्राह्मण लापरवाही से प्रातःकाल तथा सांयकाल यज्ञ नहीं करता तो उसका कर्तव्य है कि एक मास तक चान्द्रायण व्रत करे । यज्ञादि की उपेक्षा करना पुत्रहत्या तुल्य भयंकर पाप है । ४२ जो ब्राह्मण शूद्र से धन लेकर यज्ञ करते हैं वे शूद्र के ही ऋत्विज कहे जाते हैं व ब्राह्मवादियों में वे निन्दनीय होते हैं तथा उन्हें तुच्छ मानकर उनका अपमान किया जाता है । ४३ वे मूर्ख ब्राह्मण जो शूद्रों से धन लेकर उनका यज्ञ करते हैं, उनके सिर पर पैर रखकर शूद्र संकट से उबर जाते हैं किंतु ब्राह्मण का तिरस्कार हेता है । ४४ जो व्यक्ति वेदों में कहे गए कर्मों को नहीं करता, निनदनीय कार्यों को करता है तथा इन्द्रियों में आसक्त रहता है वह व्यक्ति प्रायश्चित करके ही पापमुक्त हो सकता है । ४५ कुछ विद्वानों के अनुसार अनिच्छा से किए गए पापों का प्रायश्चित होता है किंतु कुछ विद्वान इच्छा से किए गए पापों से भी मुक्ति के लिए प्रायश्चित होता है - ऐसा मानते हैं । ४६ जो पाप अनिच्छा से किया गया हो, उससे वेदाभ्यास द्वारा निवृत्त हुआ जा सकता है किंतु मोहवश किए गए पाप से मुक्ति अनेक प्रकार के प्रायश्चत को करने से ही होती है । ४७ यदि कोई ब्राह्मण दैववश या पूर्वजन्म के कर्मों के कारण प्रायश्चित का पात्र बन जाता है तो उसे बिना प्रायश्चित किए सज्ज्नों की संगति नहीं करनी चाहिए । ४८ इस जन्म में किए गए दुराचारों के कारण कुछ लोग अपयश के पात्र बनते हैं तो कुछ लोग पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण दुराचारी कहलाते हैं । ४९,५०,५१,५२ स्वर्ण चुरने वाला, गन्दे नाखूनों वाला, मदरा पीने वाला, गन्दे-मैले दांतों वाला, ब्रह्महत्या करने वाला, क्षयरोगी, गुरु पत्नी गामी, चर्मरोगी, चुगलखोर, दुर्गन्धित नासिका वाला, झूठी निन्दा करने वाला, अदर्शनीय, धन चुराने वाला, अंगहीन, धान्यादि में अभक्ष्य पदार्थ मिलाने वाला, अधिकांगी, अन्न चुराने वाला, मन्दाग्नि रोग से पीड़ित, वाणी का चोर, गूंगा, वस्त्रों की चोरी, श्वेत कोढ़ से ग्रस्त तथा घोड़े को चुराने वाला इत्यादि दुष्ट लोग सज्जनों द्वारा निन्दित होते हैं तथा मूर्ख, गूंगे, अन्धे बहरे व विकृत आकृति वाले पुरुष की योनि में जन्म लेते हैं । ५३ जो पाप लोग प्रायश्चित नहीं करते वे परिणामस्वरूप अगले जन्म में निन्दनीय लक्षणों शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित करे । ५४ चार कृत्य महापाप माने जाते हैं - ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी व गुरु पत्नी गमन । इन पापों को करने वालों के साथ कोई सम्बन्ध रखना भी पाप है । ५५ स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए झूठ बोलना, राजा से चुगली करना व गुरु को झूठी सूचना देना - ये भी ब्रह्महत्या के समान ही घोर पापा हैं । ५६ वेदों के स्वाध्याय का त्याग, वेदों की आलोचना, झूठी गवाही, मित्र हत्या, निन्दित लशुन का सेवन तथा अभक्ष्य का भक्षण मदिरापान तुल्य ही निन्दित कार्य हैं । ५७ रिसी री धरोहर, दास, अश्व, चांदी, जमीन, हीरे-मोती व पक्षियों की चोरी स्वर्ण की चोरी के समान ही मानी गई है । ५८ सगी बहन, चांडाल कुमारी, मित्र की पत्नी व पुत्रवधू सेव्यभिचार गुरु पत्नी गमन जितना बड़ा पापा समझें अतः इन पापों का प्रायश्चित भी उसी के अनुसार होना चाहिए । ५९,६०,६१,६२,६३,६४,६५,६६ गाय का वध, जो यज्ञ करने योग्य नहीं हैं उनका यज्ञ करना, परस्त्रीगमन, अपनी आत्मा को बेचना, गुरु, माता-पिता, स्वाध्याय, यज्ञ व पुत्र का त्याग, बड़े भाई से पूर्व छोटे का विवाह, ज्यष्ठ व कनिष्ठ को कन्या देना, ज्येष्ठ व कनिष्ठ का यज्ञ कराना, अपनी कन्या से व्यभिचार, ब्याज लेना ( वैश्य के अतिरिक्त ), व्रत भंग करना, तालाब, उपवन, अपनी पत्नी व संतान को बेचना, निर्धारित अवधि में उपनयन संस्कार न कराना, अपने बन्धुओं को त्याग देना, नियत वेतन लेकर अध्यापन करना । वेतन शुल्क देकर शिक्षा ग्रहण करना, जो वस्तुएं बेचने योग्य नहीं हैं, उन्हें बेचना, स्वर्णादि की खानों पर अधिकार जमा लेना, बड़े यंत्र का संचालन करना, औषधियों को जड़ों से उखाड़ फेंकना, परिवार की स्त्रियों से कृषि करवा कर जीविकोपार्जन करना, मारण, उच्चाटन व वशीकरण अभिचारों का प्रयोग, ईंधन के लिए हरे वृक्ष काटना, केवल अपना पेट भरने के लिए अन्न पकाना, निन्दित अन्न का सेवन, अग्निहोत्र न करना, चोरी, ऋण न चुकाना, असत् शास्त्रों का अध्ययन, नाचने-गाने का व्यवसाय करना, धान्य व पशुओं की चोरी, मदिरापान करने वाली स्त्री की संसर्ग, स्त्री तथा शूद्र, वैश्य व क्षत्रिय की हत्या व नास्तिकता - य् सभी उपपातक कृत्य हैं । ६७ डण्डे से पीटकर ब्राह्मण को कष्ट देना, मदिरादि दुर्गन्धित पदार्थों को सूंघना, कुटिलता करना तथा पुरुष से मैथुन करना जैसे पाप मनुष्य जाति भ्रंशकर कृत्य होते हैं । ६८ गधे, घोड़े, ऊंट, हिरण, हाथी, बकरा, भेड़, मछली, सर्प व भैंसे की हत्या जैसे कृत्य संकरीकरण पाप माने जाते हैं । ६९ अपात्र बना देने वाले पाप इस प्रकार हैं, निन्दित पुरुषों से धन लेना, वैश्य न होते हुए भी व्यापार करना, शूद्र की सेवा करना व असत्य बोलना । ७० मलिन कर देने वाले पाप इस प्रकार हैं, कीड़े-मकोड़ों व पक्षियों की हत्या, मदिरा के साथ मांसादि खाना, ईंधन व फूलों को चुराना तथा अधैर्य । ७१ भृगु जी बोले - ब्राह्मणों ! आप लोगों को मैंने इन सभी पापों के बारे में पृथक-पृथक रूप से बतलाया । अब मैं यह वर्णन करता हूं कि किन-किन व्रतों से किन-किन पापों की निवृत्ति हो जाती है । एकाग्रचित्त होकर सुनिए । ७२,७३,७४,८५,७६,७७,७८,७९,८०,८१,८२ जो व्यक्ति ब्राह्मण की हत्या करता है वह इन बारह उपायों में से किसी एक का पालन करके इस भयंकर पाप की निवृत्ति कर सकता है - १. बारह वर्ष तक वन में कुटिया बनाकर और मृतक की खोपड़ी का चिन्ह अपने शरीर पर अंकित कर भिक्षा मांग कर निर्वाह करे, २. स्वेच्छा से स्वयं को धर्मात्मा शस्त्रधारियों के तीखे बाणों का लक्ष्य बना ले, ३. जलती हुई अग्नि में अपने सिर को नीचा कर तीन बार डाले, ४. अश्वमेध, स्वर्जित, गोसवन, अभिजित, विश्वजित, त्रिवृत, अग्निष्ठत् आदि यज्ञों में से किसी एक का अनुष्ठान करे, ५. किसी एक वेद का जाप करते हुए सौ योजन पैदल चले ६. अपनी सारी पूंजी तथा सामान सहित अपना घर वेदज्ञ ब्राह्मण को दान कर दे, ७. हविष मात्र भोजन करता हुआ सरस्वती नदी के स्रोत की ओर चलता जाए व नियमपूर्वक कम भोजन खाते हुए नित्य तीन बार वेद संहिता पढ़े, ८. बारह वर्ष तक सिर मुंडाकर किसी ग्राम के बाहर गोशाला या वृक्ष के नीचे अथवा किसी अन्य पवित्र स्थल पर रहकर गौ व ब्राह्मण की सेवा करता रहे, ९. ब्राह्मण अथवा गाय के लिए तत्काल प्राणत्याग दे, १०. ब्राह्मण के धन को चोरों द्वारा तीन बार अथवा तीन ब्राह्मणों के धन को चोरों से एक बार बचाने में सफल हो जाए, ११. ब्राह्मण के धन को चोरों से बचाने में प्राणों की आहुति दे, तथा १२. ब्राह्मण के प्राणों पर आए संकट से उसे मुक्ति दिला पाए । बारह वर्षों तक इन सभी उपायों से अपने व्रत पर दृढ़ रहने वाला तथा ब्रह्मचर्य व इंद्रिय निग्रह से अपने चित्त को समाहित करने वाले को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल जाती है । एक और उपाय भी है - पापी व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ का आयोजन कर ब्राह्मणों व राजा के सामने अपने पाप को स्वीकार करते हुए पश्चाताप की भावना व्यक्त करे एवं तत्पश्चात् अवभृथ स्नान करे । ८३ धर्म का मूल ब्राह्मण है, क्षत्रिय उसका अग्रभाग है । अतः यदि इन दोनों के सामने पाप को स्वीकार कर पश्चाताप किया जाए तो पापी व्यक्ति शुद्धि को प्राप्त होता है । ८४ स्वयं ब्रह्मा के प्रतिनिधिस्वरूप ब्राह्मण का जन्म देवों के देवत्व व लोक में धर्म की प्रामाणिकता सिद्ध करता है । सृष्टि का कारण भी स्वयं ब्राह्मण है और वह कार्य भी है । ८५ इस पापा का ( ब्रह्महत्या का ) तीन वेदज्ञाता व सदाचरी ब्राह्मणों द्वारा जो प्रायश्चित बताया जाए, उसका पालन करने से भी व्यक्ति पाप मुक्त हो जाता है क्योंकि विद्वज्जनों की वाणी पवित्र होती है । ८६ पूर्वोक्त बारह उपायों में से किसी एक को अथवा तीन विद्वानों द्वारा बताए उपाए को एकाग्रचित्त होकर करने से ब्रह्महत्या पाप की निवृत्ति हो जाती है । ८७ अपरिचित गर्भस्थ बालक, गर्भवती स्त्री तथा क्षत्रिय व वैश्य की हत्या का भी यही प्रायश्चित बताया गया है । ८८ असत्य साक्षी देने, गुरु विरोध, धरोहर को हड़प लेने, पत्नी व मित्र की हत्या के पाप का भी प्रायश्चित यही है । ८९ हे महात्माओ ! अनजाने में तथा बिना चाहे ही ब्राह्मण की हत्या हो जाने के प्रायश्चित तो यही हैं किंतु जानबूझकर किए गए इस पाप के निवारण का कोई उपाय नहीं । ९० जो ब्राह्मण मोहवश सुरापान करता है, वह आग में उबलती हुई सुरा पिए, जिससे उसका शरीर जल जाए व उसे असह्य पीड़ा हो । इस प्रकार उसे इस पाप से छुटकारा मिस जाता है । ९१,९२ गोमूत्र अथवा पानी को आग में खूब गरम करके पीना, मृत्युपर्यंत दूध व घी पीकर निर्वाह करना अथवा गोबर का रस पीना - ये मोहवश सुरापान करने के अन्य प्रायश्चित हैं । एक और उपाय भी है - एक वर्ष तक एक समय चावल की कुट्टी या कटे तिलों को खाएं, कम्बल का मोटा वस्त्र पहनें, सिर पर बाल रखें और स्वयं को सुरापान के दोष से कलंकित होने के कारण व्रती होने की घोषणा करता रहे । ९३ सभी अन्नों के मल को सुरा कहा गया है और मल का ही दूसरा नाम पाप है । अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य सुरापान न करें । ९४ सुरा तीन प्रकार की होती है - गुड़, पीठी तथा महुवे से बनने वाली । ये तीनों ही मलस्वरूप हैं अतः द्विजोत्तम इसका सेवन कदापि न करें । ९५ जो तुच्छ प्रकार के मादक द्रव्य हैं जैसे - मदिरा, मांस, सुरा आसव - ये यक्षों, राक्षसों व पिशाचों द्वारा पिए जाने वाले पदार्थ हैं । अतः देवों को पवित्र हवि देने वाले द्विजातियों को चाहिए कि इन सबका सेवन न करें । ९६ यदि ब्राह्मण मदिरा पीता है तो वह या तो गंदी नाली में गिरेगा या फिर वेद मंत्रों का गलत उच्चारण करेगा अथवा अन्य निषिद्ध कार्यों को करेगा । अतः मदिरा का परित्याग करना ही श्रेष्ठ है । ९७ यदी ब्राह्मण के शरीर में उपस्थित ब्रह्म एक बार भी मदिरा के प्रवाह में ड़ूब जाए तो उसका ब्राह्मणत्व जाता रहता है और वह शूद्र पद को प्राप्त होता है । ९८ भृगु जी ने कहा - ये विचित्र उपाय सुरापान के दोष से मुक्त होने के हैं । अब मैं आपको स्वर्ण की चोरी के पाप से मुक्ति के उपाय बतलाता हूं । ९९ यदि ब्राह्मण स्वर्ण की चोरी करता है तो उसे राजा के समक्ष जाकर अपने पाप के बारे में बताते हुए राजा से दण्ड देने का निवेदन करना चाहिए । १०० अपने हाथ में दण्ड लेकर स्वयं राजा स्वर्ण की चोरी करने वाले पर प्रहार करे । यूं तो ब्राह्मण तप से शुद्ध होता है किंतु चोर ब्राह्मण तो दण्ड पाकर ही शुद्धि प्राप्त करता है । १०१ जो ब्राह्मण अपने चोरी के पाप को तप-साधना से दूप करना चाहता है उसे वन में जाकर चोरों के समान वस्त्र धारण कर ब्रह्महत्या के लिए बताए गए किसी एक व्रत का पालन करना चाहिए । १०२ जो व्रत ब्राह्महत्या के संदर्भ में बताए गए हैं उनके पालन से ब्राह्मण चोरी के पाप से मुक्ति पा सकता है । गुरु पत्नी गमन के पाप से मुक्ति के उपाय इस प्रकार हैं । १०३ जो व्यक्ति गुरु पत्नी गमन के पाप से ग्रस्त है वह सार्वजनिक रूप से अपने पाप को स्वीकार करे व लोहे की जलती शय्या पर लोहे की जलती स्त्री का आलिंगन कर मृत्यु का वरण करे, तभी वह इस पाप से मुक्त हो सकता है । १०४ पापी व्यक्ति अपने हाथों से अपना लिंग व अण्डकोश काटकर अपनी हथेली में रख ले तथा शरीर के गिरने तक सीधी गति से र्नैऋत्य दिशा की ओर चलता रहे - गुरु पत्नी गमन के पाप की निवृत्ति का यह भी एक उपाय है । १०५ दूसरी सरल विधि इस प्रकार है - पापी व्यक्ति मस्तक पर योनि का चिन्ह धारण कर वल्कल वस्त्र पहन ले तथा केश, नख, लोम, श्मश्रु रख के एक वर्ष तक सावधानीपूर्वक कठिन प्राजापत्य व्रत का पालन करे । १०६ अथवा इन्द्रिया निग्रह कर पापी व्यक्ति तीन माह तक चान्द्रायण व्रत करे तथा इस दौरान हवि व यवागू के भोजन से ही विर्वाह करे । १०७ ये उपाय तो गुरु पत्नी गमन के पाप निवारण के लिए हैं । अन्य उपपातकों के पाप निवारण के कुछ सरल उपाय इस प्रकार हैं - १०८ जो व्यक्ति गोवध का पाप करता है उसे एक माह तक केवल जौ का पानी पीना चाहिए तथा गाय का ही चमड़ा ओढ़कर गोशाला में रहना चाहिए । १०९ एक अन्य उपाय है - पापी व्यक्ति को दो माह तक जितेन्द्रिय होकर प्रतिदिन गोमूत्र से स्नान करना चाहिए और रात्रि के प्रथम प्रहर में बिना नमक का थोड़ा सा भोजन करना चाहिए । ११० दिन के समय वह गायों के पीछे चलता रहे, जहां गाएं रुक जाएं, वहीं ठहर जाए और उनके खुरों की धूल-मिट्टी चाटता रहे । दिन में इस प्रकार उसे गायों की सेवा करनी चाहिए तथा रात में उन्हें नमस्कार करके ' वीरासन ' में बैठे रहकर उनकी रखवाली करनी चाहिए । १११ वह गायों के ठहरने पर ठहर जाए, चलने पर चले व उनके बैठने पर बैठ जाए । इस प्रकार करते हुए वह न तो कुढ़े और न ही इस कार्य में कोई कोताही करे । ११२ यदि उसे कोई गाय रोगग्रस्त, चोट व व्याघ्रादि के भय से आकुल धरती पर गिरी हुई या कीचड़ में धंसी हुई दिखाई दे तो वह उसकी सभी प्रकार से सेवा करे तथा उसकी रक्षा भी । ११३ उसे गर्मी, वर्षा, आंधी इत्यादि की चिंता न करते हुए अपनी सामर्थ्यानुसार गाय की सेवा करनी चाहिए । ११४ यदि उसे अपने अथवा दूसरे के घर में, खेत व खलिहान में सिर्फ अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई गाय दिखे तो इसकी जानकारी किसी को न दे अर्थात् गाय के इस कार्य में वह किसी प्रकार का व्यवधान न डाले । ११५ इस प्रकार नियमपूर्वक गाय की सेवा करने से वह व्यक्ति तीन महीने के पश्चात् गोहत्या के पाप से शुद्ध हो जाता है । ११६ जो व्यक्ति गोहत्या के पाप से मुक्ति की इच्छा से इस प्रकार का व्रतानुष्ठान करता है उसे एक बैल व दस गाएं या इनके अभाव में अपना सब कुछ वेद ज्ञाता ब्राह्मण को प्रदान करना चाहिए । ११७ स्वेच्छा से वीर्यपात करने वाले ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के उपपातकों से कलुषित व्यक्ति भी इसी प्रकार चान्द्रायण व्रत का पालन कर अपनी शुद्धि कर सकते हैं । ११८ अवकीर्णी ब्राह्मण को चाहिए कि वह अपने पाप से मुक्ति के लिए काने गधे पर सवार होकर चौराहे पर जाए व पाक यज्ञ की विधि से निर्ऋति देवता का यज्ञ करे । ११९ वह अग्नि में विधिपूर्वक यज्ञ करके मरुत, इन्द्र, बृहस्पति व अग्निदेव को घृत से आहुति दे । १२० धर्मवेत्ता ब्रह्मवादी साधुओ के मत में ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित ब्राह्मण द्वारा स्वेच्छा से वीर्यस्खलन करने व्रत भंग हो जाता है । १२१ काम भावना के वशीभूत होकर वीर्यपात करने वाला ब्रह्मचारी अर्थात् अवकीर्णी का अपने व्रत से प्राप्त ब्रह्मतेज वायु, इन्द्र, बृहस्पति व अग्नि के पास चला जाता है । १२२ यदि अवकीर्णी अपने पाप से शुद्ध होना चाहता है तो उसे अपने नीच कर्म को बताते हुए गधे का चमड़ा ओढ़ कर सात घरों से भीख मांग कर जीवन व्यतीत करना चाहिए । १२३ उसे इस भिक्षान्न को एक ही समय खाना चाहिए व तीन समय स्नान करके सन्ध्योपासना करनी चाहिए । एक वर्ष तक इस प्रकार व्रत का पालन करने से ब्रह्मचारी पाप से मुक्त हो जाता है । १२४ यदि कोई व्यक्ति जानबूझ कर जातिभ्रंशक कर्म करे तो उसे कृच्छ्र सान्तपन व्रत का पालन करना चाहिए और यदि अनजाने में उससे ऐसा हो जाता है तो वह प्राजापत्य व्रत का अनुष्ठान करे । १२५ ऐसे व्यक्ति को संकरीकरण व अपात्रीकरण दोषों के निवारण के लिए एक माह तक चान्द्रायण व्रत करना चाहिए व मलिनीकरणों से शुद्धि के लिए निरंतर तीन दिन तक गरम द्रव्य को पीना चाहिए । १२६ यदि व्यक्ति पर कर्तव्य कर्मों का निर्वाह करने वाले सदाचारी, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हत्या का पाप है तो उसे ब्राह्मण वध के पाप का क्रमशः चौथा, आठवां व सोलहवां भाग प्रायश्चित करना चाहिए । १२७ यदि अनजाने और अनचाहे ही क्षत्रिय हत्या हो जाए तो ब्रह्मण को नियमपूर्वक व्रत का पालन करते हुए एक बैल व हजार गायों का दान करना चाहिए । १२८ अन्य उपाय यह है कि गावं से दूर किसी वृक्षके नीचे घर बनाकर तथा जटाएं धारण कर तीन वर्षों तक संयम-नियम का पालन करते हुए निर्वाह करे । १२९ ब्राह्मण द्वारा अनजाने में सदाचारी वैश्य का वध हो जाता है तो उसे भी एक वर्ष तक यही प्रायश्चित करना चाहिए तथा एक सौ गायों का दान भी करना चाहिए । १३० जिस ब्राह्मण ने शूद्र का वध किया है उसे इस सारे व्रत को छः माह के लिए करना चाहिए तथा एक ब्राह्मण को एक बैल तथा ग्यारह सफेद गाएं दान में देना चाहिए । १३१ शूद्र वध के विषय में जो प्रायश्चित बताया गया है उसी का बिल्ली, नेवला, चिड़िया, मेंढक, कुत्ता, गधा, उल्लू व कौए की हत्या करने वाले को भी पालन करना चाहिए । १३२ इसका एक और भी प्रायश्चित है - व्यक्ति तीन दिनों तक केवल जल पर आश्रित रहे, एक योजन मार्ग चले तथा दिन में तीन बार नदी में स्नान करे व वरुणदेन की प्रार्थना में मंत्रों का जाप करे । १३३ सांप के वध का प्रायश्चित करना हो तो लोहे की कड़छी व नपुंसक की हत्या के प्रायश्चित के लिए धान्य का ढेर व एक मासा सीसा दान कर दें । १३४ सूअर, तोता, तीतर व क्रौंच के वध का प्रायश्चित करना हो तो क्रमशः एक मटका घी, चार किलो तिल, दो वर्ष का बछड़ा और तीन वर्ष का बछड़ा दान में दें । १३५ यदि हंस, बलाका, बगुला, मोर, वानर, बाज व मास ( एक प्रकार की चिड़िया ) हत्या का प्रायश्चित करना हो तो ब्राह्मण को एक गाय दान देकर उसके चरण-स्पर्श करें । १३६ अश्व व हाथी के वध का प्रायश्चित क्रमशः वस्त्र व पांच नीले बैलों के दान के रूप में करना चाहिए । बकरे व मेढ़े की हत्या का प्रायश्चित भी बैलों का दान ही है । गधे को मारने का प्रायश्चित एक वर्ष के बछड़े को दान करके होता है । १३७ मांसाहारी पशुओं को मारने पर प्रायश्चित के रूप में दुधारू गाय व मांस न खाने वाला मृग दान में दें तथा बछिया व ऊंट के वध का प्रायश्चित एक तोला सोना दान करके होता है । १३८ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र - इन चारों वर्णों की पतित स्त्रियों का अनजाने में वध हो जाए तो क्रमशः चर्मपुट, धनुष, बकरा व मेढ़ा दान में देकर प्रायश्चित करना चाहिए । १३९ जो ब्राह्मण सर्पादि की हत्या के प्रायश्चित में दान न कर सकता हो उसे कृच्छ्र व्रत का पालन करना चाहिए । १४० जो छोटे-छोटे अस्थिविहीन जीवों को मारता है उसे वही प्रायश्चित करना चाहिए जो शूद्र वध के विषय में कहा गया है । अनेक ऐसे जीवों को मारने का प्रायश्चित भी यही है । १४१ अनजाने में अस्थि वाले छोटे-छोटे जीवों के वध पर भी ब्राह्मण की प्रायश्चित स्वरूप कुछ दान कर दें ।अस्थि रहित जीवों पर अनजाने में हुई हिंसा से लगे पाप से मुक्ति तो प्राणायाम से होती है । १४२ यदि कोई फल देने वाले वृक्षों, झाड़ियों, छोटी लताओं व बेलों तथा फूल भरे पौधों को काटने का पाप करे तो उसे सौ बार गायत्री मंत्र का जाप कर इस दोष से मुक्त हो जाना चाहिए । १४३ अन्न में, रसों, फलों तथा फूलों में पैदा होने वाले जीवों की हत्या का दोष होने पर ' घृत प्राशन ' ही प्रायश्चित बताया गया है । १४४ खेत में उत्पन्न धान्य एवं वन में स्वतः जन्मी औषधियों को व्यर्थ में उखाड़ने वाले को प्रायश्चित में एक दिन केवल दुग्धाहार करना चाहिए तथा गाय के पीछे-पीछे चलना चाहिए । १४५ भृगु जी ने कहा, महर्षियों ! जाने-अनजाने में किए सभी पापों से प्रायश्चित के इन उपायों द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है । अब मैं आपसे अभक्ष्य-भक्षण के प्रायश्चित कहता हूं । १४६ यदि कोई व्यक्ति अनजाने में मदिरापान कर ले तो प्रायश्चित के तौर पर उसका पुनः उपनयन संस्कार होना चाहिए किंतु जानबूझ कर सुरापान करने का प्रायश्चित प्राणत्याग ही होता है । १४७ जो व्यक्ति मदरा की बोतल में अथवा प्याले में पानी प लेता है उसे पांच दिन पानी में शंखपुष्पी औटा कर पीने के रूप में प्रायश्चित करना चाहिए । १४८ यदि कोई व्यक्ति मदिरा को छू लेता है, किसी को मदिरा देता है अथवा लेता है, तो उसे प्रायश्चित के तौर पर तीन दिन शूद्र का जूठा पानी पीना चाहिए व विधिपूर्वक कुशों का काढ़ा पीना चाहिए । १४९ मदिरा पीने वाले का यदि सोमयज्ञ के अनुष्ठान से शूद्ध ब्राह्मण तीन बार सूंघ कर उसे जल की छींटे दे, उसे प्राणायाम व घृत-प्राशन कराए तो वह इस दोष से मुक्त हो जाता है । १५० तीनों वर्णों के व्यक्ति यदि अनजाने में मलमूत्र का सेवन व सुरा का स्पर्श कर लेते हैं तो उन्हें पुनः यज्ञोपवीत संस्कार करवा लेना चाहिए । १५१ प्रायश्चित के रूप में यदि तीनों वर्णों के लोग पुनः उपनयन संस्कार करवाते हैं तो उसमें मुण्डन, मेखला धारण, दण्ड धारण तथा व्रतानुष्ठान जरूरी नहीं होता । १५२ जिस व्यक्ति पर पतित मनुष्य के घेर का अन्न, स्त्रियों तथा शूद्रों की जूठन, मांस तथा अन्य अभक्ष्य वस्तुओं को खाने का दोष है उसे सात दिन तक यवागू पीकर प्रायश्चित करना चाहिए । १५३ यदि कोई व्यक्ति सिरके जैसा दुर्गन्धित व अपेय द्रव्य पीता है तो वह तब तक अशुद्ध रहता है जब तक वे द्रव्य मल-मूत्र के रूप में उसके शरीर से बाहर न निकल जाएं । १५४ यदि किसी द्विजातीय पर गावं के सूअर, गधे, ऊंट, गीदड़, वानर व कौए के मल-मूत्र का सेवन करने का दोष है तो वह चान्द्रायण व्रत का पालन करने से ही दोषमुक्त होता है । १५५ जो व्यक्ति अनजाने में सूखे मांस को, भूमि में पैदा होने वाले कुकुरमुत्ते को तथा वधस्थली के मांस को खाने से दोषयुक्त होता है उसे भी प्रायश्चित के तौर पर चान्द्रायण व्रत करना चाहिए । १५६ जो व्यक्ति कच्चे मांस, सुअर, ऊंट, मुर्गा, मनुष्य, कौए और गधे के मांस को खाने का पाप करे उसे तप्त कृच्छ्र व्रत से शुद्धि करनी चाहिए । १५७ यदि कोई ब्रह्मचारी मासिक श्रद्ध के अन्न को खाने का पाप करे तो उसे तीन दिनों का उपवास व एक दिन जल में रहकर प्रायश्चित करना चाहिए । १५८ मदिरापान व मांस खाने वाले ब्रह्मचारी को प्राकृत कृच्छ्र व्रत का पालम करके अपने शेष व्रत को सम्पन्न करना चाहिए । १५९ जो व्यक्ति बिल्ली, कौए, चूहे, कुत्ते व नेवले की जूठन तथा कीड़ों व बालों से युक्त दूषित अन्न खा ले उसे ब्रह्म सुवर्चला के काढ़े का सेवन करना चाहिए । १६० यदि व्यक्ति स्वंय को शुद्ध रखने का इच्छुक है तो उसे अभक्ष्य भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए । अनजाने में खाए अभक्ष्य को वमन के माध्यम से निकाल देना चाहिए तथा शोधक द्रव्यों से अपनी शुद्धि कर लेनी चाहिए । १६१ ब्राह्मणो ! ये मैंने आपको अभक्ष्य भक्षण के दोष निवारण के लिए प्रायश्चित तथा इसके विविध नियमों के विषय में बतलाया । अब मैं आपको चोरी के दोष से मुक्ति दिलाने वाले व्रतों के नियमादि बतलाया हूं । १६२ यदि जानबूझकर द्विजातीय अपनी ही जाति वालों के यहां से धन, धान्य व अन्न की चोरी करता है तो उसे एक वर्ष तक कृच्छ्र व्रत का पालन करना चाहिए । १६३ जो व्यक्ति पुरुषों, स्त्रियों, खेत, घर, कूप व बावड़ी आदि के जल हरण का पाप करे उसे चान्द्रायण व्रत का पालन करके प्रायश्चित करना चाहिए । १६४ अल्पाहार के रूप में खाए जाने वाले पदार्थों को दूसरे के घर से चुराने पर प्रायश्चित के रूप में सान्तपन कृच्छ्र व्रत करने को कहा गया है । १६५ खाद्य पदार्थों, वाहन, शय्या, आसन, पुष्पों, कन्दमूल व फलों की चोरी का प्रायश्चित स्वामी को उसकी वस्तुएं लौटाना तथा पंचगव्य ( गो दुग्ध, दही, घी, गोबर-रस तथा मूत्र ) पीना है । १६६ घास, लकड़ी, वृक्ष, रूखे अन्न, गुड़, वस्त्र, चमड़ा व मांस चुराने वाला प्रायश्चित के तौर पर तीन दिन-रात बिना भोजन किए रहे । १६७ जो व्यक्ति मणि, मोती, मूंगा, तांबा, चांदी, कांस्य, मूलियवान पत्थरों को चुराए उसे बारह दिनों तक चावल के कणों पर निर्वाह करके प्रायश्चित करना चाहिए । १६८ जो कपास, रेशम, दो खुरों वाले बैलादि पशुओं, एक खुर वाले अश्वादि पशुओं, सुगन्धित द्रव्यों, औषधियों व रस्सी को चुराता है उसे तीन दिन तक केवल जल ग्रहण करके प्रायश्चित करना चाहिए । १६९ इन व्रतों के पालन से द्वज अपने चोरी सम्बन्धी पापों से निवृत्त हो जाता है । अब मैं आपसे अगम्या के साथ रति भोग करने के पाप का प्रायश्चित कहता हूं । १७० सगी बहन, मित्र पत्नी, पुत्र वधू, पुत्री व चाण्डाल स्त्री से सहवास का प्रायश्चित गुरु पत्नी गमन के प्रायश्चित जैसा ही है । १७१ बुआ, मौसी व मामा की कन्याओं से सहवास करने का प्रायश्चित होता है चान्द्रायण व्रत का पालन । १७२ विवेकशील पुरुष को चाहिए कि वह पूर्वोक्त तीनों कन्याओं से कभी विवाह न करे क्योंकि अपनी ही जाति की होने से ये तीनों कन्याएं विवाह से योग्य नहीं होतीं । इनसे विवाह करने वाला अधोगति व अपयश पाता है । १७३ अमानुषी योनियों, रजस्वला स्त्री की योनि तथा जल में वीर्यपात करने वाला प्रायश्चित के तौर पर कृच्छ्र सान्तपन व्रत का पालन करे । १७४ पुरुष से या ब्राह्मण स्त्री से बैलगाड़ी में, पानी में व दिन में मैथुन करने का दोषी व्यक्ति वस्त्रों सहित स्नान करे । १७५ अनजाने ही चाण्डाल व अछूत स्त्री से सम्भोग तथा भोजन करने वाला तथा उनसे व्यवहार रखने वाला पतित हो जाता है किंतु जान-बूझकर उनसे सम्बन्ध रखने वाला उन्हीं की जाति का हो जाता है । १७६ दुष्ट स्त्री के पति को यह अधिकार है कि वह उसे घर में बंद करके रखे तथा परस्त्रीगामी के लिए निर्धारित प्रायश्चित उस स्त्री द्वारा करवाए । १७७ वह स्त्री यदि परिवार के किसी सदस्य के बहकावे में आकर पुनः परपुरुषगामी हो जाती है तो उसकी शुद्धि कृच्छ्र चान्द्रायण व्रत के पालन से ही सकती है । १७८ एक रात में किसी वेश्या अथवा शूद्रा से सम्भोग कर ब्राह्मण जो पाप करता है उसका निवारण ब्राह्मण को तीन वर्षों तक भिक्षान्न पर रहकर तथा निरन्तर गायत्री मंत्र के जाप से करना चाहिए । १७९ महर्षियो ! चारों वर्णों के पापियों के पापों की शुद्धि के उपाय मैंने आपसे कहा । अब मैं पतितों के साथ सम्बन्ध रखने वालों के प्रायश्चित विधान का वर्णन करता हूं । १८० पतित व्यक्ति के साथ निरंतर एक वर्ष तक यज्ञ करने, वेद पढ़ाने व यौन सम्बन्ध रखने वाला स्वयं पतित हो जाता है । एक साथ सवारी करने, इकट्ठे आसन पर बैठने व खाने-पीने से मनुष्य पतित नहीं होता । १८१ जिस-जिस पतित व्यक्ति के साथ मनुष्य सम्बन्ध रखता है उसे उस-उस पाप के निवारण के लिए नियत प्रायश्चित करना चाहिए । १८२ यदि पतित व्यक्ति मर जाता है तो उसके सजातीय बन्धुओं को गांव के बाहर जाकर किसी निन्दित दिन के सायंकाल में अपनी जाति के पुरोहित द्वारा गुरु के सान्निध्य में उसका श्राद्ध-तर्पण करना चाहिए । १८३ भ्रष्ट व्यक्ति के तर्पण में दासी को दक्षिण की ओर मुख करके जल से भरे मटके से अपने पैर से नीचे जल गिराना चाहिए । मृतक व्यक्ति के सभी जाति-बन्धु उसके भाई-बुन्धुओं से एक दिन-रात का अशौच रखें । १८४ जो व्यक्ति पतित है उसके सभी सम्बन्धियों को उसके जीवित रहते उसके साथ उठना-बैठना, बोलना, दाय भाग में सहभागी बनाना व उसके यहां आना-जाना बंद देना चाहिए । १८५ पतित मनुष्य को ज्येष्ठ होने का भी अधिकार नहीं है । उससे छोटा भाई ही ज्येष्ठ कहलाता है यदि गुणों की दृष्टि से भी छोटे भाई उससे श्रेष्ठ है तो उसके अधिकार को वही प्राप्त करता है । १८६ यदि भ्रष्ट व्यक्ति प्रायश्चित कर ले तो उसके भाई-बनधु उसके साथ किसी पवित्र सरोवर में स्नान करें तथा उसके साथ जल भरे कुम्भ को पकड़ कर जल में छोड़ दें । १८७ जिस व्यक्ति ने प्रायश्चित किया है उसे कुम्भ को जल में फेंकने के बाद घर में प्रवेश करना चाहिए और पूर्ववत् अपने वर्णगत धर्म का पालन करना चाहिए । १८८ जो स्त्रियों भ्रष्ट हो जाती हैं उनके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करें । खाना, पीना व वस्त्र हुए भी उन्हें घर में अलग रखना चाहिए । १८९ यदि पापी व्यक्ति प्रायश्चित नहीं करते तो उनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखें किंतु पाप का प्रायश्चित कर लेने के उपरान्त उनकी किसी प्रकार की आलोचना भी न करें । १९० बच्चों की हत्या करने वालों, कृतघ्न, शरणागत व स्त्रियों के हत्यारों से प्रायश्चित से शुद्ध होने पर भी उनसे कोई संबंध नहीं रखना चाहिए । १९१ पूर्वोक्त समय पर उपनयन संस्कार व गायत्री का उपदेश ग्रहण न करने वाले द्विजों को तीन कृच्छ्र व्रत करके विधिवत् उपनयन संस्कार कराना चाहिए । १९२ वेद ज्ञान से रहित व निरर्थक काम करने वाला पतित ब्राह्मण यदि अपने सुधार के लिए प्रायश्चित करना चाहे तो उसे भी कृच्छ्र व्रत के अनुष्ठान का निर्देश दें । १९३ यदि कोई ब्राह्मण निन्दित कार्य करके धनार्जन करता है तो उस धन को दान में दे देने तथा तप करने से वह पाप मुक्त हो जाता है । १९४ यदि ब्राह्मण ने असत् द्रव को दान के रूप में स्वीकार कर लिया है तो उसे एक माह गोशाला में रहकर पवित्र भाव से नित्य तीन हजार बार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए तथा दुग्धाहार करना चाहिए । १९५ गोशाला से उपवास के कारण क्षीण हुए तथा प्रणाम करते हुए ब्राह्मण से ज्ञानी ब्राह्मण को पूछना चाहिए - सौम्य ! क्या तुम हमारे जैसा बनना चाहिते हो ? १९६ ज्ञानवान वृद्धों के प्रश्न का वह शुद्ध होने की आकांक्षा रखने वाला ब्राह्मण उचित उत्तर दे । तत्पश्चात् गायों को घास दे । इस प्रकार गायों द्वारा पवित्र किए गए तीर्थ पर वे विद्वज्जन उस ब्राह्मण को अपने समान स्तर प्रदान करें । १९७ जो व्यक्ति व्रात्यों द्वारा यज्ञ कराए, दूसरों की अन्त्येष्टि तथा सशक्त अभिचार कराए तो उसे प्रायश्चित के तौर पर तीन दिनों कृच्छ्र व्रत का पालन करना चाहिए । १९८ यदि व्यक्ति शरणागत को त्याग दे और अनधिकारी को वेद पढ़ाए तो उसे एक वर्ष जौ खाकर प्रायश्चित करना चाहिए । इस प्रकार ही इन पापों से वह शुद्ध हो सकता है । १९९ मनुष्य यदि कुत्ते, गीदड़, गधे, मनुष्य, अश्व, ऊंट, सुअर व अन्य मांसाहारी पालतू पशुओं को काटे तो वह प्राणायाम करने से ही शुद्धि प्राप्त करता है । २०० जो अपनी पंक्ति से बहिष्कृत हैं उन्हें तीन दिन का उपवास करके एक माह तक एक समय भोजन करना चाहिए तथा वेद संहिता का पाठ व यज्ञ-होम आदि करना चाहिए । २०१ अपनी तु गधे व ऊंट की सवारी करने वाला ब्राह्मण जल में नग्न स्नान करने के पश्चात् प्राणायाम करने से ही शुद्धि प्राप्त करता है । २०२ सरोवर यदि सूर्य की किरणों के कारण जलरहित हो गया है तो गांव के बाहर किसी सरोवर में वस्त्रों सहित स्नान करके पृथवी को छूने से व्यक्ति शुद्ध हो जाता है । २०३ यदि वेदों की नित्यचार्या छूट जाती है या ब्रह्मचर्य व्रत टूट जाता है तो इसका प्रायश्चित उपवास ही है । २०४ यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण को ' तुम ' तथा विद्या व ज्ञान में श्रेष्ठजन को ' तू ' कहकर सम्बोधित करता है तो उसे प्रायश्चित के रूप में स्नान करके पूरा दिन भूखा रहना चाहिए तथा दिन भर हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए सम्बन्धित व्यक्ति को प्रसन्न करना चाहिए । २०५ घास के तिनके से भी ब्राह्मण को मारने वाला या उसके गले में कपड़ा डालकर उसे बांधने वाला या विवाद में उससे अपशब्द बोलने वाला व्यक्ति ब्राह्मण को प्रणाम आदि द्वारा प्रसन्न करके पश्चाताप करे । २०६ जो व्यक्ति ब्राह्मण को मारने के लिए डण्डा उठाता है उसे सौ वर्षों तक नरक भोगना पड़ता है और जो ब्राह्मण पर डण्डे से प्रहार करता है उसे हजार वर्ष तक नरक भोगना पड़ता है । २०७ जो व्यक्ति ब्राह्मण को मारता है, उसे उतने हजार वर्ष नरक में वास करना पड़ता है जितने धूलि कण ब्राह्मण के रक्त से भीग जाते हैं । २०८ कृच्छ्र व्रत का पालन ब्राह्मण को मारने के लिए डण्डा उठाने का प्रायश्चित होता है । डण्डा मारने का प्रायश्चित अति-कृच्छ्र व्रत है और यदि ब्राह्मण का रक्त निकल जाए ऐसा मारने का प्रायश्चित दोनों ही व्रतों के पालन से होता है । २०९ अन्य जिन पापों का वर्णन नहीं हुआ उनके निवारण के लिए पाप की गंभीरता व प्रायश्चित करने की क्षमता को देखकर उसके अनुसार ही प्रायश्चित निर्धारण कर लेना चाहिए । २१० महर्षियो ! अब मैं आपको उन देवों, ऋषियों व पितरों की उपासना सम्बन्धी उपायों के बारे में बताता हूं जिनका पालन करने से मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है । २११ प्राजापत्य कृच्छ्र व्रत में ब्राह्मण को तीन दिन प्रातःकाल व तीन दिन सायंकाल भोजन करना चाहिए व तीन दिन अयाचित खाना चाहिए उसके बाद तीन दिन तक वह उपवास करे । इस तरह बारह दिनों के इस व्रत को प्राजापत्य कृच्छ्र व्रत कहा जाता है । २१२ गोमूत्र, गोबर, दही, घी और कुशों के जल का दिन में सेवन, तत्पशचात् एक दिन व रात उपवास सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है । २१३ तीन दिन सायंकाल, तीन दिन प्रातःकाल व तीन दिन केवल एक ग्रास अयाचित भोजन तथा तदोपरांत तीन दिन केवल एक ग्रास अयाचित भोजन तथा तदोपरांत तीन दिन तक पूर्ण उपवास - इस विधि को अतिकृच्छ्र व्रत कहा जाता है । २१४ स्थिरचित्त व्यक्ति स्नान के बाद तीन दिन गर्म जल व तीन दिन गर्म दूध पिए । इसी प्रकार अगले तीन दिन गर्म घी व उसके अगले तीन दिन गर्म वायु का सेवन करे - इसे तप्तकृच्छ्र व्रत कहा जाता है । २१५ स्वस्थ व स्वाधीन भाव से बारह दिनों का निराहार व्रत पराक नामक कृच्छ्र व्रत कहलाता है । इससे उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । २१६ प्रतिदिन तीन बार स्नान करके कृष्ण पक्ष में आहार का एक-एक ग्रास घटाते हुए व शुक्ल पक्ष में एक-एक ग्रास बढ़ाकर सेवन करना ही चान्द्रायण व्रत है । २१७ यव मध्याख्य व्रत में इसी चान्द्रायण व्रत का पालन करते हुए प्रतिदिन तीन बार स्नान करके जौ के समान भोजन के ग्रास के कृष्ण पक्ष में बीच में मोटा तथा किनारों पर पतला व शुक्ल पक्ष में इसके विपरीत करके ग्हण किया जाता है । २१८ यति चान्द्रायण व्रत का पालन करते हुए दोपहर के समय केवल हवि के अन्न के आठ ग्रासों का सेवन किया जाता है । २१९ प्रातःकाल भोजन के चार ग्रास व सायंकाल भी भोजन के चार ग्रास ग्रहण करने पर यही चान्द्रायण व्रत शिशु चान्द्रायण हो जाता है । २२० हवि के २४० भाग बनाकर पूरे माह उन्हें स्वस्थ चित्त से खाने वाला साधक चन्द्र लोक को प्राप्त करता है । २२१ अनेक महर्षियों के साथ रुद्र, आदित्य, वसु तथा मरुत प्रभृति कितने ही देवों ने अपने पाप की निवृत्ति के लिए इस चान्द्रायण व्रत का पालन किया है । २२२ इस व्रत का पालन करते समय नित्य महाव्याहृतियों से होम करना चाहिए और इस दौरान अहिंसा, सत्य, शांति व सरलता का आचरण करना चाहिए । २२३ दिन व रात में तीन-तीन बार वस्त्र सहित जल में गोता लगाएं तथा इस दौरान स्त्रियों, शूद्रों व पतितों से किसी प्रकार का कोई भी वार्तालाप न करें । २२४ इस व्रत का अनुष्ठान करते हुए आसन पर ही उठना-बैठना चाहिए । रोगी या दुर्बल व्यक्ति अवश्य धरती पर सो सकता है । यह व्रत करने वाला ब्रह्मचर्य धारण करके गुरु, देव व द्वजों की सेवा में लगा रहे । २२५ इस व्रत का पालन करने वाला नित्य यथाशक्ति गायत्री मंत्र का तथा अन्य पवित्र वेद मंत्रों का जाप करता रहे । इसी प्रकार प्रायश्चित के रूप में अपनाए गए व्रतों में श्रद्धा भाव रखे । २२६ जो लोग अपने पाप को लोक में व्यक्त कर देते हैं वे इन्हीं व्रतों के पालन से शुद्ध हो जाते हैं । अपने पापों को गुप्त रखने वालों को मंत्रों के जाप व होम आदि से स्वयं की शुद्धि करनी चाहिए । २२७ पापी व्यक्ति अपने पाप का प्रचार करके, पश्चाताप, तप व स्वाध्याय करके पाप से निवृत्त हो जाता है । संकट की स्थिति में या तप व स्वाध्याय न कर पाने की स्थिति में वह दान करने से शुद्ध हो जाता है । २२८ पापी व्यक्ति जितना अधिक अपने कुकृत्य के बारे में बताता है उतनी ही जल्दी वह पाप से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे सांप अपनी केंचुली से । २२९ अपने दुष्कृत्य पर पापी व्यक्ति जितना अधिक आत्मग्लानि अनुभव करता है उतना ही शीघ्र वह पाप कर्म से मुक्ति पा लेता है । २३० पाप कर्म करने पर यदि वह व्यक्ति पश्चाताप की अग्नि में जलता है तो वह उस पाप से मुक्त हो जाता है । यदि वह पुनः ऐसा दुष्कर्म न करने का संकल्प करता है तो वह पाप से मुक्त ही नहीं होता वरन् पवित्र भी हो जाता है । २३१ यह सोचकर कि इस लोक में अथवा परलोक में किए गए पाप का फल अवश्य भोगना होगा - मनुष्य को मन, वचन व शरीर से सदैव शुभ कर्मों को ही करना चाहिए । २३२ अज्ञान या ज्ञान से निन्दनीय कार्य कर उससे मुक्ति की आकांक्षा रखने वाला व्यक्ति कदापि अन्य पापकर्म न करे । २३३ पश्चाताप के रूप में यज्ञ, तप, जप व स्वाध्याय इनमें से जिस भी कर्म को करने में सबसे अधिक कष्ट व दुःख हो, मनुष्य को वही कर्म करना चाहिए ताकि उसे यह संतोष हो कि उसने अपने पाप का प्रायश्चित कर लिया है । २३४ वेद ज्ञानी महात्माओं का यह मत है कि देवों व मनुष्य के सुख का मूल, मध्य व अंत तप ही है । २३५ ज्ञान ब्राह्मण का, लोक रक्षा क्षत्रिय का, व्यापार कर्म वैश्य का व द्विजाति सेवा शूद्र का तप है अर्थात् स्वधर्म का पालन ही तप है । २३६ इन्द्रिय निग्रह करके, फल, कन्द-मूल व वायु का सेवन कर निर्वाह करने वाले ऋषि तप के द्वारा ही ज्ञान चक्षु में समस्त जड़-चेतन विश्व को देखने में सफल हो जाते हैं । २३७ तप से ही औषधि में रोग नाशक शक्ति, विद्या में दैवी गुण व देवों की सत्ता सिद्ध होती है । तप ही उनका साधन होता है । २३८ जो भी दुस्तर, दुर्लभ, दुष्कर व कठिनता से जा सकने वाला है वह सब तप से सिद्ध हो सकता है । अतः तप सर्वाधिक शक्ति रखता है । २३९ अनुचित कार्य करने वाले महापातकी तथा अन्य उपपातक के रूप में परिगणित ( व्यक्ति ) भली-भांति तप करने के फलस्वरूप पापों से मुक्ति पा जाते हैं । २४० तप की शक्ति से कीड़े, सांप, पतंगे, पशु, पक्ष व वृक्ष भी स्वर्ग लाभ करने में समर्थ हो जाते हैं । २४१ मन, वाणी व शरीर से किए गए सभी पापों को तपस्वी व्यक्ति तप की अग्नि में भस्म कर देता है । २४२ तप से विशुद्ध हुए ब्राह्मणों के यज्ञ को ही देव स्वीकार करते हैं तथा उनकी कामनाओं को पूरा करते हैं । २४३ तप सेही प्रजापति ब्रह्मा ने इस शास्त्र का सृजन किया है तथा तप की शक्ति से ही ऋषियों ने वदों को पाया है । २४४ देवगण तप की विलक्षण शक्ति व उत्तम फल को देखते हुए इसकी महिमा का गान करते नहीं थकते और सदा मनुष्यों से अनुरोध करते हैं कि वे तप को अपनाएं । २४५ नित्य यथाशक्ति वेदों का स्वाध्याय, पंच महायज्ञों का अनुष्ठान व सहनशीलता बड़े-बड़े व भयंकर पापों से जनित संताप का भी विनाश कर देते हैं । २४६ वेद विद्या में कुशल व्यक्ति ज्ञान की अग्नि से सभी पापों को उसी प्रकार भस्म कर डालता है जैसे अग्नि अपने तेज से लकड़ियों के भार को क्षण भर में नष्ट कर डालती है । २४७ भृगु जी ने कहा - विप्रो ! यह मैंने पापों के विधिपूर्वक प्रायश्चित का विधान आपको बतलाया ।अब आप रहस्यों ( गुप्त पापों ) के प्रायश्चित के बारे में दत्तचित्त होकर सुनें । २४८ भ्रूण हत्या के दोष का निवारण एक माह प्रतिदिन प्रणव व व्याहृतियों के साथ सोलह बार प्राणायाम करने से हो जाता है । २४९ जो व्यक्ति मदिरापान के दोष से ग्रसित है वह कुत्स तथा वसिष्ठ ऋषियों द्वारा प्रणीत सूक्तों व ऋचाओं का जप करने से शुद्धि प्राप्त करता है । २५० ' अस्यवामीय ' ऋचा के बाद तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ऋचाओं के पाठ से स्वर्ण की चोरी करने वाला पाप मुक्त हो जाता है । २५१ जो व्यक्ति ' हविष्यान्तमजिरम् ' ऋचा सूक्त के पश्चात् पौरुष सूक्त अथवा ' न तममहीनम् ' सूक्त का जप करता है, वह गुरु पत्नी सहवास के पाप से मुक्त हो जाता है । २५२ जोमनुष्य छोटे-बड़े पापों से मुक्त होना चाहता है उसे लगातार एक वर्ष तक ' वरुण योनिः ' या ' यत्किंचेदवरुण देव्यै ' सूक्तों का जप करना चाहिए । २५३ यदि किसी ने प्रतिग्रह के अयोग्य दान दिया है या फिर निन्दनीय अन्न को ग्रहण किया है, तो वह तीन दिन तक ' तत्समन्दी धावति ' प्रभृति ऋचाओं के पाठ से शुद्ध हो जाता है । २५४ यदि व्यक्ति एक मास तक ' सोमारुद्रा धारये ', ' अर्यम्णामिति ' एवं ' स्रवत्यामोचरन् ' नाम के सूक्तों का अध्ययन करे तो भी वह अनेक पापों से शुद्ध हो जाता है । २५५ ' इंद्रमित्रम् वरुणमग्नि ' मंत्र का जप पापी मनुष्य को छः मास तक करना चाहिए । जल में जो क्रिया निषेध है, उसे करने वाले मनुष्य को एक मास तक भिक्षा के भोजन से जीवन व्यतीत करना चाहिए । २५६ जो ब्राह्मण एक वर्ष तक ' नमः कपर्दिने ' आदि शाकलहोत्रीय मंत्रों से अग्नि में घी की आहुति देता है और ' नमो मित्रस्य वरुणस्य ' ऋचा का जप करता है, वह गंभीर पापों से भी मुक्त हो जाता है । २५७ यदि मनुष्य एक वर्ष तक गायों को चराए व पवमानीय ऋचाओं का पाठ करे तथा भिक्षा से जीवन यापन करे तो वह बड़े से बड़े पापों से भी शुद्ध हो जाता है । २५८ वह प्राणी जो वन में इंद्रिय निग्रह करके रहता है और प्रतिदिन वेदमंत्रों का जाप करता है, मृत्यु के पश्चात् सभी छोटे व बड़े पापों से मुक्त हो शुद्ध हो जाता है । २५९ निरंतर तीन दिन-रात संयम व अनुशासन से उपवास करने, जल में खड़े होकर ' ऋतं च सत्यं च ' मंत्र का एवं अघमर्षण सूक्त का जप करने से भी प्राणी पापों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । २६० अघमर्षण सूक्त उसी प्रकार सभी पापों का विनाश करने वाला है, जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ सभी यज्ञों में श्रेष्ठ एवं सर्वपापमोचक है । २६१ चाहे प्राणी ने तीनों लोकों का नाश करने का पाप ही क्यों न किया हो या उसने कहीं से कुछ भी खाने का अपराध क्यों न किया हो, ऋग्वेद का पालन करने से वह सभी पापों से मुक्त व शुद्ध हो जाता है । २६२ जो व्यक्ति ऋक्, यजु व साम संहिता का उपनिषदों समेत एकचित्त हो तीन बार अध्ययन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । २६३ वेदों की तीन बार आवृत्ति करने से सभी पाप उसी प्रकार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं जैसे विशाल सरोवर में फेंका गया मिट्टी का ढेला तुरंत गल जाता है । २६४ मनुष्यों को ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद के अतिरिक्त अन्य विविध मंत्रों को जानना चाहिए । ये जीवों के लिए कल्याणकारक होते हैं । जो इन तीन वेदों को भली-भांति जानता है वही वेदवेत्ता कहलाता है । २६५ ' ओ३म् ' - यह तीन अक्षरों का शब्द, जो सभी वेद मंत्रों के आदि में प्रयोग किया जाता है, उसी में तीनों वेद प्रतिष्ठित हैं । जो व्यक्ति वेदों के इस गूढ़ रहस्य को जानता है वह ईश्वर व वेदों को ही नहीं जान लेता, वरन् स्वयं भी ब्रह्मा स्वरूप हो जाता है अर्थात् न तो वह दुष्काम अथवा पाप करता है और न ही शुद्धि की कामना । द्वादश अध्याय १ ऋषि ने कहा - हे पापरहित महर्षि भृगु ! अपने कृपापूर्वक हमें चारों वर्णों के धर्मों से अवगत कराया है । अब कृपया हमें कर्मों के विविध शुभ-अशुभ फलों व उनसे मुक्ति के उपायों के बारे में भी बतलाइए । २ मनु पुत्र धर्मात्मा भृगु जी ने महर्षियों के इस निवेदन का आदर करते हुए कहा, '' मैं आपको सम्पूर्ण कर्मयोग के निर्णय के विषय में विस्तारपूर्वक बतलाता हूं । '' ३ मनुष्य अपने मन, वाणी व शरीर से जो भी सुकर्म-दुष्कर्म करते हैं तदनुसार वे उत्तम, मध्यम व अधम योनियों को प्राप्त होते हैं । ४ मन, वाणी व शरीर - इन तीन साधनों से मनुष्य कर्म करता है और उसकी तीन गतियां होती हैं - उत्तम, मध्यम व अधम । ( ज्ञानेन्द्रिय व कर्मन्द्रिय के ) दस लक्षणों से युक्त मनुष्य का मन ही उसे शुभ-अशुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त करता है । ५ पराई धन-समपत्ति को हथियाने की चाह, दूसरे व्यक्ति के अनिष्ट की इच्छा औरपरलोक में विश्वास न करना - ये तीनों मन द्वारा किए जाने वाले पाप हैं । ६ निरर्थक प्रलाप, चुगली करना, झूठ बोलना व कठोर वचन - ये सभी वाणी से किए जाने वाले पाप हैं । ७ इस जगत में तीन प्रकार के शारीरिक पाप कर्म हैं - अन्याय से दूसरे व्यक्ति का धन हड़प लेना, शास्त्रों का उल्लंघन कर की गई हिंसा एवं परस्त्री के साथ सहवास । ८ मनुष्य को मन, वचन व शरीर द्वारा किए गए पाप कर्मों का फल क्रमशः मन, वाणी व देह से ही भोगना पड़ता है । ९ शरीर द्वारा किए गए पाप कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जड़ ( वृक्ष, लता, पौधे इत्यादि ) योनि में, वाणी द्वारा किए दोष कर्मों के परिणामस्वरूप पशु-पक्षियों की योनि में तथा मानस पाप कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य अछूत योनि को प्राप्त होता है । १० जो महानुभाव अपने विवेक द्वारा विचार कर वाणी, शरीर व मन को दृढ़ता से अनुशासित करते हैं उन्हें त्रिदण्डी कहा जाता है । ११ यदि मनुष्य सभी जीवों पर तीनों - मन, शरीर व वाणी - प्रकार के दण्डों का पालन करता है अर्थात् वह मन, वचन व शरीर से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता तथा काम व क्रोध पर संयम कर लेता है तो वह सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । १२ विवेकशील विद्वज्जनों द्वारा आत्मा को कर्म करने में प्रवृत्त करने वाले को क्षेत्रज्ञ व कर्म में प्रवृत्त होने वाले को भूतात्मा कहा गया है । १३ जीव वही है जो सभी प्राणियों में अंतरात्मा के रूप में रहता है और सभी जन्मों में मिलने वाले सुख-दुःखों को भोगता है । १४ महान व क्षेत्रज्ञ जो पृथ्वी आदि पंचभूतों से मिलकर बने हैं - ये भी सभी प्राणियों में वास करने वाले ईश्वर के ही संरक्षण में रहते हैं । १५ क्षेत्रज्ञ व भूतात्मा - इन दोनों से भिन्न व उत्तम पुरुष कोई और है जिसे ' परमात्मा ' कहा जाता है । वह सर्वसमर्थ, अनश्वर तीनों लोकों में स्थित तथा इस सृष्टि को धारण व उसका पालन करने वाला है । १६ पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश व जल - ईश्वर के शरीरभूत इन पंचतत्वों से उच्च व अधम योनियों में असंख्य शरीर जन्म लेते रहते हैं तथा उन्हें निरंतर कर्म में प्रवृत्त करते रहते हैं । १७ दुष्कर्म करने वाले मनुष्यों को अपने पाप कर्मों के फलस्वरूप कष्ट भोगने के लिए पंच तन्मात्राओं के जरिए दूसरे-तीसरे शरीर में पुनः जन्म लेना ही पड़ता है । १८ नए शरीर में अपने कर्मानुसार यमराज द्वारा ( उनके लिए ) जो कष्ट निर्धारित किए गए हैं उन्हें भोगकर पापात्मा फिर उन्हीं पंचतत्वों में विलीन हो जाता है । १९ निषेध विषयों के भोग से उत्पन्न दुःखों को भोगने के पश्चात् जीव पाप मुक्त हो जाता है व महान एवं क्षेत्रज्ञ को प्राप्त होता है । २० महान व क्षेत्रज्ञ द्वारा सदा निर्लिस भाव से जीवात्मा के पाप कर्मों को देखा जाता है । इन्हीं के जरिए जीव इस लोक में तथा परलोक में सुख की प्राप्ति करता है । २१ पाप की अपेक्षा पुण्य अधिक करने से जीव के पाप का पलड़ा हल्का हो जाता है अतः यह श्रेष्ठ पंचभूतों से युक्त हो स्वर्ग का सुख प्राप्त करता है । २२ किन्तु यदि जीव द्वारा पुण्य की तुलना में पाप अधिक किया गया है तो उसका धर्म हल्का हो जाता है । परिणामस्वरूप उत्तम पंचभूतों द्वारा उसका त्याग कर दिया जाता है और उसे यमराज के हाथों अनेक यातनाओं को सहना पड़ता है । २३ यम द्वारा दिए गए कष्टों व दुःखों के भोग से निष्कलुष अथवा शुद्ध हुआ जीव क्रमशः पुनः उन्हीं श्रेष्ठ पंचतत्वों को प्राप्त होता है । २४ अतः धर्म कार्यों द्वारा जीव की सदगति व दुष्कर्मों द्वारा उसकी दुर्दशा को जानकर मनुष्य को सदैव सत्कर्मों के प्रति प्रवृत्त होना चाहिए । २५ सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण - आत्मा की प्रकृति के तीन गुण हैं । यह विशाल स्थावर व जंगम रूप संसार इन तीन गुणों से व्याप्त होकर ही स्थित है । २६ सत्व, रज व तम - इन तीन गुणों में से प्राणी में जिस गुण की अधिकता पाई जाती है, वह उस गुण के लक्षणों से युक्त होता है । २७ ज्ञान के सत्य रूप को जानना सत्वगुण का, अज्ञान अर्थात् जानने योग्य सत्य को न जानना तमोगुण का एवं राग, द्वेष, मोह इत्यादि रजोगुण का लक्षण है । इन्हीं तीनों गुणों से सभी जीवों का शरीर व्यप्त है । २८ मनुष्य की आत्मा को जिस गुण से प्रसन्नता मिले, उसे शांति व निर्मल ज्योति का अनुभव हो व उसका आचरण करने की जिज्ञासा होने लगे - उसे ही सत्वगुण जानें । २९ आत्मा के लिए अप्रिय, दुःख से युक्त एवं मन को परमात्मा से विरक्त कर इन्द्रियों के विषय में लगाने वाले गुण को रजोगुण समझें । ३० जो जीव को मोह व अज्ञान में प्रवृत्त करे, अप्रकट रहस्यों की ओर आकर्षित करे तथा जिसे तर्क से न जाना जा सके उसे ही तमोगुण समझना चाहिए । ३१ इन तीन गुणों के क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम फलों के बारे में अब मैं आपको विस्तार से समझाता हूं । ३२ सत्वगुण के लक्षण हैं - वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, पवित्रता, अनुशासन, इंद्रियनिग्रह, धर्माचरण तथा आत्मा का चिन्तन । ३३ नवीन कार्यों को आरम्भ करने में रुचि, कर्मों के फल- प्राप्ति के लिए बेसब्री, निषिद्ध कर्मों को करने की प्रवृत्ति एवं विषयों का निरंतर भोग ये रजोगुण के चिह्न हैं । ३४ तमोगुण के लक्षण इस प्रकार हैं - लोभ, आलस्य, क्रूरता, अधैर्य, ईश्वर पर आस्था न होना, दुराचार, प्रमाद एवं याचनावृत्ति । ३५ सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण - इन तीनों में स्थित कर्मों के गुण लक्षण निम्नलिखित हैं । ३६ जो कार्य करते हुए एवं करने के पश्चात् तथा भविष्य में उसे करने के विचार से ही मनुष्य में लज्जा का भाव उत्पन्न हो, विद्वज्जनों द्वारा उसे तमोगुणी माना जाता है । ३७ जो कर्म करने से समाज में प्रचुर प्रसिद्धि प्राप्त हो व न करने से दुःख होता हो, उसे रजोगुणी कार्य मानें । ३८ यदि एक कार्य करने से उसके बारे में सभी को बताने की इच्छा हो, उसे करते हुए किसी प्रकार की लज्जा महसूस न हो तथा जिसे करने से आत्मा को संतोष एवं आनंद प्राप्त हो - वही सत्वगुणी कर्म होता है । ३९ काम-वासना को तमोगुण का, अर्थ की इच्छा रजोगुण का तथा धर्मभावना को सत्वगुण का लक्षण कहा गया है । तमोगुण की अपेक्षा रजोगुण एवं रजोगुण की अपेक्षा सत्वगुण उत्तम है । ४० अब मैं आपको उस गति के बारे में विस्तार से क्रमानुसार बतलाता हूं, जिसे मनुष्य इन तीनों गुणों के पालन से प्राप्त करता है । ४१ सत्वगुणी देवयोनि को, रजोगुणी मनुष्य योनि को तथा तमोगुणी पक्षी योनि को प्राप्त होते हैं । अतः तीन प्रकार के कर्मों के अनुसार जीव तीन तरह की गति को प्राप्त होता है । ४२ देश, काल एवं गुण आदि के भेद से तीनों गुणों के आधार पर जीव की तीन गतियां पुनः तीन प्रकार की होती हैं, उत्तम, मध्यम व अधम । ४३ तमोगुण के परिणामस्वरूप मिलने वाली निकृष्ट योनियां हैं, कीट, मत्स्य, वृक्षादि स्थावर, सर्प, कछुआ, पशु एवं शिकार किए जाने वाले मृगादि । ४४ रजोगुण के फलस्वरूप हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ, सिंह, व्याघ्र एवं सुअर जैसी योनियां मध्यम समझी जाती हैं । ४५ चापलूसी करने वाले, खुशामदी करने वाले, पक्षी, अंहकारी, राक्षस व पिशाच योनियां - तमोगुणी योनियों में उत्तम मनी गई हैं । ४६ रजोगुण की अधम योनियों के अंतर्गत झल्ल, मल्ल, नट शास्त्र से जीवन यापन करने वाले, जुए व मदिरा में लिप्त रहने वाले व्यक्ति माने जाते हैं । ४७ राजा, क्षत्रिय, राजा के पुरोहित, वाकपटु विद्वान एवं कुशल योद्धा राजसी गति की योनियां हैं । ४८ रजोगुण की श्रेष्ठ योनियों के जीव हैं गंधर्व, गुह्यक यक्ष, देवताओं के सेवक एवं अप्सराएं इत्यादि । ४९ सत्वगुण की अधम योनि के जीव इस प्रकार हैं, तपस्वी, संन्यासी, ब्राह्मण, विमानों में घूमने वाले देवगुण, नक्षत्र व दैत्य । ५० यज्ञ करने वाले, ऋषि, देवता, वेद, नक्षत्र, दिन पितर एवं साध्य गण सत्वगुण की द्वितीय अर्थ मध्यम गति की योनियां मानी जाती हैं । ५१ विद्वज्जनों द्वारा विश्व के रचयिता ब्रह्मा, धर्म, अव्यक्त प्रकृति तथा महत्तत्व को सत्वगुण की उत्तम गति कहा गया है । ५२ ये सब तीन गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कर्मों व तदनुसार सम्पूर्ण संसार में प्राणियों की तीन प्रकार क स्थितियों का विस्तृत वर्णन है । ५३ इंद्रियों के वशीभूत हो मूर्ख प्राणी धर्म की उपेक्षा कर देते हैं, जिसके फलस्वरूप अधम योनियों में जन्म लेकर कष्ट भोगते हैं । ५४ जीव को इस लोक में पाप-पुण्य कर्मानुसार जिस-जिस शुभाशुभ योनि में जन्म लेना पड़ता है, अब आप उसके बारे में एकचित्त होकर सुनें । ५५ जो प्राणी गंभीर एवं जघन्य पाप करते हैं वे अनेक वर्षों तक नरक की भीषण यातनाओं को झेलने के पश्चात् पाप कर्मों के फलों का क्षय हो जाने से पुनः इस संसार में उत्पन्न होते हैं । ५६ यदि किसी व्यक्ति पर ब्रह्मा हत्या का पाप है तो वह कुत्ते, सुअस, गधे, बैल, ऊंट, बकरे, भेड़, पशु, पक्षी, चाण्डाल व अन्त्यज योनि को प्राप्त होता है । ५७ जो ब्राह्मण मदिरापान करता है वह कीट-पतंगों, विष्ठा खाने वाले कौए जैसे पक्षियों व हिंसक पशुओं की योनि में जन्म लेता है । ५८ यदि कोई ब्राह्मण चोरी करता है तो वह सहस्र बार सर्प, मकड़ी, गिरगिट, जल में रहने वाले मगरमच्छ आदि जीवों एवं जीव हत्या करने वाले पिशाचों की योनि को प्राप्त होता है । ५९ अपने गुरु की पत्नी से सहवास करने वाला पापी व्यक्ति सैंकड़ों बार घास-फूस, लता एवं मांसाहारी दाढ़ों वाले जानवरों तथा क्रूर राक्षसों की योनि में उत्पन्न होता है । ६० यदि प्राणी पर जीव हत्या का पाप है तो वह मांसभक्षी जीवों, अभक्ष्य खाने वाले कीड़े-मकोड़ों, चोर एवं एक-दूसरे का भक्षण करने वाले भयंकर जीवों की योनि को प्राप्त होता है । चाण्डाल की स्त्री का गमन करने वाला मृत्यु उपरांत चाण्डाल के रूप में जन्म लेता है । ६१ धर्म से भ्रष्ट लोगों की संगत में रहने वाला, परस्त्री गमन व ब्राह्मण के धन को हड़पने वाला मृत्यु के पश्चात् ब्रह्म राक्षस की योनि को प्राप्त होता है । ६२ यदि व्यक्ति लालच के कारण मोती, मणि, मूंगा एवं अन्य विविध प्रकार के रत्नों की चोरी करने का दुष्कर्म करता है तो वह होम में बलि दिए जाने वाले जीवों की योनि में उत्पन्न होता है । ६३ अन्न, जल, कांसय, मधु, दुग्ध, रस व घी चुराने वाला व्यक्ति क्रमशः चूहे हंस, मेंढक, मक्खी, कौवे, कुत्ते और नेवले की योनि को प्राप्त होता है । ६४ जो व्यक्ति मांस, वसा, तेल, नमक एवं दही चुराने का पाप करता है वह क्रमशः गिद्ध, जलकौआ, तेल पीने वाले पक्षी, झींगुर व बलाका पक्षी की योनि को प्राप्त होता है । ६५ जो मनुष्य रेशमी कपड़े, अलसी ( मूल्यवान रेशम ) के वस्त्र, सूती कपड़े, गाय तथा गुड़ चुराता है वह क्रमशः तीतर, मेंढक, सारस, गोधा और वाग्गुद पक्षी की योनि में पैदा होता है । ६६ इत्रादि सुगन्धि पदार्थ, सब्जियां, पका अन्न व कच्चे अन्न को चुराने वाला व्यक्ति क्रमशः छुछुन्दर, मोर, गीदड़, और शल्यक की योनि में जन्म पाता है । ६७ यदि किसी व्यक्ति पर अग्नि को चुराने, घर में कूटने-पीसने का समान, रंगीन वस्त्रों की चोरी का पाप है तो वह क्रमशः बगुले, मकड़ी और चकोर की योनि में उत्पन्न होता है । ६८ जो व्यक्ति हिरण व हाथी, घोड़े, कंदमूल, स्त्री, पेयजल, रथ, नावादि तथा पशुओं को चुराता है, उसे क्रमशः भेड़िए, वायघ्र, वानर, रीछ, चातक, ऊंट एवं बकरे की योनि में जन्म लेना पड़ता है । ६९ यदि व्यक्ति बलपूर्वक दूसरे का धन हर लेता है और देवों को हवि अर्पित किए बिना ही भोजन ग्रहण करता है तो वह अवश्य ही पक्षी योनि को प्राप्त होता है । ७० स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही इन दोषों के अनुसार उपरिलिखित दण्डों को भोगना पड़ता है । स्त्रियां इन जंतुओं की मादा के रूप में पैदा होती हैं । ७१ सामान्य परिस्थितियों में चोरों वर्णों के लोग अपने धर्मोचित व आचरण योग्य कर्मों के परित्याग से न केवल तुच्छ योनियों में जन्म लेते हैं बल्कि उन्हें शत्रुओं की दासता भी झेलनी पड़ती है । ७२,७३ जो ब्राह्मण अपने धर्मोचित कर्म से भ्रष्ट होता है वह मरणोपरांत वमन का भोजन करने वाले प्राणी की योनि को प्राप्त होता है । आचरण योग्य कर्म का परित्याग करने वाला क्षत्रिय शव व पुरीष को खाने वाले कटपूतन नाम के प्राणी की योनि में, पीब का भक्षण करने वाले मैत्राक्षज्योतिक नामक प्राणी की योनि में कर्मच्युत वैश्य एवं वस्त्रों की जूं का भोजन करने वाले चैलाशक जीव की योनि में कर्मों से भ्रष्ट शूद्र पैदा होता है । ७४,७५ जैसे-जैसे प्राणी विषयों का भोग करता है, उसे उनमें सुख प्राप्त होने लगता है और धीरे-धीरे वह विषयों में आसक्त हो जाता है । परिणामस्वरूप वह इन पाप कर्मों को करके विविध योनियों में पैदा होकर कष्टों का भागी होता है । ७६,७७ तामिस्र-अन्धतामिस्र आदि नरकों में गिरकर पापी व्यक्ति बहुत से कष्ट भोगते हैं तो कभी शरीर को भेदने वाले असिपत्रवन जैसे नरकों की पीड़ा को । जीव द्वारा कौए-उल्लू द्वारा नोचे जाने तथा तपती हुई बालू में तपाया जाने जैसे अनेक प्रकार के असह्य कष्टों को भोगने पड़ता है । ७८,७९ इस संसार में नित्य ही पापी जीव तुच्छ एवं कष्टकर योनियों में पैदा होते हैं । भयंकर शीत व आतप आदि के दुःख भोगते हैं और अनेक प्रकार के भय उनका पीछा करते रहते हैं । ८०,८१ पाप कर्म करने वाले को जीवन में अपने प्रियजनों का विरह, बुरी संगति, धनार्जन में बाधाएं, कमाए हुए धन का खत्म होना, मित्रों की हानि एवं शत्रुओं की संख्या अधिक होना आदि कष्टों को भोगना पड़ता है । अपरिहार्य वृद्धावस्था और गंभीर रोगों के कष्ट से दुष्ट लोगों को अधिक गुजरना पड़ता है । इस प्रकार उनका सारा जीवन दुःख व कष्ट झेलते हुए ही व्यतीत हो जाता है । अंततः वे मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं । ८२ इस प्रकार सात्विक, राजसी अथवा तामसी - जिस भी भाव से जो-जो कर्म किए जाते हैं उन्हीं के अनुसार प्राणी सुख एवं दुःख पाता है । ८३ यह कर्मों के फलों के सम्बन्ध में समुचित जानकारी है । अब मैं आपको ब्राह्मण के लिए कल्याणकारी धर्म व आचरण के बारे में बताता हूं । ८४ छः कर्म परम कल्याणकारी माने जाते हैं । ये इस प्रकार हैं - वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-निग्रह, अहिंसा एवं गुरु सेवा । ८५ ब्राह्मण के लिए अपेक्षाकृत अधिक कल्याणकारी कर्म इन सभी शुभ कार्यों में से कौन-सा है - यह मैं अब बतलाता हूं । ८६,८७ उपरिलिखित सभी कार्यों में आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है । यह सभी विद्याओं एवं तत्वों से उत्कृष्ट इसलिए है क्योंकि इससे मोक्ष प्राप्त होता है । वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-निग्रह, अहिंसा व गुरु सेवा - इन छः कर्मों में वेदाभ्यास ही इहलोक एवं परलोक में कल्याणकारी है । ८८ वेदों के ज्ञान से सभी कर्म स्वतः सिद्ध हो जाते हैं अर्थात् वैदिक कर्मयोग में ही ज्ञानादि सारे कार्य निहित हैं । ८९ इस संसार में निरंतर सुख की वृद्धि करने वाला तथा परलोक में मोक्ष प्रदान करने वाला धर्ममूलक वैदिक कर्म दो प्रकार का माना जाता है - प्रवृत्ति व निवृत्ति । ९० वह कर्म जो इस लोक एवं परलोक में सुख प्राप्ति की इच्छा से किया जाता है वह प्रवृत्तिमूलक होता है । निष्काम ज्ञान अर्थात् सभी कामनाओं एवं स्वार्थ से रहित ज्ञान ही निवृत्तिमूलक कहा गया है । ९१ मनुष्य यदि प्रवृत्तिमूलक कर्मों को करता है तो वह देवताओं के समान हो जाता है अर्थात् वह एक निश्चित समय के लिए दिव्य सुखों को प्राप्त करता है लेकिन निवृत्तिमूलक कर्म को करने के फलस्वरूप वह पंचभूत तत्वों से परे जाकर जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष प्राप्त करता है । ९२ आत्मा को सभी प्राणियों में व्याप्त, आत्मा में सभी प्राणियों को देखना व संसार के सभी प्राणियों को समान रूप से देखना आत्म यज्ञ कहलाता है । इसी आत्म यज्ञ का पालन करने वाले को ही मोक्ष प्राप्त होता है । ९३ जो कर्म उसके वर्णधर्मानुकूल कहे गए हैं, उन्हें त्यज कर भी यदि ब्राह्मण आत्मज्ञान व इंद्रियों के संयम द्वारा वेदाभ्यास में चित्त लगाता है तो वह ब्राह्मण भी श्रेष्ठ व उत्तम हो जाता है । ९४ उसी ब्राह्मण विशेष का जीवन सफल है जो अपने चित्त को इस प्रकार वश में कर लेता है, अन्य का नहीं । ९५ वेद पितरों, देवों व मनुष्यों के सनातन नेत्र हैं । वेदों का ज्ञान अप्रमेय है । हमारी परम्परा में वेदशास्त्रों की यही अनिवार्य उपस्थिति है जिसकी पूर्ति अन्य ग्रंथ नहीं कर सकते । ९६ स्मृति आदि शास्त्र यदि वेद विरोधि हैं तो वे भ्रमित करने वाले एवं अंधकार की ओर ले जाने वाले हैं । इसलिए उनका अध्ययन निष्फल व व्यर्थ हो जाता है । ९७ वेदेतर ग्रंथों की उत्पत्ति व नाश होता रहता है । आधुनिक काल में रचे जाने के कारण वे पूर्ण सत्य नहीं हैं तथा निष्फल भी हैं । वेद ही सत्य के एकमात्र साक्षी हैं । ९८ वेदों पर ही चारों वर्णों, तीन लोकों, चार आश्रमों और भूत, वर्तमान एवं भविष्य - समय के तीन कालों की स्थिति आधारित है । ९९ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध - इन पांच विषयों की तथा ज्ञानेन्द्रियों की अनुभूति भी वेदों के ज्ञान के माध्यम से ही होती है । १०० सभी प्राणियों का धारण व उनका भरण-पोषण सनातन वेद ही करता है । चूंकि वेद सभी जीवों के कल्याण का परम साधन है अतः मैं उसे परम तत्व समझता हूं । १०१ जो व्यक्ति वेदों को भली-भांति जानता है वही सेनापति, राजा, दण्डनायक तथा शासन के अन्य सभी पदों पर आसीन होने का उचित अधिकारी है । १०२ प्रबल रूप से प्रज्वलित अग्नि जिस प्रकार गीले पेड़ों को भी भस्म कर डालती है, उसी प्रकार वेदों का ज्ञाता व्यक्ति कर्मों से पैदा होने वाली त्रुटियों व दोषों को भी जला देता है । १०३ वह व्यक्ति जो वेदों के मर्म को भली-भांति जानता है, वह चाहे किसी भी आश्रम में जीवन व्यतीत करे, इसी लोक में ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाता है । १०४ ग्रंथों का अध्ययन करने वाले अशिक्षितों से श्रेष्ठ होते हैं, ग्रंथों का अर्थ समझने वाले व्यक्ति उन लोगों से श्रेष्ठ होते हैं, जो केवल ग्रंथों को पढ़ते हैं, ग्रंथों के तत्व को समझने वाले व्यक्ति और वेदों के अनुसार अपने जीवन को वहन करने वाले व्यवसायी ज्ञानियों से श्रेष्ठ होते हैं । १०५ ब्राह्मण का परम कल्याण करने वाले मुख्य दो साधन हैं - तप एवं विद्या । तप से पापों का नाश होता है और विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है । १०६ धर्म के मर्मम को जानने के इच्छुक व्यक्ति को प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्दविविध शास्त्र - इन तीनों को भली-भांति जान लेना चाहिए । १०७ ऋषि-मुनियों द्वारा दिए गए धर्मोपदेश के समान ही वेदों में तर्क ढूंढ़ने वाला धर्म के अर्थ को समझ पाता है, अन्य नहीं । १०८ जो सभी कार्य कल्याण हेतु किए जाने चाहिए उनका विस्तृत परिचय मैंने आपको दिया । अब मैं मनु स्मृति के रहस्य की व्याख्या करूंगा । १०९ यदि वेदों में किसी धर्म अथवा आचरण योग्य नियम की व्याख्या विद्यमान नहीं है तो ऐसी स्थिति में विद्वान एवं शिष्ट ब्राह्मण जो परामर्श दें उसी का शंका रहित हो आचरण करना चाहिए । ११० जिन्होंने छः अंगों समेत सभी वेदों का अध्ययन किया है और इस प्रकार वेदों से साक्षात् किया है, वे ही शिष्ट ब्राह्मण हैं । उनके वचनों का निश्शंक होकर आचरण करना चाहिए । १११ जो दस उत्तम ब्राह्मण या तीन विद्वान अधिकारियों के अनुसार धर्म कहा जाए - उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए । ११२ तीनों वेदों के ज्ञाता, वेदशास्त्रों में व्याख्यायित न्याय शास्त्र के पंड़ित, तर्कशास्त्री, निरुक्त के विद्वान, धर्मशास्त्र के पंडित और संन्यास से पहले ब्रह्मचारी, गृहस्थ व वानप्रस्थ - इन सभी के समुदाय को सभा कहा जाता है । ११३ धर्म के विषय में यदि संशय हो तो उसके निर्णय हेतु तीनों वेदों के ज्ञाता विद्वज्जनों को संयुक्त रूप से सभा मान लेना चाहिए । ११४ एक वेद ज्ञाता ब्राह्मण का कथन सहस्रों मूर्खों के कथन की अपेक्षा उत्तम होता है । ऐसे ब्राह्मण के कथन को परम धर्म मान स्वीकार कर लेना चाहिए । ११५ केवल जाति से ही स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले, व्रत भ्रष्ट एवं मंत्रज्ञान के बारे में कुछ न जानने वाले हजारों लोग भी एकस्वर होकर जो मत व्यक्त करते हैं, उसे धर्म न समझें । ११६ यदि अंधकार ( अंधकार अर्थात् अज्ञान ) में पड़े मूर्ख व्यक्ति पाप कर्म को धर्म कहते हैं तो वह पाप सौ गुना होकर बोलने वाले को लगता है । ११७ तप के धनी ऋषियो ! मैंने आपको परम कल्याण देने वाला संम्पूर्ण उपाय बताया है । इसका पालन कर मानव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ११८ इस भांति लोकहित की कामना से भगवान मनु ने मुझे परम गोपनीय धर्म का उपदेश प्रदान किया । ११९ सावधान चित्त से सभी सत् तथा असत् को अपने अंदर ही देखें । इस तरह जो अपनी आत्मा में ही सब कुछ देखता है उसका मन कभी अधर्म में नहीं लगता । १२० समस्त देवता आत्मा में ही हैं, सब कुछ आत्मा में ही पूरी तरह स्थित है । आत्मा ही शरीरधारी जीवों को कर्म योग द्वारा उत्पन्न करता है । १२१ शारीरिक आकाश में बाहरके आकाश को, स्पर्श और चेष्टा करने में वायु को, उदर की भोजन पचाने वाली अग्नि तथा नेत्रों में परमतेज को, स्नेह में पानी ( जल ) को एवं शारीरिक पार्थिव तत्व में बाह्म पृथ्वी को सन्निविष्ट करना चाहिए । विशेष - इसे अनेक टीकाकार ब्रह्म ध्यान की एक विधि बताते हैं जिसमें साधक सभी पंचमहाभूतों ( आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ) का ध्यान अपने अंदर ही करते हुए ब्रह्म में लीन होने की साधना करते हैं । १२२,१२३ मन में चंद्र को, कानों में दिशाओं को, पैरों में विष्णु को, शक्ति में शिव को, वचनों या वाणी में अग्नि को, गुदा में सूर्य को, शिश्न में प्रजापति को लीन हुआ अनुभव करते हुए एकत्व की भावना करें । कल्पन्तित परम पुरुष परमात्मा को, जो सबका नियन्ता है जो अणु से भी सूक्ष्म परमाणु अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और स्वर्ण के समान दीप्तमान है, उसका ध्यान स्वप्न बुद्धि से करना चाहिए । यहां स्वप्न बुद्धि से आशय मनोमस्तिष्क की उस ध्यानपूर्ण स्थिति से है जब उसमें केवल साक्षी भाव रह जाता है जैसा कि स्वप्न में होता है । १२४ परमशक्ति परमात्मा को ही कुछ विद्वान अग्नि, कुछ लोग मनु और अन्य जन इन्द्र या प्राण तत्व कहते हैं । १२५ यही आत्मा पंचमहाभूतों के रूप में सभी जीवों के शरीरों में रहते हुए जन्म, विकास और क्षरण की क्रियाओं द्वारा संसार को चक्रवत् निरंतर घुमाता रहता है । १२६ सभी जीवों में आत्मा और परमात्मा को देखने वाला इस भांति समगद्रष्टा बनकर परमपद ब्रह्म अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । १२७ ऋषियों को भृगु जी द्वारा सुनाई इस मनु स्मृति को पढ़ने वाला द्विज ( ब्राह्मण ) आचारशील बन जाता है जिसके फलस्वरूप वह गति अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है ।